Harit Smriti Chapter 2 (द्वितीय अध्याय)

द्वितीयोऽध्यायः द्वितीय अध्याय क्षत्रादीनां प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः ॥ येषु प्रवृत्ता विधिना सर्वे यान्ति परां गतिम् ॥ १॥ क्रमानुसार क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन तीनों के धर्मोको कहता हूँ, जिन धर्मों के आचरण करने से क्षत्रिय आदि तीन वर्ण उत्तम गति को प्राप्त होते हैं ॥१॥ राज्यस्थः क्षत्रियश्वापि प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ कुर्यादध्ययनं सम्पग्यजद्यज्ञान्यथाविधि ॥ २ ॥ क्षत्रिय राजसिंहासन पर स्थित होकर भी धर्म के अनुसार प्रजापालन कर भली भांति से वेद पढने चाहिए, और विधि सहित यज्ञों को करना चाहिए ॥२॥ दद्यादानं द्विजातिभ्यो धर्मबुद्धिसमन्वितः ॥ स्वभार्यानिरतो नित्यं षड्‌भागार्हः सदा नृपः ॥ ३ ॥ जो राजा सर्वदा धर्म में बुद्धि रखकर ब्राह्मणों को दान देता है, और जो नित्य अपनी स्त्री में ही रत रहता है, वह राजा सदैव छठे भाग को लेने का अधिकारी होता है ॥३॥ नीतिशास्त्रार्थकुशलः सन्धिविग्रहतत्त्ववित् ॥ देवब्राह्मणभक्तश्च पितृकार्यपरस्तथा ॥ ४॥ नीतिशास्त्र में कुशल और संधि- विग्रह इनके तत्त्व को भी राजा को जानना चाहिए। देवता और ब्राह्मणोंमें भक्ति रखनी चाहिए और पितरों के कार्य में भी तत्पर रहना चाहिए ॥ ४ ॥ धर्मेण यजनं कार्यमधर्मपरिवर्जनम् ॥ उत्तमां गतिमाप्नोति क्षत्रियोऽप्येवमाचरन् ॥५॥ धर्म से यज्ञ करना चाहिए और अधर्म को त्याग देना ही उचित है, इन पूर्वोक्त कर्मों को करने से क्षत्रिय को उत्तम गति प्राप्त होती है ॥५॥ गोरक्षा कृषिवाणिज्यं कुयदिश्यो यथाविधि ॥ दानं देयं यथाशक्त्या ब्राह्मणानां च भोजनम् ॥ ६ ॥ वैश्य का यह धर्म है किः गौओं की रक्षा करे, खेती और वाणिज्य करे, यथाशक्ति दान और ब्राह्मणों को भोजन कराए ॥ ६॥ दंभमोहविनिर्मुक्तः सत्यवागनसूयकः ॥ वदारनिरतो दान्तः परदारविवर्जितः ॥ ७ ॥ वैश्य दंभ और मोहरहित वाक्यों के द्वारा दूसरे से ईर्षा नहीं करे, अपनी स्त्री में रत रहे, और पराई स्त्रीको त्याग दे ॥७॥ धनैर्विप्रान्भोजयित्वा यज्ञकाले तु याजकान् ॥ अप्रभुत्वं च वर्तेत धर्म चादेहपातनात् ॥ ८॥ धनसे ब्राह्मणों को और यज्ञ के समय ऋत्विजों को तृप्त कर मृत्युकाल तक धर्म में अपनी प्रभुताई न चलाकर समय व्यतीत करे ॥८॥ यज्ञाध्ययनदानानि कुर्य्यात्रि त्यमतन्द्रितः ॥ पितृकार्यपरश्चैव नरसिंहानापरः ॥ ९ ॥ और प्रतिदिन आलस्य को छोडकर यज्ञ, अध्ययन और दान करे, और पितरों के कार्य - श्राद्ध आदि और भगवान् नरसिंहजी के पूजन में तत्पर रहे ॥९॥ एतद्देश्यस्य धर्मीयं स्वधर्ममनुतिष्ठति ॥ एतदाचरते यो हि स स्वर्गी नात्र संशयः ॥१०॥ यह वैश्य का धर्म है। धर्मानुष्ठान में रत हुआ जो वैश्य इसके अनुसार धर्माचरण करता है, वह स्वर्ग में जाता है इसमें संदेह नहीं हैं ॥१०॥ वर्णत्रयस्य शुश्रूषां कुर्य्याच्छूद्रः प्रयत्नतः ॥ दासवद्राह्मणानाञ्च विशेषेण समा चरेत् ॥११॥ शूद्रका यही धर्म है कि वह यत्नपूर्वक ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य इनकी सेवा कर और विशेष रूप से ब्राह्मणों की तो दास के समान सेवा करे ॥ ११ ॥ अयाचितमदाता च कष्टं वृत्त्यर्थमाचरेत् ॥ पाक्यज्ञविधानेन यजेदेवमतन्द्रितः ॥१२॥ बिना माँगे अपनी सेवाएँ दे, और अपनी जीविका निर्वाह के लिये कष्ट सहन करें, और पाकयज्ञ की विधि से आलस्य को छोडकर देवताओं की पूजा करे ॥१२॥ शूदाणामधिकं कुर्यादईने न्यायवर्तिनाम् ॥ धारणं जीर्णवस्त्रस्य विपस्योच्छिष्टभोजनम् ॥१३॥ और न्याय में तत्पर हुए शुद्र का भी पूजन अधिकता से करे, मन वचन और शरीर को क्रिया से, सर्वदा जीर्ण वस्त्रों का धारण करे, और ब्राह्मणों का उच्छिष्ट भोजन करे ॥१३॥ स्वंदारेषु रतिश्चैव पर दारविवर्जनम् ॥ इत्थं कुर्यात्सदा शूदो मनोवाकायकर्मभिः ॥१४॥ अपनी स्त्रियों में ही रमण करे और पराई स्त्री को त्याग दे, मन, वचन, कर्म, और देह से शूद्र इसी प्रकार करता रहे ॥१४॥ स्थानमैन्द्रमवामोति नष्टपापः सुपुण्यकृत् ॥ १५॥. इन सब कर्मों के करने से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं, और पुण्य के प्रभाव से शूद्र इंद्र के स्थान को प्राप्त हो जाता है ॥१५॥ वर्णेषु धर्मा विविधा मयोक्ता यथा तथा ब्रह्ममुखरिताः पुरा ॥ शृणुध्वमत्राश्रमधर्ममायं मयोच्यमानं क्रमशो मुनींदाः ॥१६॥ पूर्वकाल में जिस प्रकार ब्रह्माजी ने कहा था, वही मैंने तुमसे सब वर्णों के यथार्थ धर्म कहे हैं, हे मुनीन्द्रों! इस समय मैं सनातन आश्रमधर्म को कहता हूं, आप क्रमानुसार श्रवण करो ॥ १६॥ इति हारीते धर्मशास्त्रे द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥ हारीत स्मृतिः का दूसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥२॥

Recommendations