Yam Smriti (यम स्मृतिः)

यम स्मृतिः ॥ॐ॥ ॥ श्री परमात्मने नमः ॥ ॥ श्री गणेशाय नमः ॥ यम स्मृतिः श्रुतिमृत्युदितं धर्म वर्णानामनुपूर्वशः ॥ प्राब्रवीदृषिभिः पृष्टो मुनीनामग्रणीर्यमः ॥१॥ चारों वर्णों के श्रुति और स्मृति में कहे हुए धर्म को ऋषियों के पूछने से मुनियों में मुख्य यमने से कहा ॥१॥ यो भुंजानोऽशुचिर्वापि चंडालं पतितं स्पृशेत् ॥ क्रोधादज्ञानतो वापि तस्य वक्ष्यामि निष्कृतिम् ॥२॥ जो भोजन के समय अथवा उच्छिष्ट अवस्था में चांडाल पतित को क्रोध अथवा अज्ञान से छू ले उसका प्रायश्चित्त कहता हूँ ॥२॥ षड्रात्रं वा त्रिरात्रं वा यथासंख्यं समाचरेत् ॥ स्नात्वा त्रिषवणं विप्रः पंचगव्येन शुद्धयति ॥३॥ तीनरात्रि अथवा छह रात्रि क्रम से प्रायश्चित करे, त्रिकाल स्नानकर के पंचगव्य के पाने से ब्राह्मण शुद्ध होता है ॥३॥ भंजानस्य त विप्रस्य कदाचित्रवते गदम ॥ उच्छिष्टत्वे शुचित्वे च तस्य शौचं विनिर्दिशेत ॥४॥ भोजन के समय यदि ब्राह्मण को कभी अधोवायु हो जाय तो उच्छिष्ट और अशुद्धि के निवारण के निमित्त शुद्धि करे ॥४॥ पूर्व कृत्वा द्विजः शौचं पश्चादप उपस्पृशेत् ॥ अहोरात्रोषितो भूत्वा जुहुयात्सर्पिषाहुतिम् ॥५॥ ब्राह्मण पहले शौच करके पीछे जल से आचमन करे, इसके पीछे अहोरात्र उपवास करे फिर पंचगव्य के पीने से वह शुद्ध होताहै ॥५॥ निगिरन्यदि मेहेत भुक्ता वा मेहत कृते ॥ अहोरात्रोषितो भूत्वा जुहुयारसर्पिषाहुतिम् ॥६॥ भोजन करने से प्रथम अथवा भोजन करते समय में यदि मूत्रत्याग हो जाए तो अहोरात्रि उपवास करके घी की आहुति से हवन करे ॥६॥ यदा भोजनकालें स्यादशुचिर्बाह्मणः कचित् ॥ भूमौ निधाय तद्वासं स्नात्वा शुद्धिमवामुयात् ॥७॥ में अशुद्ध हो जाय तो उस ग्रास को यदि ब्राह्मण भोजन करते हुए में अ उसी समय पृथ्वी होता है।॥ ७॥ पर रख दे फिर स्नान करने के पश्च्यात शुद्ध भक्षयित्वा तु तद्धासमुपवासेन शुद्धयति ॥ आशित्वा चैव तत्सर्व त्रिरात्रमशुचिर्भवेत् ॥८॥ यदि उस ग्रास को भी खा लिया हो तो वह वो उसकी शुद्धि एक उपवास करने से होती है, और जिसने सम्पूर्ण अन्न खा लिया हो वह तीन रात्रि तक अशुद्ध रहता है ॥८॥ अश्नतश्चेदिरेकः स्यादस्वस्थ स्त्रिशतं जपेत् ॥ स्वस्थस्त्रीणि सहस्राणि गायत्र्याः शोधनं परम् ॥ ९ ॥ भोजन करते समय यदि वमन हो जाए तो अस्वस्थ रोगी आदि तो तीन सौ गायत्री का जप करे, और निरोगी मनुष्य तीन हजार गायत्री का जप करने से शुद्ध होताहै ॥९॥ चंडालैः श्वपचैः स्पृष्टो विषमूत्रे च कृते द्विजः ॥ त्रिरात्रं तु प्रकुर्वीत भुक्तोच्छिष्टः षडाचरेत् ॥१०॥ विष्ठा मूत्र करने के पश्च्यात जो चांडाल अथवा श्वपच द्विज का स्पर्श करले तो तीन रात्रि तक उपवास करने से, और उनको छूने के पश्च्यात वैसे ही भोजन भी करले तो छह रात्रि उपवास करने से शुद्ध होता है ॥१०॥ उदक्यां सूतिका, वापि संस्पृशेदंत्यजो यदि ॥ त्रिरात्रेण विशुद्धिः स्यादिति शातातपोऽब्रवीत् ॥११॥ यदि अन्त्यज, रजस्वला अथवा सूतिका स्त्री को छूले तो उसली शुद्धि तीन रात्रि में होती है, यह वचन शातातप ऋषि का है ॥११॥ रजस्वला तु संस्पृष्टा श्वमातंगादिवायसैः ॥ निराहारा शुचिलिष्ठठेरकालनानेन शुद्धयति ॥१२॥ कुत्ता, हाथी, काक, यदि रजस्वला स्त्री को छूले तो उस स्त्री को उस समय अशुद्ध अवस्था में भोजन नहीं करना चाहिए और चौथे दिन स्नान करने से शुद्ध होती है ॥१२॥ रजस्वले यदा नाविन्योन्यं स्पृशतः कचित् ॥ शुद्धयतः पंचगव्येन ब्रह्मकूर्चेन चोपरि ॥१३॥ यदि परस्पर में दो रजस्वला स्त्री छू जाएं तो वह पंचगव्य का पान कर और ब्रह्मकूर्च-कुशाओं के अग्र भाग से अपने शरीर पर पंचगव्य को छिडके तब वह शद्ध होती है ॥१३॥ उच्छिष्टेन च संस्पृष्टा कदाचिस्त्री रजस्वला ॥ कृच्छ्रेण शुद्धिमाप्नोति शदा दिनोपवासतः ॥१४॥ यदि किसी समय उच्छिष्टपुरुष रजस्वला को छूले; तो ब्राह्मण की स्त्री कृच्छ्र करे तव शुद्ध होती है और शूद्र की स्त्री की शुद्धि दान और उपवास करने से होती है ॥१४॥ अनुच्छिष्टेन संस्पृष्टे स्नानं येन विधीयते ॥ तैनवोच्छिष्टसंस्पृष्टः प्राजापत्यं समाचरेत् ॥१५॥ जिस अनुच्छिष्ट के स्पर्श करने से स्नान करना कहा है यदि वही उच्छिष्ट स्पर्श कर ले तो प्राजापत्य का प्रायश्चित्त करना कहा है ॥१५॥ ऋतौ तु गर्ने शंकित्वा स्नानं मैथुनिनः स्मृतम् ॥ अनृतौ तु स्त्रियं गत्वा शौचं भूत्रपुरीषवत् ॥१६॥ ऋतु के समय में जो मैथुन गर्भ को इच्छा से कहा है, उस समय स्नान करना कर्तव्य है; और ऋतु के अतिरिक्त समय में स्त्री का संसर्ग करनेसे मलमूत्र के समान शौच करना पडता है ॥१६॥ उभावप्यशुची स्यातां दंपती शयने गतौ ॥ शयनादुस्थिता नारी शुचिः स्यादशुचिः पुमान् ॥१७॥ जब तक स्त्री पुरुष दोनो एक शय्या पर शयन करते हैं तब तक दोनों अशुद्ध हैं और जब शय्या से उतर गये तब स्त्री शुद्ध और पुरुष अशुद्ध होता है ॥१७॥ भर्तुः शरीरशुश्रूषां दौराम्यादप्रकुर्वती ॥ दंड्या बादशकं नारी वर्ष त्याज्या धनं बिना ॥१८॥ दुष्टभाव से जो स्त्री अपने पति के शरीर की सेवा नहीं करे उस स्त्री को बारह वर्ष तक दंड करे अर्थात् उसके साथ बारहवर्ष तक व्यवहार नहीं करे और उसके पास धन अलंकार कुछ भी नहीं रखे ॥१८॥ त्यजंतोऽ पतितान्बंधून्दंड्या उत्तमसाहसम् ॥ पिता हि पतितः कामं न तु माता कदाचन ॥१९॥ जो पातित्य दोष हीन बांधवों को त्याग देते हैं उनको राजा उत्तम साहस अत्यन्त दंड दे और जो पिता पतित हो जाए तो उसे भले त्याग दे; परन्तु माता का कभी त्याग नहीं करे, माता त्यागने योग्य नहीं है ॥१९॥ आत्मानं घातयेद्यस्तु रज्ज्वाऽदिभिरुपक्रमः ॥ मृतोऽमेध्येन लेप्तव्यो जीवतो द्विशतं दमः ॥ २० ॥ जो मनुष्य रस्सी से अथवा अन्य किसी प्रकार से आत्महत्या करै तो उसे गोवरसे लीपदे, और जो वह बच जाए तो उसे दो सौ पण दंड कहा है ॥२०॥ दंड्यास्तत्पुत्रमित्राणि प्रत्येक पणिकं दमम् ॥ प्राय श्चित्तं ततः कुर्युर्यथाशास्त्रमचोदितम् ॥ २१ ॥ और एक पण दंड उसके पुत्र और मित्रों को भी कहा है, इसके पीछे वह सभी शास्त्र के अनुसार प्रायश्चित्त करें ॥२१॥ जलावृद्धधनभ्रष्टाः प्रव्रज्यानाशकच्युताः ॥ विषप्रपतनं प्रायः शस्त्रघातहताश्च ये ॥ २२ ॥ जो मनुष्य मरने के लिये जल में डूब कर बच गये हैं, या जो फाँसी खाकर बच गये हैं और जो मनुष्य संन्यास धर्म का नाश करने वाले हैं और जिन्होंने उसे त्याग दिया है और जो विष भक्षण करके या ऊंचे स्थान से गिर कर तथा जो शस्त्र के प्रहार से मर गये हैं ॥२२॥ न चैते प्रत्यवसिताः सर्वलोकवहिष्कृताः ॥ चांदायणेन शुद्धयंति तप्तकृच्छुद्धयेन वा ॥२३॥ उभयावसितः पापः श्यामाच्छवलकाच्च्युतः ॥ चांद्रायणाभ्यां शुद्धयेत दत्त्वा धेनुं तथा वृषम् ॥२४॥ उपरोक्त पापियों के घर में भोजन करनेवाला पापी तथा वास करने वाला अघवान् मनुष्य उभयावसित कहलाता है उसको श्याम वा शवल (चितकबरे) रंग का बैल न मिले तो वह दो चांद्रायण व्रत करने से, अथवा एक बछडे सहित गौ का दान करने से शुद्ध होता है ॥२३ - २४॥ श्वशृगालप्लवंगाचैर्मानुषैश्च रति विना ॥ दष्टः स्नात्वा शुचिः सद्यो दिवा संध्यासु रात्रिषु ॥२५॥ कुत्ता, सियार, वानर, यदि मनुष्यों को विना क्रीडा के किये ही काट खाँय तो दिन में संध्या करने और रात्रिमें शीघ्र स्नान करने से शुद्ध होता है ॥२५॥ अज्ञानाद्राह्मणो भुक्ता चंडालान्नं कदाचन ॥ गोमूत्रयावकाहारो मासान विशुद्धयति ॥२६॥ यदि ब्राह्मण अज्ञानता से चंडाल के यहाँ के अन्न का भोजन करले तो पंद्रह दिन तक गौमूत्र तथा जौ को खाने से उसकी शुद्धि होती है ॥२६॥ गोब्राह्मणहनं दग्ध्वा मृतं चोद्वन्धनादिना ।। पाशं छित्वा तथा तस्य कृच्छमेकं चरेद्विजः ।।२७॥ जिसने गौ का वध किया हो अथवा ब्राह्मण का वध कियाहो, और जिसने फांसी लगाकर प्राण त्यागे हों उसको जो ब्राह्मण फूंके अथवा उसकी फाँसी को काटे तौ वह ब्राह्मण एक कृच्छ करनेसे शुद्ध होता है ॥२७॥ चंडालपुल्कसानां च भुक्त्वा गत्वा च योषितम् ॥ कृच्छाब्दमाचरेज्ज्ञानादज्ञानार्दैदवदयम् ॥२८॥ चांडाल और पुल्कस (चांडालका भेद) के यहां जानकर खानेवाला तथा इनकी स्त्रियों का संग करनेवाला मनुष्य एक वर्ष तक कृच्छ करे और जानकर उपरोक्त पातकों का करने वाला दो इंद्रकृच्छ्र करे ॥२८॥ कापालिकानभोक्तृणां तबारीगामिनां तथा ॥ कृच्छ्रान्दमाचरेज्ज्ञानादज्ञानार्दैदवदयम् ॥२९॥ जानकर कापालिक (खापर लेकर मांगनेवाले) के यहां निसने अन्न खाया अथवा नि चने उनकी खियोंके संग भोग कियाहै एक वर्ष तक कृच्छ करे, और अज्ञानसे करनेवाला दो इन्दु कृच्छ करै ॥२९॥ अगम्यागमने विप्रो मद्यगोमांसभक्षणे ॥ तप्तकृच्छ्रपरिक्षिप्तो मौर्वीहोमेन शुद्धयति ॥३०॥ जो स्त्री गमन करने योग्य नहीं है उसके साथ गमन करनेवाला, और मदिरा और गोमांस का भक्षण करनेवाला ब्राह्मण वाच्छ करकै मौर्वी (सूत्र) के होमसे शुद्ध होताहै ॥३०॥ महापातकर्तारश्चत्वारोथ विशेषतः ॥ अग्निं प्रविश्य शुद्धयंति स्थित्वा वा महति कतौ ॥३१॥ चारों महापातक करनेवाले विशेष रूप से अग्नि में प्रवेश करके अथवा बढे यज्ञ (अश्वमेध आदि) में टिकने से शुद्ध होते हैं ॥३१॥ रहस्यकरणेऽप्येवं मासमभ्यस्य पूरुषः ॥ अघमर्षणसुक्तं वा शुद्धयेदंतर्जले स्थितः ॥३२॥ इस भांतिके छिपकर (गुप्त) पालक करनेवाला मनुष्य अघमर्षण (ऋतं च सत्यम् इत्यादि) सूक्त का एक महीने भर तक जल में बैठकर जप करने से शुद्ध होताहै ॥३२॥ रजकश्चर्मकश्चैव नटो बुरुड एव च ॥ कैवर्तमेदभिल्लाश्च सप्तैते अन्यजा स्मृताः ॥३३॥ धोवी, चमार, नट, कैवर्त, बुरड, मेद, भील इन सातों को अत्यंज कहा है॥३३॥ भुक्त्वा चैषां स्त्रियो गत्वा पीत्वाऽपः प्रतिगृह्य च। कृच्छ्राव्दमा चरेऽज्ञानादैज्ञानादवद्वयम् ॥३४॥ जानकर इनके यहां भोजन करनेवाला, इनकी स्त्रियों में गमन करनेवाला, इनके घर का जल पीने वाला इनका दान लेने वाला पुरुष एक वर्ष तक कृच्छ्र व्रत करे । और अज्ञानसे करनेवाला दो इन्दु कृच्छ्र करने के पश्च्यात शुद्ध होताहै ॥३४॥ मातरं गुरुपत्नी च स्वसृर्दुहितरं खुषाम् ॥ गत्वैताः प्रविशेदग्नि नान्या शुद्धिर्विधीयते ॥३५॥ जो मनुष्य माता, गुरु को स्त्री, भगिनी, लडकी, पुत्रवधू, इनमें गमन करताहै, वह अग्नि में प्रवेश करने से शुद्ध होताहै और किसी तरह से उसकी शुद्धि संभव नहीं है ॥३५॥ राजी प्रबजितां धात्री तथा वर्णोत्तमामपि । कृच्छ्रदयं प्रकुर्वीत सगोत्रामभिगम्य च ॥३६॥ जो मनुष्य रानी, संन्यासिनी, धाय और उत्तम वर्ण की स्त्रीके साथ गमन करता है तथा अपने गोत्र की स्त्री के साथ रमण करता है तो उसको दो कृच्छ्र करने चाहिए ॥३६॥ अन्यासु पितृगोत्रासु मातृगोत्रगतास्वपि ॥ परदारेषु सर्वेषु कृच्छ्र सांतपनं चरेत् ॥३७॥ इनके अतिरिक्त, माता और पिता के गोत्र की स्त्री के साथ गमन करनेवाला. सांतपन कृच्छ्र करनेसे शुद्ध होता है ॥३७॥ वेश्याभिगमने पापं व्यपोहंति द्विजातयः ॥ पीत्वा सकृत्सुतप्तं च पंचरात्रे कुशोदकम् ॥३८॥ जिसने वेश्याके साथ गमन किया है उस पाप को तीनों द्विजाति अत्यंत तपे हुए कुशा के जल को पांच रात्रि तक प्रतिदिन एक बार र पीकर दूर करसक्ते हैं ॥३८॥ गुरुतल्पव्रतं केचित्केचिद्ब्रह्महणो व्रतम् ॥ गोधन्स्य चेदिच्छंति केचिच्चैवावकीर्णिनः ॥३९॥ कोई ऋषी गुरु की शय्या में गमन करने के व्रत की, कोई ब्रह्महत्या के व्रत की, कोई गोहत्या के प्रायश्चित्त की और कोई अवकीर्णी अर्थात् ब्रह्मचर्य से पतित हो उस के प्रायश्चित्त करने की आज्ञा देतेहैं। अर्थात् वेश्यागामी पुरुष इनमें से कोई प्रायश्चित्त करनेसे शुद्ध हो सकता है ॥३९॥ दंडादूर्वप्रहारेण यस्तु गां विनिपातयेत् ॥ द्विगुणं गोव्रतं तस्य प्रायश्चित्तं विनिर्दिशेत् ॥४०॥ गोदंड से ऊँचे अर्थात् उपर से कठिन आघात से जो गाय को मारे उसे गौहत्या का दुगुना प्रायश्चित्त कहा है ॥ ४० ॥ अंगुष्ठमात्रस्थूलस्तु वाहुमात्रप्रमाणकः ॥ सार्दश्च सपलाश व गोदंडः परिकीर्तितः ॥४१॥ गोदंड उसे कहते हैं अंगूठे के समान मोटा और जिसमें पत्ते लगे हों, गीला हो और दो हाथ का जिसका प्रमाण हो ॥४१॥ गवां निपातने चैव गर्भोपि संपतेद्यदि ॥ एकैकशश्चरेत्कृच्छ्र यथा पूर्व तथा पुनः ॥४२॥ यदि गौओं को मारने से उनका गर्भ गिर जाए तो तीनों द्विजातियों को क्रम से एक एक कृच्छ्र करना चाहिए ॥४२॥ पादमुत्पन्नमात्रे तु द्वौ पादौ गात्रसंभवे ॥ पादोनं कृच्छ्रमाचष्टे हत्वा गर्भमचेतनम् ॥४३॥ यदि गर्भ रहने पर ही गर्भ गिर जाए तो चौथाई कृच्छ्र करना चाहिए, और यदि गर्भ के अंग प्रत्यंग के बन जाने पर गर्भ गिर जाय तो आधा कृच्छु करन चाहिए, और अचेतन गर्भ का पात हो जाए तो एक चौथाई कृच्छ्र करै ॥४३॥ अंगप्रत्यंगसंपूर्णे गर्भ रेत-समन्विते ॥ एकैकशश्वरेत्कृच्छ्मेषा गोघ्रस्य निष्कृतिः ॥४४॥ अंग प्रत्यंग से पूर्ण और वीर्यसमेव गर्भपात हो जाने से तीनों वर्षों को एक कृच्छ्र करना उचित है यह प्रायश्चित्त गोहत्यारोंका है ॥४४॥ बंधने रोधने चैव पोपणे वा गवां रुजा ॥ संपद्यते चेन्मरणं निमित्ती नैव लिप्यते ॥४५ ॥ यदि बांधने से, रोकने और पोषण करने से रुग्ण होकर गौ मर जाए तो बांधने वाले को पाप नहीं लगता ॥४५॥ मूर्छितः पतितो वापि दंडेनाभिहतस्तथा ॥ उत्थाय षट्पदं गच्छेत्सप्त पंच दशापि वा ॥४६॥ ग्रासं वा यदि गृहीयात्तोयं वापि पिवेद्यदि ॥ पूर्वव्याधि प्रनष्टानां प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥ ४७ ॥ यदि दंड के आघात लगने से जिस गौ को मूर्छा आ गई हो अथवा वह गिर पड़ी हो, और फिर वह गौ या बैल उठकर छः सात, पांच, अथवा दश कदम चलदे और घास आदि खाकर जल पीने के पश्चात मर जाए तो पूर्व व्याधि से मरे हुए उस बैल अथवा गौ का प्रायश्चित्त मनुष्य को नहीं कहाहै ॥ ४६-४७॥ काष्ठलोष्टाश्मभिर्गावः शस्त्रैर्वा निहता यदि ॥ प्रायश्चित्तं कथं तत्र शास्त्रे शास्त्रे निगद्यते ॥१८॥ लकडी, ढेला, पत्थर और शस्त्र से यदि गौ को मार डालें तो वहां प्रत्येक के प्रति किसप्रकार प्रायश्चित्त करना चाहिए ? वह कहते हैं ॥४८॥ काष्ठे सांतपनं कुर्यात्माजापत्यं तु लोष्टके । तप्तकृच्छ्र तु पाषाणे शस्त्रे चाप्यतिकृच्छ्रकम् ॥ ४९॥ लकडी से मारनेवाला पुरुष सांतपन करे, ढेले से मारनेवाला प्राजापत्य करे, पत्थर से मारनेवाला तप्तकृच्छ्र करे और शस्त्र से मारने वाला अतिकृच्छ्र करै ॥४९॥ औषध स्नेहमाहारं दद्याद्रोब्राह्मणेषु च ॥ दीयमाने विपत्तिः स्यात्यायश्चित्तं न विद्यते ॥५०॥ यदि गौ और ब्राह्मणको औषध, स्नेह अर्थात घी इत्यादि पिलाते समयमें अथवा भोजन कराते समय, यदि विपत्ति अर्थात मरण या कष्ट हो जाए तो उसका प्रायश्चित्त नहीं है ॥५०॥ तैलभेषजपाने च भेषजानां च भक्षणे ॥ निःशल्यकरणे चैव प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥५१॥ तेल पिलाने अथवा औषधी खिलानेके समयमें और कांटा आदि निकालनेके समयमें यदि गो को कष्ट हो जाए तो उसका भी प्रायश्चित्त नहीं है ॥५१॥ वत्सानां कंठबंधे च क्रियया भेषजेन तु ॥ सायं संगोपनार्थ च न दोषो रोधबंधयोः ॥ ५२ ।। यदि बछडे का गला बांधने से अथवा औपधी के देने से अथवा रक्षा के लिये संध्या को रोकते और बांधते समय में मर जाए तो बांधनेवाला पाप का भागी नहीं है ॥ ५९॥ पादेचैवास्य रोमाणि द्विपादे श्मश्रु केवलम् ॥ त्रिपादे तु शिखावर्ज मूले सर्व समाचरेत् ॥ ५३॥ चौथाई कृच्छू में रोमों का मुंडन, अर्द्ध कृच्छ्र में दाढी का मुंडन, पौने कृच्छ्र में चोटी के अतिरिक्त समस्त सिर का मुंडनः और पूर्ण कृच्छ्र में चोटी सहित समस्त केशों का मुंडन पुरुष को कराना उचित है ॥५३॥ सर्वान्केशान्समुद्धृत्य च्छेदयेदंगुलद्वयम् ॥ एवमेव तु नारीणां मंडमुंडायनं स्मृतम् ॥५४॥ स्त्रियों को गंजा करने का आदेश नहीं है, केवल उनके लब बालों को ऊपर को उठाकर दो अंगुल काट देना चाहिए ॥५४॥ न स्त्रिया वपनं कार्य न च वीरासनं स्मृतम् ॥ न च गोष्ठे निवासोस्ति न गच्छंतीमनुव्रजेत् ॥ ५५ ॥ स्त्रियों को मुंडन और वीरासन से बैठने का कर्तव्य नहीं है और गौशाला मे भी बैठना उचित नहीं है। चलती हुई गौ के पीछे स्त्री को चलना भी उचित नहीं ॥५५॥ राजा वा राजपुत्रो वा ब्राह्मणो वा बहुश्रुतः ॥ अकृत्वा वपनं तेषां प्रायश्चित्तं विनिर्दिशेत् ॥५६॥ राजा अथवा राजाका पुन या जिसने बहुत शास्त्र पढे हों वह ब्राह्मण इनका मुंडन न करवा कर केवल प्रायश्चित्त करवाना चाहिए ॥५६॥ केशानां रक्षणार्थ च द्विगुणं व्रतमादिशेत् ॥ द्विगुणे तु व्रते चीर्ण द्विगुणैव तु दक्षिणा ॥ ५७ ॥ बालों की रक्षा के निमित्त च दुगुना व्रत करावे और दुगुना व्रत करने पर दुगनी ही दक्षिणा दे ॥५७॥ द्विगुणं चेन्न दत्तं हि केशांश्च परिरक्षयेत् ॥ पापः न क्षीयते हतुर्दाता च नरकं ब्रजेत् ॥५८॥ यदि दुगनी दक्षिणा के दिए बिना केशों की रक्षा करे तो मारने वाले का पाप दूर नहीं होता और प्रायश्चित्त का दाता नरक में जाता है ॥५८॥ अश्रौतस्मातविहितं प्रायश्चित्तं वदंति ये ॥ तान्धर्मविनकर्तश्च राजा दंडेन पीडयेत् ॥५९॥ जो प्रायश्चित्त वेद और धर्मशास्त्र में नहीं कहा है यदि उस प्रायश्चित्त को जो पुरुष बताए तो उस धर्म में विघ्न करनेवाले पुरुष को राजा दंड से पीडित करे ॥५९॥ न चेत्तान्पीडयेद्राजा कथंचिकाममोहितः ॥ तत्पापं शतधा भूत्वा तमेव परिसर्पति ॥६०॥ यदि मोह के वश होकर राजा अपनी इच्छा से उसको पीडा न दे, तो उस राजा को सौगुना पाप लगताहै ॥६०॥ प्रायश्चित्ते ततश्वीणें कुर्याद्वाह्मणभोजनम् ॥ विंशति गा वृष चैकं दद्यात्तेषां च दक्षिणाम् ॥६१॥ फिर राजा प्रायश्चित्त करके बीस ब्राह्मणों को जिमाए, और उन ब्राह्मणों को बीस गाय और एक बैल दक्षिणा में दे ॥६१॥ कृमिभ्रिवर्णसंभूतैर्मक्षिकाभिश्च पातितैः ॥ कृच्छार्द्ध संप्रकुर्वीत शक्त्या दद्याच्च दक्षिणाम् ॥६२॥ यदि किसी मनुष्य के शरीर में मक्खी बैठने के कारण घाव में कीडे पड जाएं तो अर्द्ध कृच्छ्र का प्रायश्चित्त करने से शुद्ध होताहै और अपनी शक्ति के अनुसार दक्षिणा भी दे ॥६२॥ प्रायश्चित्तं च कृत्वा वै भोजयित्वा द्विजोत्तमान् ॥ सुवर्ण माषकं दद्यात्ततः शुद्धिर्विधीयते ॥६३॥ प्रायश्चित्त कर ब्राह्मणों को जिमा कर एक माशा सुवर्ण देने से शुद्धि होती है ॥ ६३॥ चंडालश्वपचे स्पृष्टे निशि स्नानं विधीयते ॥ न वसेत्तत्र रात्रौ तु द्यः स्त्रानेन शुद्धयति ॥६४॥ यदि रात्रि के समय में चांडाल अथवा श्वपच छू लें तो स्नान करना उचित है, और फिर वहां रात्रि में निवास न कर शीघ्र स्नान करै ॥६४॥ अथ वसेद्यदा रात्रौ अज्ञानादविचक्षणः । तदा तस्य त तत्पापं शतधा परिवर्तते ॥६५॥ जो मूर्ख अज्ञानता से रात्रि में वहां निवास करले तो वह पाप उसको सौ गुणा लगता है ॥६५॥ उद्गच्छति हि नक्षत्राण्युपरिष्टाच्च ये ग्रहाः ॥ संस्पृष्टे रश्मिभिस्तेषामुदके स्नान माचरेत् ॥६६॥ यदि आकाश में टूटे हुए तारे तथा ग्रहों की किरणों का स्पर्श हो जाए तो जल में स्नान करने से शुद्ध होता है ॥६६॥ कुड्यांतर्जलवल्मीकमूषिकोकरवर्मसु ॥ श्मशाने शौचशेषे च न ग्राह्याः सप्त मृत्तिकाः ॥६७॥ दीवार के भीतर की, जल के वीच की, दीमक की, चुहों की खोदी हुई; मार्ग की, शमशान की, और शौच से बची हुई इन सात स्थानों की मट्टी को ग्रहण नहीं करना चाहिए; अर्थात यह ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥६७॥ इष्टापूर्ते तु कर्त्तव्यं ब्राह्मणेन प्रयत्नतः ॥ इष्टेन लभते स्वर्ग पूर्ते मोक्षं समश्रुते ॥ ६८ ॥ इष्ट (यज्ञ आदि) पूर्त (कुआं आदि) ब्राह्मण को बड़े यत्न से करना उचित है। इष्ट से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, और पूर्त से मोक्ष प्राप्त होता है ॥६८॥ वित्तापेक्षं भवेदिष्टं तडागं पूर्तमुच्यते ॥ आरामश्च विशेषेण देवद्रोण्यस्तथैव च ॥६९॥ इष्ट के भेद अनेक हैं। इष्ट द्रव्य के अनुसार होताहै, और तालाव, विशेष करके बाग और देवद्रोणी (तीर्थ अथवा प्याऊ) इन्ही को पूर्त कहते हैं ॥६९॥ वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च ॥ पतितान्युद्धरेद्यस्तु स पूर्तफलमश्रुते ॥७०॥ कृप, बावडी, देवमंदिर, तालाव इनके टुटफूट जानेपर जो इनका उद्धार अर्थात जो इनकी मरम्मत करवाता है, वह भी पूर्त के फल को प्राप्त करता है॥७०॥ शुक्लाया मूत्रं गृहीयाकृष्णाया गोः शकृत्तथा ॥ ताम्रायाश्च पयो ग्राह्य श्वेतायां दपि चोच्यते ॥ ७१ ॥ सफेद गाय का मूत्र, और काली गाय का गोवर, लाल गाय का दूध, और सफेद गाय का दही ॥७१॥ कपिलाया घृतं ग्राह्यं महापातकनाशनम् । सर्वतीर्थे - नदीतोये कुशैव्यं पृथक्पृथक् ॥७२॥ और कपिला गाय का घी यह, पंचगव्य महापातकों का नाश करताहै, सम्पूर्ण तीर्थों में तथा नदी के जल में गोमूत्र इत्यादि द्रव्यों को पृथक् पृथक कुशाओं से ॥