Shri Vishnu Smriti Chapter 3 (श्री विष्णु स्मृतिः तीसरा अध्याय)

तृतीयोऽध्यायः तीसरा अध्याय गृहस्थो ब्रह्मचारी वा वनवासं यदा चरेत् ।। चीरवल्कलधारी स्थादकृष्टान्नाशनो मुनिः ॥१॥ गृहस्थी, अथवा ब्रह्मचारी जिस समय वन में निवास करे तब चीर अथवा वल्कल इनको धारण करे; और अकृष्टान्न अर्थात जो बिना जोते और बोये पैदा हो उस अन्न का भक्षण करे और मौन होकर रहे ॥१॥ गत्वा च विजनं स्थानं पंचयज्ञान हापयेत् ॥ अग्निहोत्रं च जुहुयादन्ननीवारकादिभिः ॥२॥ अथवा निर्जन स्थानमें जाकर भी पंच यज्ञों का परित्याग न करे; अन्न अथवा नीवार आर्थत पसाई के चावल आदि से अग्निहोत्र भी करे ॥२॥ श्रवणेनामिमाधाय ब्रह्मचारी वने स्थितः ॥ पंचयज्ञविधानेन यज्ञं कुर्यादतंद्रितः ॥३॥ और श्रावण के महीने में अग्नि का आधानकर ब्रह्मचारी वन में रहता हुआ पंचयज्ञकी विधि से आलस्यरहित होकर यज्ञ करे ॥ ३॥ संचितं तु यदारण्यं भक्तार्थ विधिवद्वने ॥ त्यजेदाश्वयुजे मासि वन्यमन्यत्समाहरेत् ॥४॥ जो अपने भोजन के लिये वन का अन्न इकट्ठा किया है उसको क्वार के महीने में दानकर दे, और नये वन के अन्न का संग्रहण करे ॥४॥ आकाशशायी वर्षासु हेमंते च जलाशयः ॥ ग्रीष्मे पंचाग्निमध्यस्थो भवेनित्यं वने वसन् ॥ ५ ॥ वर्षाऋतु में खुले ऊँचे स्थान में; सर्दियों में जल में शयन करे, ग्रीष्मऋतु में पंचाग्नि के मध्य में बैठकर वन में वास करता हुआ मनुष्य सर्वदा रहे ॥५॥ कृच्छ्र चांदायणं चैव तुलापुरुषमेव च ॥ अतिकृच्छं प्रकुर्वीत त्यक्त्वा कामाञ्छविस्ततः ॥६॥ और कृच्छ्र, चांद्रायण, तुलापुरुष, अतिकृच्छ, इन व्रतों को निष्काम होकर शुद्धता से करे ॥६॥ त्रिसंध्यं स्नानमातिष्ठेत्सहिष्णुर्भूतजान्गुणान् । पूजयेदतिथींश्चैव ब्रह्मचारी वनं गतः ॥७॥ और पांचों भूतों के गुणों अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध को सहता हुआ त्रिकाल स्नान करे; वन में प्राप्त हुआ ब्रह्मचारी पुरुष अतिथियों का पूजन करे ॥ ७॥ प्रतिग्रहं न गृहीयात्परेषां किंचिदात्मवान् ॥ दाताचैव भवेन्नित्यं श्रदधानः भियंवदः ॥८॥ और दान किसीसे न ले केवल आत्मा को ही जानता रहे, श्रद्धावान् और प्रियभाषी होकर प्रतिदिन यथाशक्ति दान दे ॥८॥ रात्रौ स्थण्डिलशायी स्यात्प्रपदैस्तु दिनं क्षिपेत् ॥ ं वीरासनेन तिष्ठेद्वा क्लेशमात्मन्यचिंतयन् ॥९॥ रात्रि में स्वयं बनाये चबूतरेपर शयन करें और पैरो से चलते हुए सारा दिन व्यतीत करे अथवा अपने मन में किंचित् भी क्लेश न करता हुआ वीरासन से बैठा रहे ॥९॥ केशरोमनखश्मशून्न छिंद्यानापि कर्तयेत् ॥ त्यजञ्छरीरसौहाई वनवासरतः शुचिः ॥१०॥ और केश, रोम, नख, दाढी इनको न कटवाए और न ही इनका छेदन करे। वनवास में तत्पर शुद्ध अपने शरीरकी प्रीति को छोड दे अर्थात् अपने शरीर से किंचित भी प्रेम न करें और अपने पूर्वोक्त कर्मा को करता रहे ॥१०॥ चतुःप्रकारं भियंते मुनयः शंसितव्रताः ॥ अनुष्ठानविशेषेण श्रेयांस्तेषां परः परः ॥ ११॥ इस व्रतके करने वाले मुनि चार प्रकार के होतेहैं, यह व्रत अत्यंत कठिन है, अनुष्ठान की विशेषता से उनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होता है ॥ ११॥ वार्षिकं वन्यमाहारमाहत्य विधिपूर्वकम् । वनस्थधर्ममातिष्ठन्नयेत्कालं जितेन्द्रियः ॥१२॥ प्रथम साल भरके लिये विधिपूर्वक वन के आहार को संग्रह कर वानप्रस्थों के धर्म में स्थित आलस्यको छोड और इन्द्रियों को जीतकर जो समय को व्यतीत करता है ॥ १२ ॥ भूरिसंवार्षिकश्चायं वनस्थः सर्वकर्मकृत् ॥ आदेहपतनं तिष्ठेन्मृत्युं चैव न कांक्षति ॥१३॥ इन सब कर्म के करनेवाले वानप्रस्थको भूरिसंवार्षिक कहते हैं । दूसरा - मरण काल तक वन में रहे; और मृत्यु की इच्छा भी न करे ॥१३ ॥ षण्मासांस्तु ततश्चान्यः पंचयज्ञक्रियापरः ॥ काले चतुर्थे भुंजानो देहं त्यजति धर्मतः ॥१४॥ और छह महीने तक के अन्नका संग्रह कर और पंचयज्ञ कर्म में तत्पर रहे चौथे काल (संध्या) में भोजन करता हुआ धर्म से शरीर को त्यागता है ॥१४॥ त्रिंशदिनार्थमाहत्य वन्यानानि शुचित्रतः ॥ निर्वयं सर्वकार्याणि स्थाच पठेन्नभोजनः ॥ १५ ॥ तीसरा- एक महीने अर्थात् तीस दिनके लिये शुद्धव्रत होकर वन के अन्न का संग्रह कर, सम्पूर्ण कर्मों को करके दिन के छठेभाग में भोजन ग्रहण करें ॥१५ ॥ दिनार्थमन्नमादाय पंचयज्ञक्रियारतः ॥ सद्याप्रक्षालको नाम चतुर्थः परिकीर्त्तितः ॥ १६ ॥ चौथा एक दिन के लिये अन्न का संग्रह करके पंचयज्ञ कर्म में तत्पर रहे यह सद्यःप्रक्षालक नामक चौथा कहा है ॥१६॥ एवमेते हि वैमान्या मुनयः शंसितव्रताः ॥ १७॥ इस प्रकार से चारों मुनि कठिन प्रत करने वाले पूजनीय होते हैं ॥१७॥ इति वैष्णवे धर्मशास्त्रे तृतीयोऽध्यायः ॥३॥ वैष्णवधर्मशास्त्र का तीसरा अध्याय सम्प्पूर्ण हुआ

Recommendations