Harit Smriti Chapter 5 (पांचवां अध्याय)

पञ्चमोऽध्यायः पांचवां अध्याय अतः परं प्रवक्ष्यामि वानप्रस्थस्य सत्तमाः ॥ धर्माश्रमं महाभागाः कथ्यमानं निबोधत ॥ १॥ हे महामाग सत्तमाण ! अब मैं वानप्रस्थधर्म को कहताहूं, तुम सावधान होकर मेरे कहे हुए उस आश्रम के धर्म का श्रवण करो ॥१॥ गृहस्थः पुत्रपौत्रादीन्दृष्ट्वा पलितमात्मनः ॥ भाया पुत्रेषु निःक्षिप्य सह वा प्रविशेदनम् ॥२॥ गृहस्थी पुत्रपौत्रादि को और अपनी वृद्ध अवस्था को देखकर पुत्रों को अपनी स्त्री का भर सौंप कर अथवा या उसे अपने संग लेकर वन को चला जाए ॥२॥ नखरोमाणि च तथा सितगात्रत्वगादि च ॥ धारयजुहुयादग्नि वनस्थो विधिमाश्रितः ॥३॥ नख, केश, और सफेद गात्र की त्वचा को धारण करता हुआ वन में स्थित होकर शास्त्र की विधि के अनुसार अग्निहोत्र करना चाहिए ॥३॥ धान्यैश्च वनसंभूतैनीवाराचैरनिंदितैः ॥ शाकमूलफलैवापि कुर्यान्नित्यं प्रयत्नतः ॥४॥ वन में उत्पन्न हुए अथवा अनिंदित नीवारादि अन्न से शाक मूल फलों से यत्न सहित अपना निर्वाह और हवन को करै ॥४॥ त्रिकालस्नानयुक्तस्तु कुर्यात्तीनं तपस्तदा ॥ पक्षांत वा समश्नीयान्मा सान्ते वा स्वपकभुक् ॥५॥ त्रिकाल स्नानकर तीक्ष्ण तपस्या करे, पक्ष के अन्त में अथवा महीने के अन्त में भोजन करे, और अपने आप भोजन बनाकर उसका भक्षण करे ॥५॥ तथा चतुर्थकाले तु भुजीयादष्टमेथवा ॥ षष्ठेच काले प्यथवा वायुभक्षोऽथवा भवेत् ॥६॥ चौथे पहर में अथवा आठपहर में अथवा छठे पहर में भोजन करे, या वायु का ही भक्षण करके रहे ॥६॥ धर्म पंचामिमध्यस्थस्तथा वर्षे निराश्रयः ॥ हेमंते व जले स्थित्वा नयेत्कालं तपश्चरन् ॥७॥ उष्णकाल में पंचाग्नि के मध्य में और वर्षाऋतु में निराश्रय में, और शीतकाल में जल के मध्य में बैठकर तप करता हुआ समय व्यतीत करे ॥७॥ एवं व कुर्वता येन कृतबुद्धिर्यथाक्रमम् ॥ अनि स्वात्मनि कृत्वा तु प्रव्रजेत्तरां दिशम् ॥८॥ जो क्रमानुसार इस प्रकार कर्मो के करने में समर्थ होता है वह धर्मात्मा अग्नि को अपने आत्मा में रखकर उत्तरदिशा में जाए ॥८॥ आदेहपातं वनगो मौनमास्थाय तापसः ॥ ्र स्मरनतींद्रियं ब्रह्म ब्रह्मलोके महीयते ॥ ९॥ पीछे वन में जाकर शरीर छूटने तक मौन धारण कर जो तपस्वी अतींद्रिय, जिसको नेत्र आदि भी नहीं जान पाए, ब्रह्म का स्मरण करता है, वह ब्रह्म लोक में पूजित होता है ॥९॥ तपो हि या सेवति वन्यवासः समाधियुक्तः प्रयतांतरात्मा ॥ विमुक्तपापो विमलः प्रशांतः स याति दिव्यं पुरुषं पुराणम् ॥१०॥ जो वानप्रस्थ वन में जाकर मन को वश में कर समाधि लगाए तप करता है, वह पापों से रहित निर्मल और शांतरूप वानप्रस्थ सनातन दिव्यपुरुष को प्राप्त होता है ॥१०॥ इति हारीते धर्मशास्त्र पंचमोऽध्यायः ॥५॥ हारीत स्मृतिः का पांचवां अध्याय समाप्त हुआ ॥५॥

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