७२॥ आहृत्य प्रणवेनैव उत्थाप्य, प्रणवेन च ॥ प्रणवेन समालोड्य प्रणवेन तु संपिवेत् । ॥७३॥ ॐकार का जप करके एकत्रित करन चाहिए; और ॐकार को पढकर पी जाना चाहिए ॥७३॥ पालाशे मध्यमे पर्णे भांडे ताम्रमये तथा ॥ पिब्रेयुष्करपर्णे वा ताम्र वा मृन्मये शुभे ॥ ७ ॥ ढाक के बीच के पत्तों में अथवा ताम्बे के पात्र में अथवा कमल के पत्ते में तथा लाल मिट्टी के पात्र में उस पंचगव्य का पान करना चाहिए ॥७४॥ सूतके तु समुत्पन्ने द्वितीये समुपस्थिते ॥ द्वितीये नास्ति दोषस्तु प्रथमेनैव शुद्धयति ॥७५॥ एक सूतक के होते ही यदि दूसरा सूतक हो जाए तो दूसरे सूतक का दोप नहीं है पहले के साथ वह भी शुद्ध हो जाता है ॥७५॥ जातेन शुद्धयते जातं मृतेन मृतकं तथा ॥ गर्भ संस्त्रवणे मासे त्रीण्यहानि विनिर्दिशेत् ॥७६॥ जन्म सूतक के साथ जन्म सूतक की और मरण सूतक के साथ मरण सूतक की शुद्धि होती है; महीने के गर्भ पात में तीन दिन का अशौच होताहै ॥ ७६ ॥ रात्रिभिर्मासतुल्याभिर्गर्भस्त्रावे विशुद्धयति ॥ रजस्युपरते साध्वी स्नानेन स्त्री रजस्वला ॥७७॥ जितने महीने को गर्भ पतित हो उतनी ही रात्रियों में उसकी शुद्धि होती है। और रजस्वला स्त्री की शुद्धि रज की निवृत्ति होने पर स्नान करने से होती है ॥७७॥ स्वगोत्राद्रवश्यते नारी विवाहात्सप्तमे पदे ॥ स्वामिगोत्रण कर्तव्या तस्याः पिंडोदकक्रिया ॥ ७८ ॥ विवाह हो जाने पर स्त्री सप्तपदी किये उपरान्त अपने गोत्र से अलग हो जाती है, उसका पिंड और जलदान आदि कर्म पति के गोत्र से ही करना उचित है ॥७८॥ दे पितुः पिण्डदानं स्यास्पिडे पिंडे द्विनामता ॥ षण्णां देयाः पिंडा एवं दाता न मुह्यति ॥७९॥ पिता को दो पिंड दे प्रत्येक पिंडों में दो नाम (सपत्नीक) आते हैं इसलिए छह को तीन पिंड देने चाहिए, इस प्रकार करने से पिंडों का दाता मोहित नहीं होताहै ॥७९॥ स्वेन भर्चा सह श्राद्धं माता भुक्ता सदैवतम् ॥ पितामह्यपि स्वेनैव स्वेनैव प्रपितामही ॥८०॥ माता, पितामही (दादी) और प्रपितामही (परदादी) यह तीनों अपने पतियों के साथ श्राद्धको भोगती हैं ॥८॥ वर्षेवर्षे तु कुर्वीत मातापित्रोस्तु सस्कृतिम् ॥ अदैवं भोजयेच्छ्राद्धं पिंडमेकं तु निर्वषेत् ॥८१॥ प्रत्येक वर्ष में पिता माता का श्राद्ध करै, वैश्वदेव के बिना श्राद्ध जिमाना चाहिए और एक पिंड देना उचित है ॥ ८१ ॥ नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धमथापरम् ॥ पार्वणं चेति विज्ञेयं श्राद्धं पंचविध बुधैः ॥८२॥ विवाह हो जाने पर स्त्री सप्तपदी किये उपरान्त अपने गोत्र से अलग हो जाती है, उसका पिंड और जलदान आदि कर्म पति के गोत्र से ही करना उचित है ॥७८॥ दे पितुः पिण्डदानं स्यास्पिडे पिंडे द्विनामता ॥ षण्णां देयाः पिंडा एवं दाता न मुह्यति ॥७९॥ पिता को दो पिंड दे प्रत्येक पिंडों में दो नाम (सपत्नीक) आते हैं इसलिए छह को तीन पिंड देने चाहिए, इस प्रकार करने से पिंडों का दाता मोहित नहीं होताहै ॥७९॥ स्वेन भर्चा सह श्राद्धं माता भुक्ता सदैवतम् ॥ पितामह्यपि स्वेनैव स्वेनैव प्रपितामही ॥८०॥ माता, पितामही (दादी) और प्रपितामही (परदादी) यह तीनों अपने पतियों के साथ श्राद्धको भोगती हैं ॥८॥ वर्षेवर्षे तु कुर्वीत मातापित्रोस्तु सस्कृतिम् ॥ अदैवं भोजयेच्छ्राद्धं पिंडमेकं तु निर्वषेत् ॥८१॥ प्रत्येक वर्ष में पिता माता का श्राद्ध करै, वैश्वदेव के बिना श्राद्ध जिमाना चाहिए और एक पिंड देना उचित है ॥ ८१ ॥ नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धमथापरम् ॥ पार्वणं चेति विज्ञेयं श्राद्धं पंचविध बुधैः ॥८२॥ विवाह हो जाने पर वह कन्या चौथे दिन के रात्रि में पिंड, गोत्र, और सुतक में पति की समानता को प्राप्त हो जाती है अर्थात जिस वर्ण के पति के साथ उसका विवाह हुआ हो उसी वर्ण के अनुसार उसका पिंडआदि होता है ॥८६॥ प्रथमेहि द्वितीये वा तृतीये वा चतुर्थक ॥ अस्थिसंचयनं कार्य बंधुभिहितबु दिभिः ॥८७॥ हितकारी बंधू पहले, दूसरे, तीसरे अथवा चौथे दिन अस्थियों का संचय करे ॥८७॥ चतुर्थे पंचमे चैव सप्तमे नवमे तथा ॥ अस्थिसंचयनं प्रोक्तं वर्णानामनुपूर्वशः ॥ ८८ ॥ क्रमानुसार ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र को चौथे, पांचवें, सातवें, और नवें दिन अस्थिसंचयन करना उचित है ॥८८॥ एकादशाहे प्रेतस्य यस्य चोत्सृज्यते वृपः ॥ मुच्यते प्रेतलोकात्स स्वर्गलोके महीयते ॥८९॥ जिसके मरने पर ग्यारहवें दिन वृषोत्सर्ग किया जाता है, वह प्रेत, प्रेतलोक में नहीं जाता उसकी पूजा स्वर्गलोक में होतीहै ॥८९॥ नाभिमाने जले स्थित्वा हृदये नानुचिंतयेत् । आगच्छंतु मे पितरो गृहंत्वेता जलांजलीन् ॥९०॥ मनुष्य नाभिपर्यन्त जलमें निमग्न होकर इस प्रकार स्मरण करे कि, मेरे पितर आकर जल की अंजुलीको ग्रहण करै ॥९॥ हस्तौ कृत्वा तु संयुक्तौ पूरयित्वा जलेन च ।। गोश्रृंगमा त्रमुद्धृत्य जलमध्ये जलं क्षिपेत् ॥९१॥ दोनों हाथों की अंजुली बना कर उसमें जल को भर गाय के सींग के समान उपर को हाथ ऊँचा उठाकर जल के वीच मे ही उस अंजुली के जल को डाल दे ॥९१॥ आकाशे च क्षिपेदारि वारिस्थो दक्षिणामुखः ॥ पितॄणां स्थानमाकाशं दक्षिणा दिक्तथैव च ॥९२॥ मनुष्य जल में खड़े होकर दक्षिण दिशा की ओर को मुखकर आकाश की ओर को जलको फेंके, कारण कि पितरों का स्थान आकाश और दक्षिण दिशा यह दोनों हैं ॥९२॥ आपो देव गणाः प्रोक्ता आपः पितृगणास्तथा ॥ तस्मादप्सु जलं देयें पितॄणां हितमिच्छता ॥ ९३ ॥ देवता और पितरों के गण जल रूप ही हैं, इस कारण पितरों की इच्छा करनेवाला पुरुष जल में ही तर्पण करे ॥९३॥ दिवा सूर्यांशुभित्तप्तं रात्रौ नक्षत्रमारुतैः ॥ संध्ययोरप्युभाभ्यां च पवित्रं सर्वदा जलम् ॥९४॥ जल दिन में तो सूर्य की किरणों के तपनेसे और रात्रि में नक्षत्र और पवन से, और सन्ध्या के समय इन दोनों से सर्वदा पवित्र रहता है ॥९४॥ स्वभावयुक्तमव्याप्तममेध्येन सदा शुचि ॥ भांडस्थं धरणीस्थं वा पवित्रं सर्वदा जलम् ॥ ९५ ॥ जिसमें अपवित्र वस्तु न मिली हों वह स्वाभाविक जल सर्वदा पवित्र है, पात्र का जल अथवा भूमि का जल भी सदा पवित्र हैं ॥९५॥ देवतानां पितॄणां च जले दद्याजलांजलीन् ॥ असंस्कृतममीतानां स्थले दद्या जलांजलीन् ॥९६॥ देवता और पितरों के निमित्त जल की अंजुली जल में ही देनी उचित है; और जो विना संस्कार हुए मर गए हों उनको स्थल में देनी उचित है ॥९६॥ श्राद्ध हवनकाले च दद्यादेकेन पाणिना ॥ उभाभ्यां तर्पणे दद्यादिति धर्मों व्यवस्थितः ॥९७॥ श्राद्ध और होम के समय में तो एक हाथ से अंजुली देनी उचित है और तर्पण के समय में दोनों हाथों से अंजुली दे; यह धर्म की रीति है ॥९७॥ इति यमप्रणीतं धर्मशास्त्रं समाप्तम् ॥ यम स्मृतिः समाप्त हई ॥

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