Swetasvatara Upanishad Chapter 4 (श्वेताश्वतरोपनिषद) चतुर्थ अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ श्वेताश्वतरोपनिषद ॥ ॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः ॥ चतुर्थ अध्याय य एकोऽवर्णों बहुधा शक्तियोगाद्वरणाननेकान् निहितार्थो दधाति । विचैति चान्ते विश्वमादौ च देवःस नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥ १॥ जो रंग रूप आदि से रहित होकर भी छिपे हुए प्रयोजन वाला होने के कारण विविध शक्तियों के सम्बन्ध से सृष्टि के आदि में अनेक रूप रंग धारण कर लेता है तथा अन्त में यह सम्पूर्ण विश्व जिसमें विलीन हो जाता है वह परमदेव परमात्मा एक अद्वितीय है। वह हम लोगों को शुभ बुद्धि से संयुक्त करे। ॥१॥ तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदापस्तत् प्रजापतिः ॥२॥ वही अग्नि है। वही सूर्य है। वही वायु है वही चन्द्रमा है। वह अन्यान्य प्रकाश युक्त नक्षत्र आदि है। वही जल है, वही प्रजापति है और वही ब्रहा है ॥ २॥ त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी । त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसित्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः ॥३॥ हे सर्वेश्वर! आप स्त्री, पुरुष, कुमार, कुमारी आदि अनेक रूपोंवाले है। आप ही वृद्धा अवस्था में लाठी के सहारे चलते हैं। हे परमात्मन् आप ही विराट रूप में प्रकट होकर सभी ओर मुखवाले हो जाते हैं अर्थात सम्पूर्ण जगत आपका ही स्वरुप है। ॥३॥ नीलः पतङ्गो हरितो लोहिताक्षस्तडिद्गर्भ ऋतवः समुद्राः। अनादिमत् त्वं विभुत्वेन वर्तसे यतो जातानि भुवनानि विश्वा ॥४॥ हे सर्वान्तर्यामी परमात्मा! आप ही नीले रंग के पतंग भौरे तथा हरे रंग और लाल आँखो वाले पक्षी-तोते हैं। आप ही बिजली से युक्त मेघ, वसंत आदि ऋतुएँ और सात समुद्र रूप हैं। क्योंकि आपसे ही यह सम्पूर्ण लोक और उनमें निवास करने वाले सम्पूर्ण जीव-समुदाय उत्पन्न हुए हुए हैं। आप ही अनादि (प्रकृतियों) का स्वामी और व्यापक रूप से सबमें विद्यमान है। ॥४॥ अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः । अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥५॥ आपने ही सदृश अर्थात् त्रिगुणमया बहुत-से भूत-समुदायों को रचने वाली तथा लाल, सफेद और काले रंग 15 की अर्थात् त्रिगुणमयी एक अजन्मा-अनादि प्रकृति को निश्चय ही एक अज्ञानी जीव आसक्त हुआ भोगता है और दूसरा ज्ञानी महापुरुष इस भोगी हुई प्रकृति को त्याग देता है। ॥५॥ द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ ६॥ सदा साथ रहनेवाले तथा परस्पर सख्यभाव रखनेवाले दो पक्षी (जीवात्मा और परमात्मा) एक ही वृक्ष (शरीर) का आश्रय लेकर रहते हैं। उन दोनों में से एक (जीवात्मा) तो उस वृक्ष के फलों (कर्मफलों) को स्वाद ले-लेक, खाता है। परन्तु दूसरा (परमात्मा) उनका उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है ॥६॥ समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः । जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः ॥७॥ पूर्वोक्त शरीर रूप एक ही वृक्ष पर रहनेवाला जीवात्मा गहरी आसक्ति में डूबा हुआ है। अतः असमर्थ होने के कारण दीनतापूर्वक मोहित हुआ, शोक करता रहता है। जब (यह भगवान की अहेतु की दया से भक्तों द्वारा नित्य सेवित, अपने से भिन्न परमेश्वर को और उसकी आश्चर्यमयी महिमा को प्रत्यक्ष देख लेता है। तब वह सर्वथा शोकरहित हो जाता है। ॥७॥ ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः । यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते ॥ ८॥ जिसमे समस्त देवगण भलीभाँति स्थित है। उस अविनाशी परम व्योम (परम धाम) मे सम्पूर्ण वेद स्थित हैं। जो मनुष्य उसको नहीं जानता, वह वेदों के द्वारा क्या सिद्ध करेगा? परन्तु जो उसको जानते हैं, वह सम्यक प्रकार से उसी में स्थित हैं। ॥८॥ छन्दांसि यज्ञाः क्रतवो व्रतानि भूतं भव्यं यच्च वेदा वदन्ति । ा अस्मान् मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः ॥९॥ छन्द, यज्ञ, ऋतु (ज्योतिष्टोम आदि विशेष यज्ञ), नाना प्रकार के व्रत तथा और भी जो कुछ भविष्य एवं वर्तमान रूप वेद वर्णन करते है। इस सम्पूर्ण जगत को, प्रकृति का अधिपति परमेश्वर, इस (पहले बताये हुए महाभूतादि तत्वोंके समुदाय) से रचता है। तथा दूसरा (जीवात्मा) उस प्रपञ्च में माया के द्वारा भलीभाँति बँधा हुआ है ॥९॥ मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं च महेश्वरम् । तस्यवयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ॥१०॥ माया तो प्रकृति को समझना चाहिये और मायापति महेश्वर को समझना चाहिये। उसी के अंगभूत कारण-कार्य-समुदाय से यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त हो रहा है ॥ १०॥ यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको यस्मिन्निदं सं च विचैति सर्वम् । तमीशानं वरदं देवमीड्यं निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति ॥११॥ जो एक अकेला ही प्रत्येक योनि का अधिष्ठाता हो रहा है। जिसमें यह समस्त जगत प्रलयकाल में विलीन हो जाता है और सृष्टि काल में विविध रूपों में प्रकट भी हो जाता है। उस सर्वनियन्ता वरदायक, स्तुति करने योग्य परम देव परमेश्वर को तत्त्व से जानकर मनुष्य निरन्तर बनी रहनेवाली इस मुक्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है। ॥११॥ यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः । हिरण्यगर्भ पश्यत जायमानं स नो बुद्धया शुभया संयुनक्तु ॥१२॥ जो रुद्र इन्द्रादि देवताओं को, उत्पन्न करने वाला और बढ़ाने वाला है। तथा जो सबका अधिपति, महर्षि और महा ज्ञानी अर्थात सर्वज्ञ है। जिसने सबसे पहले उत्पन्न हुए हिरण्यगर्भ को देखा था, वह परमदेव परमेश्वर हम लोगों को शुभ बुद्धि से संयुक्त करे ॥१२॥ यो देवानामधिपो यस्मिन्ल्लोका अधिश्रिताः । य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥१३॥ जो समस्त देवो का अधिपति है। जिसमें समस्त लोक सब प्रकार से आश्रित हैं। जो इस दो पैरवाले और चार पैरवाले समस्त जीव समुदाय का शासन करता है, उस आनन्दस्वरूप परमदेव परमेश्वर की हविष्य अर्थात् श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भेंट समर्पण करके पूजा करें ॥१३॥ सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम् । विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति ॥१४॥ जो सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म, हृदय-गुफारूप गुह्यस्थान के भीतर स्थित। समस्त विश्व की रचना करनेवाला, अनेक रूप धारण करनेवाला, तथा समस्त जगत को सब ओर से घेरे रखनेवाला है। उस एक अद्वितीय कल्याण स्वरूप महेश्वर को जानकर मनुष्य सदा रहनेवाली, असीम, अविनाशी शान्ति को प्राप्त होता है। ॥१४॥ स एव काले भुवनस्य गोप्ता विश्वाधिपः सर्वभूतेषु गूढः । यस्मिन् युक्ता ब्रह्मर्षयो देवताश्च तमेवं ज्ञात्वा मृत्युपाशांश्छिनत्ति ॥१५॥ वही समय पर समस्त ब्रह्माण्डो की रक्षा करनेवाला समस्त जगत का अधिपति और समस्त प्राणियों में छिपा हुआ है। जिसमे वेदज्ञ महषिगण और देवता भी ध्यान द्वारा संलग्न हैं। उस परमदेव परमेश्वर को इस प्रकार जानकर मृत्यु के बन्धनों को काट डालता है। ॥१५॥ घृतात् परं मण्डमिवातिसूक्ष्मं ज्ञात्वा शिवं सर्वभूतेषु गूढम् । विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥१६॥ कल्याणस्वरूप एक अद्वितीय परमदेव को, मक्खन के ऊपर रहने वाले सारभाग की भॉति, अत्यन्त सूक्ष्म, और समस्त प्राणियों में छिपा हुआ जानकर तथा समस्त जगत को सब ओर से घेरकर स्थित हुआ जानकर मनुष्य समस्त बंधनों से छूट जाता है। ॥१६॥ एष देवो विश्वकर्मा महात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः । हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ १७॥ यह जगत-कर्ता महात्मा परमदेव परमेश्वर, सर्वदा सब मनुष्यों के हृदय में सम्यक् प्रकार से स्थित है। तथा हृदय से, बुद्धि से और मन से ध्यान में लाया हुआ प्रत्यक्ष होता है। जो साधक इस रहस्य को जान लेते हैं। वह अमृत स्वरुप हो जाते हैं। ॥१७॥ यदाऽतमस्तान्न दिवा न रात्रिः न सन्नचासच्छिव एव केवलः । तदक्षरं तत् सवितुर्वरेण्यं प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी ॥ १८॥ जब अज्ञानमय अन्धकारका तर्वथा अभाव हो जाता है, उस समय अनुभव में आने वाला तत्त्व न दिन है, न रात है, न सत् है और न असत् है। एकमात्र, विशुद्ध, कल्यानमय शिव ही है। वह सर्वथा अविनाशी है। वह सूर्याभिमानी देवता का भी उपास्य है तथा उसी से यह पुरातन ज्ञान फैला है ॥१८॥ नैनमूर्ध्वं न तिर्यञ्चं न मध्ये न परिजग्रभत् । न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद् यशः ॥१९॥ इस परमात्मा को कोई भी न तो ऊपर से, न इधर-उधर से न बीच में से ही भलीभाँति पकड़ सकता है। जिसका महान् यश नाम है उसकी कोई उपमा नहीं है ॥१९॥ न सन्दृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् । हृदा हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥२०॥ इनका स्वरुप नेत्र आदि से ग्रहण नहीं किया जा सकता, उन्हें कोई भी मनुष्य लौकिक नेत्रों द्वारा देख नहीं सकता। जो इस हृदय स्थित परमात्मा को शुद्ध-बुद्धि मनसे इस प्रकार जान लेते हैं वह अमर हो जाते हैं। ॥२०॥ अजात इत्येवं कश्चिद्भीरुः प्रपद्यते । रुद्र यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम् ॥ २१॥ हे रूद्र ! तुम अजन्मा हो, इसलिए कोई मुझ जैसा संसार भय से कातर पुरुष तुम्हारी शरण लेता है और कहता है की तुम्हारा जो दक्षिण मुख है, उससे मेरा सर्वदा रक्षा करें। ॥२१॥ मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा न अश्वेषु रीरिषः । वीरान् मा नो रुद्र भामितो वधीर्हविष्मन्तः सदामित् त्वा हवामहे ॥२२॥ हे सबका संहार करनेवाले रुद्रदेव ! हमलोग नाना प्रकारकी भेंट समर्पण करते हुए सदा ही आपका आह्वाहन करते हैं। आप ही हमारी रक्षा करनेम सर्वथा समर्थ हैं, अतः हम आपसे प्रार्थना करते है कि आप हमपर कमी कुपित न हों तथा कुपित होकर हमारे पुत्र और पौत्रों को, हमारी आयुको जीवन को तथा हमारे गौ, घोड़े आदि पशुओं को कभी किसी प्रकारको क्षति न पहुँचायें । तथा हमारे जो वीर-साहसी पुरुप है, उनका भी नाश न करें अर्थात् सब प्रकारसे हमारी और, हमारे धन-जनकी रक्षा करते रहें। ॥२२॥ ॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ ॥ चतुर्थ अध्याय समाप्त ॥

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