ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ८

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ८ ऋषि - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता- इन्द्र । छंद- गायत्री एन्द्र सानसिं रयिं सजित्वानं सदासहम् । वर्षिष्ठमूतये भर ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! आप हमारे जीवन संरक्षण के लिये तथा शत्रुओं को पराभूत करने के निमित्त हमें ऐश्वर्य स पूर्ण करें ॥१॥ नि येन मुष्टिहत्यया नि वृत्रा रुणधामहै । त्वोतासो न्यर्वता ॥२॥ उस ऐश्वर्य के प्रभाव और आपके द्वारा रक्षित अश्वों के सहयोग से हम मुक्के का प्रहार करके (शक्ति प्रयोग द्वारा) शत्रुओं को भगा दें ॥२॥ इन्द्र त्वोतास आ वयं वज्र घना ददीमहि । जयेम सं युधि स्पृधः ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित होकर तीक्ष्ण वज्रों को धारण कर हम युद्ध में स्पर्धा करने वाले शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें ॥३॥ वयं शूरेभिरस्तृभिरिन्द्र त्वया युजा वयम् । सासह्याम पृतन्यतः ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित कुशल शस्त्र-चालक वीरों के साथ हम अपने शत्रुओं को पराजित करें ॥४॥ महाँ इन्द्रः परश्च नु महित्वमस्तु वज्रिणे । द्यौर्न प्रथिना शवः ॥५॥ हमारे इन्द्रदेव श्रेष्ठ और महान् हैं। वज्रधारी इन्द्रदेव का यश द्युलोक के समान व्यापक होकर फैले तथा इनके बल की प्रशंसा चतुर्दिक् हो॥५॥ समोहे वा य आशत नरस्तोकस्य सनितौ । विप्रासो वा धियायवः ॥६॥ जो संग्राम में जुटते हैं, जो पुत्र के निर्माण में जुटते हैं और बुद्धिपूर्वक ज्ञान-प्राप्ति के लिए यत्न करते हैं, वे सब इन्द्रदेव की स्तुति से इष्टफल पाते हैं॥६॥ यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्र इव पिन्वते । उर्वीरापो न काकुदः ॥७॥ अत्यधिक सोमपान करने वाले इन्द्रदेव का उदर समुद्र की तरह विशाल हो जाता है। वह (सोमरस) जीभ से प्रवाहित होने वाले रसों की तरह सतत द्रवित होता रहता है। (सदा आई बनाये रहता है ।) ॥७॥ एवा ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही । पक्का शाखा न दाशुषे ॥८॥ इन्द्रदेव की अति मधुर और सत्यवाणी उसी प्रकार सुख देती है, जिस प्रकार गो धन के दाता और पके फल वाली शाखाओं से युक्त वृक्ष यजमानों (हविदाता) को सुख देते हैं॥८॥ एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्द्र मावते । सद्यश्चित्सन्ति दाशुषे ॥९॥ हे इन्द्रदेव ! हमारे लिये इष्टदात्री और संरक्षण प्रदान करने वाली जो आपकी विभूतियाँ हैं, वे सभी दान देने (श्रेष्ठ कार्य में नियोजन करने वालों को भी तत्काल प्राप्त होती हैं॥९॥ एवा ह्यस्य काम्या स्तोम उक्थं च शंस्या । इन्द्राय सोमपीतये ॥१०॥ दाता की स्तुतियाँ और उक्थ वचन अति मनोरम एवं प्रशंसनीय हैं। ये सब सोमपान करने वाले इन्द्रदेव के लिये हैं॥१०॥

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