Swetasvatara Upanishad Chapter 2 (श्वेताश्वतरोपनिषद) द्वितीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ श्वेताश्वतरोपनिषद ॥ ॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥ द्वितीय अध्याय युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियः । अग्नेज्योतिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरत् ॥ १॥ सबको उत्पन्न करने वाला परमात्मा; पहले हमारे मन को और उसके पश्च्यात समस्त बुद्धियों को, तत्व की प्राप्ति के लिए अपने स्वरुप में लगाते हुए, अग्नि इत्यादि इन्द्रियाभिमानी की ज्योति का अवलोकन करते हुए, पार्थिव पदार्थों से ऊपर उठा कर, हमारी इन्द्रियों में स्थापित करे। ॥१॥ युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे । सुवर्गेयाय शक्त्या ॥ २॥ हम लोग सबको उत्पन्न करने वाले परम देव परमेश्वर की आराधना रूप यज्ञ मे लगे हुए मन के द्वारा, स्वर्गीय सुख (भगवत प्राप्ति द्वारा प्राप्त हुए आनंद) की प्राप्ति के लिए पूरी शक्ति से प्रयत्न करें। ॥२॥ युक्त्वाय मनसा देवान् सुवर्यतो धिया दिवम् । बृहज्ज्योतिः करिष्यतः सविता प्रसुवाति तान् ॥ ३॥ सबको उत्पन्न करने वाला परमेश्वर, स्वर्गादि लोकों में और आकाश में गमन करने वाले तथा अत्यंत तेज प्रकाश फैलाने वाले उक मन और इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं को हमारे मन और बुद्धि से संयुक्त करके, प्रकाश प्रदान करने के लिए प्रेरणा प्रदान करे, ताकि हम उन परमेश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ हों। ॥३॥ युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः । वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः ॥ ४॥ जिसमे ब्राह्मण आदि अपने मन को स्थिर करते हैं और बुद्धि की वृतियों को भी स्थिर करते हैं। जिसने समस्त अग्निहोत्र आदि समस्त शुभ कर्मों का विधान किया है तथा जो समस्त जगत के विचारों को जानने वाला एक ही है। उस सबसे महान, सर्वयापी, सर्वज्ञ और सबके उत्पन्न कर्ता परमदेव परमेश्वर की निश्चय ही हमें महती स्तुति करनी चाहिए। ॥४॥ युजे वां ब्रह्म पूर्वं नमोभिर्वि श्लोक एतु पथ्येव सूरेः । शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः ॥ ५॥ हे मन और बुद्धि, मैं तुम दोनों के स्वामी, सबके आदिकर्ता, परब्रहम परमात्मा से बार बार नमस्कार के द्वारा उनकी शरण लेता हूँ। मेरा यह स्तुतिपाठ, श्रेष्ठ विद्वान की कीर्ति की भांति सर्वत्र फैल जाए, जिससे अविनाशी परमात्मा के समस्त पुत्र जो दिव्य लोकों मे निवास करते हैं, उसे सुन सकें । ॥५॥ अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राधिरुध्यते । सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र सज्जायते मनः ॥ ६॥ जिस स्थिति मे परमात्मा रूप अग्नि को प्राप्त करने के उद्देश्य से ओंकार के जप और ध्यान द्वारा मंथन किया जाता है। जहाँ प्राण वायु का विधिपूर्वक निरोध किया जाता है। जहाँ आनंद रूप सोमरस अधिकता मे प्रकट होता है। वहाँ उस स्थिति मे मन सर्वथा शुद्ध हो जाता है। ॥६॥ सवित्रा प्रसवेन जुषेत ब्रह्म पूर्व्यम् । यत्र योनिं कृणवसे न हि ते पूर्तमक्षिपत् ॥ ७॥ सम्पूर्ण जगत को उत्पन करने वाले परमात्मा के द्वारा प्राप्त हुई प्रेरणा से, सब के आदिकारण, उस परब्रह्म परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए। तुम उस परमात्मा मे ही आश्रय प्राप्त करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से तुम्हारे पूर्व संचित कर्म विघ्न कारक (बंधन रूप) नहीं होंगे। ॥७॥ त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा सन्निवेश्य । ब्ररह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयानकानि ॥ ८॥ ध्यानयोग का साधन करने वाले बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए की ध्यान के समय, सिर गला और छाती को ऊंचा उठा कर, शरीर को सीधा और स्थिर करके तथा समस्त इन्द्रियों को मन के द्वारा हृदय मे निरुद्ध करके, ॐकार रुपी नौका द्वारा समस्त भयानक प्रवाहों को पार कर ले। अर्थात ओंकार का जप तथा उसके वाच्य परब्रह्म परमात्मा का ध्यान करके जन्म-मृत्युमें ले जाने वाली वासनाओं का त्याग करके अमरपद को प्राप्त करने का प्रयत्न करे। ॥८॥ प्राणान् प्रपीड्येह संयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छुसीत । दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान् मनो धारयेताप्रमत्तः ॥९॥ विद्वान् बुद्धिमान् साधक को चाहिये कि उपर्युक्त योगसाधना में आहार विहार आदि समस्त चेष्टाओं को यथायोग्य करते हुए विधिवत् प्राणायाम करके, प्राण के सूक्ष्म हो जाने पर नासिका द्वारा उनको बाहर निकाल दे। इसके बाद दुष्ट घोड़ों से युक्त रथ को जिस प्रकार सारथि सावधानी पूर्वक गन्तव्य मार्ग में ले जाता है, उसी प्रकार इस मन को सावधान होकर वश में किये रहे। ॥९॥ समे शुचौ शर्करावह्निवालिकाविवर्जित शब्दजलाश्रयादिभिः । मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् ॥१०॥ सब प्रकार से शुद्ध, कंकड़, अग्नि और बालू से रहित तथा शब्द, जल और आश्रय आदि की दृष्टि से सर्वथा अनुकूल और नेत्रों को पीड़ा न देनेवाले (भयानक न दिखने वाले) गुफा आदि वायुशून्य स्थान में मन को ध्यान में लगाने का अभ्यास करना चाहिये। ॥१०॥ नीहारधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशीनाम् । एतानि रूपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे ॥ ११॥ परमात्मा की प्राप्तिके लिये किये जानेवाले योग में पहले कुहरा, धूआँ, सूर्य, वायु और अग्निके सदृशः तथा बिजली, स्फटिक मणि और चन्द्रमा के सदृशः बहुत से दृश्य, योगीके सामने प्रकट होते है। यह सब योग की सफलता को स्पष्टरूप से सूचित करने वाले है। ॥११॥ पृथिव्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते । न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् ॥१२॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँचों महाभूतोंका सम्यक् प्रकारसे उत्थान होने पर तथा पञ्चात्म के योग गुण प्रवृत्त इनसे सम्बन्ध रखने वाले पाँच प्रकारके योगसम्बन्धी गुणोंकी सिद्धि हो जानेपर योगाग्निमय शरीर को प्राप्त कर लेने वाले उस साधक को न तो रोग होता है, न बुढ़ापा आता है और ना मृत्यु उसकी मृत्यु ही होती है अर्थात उसकी इच्छा के बिना उसका यह शरीर नष्ट नहीं हो सकता ॥१२॥ लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादः स्वरसौष्ठवं च । गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति ॥१३॥ शरीर का हल्कापन, किसी प्रकार के रोग का न होना, विषयासक्ति की निवृत्ति, शारीरिक वर्ण की उज्ज्वलता, स्वर की मधुरता, शरीर मे अच्छी गन्ध और मल-मूत्र का कम हो जाना इन सबको योग की पहली सिद्धि कहते हैं। ॥१३॥ यथैव बिम्बं मृदयोपलिप्तं तेजोमयं भ्राजते तत् सुधान्तम् । तद्वाऽऽत्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः ॥१४॥ जिस प्रकार मिट्टी से लिप्त होकर मलिन हुआ प्रकाशयुक्त रत्न, भली भांति धुल जाने पर चमकने लगता है। उसी प्रकार शरीरधारी जीवात्मा मल आदि से रहित आत्म तत्त्व को योगके द्वारा भलीभांति प्रत्यक्ष करके, अकेला कैवल्य अवस्था को प्राप्त कर, सब प्रकार के दुःखोंसे रहित कृतकृत्य हो जाता है। अर्थात उसका मनुष्य जीवन सार्थक हो जाता है। ॥१४॥ यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत् । े अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपापैः ॥१५॥ उसके बाद जब वह योगी यहाँ दीपक के सदृश प्रकाशमय आत्म तत्त्व के द्वारा ब्रह्मतत्त्व को भलीभाँति प्रत्यक्ष देख लेता है। उस समय वह उस अजन्मा, निश्चल, समस्त तत्वों से विशुद्ध परमदेव परमात्मा को जानकर सब बन्धनों से सदा के लिये छूट जाता है अर्थात सर्वथा विशुद्ध परम देव परमात्माको तत्वसे जानकर सब प्रकारके बन्धनोंसे सदाके लिये छूट जाता है। ॥१५॥ एषो ह देवः प्रदिशोऽनु सर्वाः। पूर्वी ह जातः स उ गर्भे अन्तः। स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्‌ जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः ॥१६॥ निश्चय ही यह ऊपर बताया हुआ, परमदेव परमात्मा अनु दिशाओं और अवान्तर दिशाओं में व्याप्त है। वही प्रसिद्ध परमात्मा सबसे पहले हिरण्यगर्भ रूप में प्रकट हुआ था और वही समस्त ब्रह्माण्ड रूप गर्भ में अन्तर्यामी रूप से स्थित है। वही इस समय जगत के रूप में प्रकट है और वही भविष्य में भी प्रकट होने वाला है। वह सब जीवों के भीतर, अन्तर्यामी रूप से स्थित है। और सब ओर मुखवाला है अर्थात सब की सभी और से देखने वाला है। ॥१६॥ यो देवो अग्नौ योऽप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश । य ओषधीषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नमः ॥१७॥ जो परमदेव परमात्मा अग्नि में है। जो जल मे है। जो समस्त लोकोमे प्रविष्ट हो रहा है, जो औषधियों में हैं तथा जो वनस्पतियों में है। उन परमदेव परमात्मा को नमस्कार है, नमस्कार है ॥१७॥ ॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ ॥ द्वितीय अध्याय समाप्त ॥

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