Swetasvatara Upanishad Chapter 3 (श्वेताश्वतरोपनिषद) तृतीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ श्वेताश्वतरोपनिषद ॥ ॥ अथ तृतीयोऽध्यायः ॥ तृतीय अध्याय य एको जालवानीशत ईशनीभिः सर्वाल्लोकानीशत ईशनीभिः । य एवैक उद्भवे सम्भवे च य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥१॥ जो एक जगत रूप जाल का अधिपति, अपनी स्वरुप भूत शासन शक्तियों द्वारा शासन करता है। उन विविध शासन शक्तियों द्वारा सम्पूर्ण, लोकों पर शासन करता है तथा जो अकेला ही सृष्टि और उसके विस्तार में सर्वथा समर्थ है। इस ब्रह्म को जो महापुरुष जान लेते हैं, वह अमर हो जाते हैं अर्थात जन्म-मृत्युके जालसे सदा के लिये छूट जाते हैं। ॥१॥ एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमाँल्लोकानीशत ईशनीभिः । प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ॥२॥ जो अपनी स्वरूपभूत विविध शासन शक्तियों द्वारा, इन सब लोकों पर शासन करता है। वह रुद्र एक ही है, इसीलिये विद्वान् पुरुषों ने जगत के कारण का निश्चय करते समय दूसरे का आश्रय नहीं लिया। वह परमात्मा समस्त जीवों के भीतर स्थित हो रहा है। सम्पूर्ण लोकों की रचना करके, उनकी रक्षा करनेवाला परमेश्वर प्रलयकाल इन सबको समेट लेता है अर्थात् अपनेमें विलीन कर लेते है। उस समय इनकी भिन्न-भिन्न रूपोंमें अभिव्यक्ति नहीं रहती। ॥२॥ विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् । सं बाहुभ्यां धमति सम्पतत्रैर्घावाभूमी जनयन् देव एकः ॥३॥ सर्वत्र ऑखवाला तथा सर्वत्र मुखवाला, सब जगह हाथों वाला, सब जगह पैरों वाला, आकाश और पृथ्वीकी सृष्टि करनेवाला वह एकमात्र परमदेव परमात्मा मनुष्य आदि जीवों को दो दो बांहों से युक्त करता है तथा पक्षियों को पंखों से युक्त करता है। अर्थात वे परमदेव परमेश्वर एक हैऔर सम्पूर्ण लोकों में स्थित समस्त जीवोंके कर्म और विचारोंको तथा समस्त घटनाओंको अपनी दिव्य शक्तिद्वारा निरन्तर देखते रहते हैं। आकाश से लेकर पृथ्वी तक समस्त लोकों की रचना करनेवाले एक ही परमदेव परमेश्वर समस्त प्राणियों को आवश्यकतानुसार भिन्न-भिन्न शक्तियों एव साधनोंसे सम्पन्न करते है। ॥३॥ यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः । हिरण्यगर्भ जनयामास पूर्वं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥४॥ जो रुद्र इन्द्रादि देवताओं की उत्पत्ति का हेतु और वृद्धि का हेतु है, तथा जो सबका अधिपति और महान् ज्ञानी (सर्वज्ञ) है। जिसने पहले हिरण्यगर्भ को उत्पन्न किया था। वह परमदेव परमेश्वर हम लोगों को शुभ बुद्धि से संयुक्त करे ॥४॥ या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽ पापकाशिनी । तया नस्तनुवा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि ॥५॥ हे रुद्रदेव आपकी जो भयानकता से शून्य तथा पुण्या कर्म से प्रकाशित होने वाली क्ल्याणमयी सौम्य मूर्ति है। हे गिरिशन्त अर्थात् पर्वत पर निवास करते हुए समस्त लोकों को सुख पहुँचाने वाले शिव, उस परम शांत मूर्ती से ही कृपा करके हमारी तरफ देखिये। आपकी कृपा दृष्टि पड़ते ही हम सर्वथा पवित्र होकर आपकी प्राप्ति के योग्य ही जायेंगे। ॥५॥ याभिषु गिरिशन्त हस्ते बिभर्म्यस्तवे । शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिंसीः पुरुषं जगत् ॥६॥ हे गिरिशन्त! हे कैलासवासी सुखदायक परमेश्वर ! जिस बाण को फेकने के लिये आपने हाथ मे धारण कर रखा है। हे गिरिराज हिमालय की रक्षा करनेवाले देव! उस बाण को कल्याणमयी बना लें। जीव समुदाय रुपी जगत को नष्ट न करें, कष्ट न दें। ॥६॥ ततः परं ब्रह्म परं बृहन्तं यथानिकायं सर्वभूतेषु गूढम् । विश्वस्यैकं परिवेष्टितारमीशं तं ज्ञात्वाऽमृता भवन्ति ॥७॥ पूर्वोक्त जीव-समुदाय जगत से परे और हिरण्यगर्भ रूप ब्रह्म से भी श्रेष्ठ, समस्त प्राणियों में उनके शरीरों के अनुरूप होकर छिपे हुए और सम्पूर्ण विश्व को सब ओर से घेरे हुए, उस महान् सर्वत्र व्यापक एकमात्र परमेश्वर को जानकर, ज्ञानीजन अमर हो जाते हैं। ॥७॥ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् । तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥८॥ अविद्यारूप अन्धकार से अतीत तथा सूर्य की भॉति स्वयं प्रकाश स्वरूप, इस महान् पुरुष (परमेश्वर) को मैं जानता हूँ। उनको जानकर ही मनुष्य मृत्यु का उलङ्घन करने में समर्थ हो पाता है। परम पद की प्राप्ति के लिये इसके सिवा दूसरा कोई अन्य मार्ग अर्थात् उपाय नहीं है ॥८॥ यस्मात् परं नापरमस्ति किञ्चिद्यस्मान्नणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् । वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्ण पुरुषेण सर्वम् ॥९॥ जिससे श्रेष्ठ दूसरा कुछ भी नहीं है। जिससे बढकर कोई भी न तो अधिक सूक्ष्म और न महान् ही है। जो अकेला ही वृक्ष की भॉति निश्चलभाव से प्रकाशमय आकाश में स्थित है। उस परम पुरुष पुरुषोत्तम से सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है ॥९॥ ततो यदुत्तरततं तदरूपमनामयम् । य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति अथेतरे दुःखमेवापियन्ति ॥१०॥ उस पहले बताये हुए हिरण्यगर्भ से जो अत्यन्त उत्कृष्ट है। वह परब्रह्म परमात्मा आकाररहित और सब प्रकारके दोषोंसे शून्य है। जो इस परब्रह्म परमात्मा को जानते है, वह अमर हो जाते हैं। परन्तु इस रहस्य को न जानने वाले दूसरे लोग बार-बार दुःखों को ही प्राप्त होते हैं। अतः मनुष्यको सदाके लिये दुःखोंसे छूटने और परमानन्दस्वरूप परमात्माको पाने के लिये उन्हें जानना चाहिये ॥१०॥ सर्वानन शिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः । सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात् सर्वगतः शिवः ॥ ११॥ वह भगवान सब ओर मुख, सिर और ग्रीवावाला है, समस्त प्राणियों के हृदय रूप गुफा में निवास करता है (और) सर्वव्यापी है, इसलिये वह कल्याणस्वरूप परमेश्वर सब जगह पहुँचा हुआ है ॥११॥ महान् प्रभुर्वै पुरुषः सत्वस्यैष प्रवर्तकः । सुनिर्मलामिमां प्राप्तिमीशानो ज्योतिरव्ययः ॥१२॥ निश्चय ही यह महान प्रभु, सब पर शासन करनेवाला, अविनाशी एवं प्रकाशस्वरूप परमपुरुष पुरुषोत्तम, अपनी प्राप्तिरूप इस अत्यन्त निर्मल लाभ की ओर अन्तःकरण को प्रेरित करनेवाला है अर्थात् परमेश्वर अपने आनन्दमय विशुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति की ओर मनुष्यके अन्तःकरणको प्रेरित करते हैं, हरेक मनुष्य को ये अपनी ओर आकर्षित करते हैं। ॥१२॥ अङ्‌गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः । हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥१३॥ यह अंगुष्ठ मात्र परिमाणवाला, अन्तर्यामी परम पुरुष पुरुषोत्तम, सदा ही मनुष्यों के, हृदय में सम्यक प्रकार से स्थित है, मन का स्वामी है तथा निर्मल हृदय और विशुद्ध मन से ध्यान में लाया हुआ प्रत्यक्ष होता है। जो इस परब्रह्म परमेश्वर को इस प्रकार जान लेते हैं, वह अमर हो जाते है अर्थात जन्म-मृत्यु के चक्र से विमुक्त हो जाते हैं। ॥१३॥ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद्दशाङ्‌गुलम् ॥ १४॥ वह परम पुरुष हजारों सिर वाला, हजारों आँखों वाला और हजारों पैर वाला है। वह समस्त जगत को सब ओर से घेरकर अर्थात सर्वत्र व्याप्त होकर भी नाभि से दस अंगुल ऊपर हृदय मे स्थित है ॥१४॥ पुरुष एवेद सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ १५॥ जो वर्त्तमान समय से पहले हो चुका है, जो भविष्य में होनेवाला है तथा जो खाद्य पदार्थों से पुष्टित होकर इस समय बढ रहा है। यह समस्त जगत् परम पुरुष परमात्मा ही है और वही अमृतमय रूप मोक्ष का स्वामी है। ॥१५॥ सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १६॥ वह परम पुरुष परमात्मा सब जगह हाथ-पैर वाला। सब जगह ऑख, सिर और मुखवाला तथा सब जगह कानों वाला है। वही ब्रह्माण्ड मे सबको सभी ओर से घेरकर स्थित है ॥१६॥ सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं सुहृत् ॥ १७॥ जो परम पुरुष परमात्मा समस्त इन्द्रियों से रहित होने पर भी समस्त इन्द्रियों के विषयों को जाननेवाला है। तथा सबका स्वामी, शासक और सबसे बड़ा आश्रय है, उसकी शरणमें जाना चाहिये। ॥१७॥ नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः । वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥१८॥ सम्पूर्ण स्थावर और जंगम जगत को वश मे रखनेवाला वह प्रकाशमय परमेश्वर, नव द्वार वाले शरीर रूपी नगर में अन्तर्यामी रूप से हृदय में स्थित है। तथा वही बाह्य जगत में लीला कर रहा है। ॥१८॥ अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः । स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् ॥१९॥ वह परमात्मा हाथ-पैरों से रहित होकर भी, समस्त वस्तुओको ग्रहण करनेवाला तथा सर्वत्र गमन करने वाला है। आँखों के बिना ही वह सब कुछ देखता है और कानों के बिना ही सब कुछ सुनता है। वह जो कुछ भी जानने में आनेवाली वस्तुएँ हैं, उन सबको जानता है और उसको जानने वाला कोई अन्य नहीं है। ज्ञानी पुरुष उसे महान् आदि कहते हैं ॥१९॥ अणोरणीयान् महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः । तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमीशम् ॥२०॥ वह सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म तथा बड़े से भी बहुत बड़ा परमात्मा इस जीव की हृदय रूप गुफा में छिपा हुआ है। सबकी रचना करने वाले परमेश्वर की कृपा से, जो मनुष्य उस संकप रहित परमेश्वर को और उसकी महिमा को देख लेता है, वह सब प्रकार के दुःखों से रहित हो जाता है। ॥२०॥ वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात् । जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हि प्रवदन्ति नित्यम् ॥२१॥ वेद के रहस्य का वर्णन करनेवाले महापुरुष, जिसके जन्म का अभाव बतलाते हैं तथा जिसको, नित्य बतलाते हैं। इस व्यापक होने के कारण सर्वत्र विद्यमान, सबके आत्मा जरा मृत्यु इत्यादि विकारों से रहित पुराण पुरुष परमेश्वर को मैं जानता हूँ। ॥२१॥ ॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ॥ तृतीय अध्याय समाप्त ॥

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