Shri Vishnu Smriti Chapter 4 (श्री विष्णु स्मृतिः चौथा अध्याय)

चतुर्थोऽध्यायः चौथा अध्याय यथोत्तमानि स्थानानि प्रामुवंति हटवताः ॥ ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वानप्रस्थो यतिस्तथा ॥ १ ॥ जिस प्रकारसे गृहस्थ, वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी और यति यह चारों दृढव्रत करनेवाले उत्तम स्थान (ब्रह्मलोक) को प्राप्त होते हैं वह यह है कि ॥१॥ विरक्तः सर्वकामेषु पारिवाज्यं समश्रियेत् ॥ आत्मन्यमीन्स रोप्य दवा चाभयदक्षिणाम् ॥ २॥ सब कामनाओं से विरक्त होकर संन्यास को ग्रहण कर अपनी आत्मा में ही अग्नियों को मान कर स्त्री आदिकों को अभयदक्षिणा देकर अर्थात त्याग कर ॥२॥ चतुर्थमाश्रमं गच्छेद्राह्मणः प्रव्रजन्गृहात् ॥ आचार्येण समादिष्टं लिंग यत्नात्समाश्रयेत् ॥ ३ ॥ ब्राह्मण घर से चलकर चौथे आश्रम में गमन करे, आचार्यके बताये हुए चिन्हों को सावधान होकर धारण करे ॥३॥ शौचमाश्रयसम्बन्धं यतिधर्माश्च शि क्षयेत् ॥ अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमफल्गुता ॥ ४॥ संन्यास आश्रम के धर्मों को सीखे, शौच और संन्यासियों के धर्मो को सीखता रहे, अहिंसा, सत्य, चोरी को छोड देना, ब्रह्मचर्य, अफल्गुता अर्थात निरर्थकपन का त्याग ॥४॥ दयां व सर्वभूतेषु नित्यमेतद्यति श्चरेत् ॥ ग्रामाते वृक्षमूले च नित्यकालनिकेतनः ॥ ५॥ समस्त प्राणियों पर दया करना, यति इतने कर्मों को नित्यप्रति अवश्य करे और ग्राम के निकट किसी वृक्ष के नीचे सदा अपना स्थान बनाकर रात भर रहै ॥५॥ पर्यटकीटवभूमि वर्षा स्खेकत्र संविशेत् ॥ वृद्धानामातुराणां च भीरूणां संगवर्जितः ॥ ६ ॥ वर्षाऋतु में एक स्थान पर बैठा रहै, और कीड़े की समान पृथ्वी पर भ्रमण करे, वृद्ध, रोगी, भयानक इनकी संगति न करे ॥६॥ ग्रामे वापि पुरे वापि वासो नैकत्र दुष्यति ॥ कौपीनाच्छादनं वासः कथां शीताप हारिणीम् ॥७॥ वर्षाकालके समय ग्राम में अथवा नगरमें जो यति एक स्थान पर रहता है वह दूषित नहीं होता; कौपीन ओढने का वस्त्र जिससे कि सरदी न लगे, ऐसी ही कंथा (गुदडी) ॥७॥ पादुके चापि गृहीयात्कुर्यान्नान्यस्य संग्रहम् ॥ संभाषणं सह स्त्रीभिरालंभप्रेक्षणे तथा ॥ ८॥ और खडाऊं इनको ग्रहण करे, और इनके अलावा कुछ भी संग्रहण न करे, स्त्रियों का स्पर्श और उनके साथ वार्तालाप तथा देखना ॥८॥ नृत्यं गानं सभा सेवां परिवादांश्च वर्ज येत् ॥ वानप्रस्थगृहस्थाभ्यां प्रीति यत्नेन वर्जयेत् ॥ ९॥ नाच, गान, सभा, सेवा, नौकरी, निन्दा, इनको छोड दे, वानप्रस्थ और गृहस्थी इनका संग भी यत्नसहित त्याग दे ॥९॥ एकाकी विचरेन्नित्यं त्यक्त्वा सर्वपरिग्रहम् ॥ याचितायाचिताभ्यां तु भिक्षया कल्पयेत्स्थितिम् ॥ १० ॥ सम्पूर्ण परिग्रह त्यागकर केवल अकेला भ्रमण करै; मांगे था बिना मांगे से ही जो मिल जाय उसी भिक्षा से अपना निर्वाह करै ॥१०॥ साधुकारं याचितं स्यात्माप्रणीतमयाचितम् ॥ चतुर्विधा भिक्षुकाः स्युः कुटीचकर दकौ ॥ ११ ॥ हंसः परमहंसश्च पश्चायो यः स उत्तमः ॥ एकदंडी भवेदापि त्रिदंडी वापि वा भवेत् ॥१२॥ अच्छा कहकर लेने वाले को याचित, बिना मांगे जो मिले उसे अयाचित, कहते हैं; यह संन्यासी चार प्रकारके होते हैं १ कुटीचक, २ वहूदक ३ हंस, ४ परमहंस इनमें जो २ पिछला है वही वही उत्तम है एक दंड को धारण कर या तीन दंड को ॥