Yajurvedic Mantra Sudha (यजुर्वेदीय मन्त्रसुधा)

यजुर्वेदीय मन्त्रसुधा (Yajurvedic Mantra Sudha) हे व्रतरक्षक अग्नि ! मैं सत्यव्रती होना चाहता हूँ। मैं इस व्रत को कर सकूं। मेरा व्रत सिद्ध हो। मैं असत्य को त्याग करके सत्य को स्वीकार करता हूँ। व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते ॥ यजुर्वेद १९।३० व्रत से दीक्षा की प्राप्ति होती है और दीक्षा से दाक्षिण्य की, दाक्षिण्य से श्रद्धा उपलब्ध होती है और श्रद्धा से सत्य की उपलब्धि होती हैं। अग्ने नय सुपथा राये अस्माविश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥ यजुर्वेद ५।३६ हे अग्नि! हमें आत्मोत्कर्ष के लिये सन्मार्ग में प्रवृत्त कीजिये। आप हमारे सभी कर्मों को जानते हैं। कुटिलतापूर्ण पापाचरण से हमारी रक्षा कीजिये। हम आपको बार-बार प्रणाम करते हैं। दूते दृछह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्। मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ॥ यजुर्वेद ३६।१८ मेरी दृष्टि को दृढ़ कीजिये; सभी प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें; मैं भी सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूं; हम परस्पर एक-दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखें। सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः। कृष्ण यजुर्वेदीय शान्तिपाठ हम दोनों साथ-साथ रक्षा करें, एक साथ मिलकर पालन-पोषण करें, साथ-ही-साथ शक्ति प्राप्त करें। हमारा अध्ययन तेज से परिपूर्ण हो। हम कभी परस्पर विद्वेष न करें। हे ईश्वर! हमारे आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक-त्रिविध तापों की निवृत्ति हो। स्योना पृथिवि नो भवानृक्षरा निवेशनी। यच्छा नः शर्म सप्रथाः। अप नः शोशुचदघम् ॥ यजुर्वेद ३५।२१ हे पृथ्वी! सुखपूर्वक बैठने योग्य होकर तुम हमारे लिये शुभ हो, हमें कल्याण प्रदान करो। हमारा पाप विनष्ट हो जाय। यन्मे छिद्रं चक्षुषो हृदयस्य मनसो वातितृण्णं बृहस्पति तद्दद्धातु। शं नो भवतु भुवनस्य यस्पतिः ॥ यजुर्वेद ३६।२ जो मेरे चक्षु और हृदय का दोष हो अथवा जो मेरे मन की बड़ी त्रुटि हो, बृहस्पति उसको दूर करें। जो इस विश्व का स्वामी है, वह हमारे लिये कल्याणकारक हो। भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ यजुर्वेद ३६।३ सत्, चित्, आनन्द स्वरूप और जगत के सृष्टा ईश्वर के सर्वोत्कृष्ट तेज का हम ध्यान करते हैं। वे हमारी बुद्धि को शुभ प्रेरणा दें। द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्व देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सो मा शान्तिरेधि ॥ यजुर्वेद ३६।१७ द्युलोक शान्त हो; अन्तरिक्ष शान्त हो, पृथ्वी शान्त हो, जल शान्त हो, औषधियाँ शान्त हों, वनस्पतियाँ शान्त हों, समस्त देवता शान्त हों, ब्रह्म शान्त हों, सब कुछ शान्त हो, शान्ति ही शान्ति हो और मेरी वह शान्ति निरन्तर बनी रहे। यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु। शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः ॥ यजुर्वेद ३६।२२ जहाँ-जहाँ से आवश्यक हो, वहाँ-वहाँ से ही हमें अभय प्रदान करो। हमारी प्रजा के लिये कल्याणकारक हो और हमारे पशुओं को भी अभय प्रदान करो। तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात् ॥ यजुर्वेद ३६।२४ ज्ञानी पुरुषों का कल्याण करने वाला, तेजस्वी ज्ञान-चक्षु-रूपी सूर्य सामने उदित हो रहा है, उसकी शक्ति से हम सौ वर्ष तक देखें, सौ वर्ष का जीवन जियें, सौ वर्ष तक सुनते रहें, सौ वर्ष तक बोलें, सौ वर्ष तक दैन्यरहित होकर रहें और सौ वर्ष से भी अधिक जियें।

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