Shri Vishnu Smriti Chapter 1 (श्री विष्णु स्मृतिः प्रथम अध्याय)

॥ॐ॥ ॥ श्री परमात्मने नमः ॥ ॥ श्री गणेशाय नमः ॥ श्री विष्णु स्मृतिः प्रथमोऽध्यायः प्रथम अध्याय अथ विष्णुप्रोक्तधर्मशास्त्रप्रारंभः ॥ विष्णुमेकाग्रमासीनं श्रुतिस्मृतिविशारदम् ॥ पप्रच्छर्मुनयः सर्वे कलापग्रामवासिनः ॥ १॥ एकाग्र चित्त से बैठेहुए श्रुति और स्मृतियों के जाननेवाले विष्णुजी से कलापग्राम के निवासी सम्पूर्ण मुनियोंने यह पूछा ॥ १॥ कृते युगे ह्यपक्षीणे लुप्तो धर्मस्सनातनः ॥ तत्र वै शीर्यमाणे च धर्मों न प्रतिमार्गितः ॥ २ ॥ कि सतयुग के बीत जाने पर सनातन धर्म का लोप हो गया, और उसके बीतने पर किसी ने धर्म का शोधन नहीं किया ॥२॥ त्रेतायुगेऽथ संप्राप्ते कर्तव्यश्चात्य संग्रहः ॥ यथा संप्राप्यतेऽ स्माभिस्तत्त्वन्नो वक्तुमर्हसि ॥३॥ इस समय धर्म का संग्रह अवश्य करना उचित है, कारण कि अब त्रेतायुग वर्तमान है, जिस रीति से वह धर्म हमको प्राप्त हो जाय, वह रीति आप हमसे कहिये ॥ ३ ॥ वर्णाश्रमाणां यो धर्मों विशेषश्चैव यः कृतः ॥ भेदस्तथैव चैषां यस्तन्नो ब्रूहि द्विजोत्तम ॥४॥ हे द्विजों मे श्रेष्ठ ! वर्ण और आश्रमों का धर्म वथा इनके घर्मों की विशेषता ऋषियों ने की है, अथवा परस्परके धर्म का भेद, यह आप सब हमसे कहो ॥ ४ ॥ ऋषीणां समवेतानां त्वमेव परमो मतः ॥ धर्मस्येह समस्तस्य नान्यो वक्तास्ति सुव्रत ॥५॥ यहाँ पर जितने ऋषि एकत्रित हुए हैं, उन सबमें तुम्ही श्रेष्ठ माने गये हो, हे सुव्रत! इस कारण तुम्हारे अतिरिक्त सम्पूर्ण धर्मका वक्ता दूसरा नहीं है ॥ ५ ॥ श्रुत्वा धर्म चरिष्यामो यथावत्परिभाषितम् ॥ तस्माद्ब्रूहि द्विजश्रेष्ठ धर्मकामा इमे द्विजाः ॥६॥ आपके कहे हुए धर्म को सुनकर उसी के अनुसार हम सब आचरण करेंगे, यह सभी ब्राह्मण धर्मके श्रवण करनेकी अभिलाषा कर रहे हैं, इसकारण हे द्विजोंमें उत्तम! आप धर्मका वर्णन कीजिये ॥ ६ ॥ इत्युक्तो मुनिभिस्तैस्तु विष्णुः प्रोवाच तांस्तदा । अनघाः श्रूयतां धर्मों वक्ष्य माणो मया कमात् ॥ ७॥ मुनियों के इसप्रकार कहने पर उस समय विष्णुजी बोले कि, हे पापरहितों! मैं जिस धर्म को क्रमानुसार कहूँगा उसको आप सब श्रवण करो ॥ ७ ॥ ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूदश्चैव तथा परे ॥ एते षां धर्मसारं यक्ष्यमाणं निबोधत ॥ ८ ॥ ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शुद्ध तथा इतर (प्रविलोम सङ्कर अन्त्यजादिक) इतने वर्ण लोक में वर्तमान हैं, मेरे कहे हए इन्हीं के धर्म के अनुसार धर्म को आप सुनो ॥ ८ ॥ ऋत्तावृतौ तु संयोगाद्वब्राह्मणो जायते स्वयम् ॥ तस्माद्राह्मणसंस्कारं गर्भादौ तु प्रयोजयेत् ॥ ९॥ ऋतु अर्थात रजोदर्शनसे सोलह दिनके भीतर में स्त्री और पुरुष के संयोग से ब्राह्मण उत्पन्न होते हैं, इसी निमित्त ब्राह्मणका संस्कार गर्भ से लेकर करे यह प्रथम संस्कार गर्भ का है ॥९॥ सीमंतोन्नयनं कर्म न स्त्रीसंस्कार इप्यते ॥ गर्भस्यैव तु संस्कारो गर्भेगर्भे प्रयोजयेत् ॥ १० ॥ सीमंत कर्म स्त्री संस्कार नहीं है, परन्तु गर्भ का ही है, इस कारण प्रतिगर्भ में सीमंत संस्कार करे ॥ १० ॥ जातकर्म तथा कुर्यात्पुत्रे जाते यथोदितम् । वहिर्नीष्क्रमणं चैव तस्य कुर्याच्छिशोःशुभम् ॥२१॥ पुत्रके उत्पन्न होनेपर वेद शास्त्र के अनुसार जातकर्म कर इसके पीछे इस बालक का मंगल सहित बहिनिष्क्रमण करना अर्थात घर से बाहर ले जाना चाहिए ॥ ११ ॥ षष्ठे मासे च संप्राप्त अन्नप्राशनमाचरेत् । तृतीयादे च संप्राप्ते केशकर्म समाचरेत् ॥ १२ ॥ जब छह महीने का बालक हो जाए तब उसका अन्नप्राशन करे और जब तीन वर्ष का हो जाय तब केशकर्म करें ॥१२॥ गर्भाष्टमे तथा कर्म ब्राह्मणस्योपनायनम् ॥ दिजत्वे त्वथः संप्राप्ते सावित्र्यमधि कारभाव ॥ १३ ॥ ब्राह्मण का गर्भ से लगाकर आठवें वर्ष यज्ञोपवीत करे; कारण कि ब्राह्मण होने पर ही गायत्री का अधिकारी होता है ॥१३॥ गर्भादेकादशे सैके कुर्यात्क्षत्रियवैश्ययोः ॥ कारयेद्विजकर्माणि बाह्मणेन यथाक्रमम् ॥ १४ ॥ क्षत्रि यका यज्ञोपवीत गर्भ से लगाकर ग्यारहवें वर्ष में करें; और वैश्य का यज्ञोपवीत बारहवें वर्ष में करना उचित है ॥ १४ ॥ शदश्चतुर्थों वर्णस्तु सर्वसंस्कारवर्जितः ॥ उक्तस्तस्य तु संस्कारो द्विजे स्वात्मनिवेदनम् ॥ १५ ॥ और चौथा शूद्रवर्ण सम्पूर्ण संस्कारों से हीन है; उसका संस्कार केवल यही कहा है कि वह तीनों वर्गों को आत्मसमर्पण करे; अर्थात् उनकी सेवा भली भांति से करता रहे ॥ १५ ॥ यो यस्य विहितो दंडो मेखलाजिनधारणम् ॥ सूत्रं वस्त्रं च गृहीयाब्रह्मचर्येण यंत्रितः ॥ १६ ॥ ब्रह्मचर्य में जिस वर्ण का जो जो दंड, मेखला, मृगछाला, सूत्र, यज्ञोपवीत जनेऊ, वन, अन्यत्र कहे हैं, उसको नियमसहित धारण करें ॥१६॥ ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय चोपस्पृश्य पयस्तथा ॥ त्रिरायम्य ततः प्राणांस्तिष्ठेन्मौनी समाहितः ॥१७॥ ब्राह्म मुहूर्त में उठकर शुद्ध जल से तीन बार आचमन और प्राणायाम करके सावधान होकर मौन धारण कर बैठे ॥ १७ ॥ अव्दै वतैः पवित्रैस्तु कृत्वात्मपरिमार्जनम् ॥ सावित्री च जपंस्तिष्ठेदा सूर्योदयनात्पुरा ॥१८॥ अप (जल) देवता है' ऐसे मंत्रों से देह का मार्जन कर, पूर्वमुख होकर सूर्योदय तक गायत्री का जप करता हुआ बैठा रहे ॥ १८ ॥ अग्निकार्य ततः कुर्यात्मातरेव व्रतं चरेत् ॥ गुरवे तु ततः कुर्यात्पादयोरभिवा दनम् ॥१९॥ इसके बाद अग्निहोत्र करे, और प्रातःकाल के समय ही व्रत करे, इसके उपरान्त गुरुके चरणों में प्रणाम करे ॥१९॥ समित्कुशांश्चोदकुंभमाहृत्य गुरवे व्रती ॥ प्रांजलिः सम्यगा सीन उपस्थाय यतः सदा ॥२०॥ समिधा, कुशा, और जल का घडा गुरुके लिये लाकर हाथ जोड भलीभाँति जितेन्द्रिय होकर गुरु के सन्मुख बैठ कर गुरु की स्तुति करके सावधानी से रहा करे, इस प्रकार से सर्वदा नियम पालन करे ॥२०॥ यंयं ग्रंथमधीयीत तस्यतस्य व्रतं चरेत् ॥ सावित्र्युपक्रमात्सर्वमावेदग्रहणोत्तरम् ॥ २१॥ जिस ग्रन्थ को पढे उसी ग्रन्थ का व्रत करे; और गायत्री के उपदेश से सम्पूर्ण वेद के पठनपर्यन्त ॥२१॥ द्विजातिषु चरेक्ष्यं मिक्षाकाले समागते ॥ निवेद्य गुरवेश्नीयात्संमतो गुरुणा व्रती ॥ २२ ॥ तीनों द्विजातियों में भिक्षा के समय भिक्षाटन करे, उस भिक्षा को गुरु देव को निवेदन करके गुरु की सम्मति से ब्रह्मचारी भोजन करें ॥२२॥ सायंसन्ध्यामुपासीनो गायत्र्यष्टशतं जपेत् ॥ द्विकालभोजनार्थ च तथैव पुनराहरेत् ॥ २३ ॥ सायंकाल की संध्या करने समय अष्टोत्तरशत गायत्रीका जप करें और सायंकाल को भोजन लिये उसी भांति भिक्षा के निमित्त जाए ॥२३॥ वेदस्वीकरणे हृष्टो गुर्वधीनो गुरोर्हितः ॥ निष्ठां तत्रैव यो गचछेन्नैष्ठीकस्य उदाहृतः ॥२४॥ जो ब्रह्मचारी वेद पढने में प्रसन्न और गुरु के आधीन तथा गुरु का हितकारी होता है; और जो मृत्युकाल तक गुरु के यहांही निवास करता है उसी को नैष्टिक ब्रह्मचारी कहते हैं ॥२४॥ अनेन विधिना सम्यक्कृत्वा वेदमधीत्य च ॥ गृहस्थधर्ममाकांक्षन्गुरुगहादुषागतः ॥२५॥ इस प्रकार से ब्रह्मचर्य धर्म को करके वेद को पढ कर गुरुदेव के घरसे आकर गृहस्थ धर्म की आकांक्षा करे ॥ २५॥ अननैव विधानेन कुर्याद्वारपरिग्रहम् ॥ कुले महति सम्भूतां सवर्णा लक्षणान्विताम् ॥२६॥ शास्त्र की विधि अनुसार इसी प्रकार स्त्री का पाणिग्रहण करे, उच्च कुल में उत्पन्न हुई सजातीय सुलक्षणा स्त्री का ॥२६॥ परिणीय तु षण्मासान्वत्सरं वा न संविशेत् ॥ औदुंबरायणो नाम ब्रह्मचारी गहेगृहे ॥२७॥ विवाह करके जो छः महीने अथवा एक वर्ष तक स्त्री का संग नहीं करता है, उस घर ब्रह्मचारी को घर घर में औदुंबरायण नाम से पुकारते हैं ॥२७॥ ऋतुकाले तु संप्राप्ते पुत्रार्थी संविशेत्तदा ॥ जाते पुत्रे तथा कुर्याद्मयाधेयं गृहे वसन ॥२८॥ जिस समय स्त्री ऋतुमती हो तो पुत्र की इच्छा से स्त्री का संसर्ग कर; पुत्र के उत्पन्न हो जाने पर घर में रहता हुआ भी अग्निहोत्र ग्रहण करे ॥२८॥ पुत्रे जातेऽनृतौ गच्छन्सप्रदुष्येत्सदा गृही ॥ चतुयें ब्रह्मचारी च गृहे तिष्ठत्र विस्मृतः ॥ २९ ॥ पुत्र उत्पन्न होनेके पीछे स्त्री को बिना ऋतु हुए स्त्रीसंग करनेसे गृहस्थी दोषी होता है; और चौथे पुत्र होनेपर गृहस्थी हो के भी जान बूझकर ब्रह्मचर्य ही रखें ॥ २९ ॥ इति वैष्णवधर्मशास्त्रे प्रथमोऽध्यायः ॥१॥ वैष्णवधर्मशास्त्र का प्रथम अध्याय पूरा हुआ

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