Rigvedic Mantrasudha (ऋग्वेदीय मन्त्रसुधा)

ऋग्वेदीय मन्त्रसुधा (Rigvedic MantraSudha) ॐ वाङ्‌ मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि। वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीः। अनेनाधीते-नाहोरात्रान्संदधाम्यूतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु। तद् वक्तारमवतु। अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् । ॐ शान्तिः! शान्तिः !! शान्तिः !!! ऋग्वेद, शान्तिपाठ मेरी वाणी मन में और मन वाणी में प्रतिष्ठित हो। हे ईश्वर! आप मेरे समक्ष प्रकट हों। हे मन और वाणी ! मुझे वेदविषयक ज्ञान दो। मेरा ज्ञान क्षीण नहीं हो। मैं अनवरत अध्ययन में लगा रहूँ। मैं श्रेष्ठ शब्द बोलूंगा, सदा सत्य बोलूंगा, ईश्वर मेरी रक्षा करें। वक्ता की रक्षा करें। मेरे आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक त्रिविध ताप शान्त हों। जानन्ति वृष्णो अरुषस्य शेवमुत बध्नस्य शासने रणन्ति। दिवोरुचः सुरुचो रोचमाना इळा येषां गण्या माहिना गीः ।। ऋग्वेद ३।७।५ जिनकी वाणी महिमा के कारण मान्य और प्रशंसनीय है, वे ही सुख की वृष्टि करनेवाले अहिंसा के धन को जानते हैं तथा महत्के शासन में आनन्द प्राप्त करते हैं और दिव्य कान्ति से देदीप्यमान होते हैं। जातो जायते सुदिनत्वे अह्मां समर्य आ विदथे वर्धमानः। पुनन्ति धीरा अपसो मनीषा देवया विप्न उदियर्ति वाचम् ।। ऋग्वेद ३।८।५ जिस व्यक्ति ने जन्म लिया है, वह जीवन को सुन्दर बनाने के लिये उत्पन्न हुआ हैं। वह जीवन-संग्राम में लक्ष्य-साधन के हेतु अध्यवसाय करता है। धीर व्यक्ति अपनी मनन शक्ति से कर्मो को पवित्र करते हैं और विप्रजन दिव्य भावना से वाणीका उच्चारण करते हैं। स हि सत्यो यं पूर्वे चिद् देवासश्चिद् यमीधिरे । होतारं मन्द्रजिह्वमित्सु दीतिभिर्विभावसुम् ॥ ऋग्वेद ५।२५।२ सत्य वही है जो उज्ज्वल है, वाणी को प्रसन्न करता है और जिसे पूर्वकाल में हुए विद्वान् उज्ज्वल प्रकाश से प्रकाशित करते हैं। सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते। तयोर्यत् सत्यं यतरदृजीयस्तदित् सोमोऽवति हन्त्यासत् ॥ ऋग्वेद ७।१०४।१२ उत्तम ज्ञान के अनुसन्धान की इच्छा करने वाले व्यक्ति के सामने सत्य और असत्य दोनों प्रकार के वचन परस्पर स्पर्धा करते हुए उपस्थित होते हैं। उनमें से जो सत्य है, वह अधिक सरल है। शान्ति को कामना करने वाला व्यक्ति उसे चुन लेता है और असत्य का परित्याग करता है। सा मा सत्योक्तिः परि पातु विश्वतो द्यावा च यत्र ततनन्नहानि च। विश्वमन्यन्नि विशते यदेजति विश्वा विश्वाहोदेति सूर्यः ॥ ऋग्वेद १०।३७।२ वह सत्य-कथन सब ओर से मेरी रक्षा करे, जिसके द्वारा दिन और रात्रि का सभी दिशा में विस्तार होता हैं तथा यह विश्व अन्य में निविष्ट होता है, जिसकी प्रेरणा से सूर्य उदित होता है एवं निरन्तर जल बहता है। मन्त्रमखर्व सुधितं सुपेशसं दधात यज्ञियेष्वा। पूर्वीश्चन प्रसितयस्तरन्ति तं य इन्द्रे कर्मणा भुवत् ॥ ऋग्वेद ७।३२।१३ यज्ञ-भावनासे भावित सदाचारीको भली प्रकारसे विवेचित, सुन्दर आकृतिसे युक्त, उच्च विचार दो। जो इन्द्रके निमित्त कर्म करता है, उसे पूर्वजन्म के बन्धन छोड़ देते हैं। त्रिभिः पवित्रैरपुपोद्ध्यर्क हृदा मतिं ज्योतिरनु प्रजानन्। वर्षिष्ठं रत्नमकृत स्वधाभिरादिद् द्यावापृथिवी पर्यपश्यत् ॥ ऋग्वेद ३।२६।