Yoga Kundalini Upanishad Chapter 2 (योगकुण्डलिनी उपनिषद) द्वितीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ योगकुण्डलिन्युपनिषत् ॥ योगकुण्डलिनी उपनिषद द्वितीयोऽध्यायः द्वितीय अध्याय अथाहं सम्प्रवक्ष्यामि विद्यां खेचरिसंज्ञिकाम् । यथा विज्ञानवानस्या लोकेऽस्मिन्नजरोऽमरः ॥ १॥ अब खेचरी विद्या का वर्णन करते हैं, जिसे जान लेने के बाद व्यक्ति अजर-अमर हो जाता है॥१॥ मृत्युव्याधिजराग्रस्तो दृष्ट्वा विद्यामिमां मुने । बुद्धिं दृढतरां कृत्वा खेचरीं तु समभ्यसेत् ॥ २॥ जो मनुष्य जरा, मृत्यु और रोगों से ग्रसित है, वह दृढ़ निश्चय करके खेचरी विद्या का अभ्यास करे ॥२॥ जरामृत्युगद्‌घ्नो यः खेचरीं वेत्ति भूतले । ग्रन्थतश्चार्थतश्चैव तदभ्यासप्रयोगतः ॥ ३॥ तं मुने सर्वभावेन गुरुं मत्वा समाश्रयेत् । दुर्लभा खेचरी विद्या तदभ्यासोऽपि दुर्लभः ॥ ४॥ बुढ़ापा, मृत्यु और रोगों का विनाश करने वाली इस खेचरी को इस पृथ्वी पर जो व्यक्ति ग्रन्थों के द्वारा, उनके भावों के द्वारा जानकर अभ्यास करते हों, इसका ज्ञान रखते हों, उन्हें समर्पित होकर, गुरु मानकर इसकी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। यह खेचरी विद्या तथा उसका अभ्यास दोनों दुर्लभ हैं॥३-४॥ अभ्यासं मेलनं चैव युगपन्नैव सिध्यति । अभ्यासमात्रनिरता न विन्दन्ते ह मेलनम् ॥ ५॥ इस खेचरी विद्या का अभ्यास एवं मेलन (साधना) साथ-साथ सिद्ध होता है, केवल अभ्यास करने से 'मेलन' (सिद्धि) की प्राप्ति नहीं हो पाती ॥५॥ अभ्यासं लभते ब्रह्मज्ञ्जन्मजन्मान्तरे क्वचित् । मेलनं तु जन्मनां शतान्तेऽपि न लभ्यते ॥ ६॥ हे ब्रह्मन् ! किसी जन्म में अभ्यास तो मिल भी जाता है, पर मेलन सैकड़ों जन्मों में भी नहीं मिलता ॥६॥ अभ्यासं बहुजन्मान्ते कृत्वा तद्भावसाधितम् । मेलनं लभते कश्चिद्योगी जन्मान्तरे क्वचित् ॥ ७॥ भाव के सहित बहुत जन्मों में साधना करने पर किसी जन्म में योगी को मेलन प्राप्त हो जाता है॥७॥ यदा तु मेलनं योगी लभते गुरुवक्त्रतः । तदा तत्सिद्धिमाप्नोति यदुक्ता शास्त्रसन्ततौ ॥ ८॥ साधक जब गुरु के श्रीमुख से 'मेलन' मंत्र ग्रहण करता है एवं शास्त्रीय परम्परानुसार साधना करता है, तब (कहीं) सिद्धि मिलती है॥८ ॥ ग्रन्थतश्चार्थतश्चैव मेलनं लभते यदा । तदा शिवत्वमाप्नोति निर्मुक्तः सर्वसंसृतेः ॥ ९॥ ग्रंथ के निर्देशानुसार अथवा उसके भावानुसार जब विधिवत् जान कर मेलन को प्राप्त कर लेता है, तब साधक संसार-सागर से मुक्त होकर शिवस्वरूप हो जाता है॥९॥ शास्त्रं विनापि संबोधुं गुरवोऽपि न शक्नुयुः । तस्मात्सुदुर्लभतरं लभ्यं शास्त्रमिदं मुने ॥ १०॥ शास्त्र के बिना गुरु भी ज्ञान प्राप्त नहीं करा सकते, इसलिए हे मुने ! शास्त्र को प्राप्त होना जरूरी है; क्योंकि यह शास्त्र बहुत महत्त्वपूर्ण है॥१०॥ यावन्न लभ्यते शास्त्रं तावद्गां पर्यटेद्यतिः । यदा संलभ्यते शास्त्रं तदा सिद्धिः करे स्थिता ॥ ११॥ यति (साधक) को चाहिए कि जब तकशास्त्र' की प्राप्ति न हो जाए, तब तक धरती पर घूम-घूम कर उसे ढूंढना चाहिए। सच्चा शास्त्र- ज्ञान प्राप्त हो जाने पर हाथों-हाथ सिद्धि प्राप्त हो जाती है॥११॥ न शास्त्रेण विना सिद्धिर्दृष्टा चैव जगत्त्रये । तस्मान्मेलनदातारं शास्त्रदातारमच्युतम् ॥ १२॥ तदभ्यासप्रदातारं शिवं मत्वा समाश्रयेत् । लब्ध्वा शास्त्रमिदं मह्यमन्येषां न प्रकाशयेत् ॥ १३॥ तीनों लोकों में बिना शास्त्र ज्ञान के सिद्धि नहीं मिल सकती। इसलिए शास्त्र का ज्ञान देने वाला और मेलन (योग) का अभ्यास कराने वाला गुरु भगवान् की प्रतिमूर्ति होता है, उसका अभ्यास कराने वाले को 'शिव' मानकर उसका आश्रय लेना चाहिए। यह ज्ञान प्राप्त करके अन्य (अनधिकारी) के समक्ष न प्रकट करे ॥१२-१३॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गोपनीयं विजानता । यत्रास्ते च गुरुर्ब्रह्मन्दिव्ययोगप्रदायकः ॥ १४॥ तत्र गत्वा च तेनोक्तविद्यां संगृह्य खेचरीम् । तेनोक्तः सम्यगभ्यासं कुर्यादादावतन्द्रितः ॥ १५॥ इसे हर प्रकार से गोपनीय रखते हुए, जहाँ भी इस दिव्य ज्ञान 'योग' में पारंगत गुरु मिलें, उन्हीं के पास जाकर खेचरी विद्या को ग्रहण कर उनके निर्देशानुसार जागरूक होकर अभ्यास करना चाहिए ॥१४- १५॥ अनया विद्यया योगी खेचरीसिद्धिभाग्भवेत् । खेचर्या खेचरीं युञ्जन्खेचरीबीजपूरया ॥ १६॥ खेचराधिपतिर्भूत्वा खेचरेषु सदा वसेत् । खेचरावसथं वह्निमम्बुमण्डलभूषितम् ॥ १७॥ इस विद्या से योगी को खेचरी अर्थात् आकाश में उड़ने की शक्ति प्राप्त होती है, इसलिए खेचरी का अभ्यास खेचरी बीज (मन्त्र) के योग के साथ करना चाहिए। इस प्रकार का साधक आकाशगामी देवताओं का अधिपति होकर आकाश में विचरण करता रहता है। खेचरी के बीज मंत्र में खेचर का रूप 'ह' कार, आवसथ अर्थात् धारणा को रूप 'ई' कार, अग्नि को रूप 'र' कार और जल का रूप 'अनुस्वार' अर्थात् बिन्दु है। (इस प्रकार इन सबका योग 'हीं होता है) ॥१६-१७ ॥ आख्यातं खेचरीबीजं तेन योगः प्रसिध्यति । सोमांशनवकं वर्णं प्रतिलोमेन चोद्धरेत् ॥ १८ ॥ तस्माल्यंशकमाख्यातमक्षरं चन्द्ररूपकम् । तस्मादप्यष्टमं वर्णं विलोमेन परं मुने ॥ १९॥ तथा तत्परमं विद्धि तदादिरपि पञ्चमी । इन्दोश्च बहुभिन्ने च कूटोऽयं परिकीर्तितः ॥ २०॥ खेचरी योग इसी (बीजमन्त्र) से सिद्ध होता है। (इसके आगे) सोमांश चन्द्रबीज 'स' कार होता है, इसके उल्टे गिनने पर नवें अक्षर पर 'भ' है, पुनः चन्द्रबीज'स' कार है, इसके उल्टे गिनने पर अष्टम अक्षर पर 'म' है, इससे पाँच अक्षर उल्टा गिनने पर 'प' है, पुनः चन्द्रबीज 'स' कार एवं संयुक्त वर्ण युक्त 'क्ष' सबसे अन्तिम अक्षर है। (इस तरह हीं, में, सं, में, पं, सं, क्षं खेचरी का मंत्र होता है ।) ॥ १८-२०॥ गुरूपदेशलभ्यं च सर्वयोगप्रसिद्धिदम् । यत्तस्य देहजा माया निरुद्धकरणाश्रया ॥ २१॥ स्वप्नेऽपि न लभेत्तस्य नित्यं द्वादशजप्यतः । य इमां पञ्च लक्षाणि जपेदपि सुयन्त्रितः ॥ २२॥ तस्य श्रीखेचरीसिद्धिः स्वयमेव प्रवर्तते । नश्यन्ति सर्वविघ्नानि प्रसीदन्ति च देवताः ॥ २३॥ गुरु के द्वारा विधिवत् उपदेश लेकर इस मंत्र का जप करने से यह सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है। इस मंत्र का प्रतिदिन द्वादश बार जप करने से देह में स्थित माया का स्वप्न में भी प्रभाव नहीं पड़ता। इस मंत्र का जो नियमपूर्वक पाँच लाख जप करता है, उस व्यक्ति की खेचरी स्वयमेव सिद्ध हो जाती है तथा उसके जीवन के सभी विघ्र समाप्त हो जाते हैं एवं उसे देवताओं की प्रसन्नता प्राप्त होती है॥ २१-२३॥ वलीपलितनाशश्च भविष्यति न संशयः । एवं लब्ध्वा महाविद्यामभ्यासं कारयेत्ततः ॥ २४॥ शरीर में पड़ी झुर्रियों एवं पके केश जैसे लक्षण समाप्त हो जाते हैं अर्थात् वृद्ध भी युवा हो जाता है, इसमें शंका नहीं करनी चाहिए, इसलिए इस महाविद्या का भली-भाँति अभ्यास करना चाहिए ॥ २४। अन्यथा क्लिश्यते ब्रह्मन्न सिद्धिः खेचरीपथे । यदभ्यासविधौ विद्यां न लभेद्यः सुधामयीम् ॥ २५॥ ततः संमेलकादौ च लब्ध्वा विद्यां सदा जपेत् । नान्यथा रहितो ब्रह्मन्न किञ्चित्सिद्धिभाग्भवेत् ॥ २६॥ हे ब्रह्मन् ! ऐसा न करने से इस खेचरी की सिद्धि नहीं होती, उल्टे कष्ट ही उठाना पड़ता है। सम्यक् प्रकार से अभ्यास के बाद भी यदि सिद्धि न मिले, तो भी मार्गदर्शक के द्वारा निर्देशित मार्ग का त्याग न करे। निरंतर इसका जप करना चाहिए, बिना उपयुक्त मार्गदर्शक के सिद्धि सम्भव नहीं ॥ २५-२६॥ यदिदं लभ्यते शास्त्रं तदा विद्यां समाश्रयेत् । ततस्तदोदितां सिद्धिमाशु तां लभते मुनिः ॥ २७॥ यदि यह शास्त्र प्राप्त हो जाये, तो इस विद्या का अभ्यास करे। इस प्रकार भली प्रकार से साधना करने पर साधक को सिद्धि शीघ्र प्राप्त हो जाती है॥२७॥ तालुमूलं समुत्कृष्य सप्तवासरमात्मवित् । स्वगुरूक्तप्रकारेण मलं सर्वं विशोधयेत् ॥ २८॥ सबसे पहले साधक गुरु के निर्देशानुसार तालु के मूल स्थान को सात दिनों तक घिसे, जिससे उसका मैल दूर हो जाये ॥२८॥ सुहिपत्रनिभं शस्त्रं सुतीक्ष्णं स्निग्धनिर्मलम् । समादाय ततस्तेन रोममात्रं समुच्छिनेत् ॥ २९॥ इसके बाद थूहर के पत्ते की तरह तीक्ष्णधारयुक्त किसी पवित्र औजार से जिह्वा मूल (नीचे के जबड़े से जीभ को जोड़ने वाले तन्तु) को बाल के बराबर गुरु से कटाये या स्वयं काटे ॥