११-१२॥ त्यक्त्वा सर्वसुखास्ववादं पुत्रैश्वर्यसुखं त्यजेत् ॥ अपत्येपु वसेन्नित्यं ममत्वं यत्नतस्त्यजेत् ॥१३॥ सम्पूर्ण सुखों के स्वाद को छोडकर पुत्र के ऐश्वर्य के सुख को त्याग दे; अपने पुत्रों में ही नित्य निवास करे, और यत्न पूर्वक ममता को त्या दे ॥१३॥ ना न्यस्य गैहे भुंजीत झुंजानो दोषभाग्भवेत् ॥ कामं क्रोधं च लोभं च तयॆप्यासत्यमे व च ॥ १४ ॥ दूसरे के घर में भोजन न करे, जो परायें घर में भोजन करता है वह दोष का भागी होता है और काम क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, झुठ, इन सबको ॥१४॥ कुटीचकस्त्यजेत्सर्वं पुत्रार्थ चैव सर्वतः ॥ भिक्षाटनादिकशक्तो यतिः पुत्रपु संन्यसेत् ॥ १५॥ कुटीचक आगंद त्याग दे और समस्त वस्तु जो कि संचित की है पुत्र ले लिए छोड दे; अपने आप भिक्षाटनदि में असमर्थ होकर सन्यासी अपने पुत्रो को ही देह को सौंप दे ॥१५॥ कुटीचक इति ज्ञेयः परिव्राट् त्यत्तबांधवः ।। त्रिदंडं कुंडिका चव भिक्षापार तथैव च ॥ १६ ॥ सूत्र तथैव गृहीयानित्यमेव बहूदकः ॥ प्राणायामेऽप्यभिरतो गायत्री सततं जपेत् ॥ १७ ॥ इस संन्यासीको कुटीचक कहते हैं, दूसरा बंधु जिसने अपने त्याग दिये हैं ऐसा संन्यासी त्रिदंड, कुंडी, भिक्षा का पात्र और यज्ञोपवीत इनको बहूदक नित्य ग्रहण करे, प्राणायाम में तत्पर रह और निरन्तर गायत्री का जप करता रहे ॥१६-१७॥ विश्वरूपं हदि ध्यायनयेत्कालं जितेंद्रियः ॥ ईपरकृतकपायस्प लिंगमाश्रित्य तिष्ठतः ॥१८॥ हृदय में भगवान् का ध्यान कर इंद्रियों को जीतकर समय बिताता रहे, कुछ वस्त्रों को गेरुवा रंगकर एक चिन्ह अर्थात संन्यास की पहचान बनाकर स्थित हुए संन्यासी का ॥१८॥ अन्नार्थ लिंगमुद्दिष्टं न मोक्षार्थमिति स्थितिः ॥ त्यक्त्वा पुत्रादिकं सर्व योगमार्ग व्यवस्थितः ॥१९॥ चिह्न अन्न के निमित्त कहा है, मोक्षके लिये नहीं कहा, ऐसी मर्यादा है। तीसरे इसमें सम्पूर्ण पुत्रादिकों को त्याग कर और योग मार्ग में स्थित रहकर ॥१९॥ इंद्रियाणि मनश्चैव कर्पन्हंसोऽभिधीयते ॥ कृच्द्रश्चान्द्रायणैश्चैव तुलापुरुषसंज्ञकैः ॥ २० ॥ अन्यैश्व शोषयेदेहमाकांक्षन्ब्रह्मणः पदम् ॥ यज्ञोपवीतं दंडं च वस्त्रं जंतुनिवारणम् ॥२१॥ जो इन्द्रिय और मन को वश में करता है उस संन्यासी को हंस कहते हैं। कृच्छ्रचांद्रायण, तुलापुरुष और इतर व्रतो से ब्रह्मपद की इच्छा करता हुआ सन्यासी अपने शरीर को सुखादे, यज्ञोपवीत, दंड, और जिससे मक्खी आदि जीव शरीरपर न गिर ऐसा वस्त्र ॥२०-२१॥ अयं परिग्रहो नान्यो हंसस्य श्रुतिवेदिनः ॥ आध्यात्मिकं ब्रह्म जपन्प्राणायामांस्तथाचरन् ॥२२॥ वेद के ज्ञाता हंस को यही परिग्रह है, इससे अलग नहीं है। चौथा अपनी आत्मा में व्यापक ब्रह्म को जपता और प्राणायामों को करता हुआ ॥२२॥ वियुक्तः सर्वसंगेभ्यो योगी नित्यं चरेन्महीम् ॥ आत्मनिष्ठः स्वयं युक्तस्त्यक्तसर्वपरिग्रहः ॥ २३ ॥ सव संगोंसे रहित और आत्मा में स्थित, और जिसने युक्त होकर गृहआदिकों को त्याग दियाहै, वह नित्य पृथ्वी पर विचरण करै ॥२३॥ चतुर्थोऽयं महानेषां ध्यानभि रुदाहृतः ॥ त्रिदंडं कुंडिकां चैवं सूत्रं चाथ कपालिकाम् ॥२४॥ यह चौथा इन चारों में बड़ा और ज्ञानभिक्षु (परमहंस) को कहा है, त्रिदंड, कुंडी, यज्ञोपवीत, भिक्षा का पात्र ॥२४॥ जंतूनां वारणं वस्त्रं सर्वे भिक्षरिदं त्यजेत् ॥ कौपीनाच्छादनार्थं च वासोऽधश्च परिग्रहेत् ॥२५॥ जंतुओं का निवारण करने योग्य वस्त्र इन सबको भिभुक त्याग दे, कौपीन ओढने का वस्त्र, केवल इनको ही धारण ॥२५॥ कुर्यात्परमहंसस्तु दंडमेकं च धारयेत् ॥ मात्मन्येवात्मना बुद्ध्या परित्यक्तशुभाशुभः ॥२६॥ परमहंस करे, और एक दंड का धारण करें; और अपनी बुद्धि से सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मो का त्याग कर दे ॥२६॥ अव्यक्तलिंगो ऽव्यक्तश्च चरेब्रिक्षुः समाहितः ॥ प्राप्तपूजो न संतुष्येदलामे त्यक्तमत्सरः ॥२७॥ अपने चिन्हों को छिपाकर और अप्रकट होकर सावधान हुआ विचरण करे; पूजा की प्राप्ति से प्रसन्न नहीं हो और जो पूजा न हो तो क्रोध भी नहीं करे ॥२७॥ त्यक्ततृष्णः सदा विद्वान्मूकवत्पृथिवीं चरेत् ॥ देहसंरक्षणार्थ तु भिक्षामीहेद्विजातिषु ॥२८॥ तृष्णा को त्यागकर गूंगे के समान मौन धारण कर पृथ्वी में भ्रमण करे; और केवल देह की रक्षा के निमित्त ही भिक्षा को द्विजातियों अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, इन तीन जातियों के घर से मांगे ॥२८॥ पात्रमस्य भवेत्पाणिस्तेन नित्यं गृहानटेत् ॥ अतैजसानि पात्राणि भिक्षार्थ कृप्तवान्मनुः ॥ २९ ॥ भिक्षुक का पात्र हाथ ही है उसी से नित्य गृहों में, भिक्षा मांगने के लिए, विचरण करे। और मनुजी ने भिक्षा के लिये बिना धातु, तांबा आदि के पात्र रचे हैं ॥ २९ ॥ सर्वेषामेव भिक्षूणां दार्वलातुमयानि च ॥ कांस्यपात्रे न झुंजीत आपद्यपि कथंचन ॥ ३० ॥ सम्पूर्णः भिक्षुकों को, काष्ठ, तांबा आदि के पात्र कहे हैं। विपत्ति आने पर भी कांसे के पात्रों में भोजन नहीं करना चाहिए ॥३०॥ मलाशाः सर्व उच्यते यतयः कांस्यभोजिनः ॥ कांसिकस्य तु यत्पापं गृहस्थस्य तथैव च ॥ ३१ ॥ जो यति कांसे के पात्र में भोजन करते हैं, उन्हें विष्ठा का खानेवाला कहा है; कांसे के पात्र बनाने वाले को और उसमें भोजन करने वाले गृहस्थ को जो पाप होताहै ॥३१॥ कांस्यभोजी यतिः सर्व तयोः प्राप्नोति किल्विषम् ॥ ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा ॥ ३२ ॥ उन दोनों का वह पाप कांसे के पात्रमें भोजन करनेवाले संन्यासी को प्राप्त होता है। जो ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी ॥ ३२॥ उत्तमा वृत्तिमाश्रित्य पुन रावर्तयेद्यदि ॥ आरूढपतितो ज्ञेयः सर्वधर्मबहिष्कृतः ॥ ३३ ॥ उत्तम आचरणको स्वीकार कर फिर उसका त्याग करता है, उस आरूढ़ पतित जानना चाहिए और वह समस्त धर्मों से बहिष्कृत है ॥३३॥ निधश्च सर्व देवानां पितृणां च तयोच्यते ॥ त्रिदंडं लिंगमाश्रित्य जीवंर्ति बहवों द्विजाः ॥३४॥ और वह सब देवता और पितरोंमें निद्रित कहाता है। त्रिदंड (संन्यास) के आश्रयसे बहुतसे द्विज जीवन करते हैं ॥३४॥ न तेषामपवर्गोऽस्ति लिंगमात्रीपजीविनाम् ॥ त्यक्त्वा लोशांश्च वेदांश्च विषयानिन्द्रियाणि च ॥ ३५ ॥ आत्मन्यव स्थितो यस्तु प्रामोति परमं पदम् ।। ३६ ॥ लिंग मात्र से ही जीवन धारण करनेवाले को मोक्ष नहीं मिलता और जो लोक, वेद, विषय, इन्द्रिय, इनको त्यागकर, आत्मा के विषय में ही स्थित रहता है, वह परमपद को प्राप्त होता है ॥३५- ३६॥ इति वैष्णवे धर्मशास्त्र चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

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