८ मनुष्य या साधक हृदय से ज्ञान और ज्योति को भली प्रकार जानते हुए तीन पवित्र उपायों - यज्ञ, दान और तप अथवा श्रवण, मनन और निदिध्यासन से आत्मा को पवित्र करता है। अपने सामर्थ्य से सर्वश्रेष्ठ रत्न 'ब्रह्मज्ञान' को प्राप्त कर लेता है और तब वह इस संसार को तुच्छ दृष्टि से देखता है। नकिर्देवा मिनीमसि नकिरा योपयामसि मन्त्रश्रुत्यं चरामसि। पक्षेभिरपिकक्षेभिरत्राभि सं रभामहे ॥ ऋग्वेद १०।१३४।७ हे देवो! न तो हम हिंसा करते हैं, न विद्वेष उत्पन्न करते हैं; अपितु वेद के अनुसार आचरण करते हैं। तिनके-जैसे तुच्छ प्राणियों के साथ भी मिलकर कार्य करते हैं। यस्तित्याज सचिवदं सखायं न तस्य वाच्यपि भागो अस्ति। यदीं शृणोत्यलकं शृणोति नहि प्रवेद सुकृतस्य पन्थाम् ॥ ऋग्वेद १०।७१।६ जो मनुष्य सत्य-ज्ञान का उपदेश देने वाले मित्र का परित्याग कर देता है, उसके वचनों को कोई नहीं सुनता। वह जो कुछ सुनता है, मिथ्या ही सुनता है। वह सत्कार्य के मार्ग को नहीं जानता। से इड्रोजो यो गृहवे ददात्यन्नकामाय चरते कृशाय। अरमस्मै भवति यामहूता उतापरीषु कृणुते सखायम् ॥ ऋग्वेद १०।११७।३ अन्न की कामना करने वाले निर्धन याचक को जो अन्न देता है, वही वास्तव में भोजन करता है। ऐसे व्यक्ति के पास पर्याप्त अन्न रहता है और समय पड़ने पर बुलाने से, उसकी सहायता के लिए तत्पर अनेक मित्र उपस्थित हो जाते हैं। पृणीयादिन्नाधमानाय तव्यान्द्राधीयां समनु। पश्येत पन्थाम् ॥ ऋग्वेद १०।११७।५ मनुष्य अपने सम्मुख जीवन का दीर्घ पथ देखे और याचना करने वाले को दान देकर उसका कल्याण करे। ये अग्ने नेरयन्ति ते वृद्धा उग्रस्य शवसः। अप द्वेषो अप ह्वरो ऽन्यव्रतस्य सश्चिरे ॥ ऋग्वेद ५।२०।२ वास्तव में 'वृद्ध' तो वे हैं, जो विचलित नहीं होते और अति प्रबल नास्तिक की द्वेषभावना को एवं उसकी कुटिलता को दूर करते हैं। श्रद्धयाग्निः समिध्यते श्रद्धया हुयते हविः। श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि ॥ ऋग्वेद १०।१५१।१ श्रद्धा से अग्नि को प्रज्वलित किया जाता है, श्रद्धा से ही हवन में आहुति दी जाती है; हम सब प्रशंसापूर्ण वचनों से श्रद्धा को श्रेष्ठ ऐश्वर्य मानते हैं। स नः पितेव सूनवे ऽग्ने सुपायनो भव। सचस्वा नः स्वस्तये ॥ ऋग्वेद १।१।९ जिस प्रकार पिता अपने पुत्र के कल्याण की कामना से उसे सरलता से प्राप्त होता है, उसी प्रकार हे अग्नि! तुम हमें सुखदायक उपायों से प्राप्त हो। हमारा कल्याण करने के लिए हमारा साथ दो। सुक्षेत्रिया सुगातुया वसूया च यजामहे। अप नः शोशुचदघम् ॥ ऋग्वेद १।९७।२ सुशोभन क्षेत्र के लिए, सन्मार्ग के लिए और ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए हम आपका यजन करते हैं। हमारा पाप विनष्ट हो। स नः सिन्धुमिव नावयाति पर्षा स्वस्तये। अप शोशुचदधम् ॥ ऋग्वेद १।९७।८ जैसे सागर को नौका के द्वारा पार किया जाता है, वैसे ही वह परमेश्वर हमारे कल्याण के लिए हमें संसार-सागर से पार ले जाए। हमारा पाप विनष्ट हो। स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः। बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः ॥ ऋग्वेद १।९७।१५ हम अपना कल्याण करने के लिये वायु की उपासना करते हैं, जगत के स्वामी सोम की स्तुति करते हैं और अपने कल्याण के लिये हम सभी गणों सहित बृहस्पति की स्तुति करते हैं। आदित्य भी हमारा कल्याण करनेवाले हों। अपि पन्थामगन्महि स्वस्तिगामनेहसम्। येन विश्वाः परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु ॥ ऋग्वेद ६।५१।१६ हम उस कल्याणकारी और निष्पाप मार्ग का अनुसरण करें, जिससे मनुष्य सभी द्वेष-भावनाओं का परित्याग कर देता है और सम्पत्ति को प्राप्त करता है। शं नो अग्निज्योतिरनीको अस्तु शं नो मित्रावरुणावश्विना शम्। शं नः सुकृतां सुकृतानि सन्तु शं न इषिरो अभि वातु वातः ॥ ऋग्वेद ७।३५।४ ज्योति ही जिसका मुख है, वह अग्नि हमारे लिये कल्याणकारक हो; मित्र, वरुण और अश्विनीकुमार हमारे लिये कल्याणप्रद हों; पुण्यशाली व्यक्तियों के कर्म हमारे लिये सुख प्रदान करनेवाले हों तथा वायु भी हमें शान्ति प्रदान करने के लिये प्रवाहित हो। शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्ष दृशये नो अस्तु। शं ने ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः ॥ ऋग्वेद ७।३५।५ द्युलोक और पृथ्वी हमारे लिये सुखकारक हों, अन्तरिक्ष हमारी दृष्टि के लिये कल्याणप्रद हो, औषधियाँ एवं वृक्ष हमारे लिये कल्याणकारक हों तथा लोकपति इन्द्र भी हमें शान्ति प्रदान करें। शं नः सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चतस्रः प्रदिशो भवन्तु। शं नः पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं नः सिन्धवः शमु सन्त्वापः ॥ ऋग्वेद ७।३५।८ विस्तृत तेजसे युक्त सूर्य हम सबका कल्याण करता हुआ उदित हो। चारों दिशाएँ हमारा कल्याण करनेवाली हों। अटल पर्वत हम सबके लिये कल्याणकारक हों। नदियाँ हमारा हित करनेवाली हों और उनका जल भी हमारे लिये कल्याणप्रद हो। शं नो अदितिर्भवतु व्रतेभिः शं नो भवन्तु मरुतः स्वः। शं नो विष्णुः शमु पूषा नो अस्तु शं नो भवित्रं शम्वस्तु वायुः ॥ ऋग्वेद ७।३५।९ अदिति हमारे लिये कल्याणप्रद हों, मरुद्गण हमारा कल्याण करनेवाले हों। विष्णु और पुष्टिदायक देव हमारा कल्याण करें तथा जल एवं वायु भी हमारे लिये शान्ति प्रदान करनेवाले हों। शं नो देवः सविता त्रायमाणः शं नो भवन्तुषसो विभातीः। शं नः पर्जन्यो भवतु प्रजाभ्यः शं नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः ॥ ऋग्वेद ७।३५।१० रक्षा करने वाले सविता हमारा कल्याण करें, सुशोभित होती हुई उषादेवी हमें सुख प्रदान करें, वृष्टि करने वाले पर्जन्यदेव हमारी प्रजाओं के लिये कल्याणकारक हों और क्षेत्रपति शम्भु भी हम सबको शान्ति प्रदान करें। शं नो देवा विश्वेदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु। ऋग्वेद ७।३५।११ सभी देवता हमारा कल्याण करनेवाले हों, बुद्धि प्रदान करनेवाली देवी सरस्वती भी हम सबका कल्याण करें। त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ। अधा सुम्नमीमहे ॥ ऋग्वेद ८।९८।११ हे आश्रयदाता! तुम ही हमारे पिता हो। हे शतक्रतु! तुम हमारी माता हो। हम तुमसे कल्याण की कामना करते हैं। इमे जीवा वि मृतैराववृत्रन्नभूद्भद्रा देवहूतिर्नो अद्य। प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय द्राधीय आयुः प्रतरं दधानाः ॥ ऋग्वेद १०।१८।३ ये जीव मृत व्यक्तियों से घिरे हुए नहीं हैं, इसीलिये आज हमारा कल्याण करने वाला देवयज्ञ सम्पूर्ण हुआ। नृत्य करने के लिये, आनन्द मनाने के लिये दीर्घ आयु को और अधिक दीर्घ करते हुए उन्नति-पथ पर अग्रसर हों। भद्रं नो अपि वातय मनो दक्षमुत ऋतुम्। ऋग्वेद १०।२५।१ हे परमेश्वर! हमें कल्याणकारक मन, कल्याण करने का सामर्थ्य और कल्याणकारक कार्य करने की प्रेरणा दें।

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