ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ६ ऋषि - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता- १-३ इन्द्र, ४,६,८,९- मरुतः, ५,७- मरुत इन्द्रश्च, १० इन्द्र । छंद- गायत्री युज्ञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः । रोचन्ते रोचना दिवि ॥१॥ वह इन्द्रदेव द्युलोक में आदित्य रूप में, भूमि पर अहिंसक अग्नि रूप में, अन्तरिक्ष में सर्वत्र प्रसरणशील वायु रूप में उपस्थित हैं। उन्हें उक्त तीनों लोकों के प्राणी अपने कार्यों में देवत्वरूप से सम्बद्ध मानते हैं । द्युलोक में प्रकाशित होने वाले नक्षत्र-ग्रह आदि इन्द्रदेव के ही स्वरूपांश हैं। अर्थात् तीनों लोकों की प्रकाशमयी - प्राणमयी शक्तियों के वे ही एक मात्र संगठक हैं । ॥१॥ युज्ञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे । शोणा धृष्णू नृवाहसा ॥२॥ इन्द्रदेव के रथ में दोनों ओर रक्तवर्ण, संघर्षशील, मनुष्यों को गति देने वाले दो घोड़े नियोजित रहते हैं॥२॥ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे । समुषद्भिरजायथाः ॥३॥ है मनुष्यो ! तुम रात्रि में निद्राभिभूत होकर, संज्ञा शून्य निश्चेष्ट होकरे, प्रातः पुनः सचेत एवं सचेष्ट होकर मानों प्रतिदिन नवजीवन प्राप्त करते हो । (प्रति-दिन जन्म लेते हो) ॥३॥ आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे । दधाना नाम यज्ञियम् ॥४॥ यज्ञीय नाम वाले, धारण करने में समर्थ मरुत् वास्तव में अन्न की (वृद्धि की) कामना से बार-बार (मेघ आदि) गर्भ को प्राप्त होते हैं ॥४॥ वीळु चिदारुजलुभिर्गुहा चिदिन्द्र वह्निभिः । अविन्द उस्रिया अनु ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! सुदृढ़ किले बन्दी को ध्वस्त करने में समर्थ, तेजस्वी मरुद्गणों के सहयोग से आपने गुफा में अवरुद्ध गौओं (किरणों) को खोजकर प्राप्त किया ॥५॥ देवयन्तो यथा मतिमच्छा विदद्वसुं गिरः । महामनूषत श्रुतम् ॥६॥ देवत्व प्राप्ति की कामना वाले ज्ञानी ऋत्विज्, महान् यशस्वी, ऐश्वर्यवान् वीर मरुद्गणों की बुद्धिपूर्वक स्तुति करते हैं॥६॥ इन्द्रेण सं हि दृक्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा । मन्दू समानवर्चसा ॥७॥ सदा प्रसन्न रहने वाले, समान तेज वाले मरुद्गण निर्भय रहने वाले इन्द्रदेव के साथ (संगठित हुए) अच्छे लगते हैं॥७॥ अनवद्यैरभिद्युभिर्मखः सहस्वदर्चति । गणैरिन्द्रस्य काम्यैः ॥८॥ इस यज्ञ में निर्दोष, दीप्तिमान्, इष्ट प्रदायक, सामर्थ्यवान् मरुद्गणों के साथी इन्द्रदेव के सामर्थ्य की पूजा की जाती है॥८॥ अतः परिज्मन्ना गहि दिवो वा रोचनादधि । समस्मिन्नृञ्जते गिरः ॥९॥ हे सर्वत्र गमनशील मरुद्गणो ! आप अन्तरिक्ष से, आकाश से अथवा प्रकाशमान द्युलोक से यहाँ पर आयें, क्योंकि इस यज्ञ में हमारी वाणियाँ आपकी स्तुति कर रहीं हैं॥९॥ इतो वा सातिमीमहे दिवो वा पार्थिवादधि । इन्द्रं महो वा रजसः ॥१०॥ इस पृथ्वी लोक, अन्तरिक्ष लोक अथवा द्युलोक से - कहीं से भी प्रभूत धन प्राप्त कराने के लिये, हम इन्द्रदेव की प्रार्थना करते हैं॥१०॥

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