Harit Smriti Chapter 7 (सातवाँ अध्याय)

सप्तमोऽध्यायः सातवाँ अध्याय वर्णानामाश्रमाणां च कथितं धर्मलक्षणम् ॥ येन स्वर्गापवर्गों च प्राप्नुवंति विजातयः ॥१॥ वर्ण और आश्रमों के धर्मो का स्वरूप कहा, इस धर्मका अनुष्ठान करने से द्विजातिगण स्वर्ग और मोक्षको प्राप्त करते हैं ॥१॥ योगशास्त्रं प्रवक्ष्यामि संक्षेपात्सारमुत्तमम् ॥ यस्य च श्रषणाद्यांति मोक्ष. चैव मुमुक्षवः ॥२॥ इस समय संक्षेपसे योगशास्त्रका उत्तम सार कहता हूँ, जिसके सुनने से मोक्ष की इच्छा करने वाले मनुष्य मुक्त हो जाते हैं ॥२॥ योगाभ्यासवलेनैव नश्येयुः पातकानि तु ॥ तस्माद्योगपरो भूत्वा ध्यायेन्नित्यं क्रियापरः ॥३॥ योगाभ्यास के बल से ही सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं, इस कारण योग में तत्पर होकर मनुष्य उत्तम आचरण से नित्य ध्यान करे ॥३॥ प्राणायामेन वचनं प्रत्याहारेण चेंद्रियम् ॥ धारणाभिर्वशे कृत्वा पूर्व दुर्धर्षणं मनः ॥४॥ प्रथम प्राणायाम से वाणी को, प्रत्याहार-विषयों से इन्द्रियों को हटाने से इन्द्रिय को, और धारणा स्थिरता के कर्म से वश करने अयोग्य मन को वश में करके ॥४॥ एकाकारमनानंतं बुद्धौ रूपमनामयम् ॥ सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं ध्याये जगदाधारमच्युतम् ॥ ५॥ एकाग्रचित्त होकर देवताओं को भी अगम्य अर्थात प्राप्ति के अयोग्य और सूक्ष्म से सूक्ष्म जो जगत के आश्नय विष्णु भगवान हैं उनका ध्यान करे ॥५॥ आत्मना बहिरंतःस्थं शुद्धवामीकरमभम् ॥ रहस्येकांतमासीनो ध्यायेदामरणांतिकम् ॥६॥ जो ब्रह्म अपने स्वरूप से बाहर और भीतर स्थित है और शुद्ध सुवर्ण की समान जिसकी कांति है; ऐसे ब्रह्म को एकान्त में बैठकर मरण समय तक ध्यान करना चाहिए ॥६॥ यत्सर्वप्राणिहृदयं सर्वेषां च हृदि स्थितम् ॥ यच्च सर्वजनैज्ञेयं सोऽहमस्मीति चिंतयेत् ॥७॥ जो सम्पूर्ण प्राणियों का हृदय है, जो सबके हृदय में विराजमान है और जो सबके जानने योग्य है, वह परमात्मा मैं ही हूँ, ऐसा चितवन करै ॥७॥ आत्मलाभसुखं यावत्तपोध्यानमुदीरितम् ॥ श्रुतिस्मृत्यादिकं धर्म तद्विरुद्धं न चाचरेत् ॥८॥ जब तक आत्मा के लाभ का सुख न हो, तब तक शास्त्रकारों ने तप ध्यान श्रुति और स्मृति को धर्म करना कहा है, आत्मा की प्राप्ति का विरोधी जो है उसको नहीं करना चाहिए ॥८॥ यथा रथोऽश्वहीनस्तु यथाश्वो रथिहीनकः ॥ एवं तपश्च विद्या च संयुत भेषजं भवेत् ॥९॥ जिस प्रकार से घोड़े के बिना रथ और सारथी के बिना घोड़ा नहीं चलता और दोनों ही परस्पर में सहायक हैं; इसी प्रकार से विद्या भी तपस्या के बिना साथ हुए कुछ काम नहीं कर सकती, विद्या, ज्ञान, तप यह दोनों मिलकर संसार के रोग की औपधी है ॥९॥ यथानं मधुसंयुक्तं मधु वान्नेन संयुतम् ॥ उभाभ्य पि पक्षा भ्यां यथा खे पक्षिणां गतिः ॥१०॥ जिस भांति मीठे से युक्त अन्न और अन्न से युक्त मीठा; और जैसे दोनों पंखों से ही आकाश में पक्षियों की गति है ॥१०॥ तथैव ज्ञानकर्मभ्यां प्राप्यते ब्रह्म शाश्वतम् ॥ विद्यातपोभ्यां संपन्नी ब्राह्मणो योगतत्परः ॥११॥ उसी भांति ज्ञान और कर्म इन दोनों से ही सनातन ब्रह्म की प्राप्ति होती है; ज्ञान और तप से युक्त और यह तत्पर हुआ ब्राह्मण ॥११॥ देहदयं विहायाशु मुक्तो भवति बंधनात् ॥ न तथा क्षीणदेहस्य विनाशो विद्यते कचित् ॥१२॥ दोनों देहों स्थूल और सूक्ष्म को शीघ्र छोडकर बंधन से छूट जाता है, इस भांति जिसका देह नष्ट हो गया है उसका नाश कभी नहीं होता ॥१२॥ मया कथितः सर्वो वर्णाश्रमविभागशः ॥ संक्षेपेण दिजश्रेष्ठा धर्मस्तेषां सनातनः ॥१३॥ हे द्विजोत्तमो ! मैंने वर्ण और आश्रमके भेद और उनका सनातन धर्म संक्षेप से तुमसे कहा ॥१३॥ श्रुत्वैवं मुनयो धर्म स्वर्गमोक्ष प्रदम् ॥ प्रणम्य तमूर्षि जग्मुर्मुदिताः स्वस्खमाश्रमम् ॥ १४ ॥ स्वर्ग और मोक्ष के देने वाले धर्म को इस प्रकार सुनकर उन हारीत मुनि को नमस्कार करके सब मुनि प्रसन्न होकर अपने अपने आश्रम को चले गए ॥१४॥ धर्मशास्त्रमिदं सर्व हारीतमुखनिः सृतम् ॥ अधीत्य कुरुते धर्म स याति परमां गतिम् ॥१५॥ जो मनुष्य हारीत मुनि के कहे हुए धर्मशास्त्र को पढकर धर्म का आचरण करता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है ॥१५॥ ब्राह्मणस्य तु यत्कर्म कथितं बाहुजस्य च ॥ ऊरुजस्यापि यत्कर्म कथितं पाद जस्य च ॥१६॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को जो कर्म इसमें कहा है ॥१६॥ अन्यथा वर्तमानस्तु सद्यः पतति जातितः ॥ यो यस्याभि हितो धर्मः स तु तस्य तथैव च ॥१७॥ उसके विरुद्ध जो बर्ताव करता है, वह जाति से शीघ्र ही पतित हो जाता है, जो धर्म वर्ण का कहा है वह उसी प्रकार का, उस वर्ण का है ॥१७॥ तस्मात्स्वधर्म कुर्वीत दिजो नित्य मनोपदि ॥ राजेंद्र वर्णाश्चत्वारश्चत्वारश्चापि चाश्रमाः ॥१८॥ इस कारण ब्राह्मण आपदकाल को छोडकर अपने धर्म को कर, हे राजाओं के स्वामी! चार वर्ण और चार ही आश्रम हैं ॥१८॥ स्वधर्म येऽनुतिष्ठति ते यांति परमां गतिम् ॥ स्वधर्मेण यथा नृणां नरसिंहः प्रसीदति ॥१९॥ जो अपने धर्मको करते हैं, वह परम गतिको प्राप्त होते हैं। भगवान् नरसिंहदेव जिस प्रकार से अपने धर्म में स्थित मनुष्यों पर प्रसन्न होते हैं ॥१९॥ न तुष्यति तथान्येन कर्मणा मधुसूदनः ॥ अतः कुर्वत्रिनं कर्म यथाकालमतंद्रितः ॥२०॥ उसी भांति अन्य कर्म से प्रसन्न नहीं होते, इस कारण सर्वदा आलस्य रहित होकर समय पर कर्म करता हुआ मनुष्य ॥२०॥ सहस्त्रानीक देवेशं नरसिंहं च सालयम् ॥ २१॥ सहस्रों देवताओं के स्वामी समंदिर भगवान को उत्पन्नवैराग्यबलेन योगी ध्यायेत्परं ब्रह्म सदा क्रियावान् ॥ सत्यं खं रूपम नंतमायं विहाय देहं पदमेति विष्णोः ॥२२॥ सर्वदा परब्रह्म को उत्पन्न हुए वैराग्य के बलसे क्रियावान् योगी जो ध्यान करता है वह देह को त्यागकर सत्य सुख रूप अनंत विष्णु के पद को प्राप्त होताहै ॥२२॥ इतिहारीते धर्मशास्त्रे सप्तमोऽध्यायः ॥७॥ ॥ इति हारीतस्मृतिः समाप्ता ॥

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