Shri Vishnu Smriti Chapter 5 (श्री विष्णु स्मृतिः पांचवां अध्याय)

पंचमोऽध्यायः पांचवां अध्याय राज्ञां तु पुण्यवृत्तानां त्रिवर्गपरिकांक्षिणाम् ॥ वक्ष्यमाणस्तु यो धर्मस्तत्वतस्तनिवोधत ॥ १॥ पवित्र आचरण वाले धर्म अर्थ काम के अभिलापी राजाओं का जो धर्म है इसको मैं कहता हूँ, तुम श्रवण करो ॥१॥ तेजः सत्यं धृतिर्दाक्ष्यं संग्रामेष्वनिवर्तिता ॥ दानमीवरभावश्च क्षत्रधर्मः प्रकीर्तितः ॥ २॥ तेज, सत्य, धैर्य, दक्षता, संग्राम में न भागना, दान, ईश्वरता, यथार्थ न्याय करना यह क्षत्रियों का धर्म कहा है ॥२॥ क्षत्रियस्प परो धर्मः प्रजानां परिपालनम् ॥ तस्मात्मई प्रयत्नेन रक्षयेन्नृपतिः प्रजाः ॥ ३ ॥ प्रजाओं का पालन करना क्षत्रियों का परम धर्म है, इस कारण यत्न पूर्वक राजा को प्रजाओं की रक्षा करनी चाहिए ॥३॥ त्रीणि कर्माणि कुर्वीत राजन्यस्तु प्रयत्नतः ॥ दानमध्ययनं यज्ञं ततो योगनिषेवणम् ॥४॥ क्षत्रिय को यत्नपूर्वक, तीनों कर्मों को करना चाहिए, दान, पढना, वन, और फिर योगमार्ग का सेवन ॥४॥ ब्राह्मणानां च संतुष्टिमाचरेत्सततं तथा ॥ तेष तुष्टेषु नियतं राज्य कोशश्च वर्धते ॥५॥ सर्वदा ब्राह्मणोंको संतोष देनेवाला आचरण करता है, उनके प्रसन्न होने पर राजाओं के राज्य और उनके खजाने की वृद्धि होती है क्षत्रियों ॥५॥ वाणिज्यं कर्षणं चैव गवां च परिपालनम् ॥ ब्राह्मणक्षत्रसेवा च वैश्यकर्म प्रकीर्तितम् ॥६॥ व्यवहार, कृषि, गौओं को पालना, ब्राह्मण और क्षत्रियों की सेवा यह तीन कर्म वैश्य के लिये कहे हैं ॥६॥ खलयज्ञ कृषीणां च गोयज्ञं चैव यलतः ॥ कुर्यादैश्यश्च सततं गवां च शरणं तथा ॥७॥ और कृषि के खलियान के यज्ञ और गौओं के यज्ञ को गौओं के शरण रह कर वैश्य सर्वदा करै ॥ ७ ॥ ब्राह्मणक्षत्रवैश्यांश्च चरेनित्यममत्सरः ॥ कुर्वस्तु शूदः शुश्रूषां लोकाञ्जयति धर्मतः ॥८॥ शूद्र ईर्षाको त्याग कर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, इनकी सर्वदा सेवा करे कयोंकि इनकी शुश्रूषा धर्मसहित करनेवाला शूद्र स्वर्गलोक को भी जीत लेता है ॥८॥ पंचयज्ञविधानं तु शूद्रस्यापि विधीयते ॥ तस्य प्रोक्तो नम स्कारः कुर्वन्नित्यं न हीयते ॥ ९॥ शूद्रों के लिए भी पंच यज्ञ करने का विधान है; उसको भी परस्पर में नमस्कार करना कहा है; इससे अन्यों में सर्वदा नमस्कार शब्द से व्यवहार करता हुआ शूद्र पतित नहीं होता ॥९॥ शूद्रोपि द्विविधो ज्ञेयः श्राद्धी चैवेतरस्तथा ॥ श्रादी भोज्यस्तयोरुतो भो ज्यस्त्वितरो मतः ॥ १०॥ शूद्र दो प्रकारके हैं एक श्राद्धका अधिकारी और दूसरा अनधिकारी, उन दोनों से श्राद्ध के अधिकारी का अन्न लेना, भोजन करना उचित है और अनधिकारी को नहीं ॥१०॥ प्राणान तथा दारान्बाह्मणार्थ निवेदयेत् ॥ स शूद्रजाति ज्यः स्यादभोज्यः शेप उच्यते ॥ ११ ॥ जो शूद्र, अपनी स्त्री, धन, प्राण इनको ब्राह्मण की सेवा में समर्पण करदे, उस शूद्र का अन्न भोजन करने योग्य है, और शेष शूद्र का अन्न भोजन करने योग्य नहीं है ॥११॥ कुर्याच्छूद्रस्तु शुरुषां ब्रह्मक्षत्रविशां क्रमात् ॥ कुर्यादुत्तरयोर्वैश्यः क्षत्रियो ब्राह्मणस्य तु ॥१२॥ शूद्र को क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, इनकी सेवा करनी चाहिए, वैश्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय, इनकी सेवा करनी चाहिए और क्षत्रिय को केवल ब्राह्मण की ही सेवा करनी चाहिए ॥१२॥ आश्रमास्तु त्रयः प्रोक्ता वैश्यराजन्ययोस्तथा ॥ पारिव्राज्याश्रमप्राप्तिाह्मणस्यैव चोदिता ॥१३॥ वैश्य और क्षत्रिय, इनको तीन आश्रम कहेहैं, अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमकी प्राप्ति तो केवल ब्राह्मण को ही कही है ॥१३॥ आश्रमाणामयं प्रोक्तो मया धर्मः सनातनः ॥ यदत्राविदितं किंचित्तदन्येभ्यो गमिष्यथ ॥१४॥ यह चारों आश्रमों का सनातन धर्म मैंने तुमसे कहा; इसमें जो कुछ जानना तुमको शेप रहा है उसको तुम विभिन्न ग्रंथों से जान जाओंगे ॥१४॥ इति वैष्णवधर्मशास्त्रे पंचमोऽध्यायः ॥ ५॥ विष्णुस्मृतिः समाप्ता ॥२॥

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