२९॥ हित्वा सैन्धवपथ्याभ्यां चूर्णिताभ्यां प्रकर्षयेत् । पुनः सप्तदिने प्राप्ते रोममात्रं समुच्छिनेत् ॥ ३०॥ हरड़ और सेंधा नमक का चूर्ण कटे हुए स्थान पर सात दिन तक बुरकता रहे, इसके बाद पुनः उसी प्रकारे 'बाल मात्र (तनिक सा) काटे ॥३०॥ एवं क्रमेण षण्मासं नित्योद्युक्तः समाचरेत् । षण्मासाद्रसनामूलं सिराबद्धं प्रणश्यति ॥ ३१॥ इस तरह लगातार छः महीने प्रयास करने से जीभ का (निचले जबड़े से) सम्बन्ध कट जाता है॥३१॥ अथ वागीश्वरीधाम शिरो वस्त्रेण वेष्टयेत् । शनैरुत्कर्षयेद्योगी कालवेलाविधानवित् ॥ ३२॥ पुनः षण्मासमात्रेण नित्यं सङ्घर्षणान्मुने । भ्रूमध्यावधि चाप्येति तिर्यक्कणबिलावधिः ॥ ३३॥ अधश्च चुबुकं मूलं प्रयाति क्रमचारिता । पुनः संवत्सराणां तु तृतीयादेव लीलया ॥ ३४॥ केशान्तमूर्ध्वं क्रमति तिर्यक शाखावधिर्मुने । अधस्तात्कण्ठकूपान्तं पुनर्वर्षत्रयेण तु ॥ ३५॥ ब्रह्मरन्ध्र समावृत्य तिष्ठेदेव न संशयः । तिर्यक् चूलितलं याति अधः कण्ठबिलावधि ॥ ३६॥ तब जिह्वा के आगे वाले हिस्से में वस्त्र लपेटकर धीरे-धीरे बाहर की ओर को दोहन करना चाहिए। इस तरह नियमित रूप से अभ्यास करने पर जिह्वा बढ़कर बाहर भृकुटियों के बीच तक पहुँच जायेगी तथा और ज्यादा अभ्यास होने पर दोनों बगल, कान तक पहुँचने लगेगी। बाहर निकलने पर ठोड़ी तक पहुँच जायेगी। इस अभ्यास को यदि बराबर तीन वर्ष तक बनाये रखा जाये, तो जिह्वा सिर के बालों तक पहुँचने लगेगी। इस प्रकार अभ्यास करते रहा जाए, तो जीभ बगल में कन्धे तक एवं नीचे कण्ठकूप तक पहुँच जाती है। आगे और तीन वर्षों तक यदि अभ्यास किया जाये, तो वह गर्दन के पीछे और नीचे कण्ठ के अन्तिम भाग तक पहुँच जाती है। इस प्रकार जिह्वा सिर के ऊपर ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँच कर उसे ढक लेगी, इसमें कोई संशय नहीं है॥३२-३६॥ शनैः शनैर्मस्तकाच्च महावज्रकपाटभित् । पूर्वं बीजयुता विद्या ह्याख्याता यतिदुर्लभा ॥ ३७॥ तस्याः षडङ्गं कुर्वीत तया षट्स्वरभिन्नया । कुर्यादवं करन्यासं सर्वसिद्धयादिहेतवे ॥ ३८॥ इस तरह क्रमशः अभ्यास करने पर जिह्वा ब्रह्मरन्ध्र का भेदन कर जाती है। सभी बीजाक्षरों की विधि सहित यह विद्या बहुत कठिन है। पूर्व में कहे हुए इन छः बीजाक्षरों से करन्यास एवं षडंगन्यास करने से ही पूरी सिद्धि मिल सकती है॥३७-३८॥ शनैरेवं प्रकर्तव्यमभ्यासं युगपन्नहि । युगपद्वर्तते यस्य शरीरं विलयं व्रजेत् ॥ ३९॥ तस्माच्छनैः शनैः कार्यमभ्यासं मुनिपुङ्गव । यदा च बाह्यमार्गेण जिह्वा ब्रह्मबिलं व्रजेत् ॥ ४०॥ तदा ब्रह्मार्गलं ब्रह्मन्दुर्भेद्यं त्रिदशैरपि । अङ्‌गुल्यग्रेण संघृष्य जिह्वामात्रं निवेशयेत् ॥ ४१॥ एवं वर्षत्रयं कृत्वा ब्रह्मद्वारं प्रविश्यति । ब्रह्मद्वारे प्रविष्टे तु सम्यङ्गथनमाचरेत् ॥ ४२॥ यह अभ्यास बड़ी सावधानी रखते हुए धीरे-धीरे क्रमशः करना चाहिए। जल्दी-जल्दी किया गया अभ्यास शरीर को हानि पहुँचा सकता है। इसलिए इसके अभ्यास में जल्दी नहीं करनी चाहिए। यदि बाह्य (स्थूल) विधि से जिह्वा ब्रह्म विवर में प्रवेश कर जाये, तब अँगुली के अग्रभाग से उठाकर उसे विवर के भीतर कर देना चाहिए ॥ तीन वर्ष तक इस तरह अभ्यास करने पर जिह्वा का प्रवेश ब्रह्म द्वार में हो जाता है। जिह्वा के वहाँ प्रवेश कर जाने पर विधिवत् उसके द्वारा मंथन करना चाहिए ॥ ॥ ३९-४२॥ मथनेन विना केचित्साधयन्ति विपश्चितः । खेचरीमन्त्रसिद्धस्य सिध्यते मथनं विना ॥ ४३॥ ऐसे कई योग्य साधक होते हैं, जो मंथन के बिना ही खेचरी सिद्ध कर लेते हैं, परन्तु जिन्होंने खेचरी मंत्र सिद्ध कर लिया है, वे ही मन्थन के बिना सिद्ध कर पाते हैं (अन्य नहीं) ॥४३॥ जपं च मथनं चैव कृत्वा शीघ्रं फलं लभेत् । स्वर्णजां रौप्यजां वापि लोहजां वा शलाकिकाम् ॥ ४४॥ नियोज्य नासिकारन्धं दुग्धसिक्तेन तन्तुना । प्राणान्निरुध्य हृदये सुखमासनमात्मनः ॥ ४५॥ शनैः सुमथनं कुर्याद्भूमध्ये न्यस्य चक्षुषी । षण्मासं मथनावस्था भावेनैव प्रजायते ॥ ४६॥ यथा सुषुप्तिर्बालानां यथा भावस्तथा भवेत् । न सदा मथनं शस्तं मासे मासे समाचरेत् ॥ ४७॥ सदा रसनया योगी मार्गं न परिसंक्रमेत् । एवं द्वादशवर्षान्ते संसिद्धिर्भवति ध्रुवा ॥ ४८॥ जप और मंथन दोनों करने से जल्दी लाभ मिलता है। मंथन हेतु लोहा, चाँदी या स्वर्ण की शलाका के एक सिरे पर दुग्ध लगा हुआ तन्तु लगाए, पुनः उसे नाक में डाल कर सुखासन में बैठ कर प्राण को हृदय में निरोध करके नेत्रों से भौंहों के मध्य देखते हुए उसी शलाका से मंथन करे। इस प्रकार छः मास तक मंथन करने पर इसका प्रभाव दिखलाई देने लगता है। उस समय साधक की अवस्था सोते हुए बालक की तरह होती है। इस मन्थन को मास में एक बार करे, नित्य न करे। जिह्वा को भी ब्रह्मरन्ध्र में बार-बार प्रविष्ट करे । द्वादश वर्ष तक इसी तरह अभ्यास करने से सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है॥४४- ४८॥ शरीरे सकलं विश्वं पश्यत्यात्माविभेदतः । ब्रह्माण्डोऽयं महामार्गो राजदन्तोर्ध्वकुण्डली ॥ ४९॥ इति ॥ अभ्यास की इस अवस्था में योगी अपने अन्तर में पूरे विश्व का दर्शन कर लेता है; क्योंकि जिह्वा के ब्रह्म विवर में जाने वाले मार्ग में ही ब्रह्माण्ड की स्थिति है ॥४९॥ ॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥ ॥ द्वितीय अध्याय समाप्त ॥

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