Harit Smriti Chapter 4 (चतुर्थअध्याय)

चतुर्थोऽध्यायः चतुर्थअध्याय गृहीतवेदाध्ययनः श्रुतशास्त्रार्थतत्त्ववित् ॥ असमानपिंगोत्रां हि कन्यां सभ्रा. तुका शुभाम् ॥१॥ सर्वावयरसंपूर्णा सुवृत्तामुव्हेन्नरः ॥ ब्राह्मण विधिना कुर्यात्प्रशस्तेन द्विजोत्तमः ॥२॥ वेद को ब्रह्मचर्य से पढ़ा हुआ और गुरु के मुख से पढ़ा हुआ शास्त्र के तात्पर्य का ज्ञाता, ब्राह्मण अपना विवाह करनेवाला पुरुष का गोत्र और प्रवर के तुल्य गोत्र और प्रवर जिसके नहीं है ऐसी और जिसके भाई हो ऐसी अच्छी सुन्दर आचरणवाली, और दे हके सम्पूर्ण अंगों से युक्त ऐसी कन्या से विवाह करे और आठ विवाहों के मध्य में जो उत्तम ब्राह्म विवाह है, उससे विवाह करे ॥१-२॥ तथान्ये बहवः प्रोक्ता विवाहा वर्णधर्मतः ॥ औपासनं च विधिवदाहत्य द्विनपुंगवाः ॥ ३॥ इसी प्रकार से अन्य वर्गों के भी विवाह धर्मानुसार बहुत कहे हैं। ब्राह्मण विधिपूर्वक उपासना अग्नि को ग्रहण करके ॥३॥ सायं प्रातश्च जुहुयात्सर्वकालमतंद्वितः ॥ लानं कार्य ततो नित्यं दन्तधावनपूर्वकम् ॥४॥ आलस्यरहित होकर सायंकाल और प्रातःकाल में प्रतिदिन हवन करे। और नित्य दन्त धावन करके स्नान करे ॥४॥ उषाकाले समुत्थाय कृतशौचो यथाविधि ॥ मुखे पर्युषिते नित्यं भवत्यप्रयतो नरः ॥ ५ ॥ उषा काल में उठकर यथाविधि शौचादि को करे, क्योंकि मुख के पर्युपित रहने से मनुष्य नित्य अपवित्र रहता है ॥५॥ तस्माच्छुकमयदि वा भक्षयेद्दन्तकाष्ठकम् ॥ करंजं सादिरं वापि कदंब कुरवंतया ॥६॥ इसकारण सूखी अथवा गीली दंतकाष्ठ का भेक्षण दंतौन करे और वह काठ कंरज वा, खैर, कदंब, मौलासरी का होना श्रेष्ठ है ॥६॥ सप्तपर्ण पृश्निपणी जंबू निवं तथैव च ॥ अपामार्ग विल्वं चाक चोदुंबरमेव च ॥७॥ सप्तपर्ण, पृष्णिपणी जामन, नीम, ओंगा, बेल, आक, गूलर, ॥७॥ एते प्रशस्ताः कथिता देतधावनकर्मणि ॥ दंतकाष्टस्य भक्ष्यस्य समासेन प्रकीर्तितः ॥८ ॥ इतने वृक्ष दतौनके लिये उत्तम कहे हैं, और दतौन के काठ का भक्षण इस भांति संक्षेप से कहा है ॥८॥ सर्वे कंटकिनः पुण्याः क्षीरिणच यशस्विनः ॥ अष्टांगुलेन मानेन दंतकाष्टमिहोच्यते ॥ प्रादेशमात्रमयवा तेन दन्ता विशोधयेत् ॥ ९॥ कांटे वाले वृक्ष और दूधवाले वृक्षों की लकडीकी दातौन करने से पुण्य और यश की वृद्धि होती है, आठ अंगुल, या दश अंगुल की लम्बी लकडी दतौंन के लिये कही है, अथवा प्रादेशमात्र लम्बी अर्थात अंगूठे से तर्जनी तक दतौंन की लकडी का प्रमाण है इससे दांतों की शुद्धि करे ॥९॥ प्रतिपपर्वपष्टीपु नवम्यां चैव सत्तमाः ॥ दतानां काष्ठसं योगाइहत्यासप्तमः कुलम् ॥१०॥ हे सन्तों में उत्तमों ! पडवा, अमावस्या, छठ और नवमी तिथिमें जो दतौन करता है उसके सात कुल दग्ध हो जाते हैं ॥१०॥ अभावे दन्तकाष्ठानां प्रतिपिछदिनेषु च ॥ अपां बादशगंडूपैर्मुखशुद्धि समाचरेत् ॥११॥ इन दिनों दातौन न करके दातौन के अभाव में केवल जल से बारह कुल्ले करके मुख शुद्ध करे ॥११॥ नात्वा मंत्रवदाचम्य पुनराचमनं चरेत् ॥ मंत्रवत्मोक्ष्य चात्मानं प्रक्षिपदुदकांज लिम् ॥१२॥ पहले मंत्रों से आचमन करके उसके पश्च्यात स्नान कर आचमन करे, और मंत्रों से आत्मा को शुद्ध करके जल की अंजुली सूर्य भगवान को दे ॥१२॥ आदित्येन सह मातर्मन्देहा नाम राक्षसाः ॥ युद्धयन्ति वरदा नेन ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ॥१३॥ क्योंकि अव्यक्त अजन्मा भगवान् ब्रह्मा जी के वरदान से दर्पित हो मंदेह नाम के राक्षसगण प्रातः काल के सूर्य के साथ युद्ध करते हैं ॥१३॥ उदकांजलिनिःक्षेपागायच्या चाभिमंत्रिताः ॥ निननि राक्षसान्सन्भिन्देहाख्यान्दिजेरिताः ॥१४॥ उस समय गायत्री मंत्रों से अभिमंत्रित हुई ब्राह्मणों की दी हुई जलांजलि उन मंदेह नामक सम्पूर्ण राक्षसोंको नष्ट करती है ॥१४॥ ततः प्रयाति सविता बाह्मणैरभिरक्षितः ॥ मरीच्या_महाभागैः सनकाद्यैश्च योगिभिः ॥१५॥ उस जलांजलि से ब्राह्मणों के द्वारा तथा मरिषि आदि महाभागों और सनकादिक योगियों से सुरक्षित होकर सूर्यभगवान् आकाश में गमनकरते हैं ॥१५॥ त स्मान लंघयेत्संध्यां सायं प्रातः समाहितः ॥ उल्लंघयति यो मोहात्स याति न रकं ध्रुवम् ॥ १६॥ इस कारण द्विजातिगण सावधान होकर प्रातःकाल और साचंकाल की संध्या का उल्लंघन न करें जो मनुष्य मोइ के वश से संध्या का उल्लंघन करते हैं वह निश्चय ही नरक में जाते हैं ॥१६॥ सायं मंत्रवदाचम्य प्रोक्ष्य सुर्य्यस्य चाञ्जलिम् ॥ दत्त्वा प्रदक्षिणं कुर्य्याजलं स्पृष्ट्या विशुद्धयति ॥१७॥ सायंकाल में आचमन करने के पश्च्यात पीछे मंत्रों से अभिमंत्रित हुए जल को शरीर पर छिड़क कर सूर्य भगवान को जलांजलि देकर चारधार उनकी प्रदक्षिणा करके, इसके पीछे जल को स्पर्श करके शुद्धि प्राप्त करे ॥१७॥ पूर्वी संध्यां सनक्षत्रामुपासीत यथाविधि ॥ गायत्रीमभ्यसेत्तावंद्यावदादित्य दर्शनात् ॥१८॥ भलीभांति से नक्षत्र दीखते हों उस समय प्रातःकाल की संध्या करे और जब तक सूर्यभगवान का दर्शन भलीभांति से न हो जाए तब तक गायत्री का जप करता है ॥१८॥ उपास्य पश्चिमा सन्ध्या सादिस्यां च यथाविधि ॥ गायत्रीमभ्यसत्तावद्यावत्ताराणि पश्यति ॥१९॥ और सूर्य के अस्त होने के पूर्व अर्थात् अर्धास्तमित समय में विधि से संध्या प्रारंभ करके जब तक कुछ कुछ तारों का दर्शन नहीं हो जाए तब तक गायत्री का जप करता रहै ॥१९॥ ततश्चाक्सथं प्राप्य कृत्वा होमं स्वयं वृधः । संचिंत्य पोप्यवर्गस्य भरणार्थ विचक्षणः ॥२०॥ इसप्रकार सन्ध्यावन्दन करनेके उपरान्त बुद्धिमान ब्राह्मण घर में जाकर शास्त्र को विधि के अनुसार स्वयं हवन करे, इसके पश्च्यात पोप्यवर्ग पुत्र भृत्य आदि के भरण के निमित चिन्ता करे ॥२०॥ ततः शिष्यहितार्थाय स्वाध्यायं किंचिदाचरेत् ॥ ईश्वरं चैव कार्यार्थमभिगच्छेहिजोत्तमः ॥२१॥ इसके उपरान्त निश्चिन्त होकर ज्ञानी ब्राह्मण अपने शिष्य के कल्याण के लिये कुछ एक स्वाध्याय कर, और हे द्विजोत्तमों ! इसके पश्च्यात कार्य के लिये राजा के यहां जाए ॥२१ ॥ कुशपुष्पंधनादीनि गत्वा दूरं समाहरेत् ॥ ततो मध्यादिकं कुर्याच्छचों देश मनोरमे ॥२२॥ दूरदेश में से जाकर कुशा, फूल, ईधन-लकडी आदि को लेकर आए, इसके पीछे मनोरम शुद्ध देश में जाकर मध्याहिक कर्म को करें ॥२२॥ विधि तस्य प्रवक्ष्यामि समासात्पापनाशनम् ॥ स्नात्वा येन विधानेन मुच्यते सर्वकिल्विषात् ॥२३॥ संक्षेप से पापनाशक उसकी विधि कहता हूँ, उस विधि के अनुसार स्नान करने से सब पापों से टूट जाता ॥२३॥ स्नानार्य मृदमानीय शुद्धाक्षततिलैः सह ॥ सुमनाश्च ततो गच्छेन्नदी शुद्धजला धिकाम् ॥२४॥ शुद्ध अक्षत और तिलों के साथ स्नान के लिये मिट्टी को लाकर उदार मन होकर शुद्ध और अधिक जलवाली नदी पर जाकर स्नान करना चाहिए ॥२४॥ नद्यां तु विद्यमानायां न मायादन्यवारिणि ॥ न वायादल्प तोयेषु विद्यमाने बहूदके ॥२५॥ नदी के होते हुए अन्य जल में स्नान नहीं करे, और अधिक जलवाले तीर्थ के होते हुए अल्पजल वाले कूपादि में स्नान नहीं करनी चाहिए ॥२५॥ सरिद्वरं नदीनान प्रतिस्त्रातास्थितश्चरेत् ॥ तडागादिषु तोयपु स्नायाच्च तदभावतः ॥ २६ ॥ नदियों में श्रेष्ठ गंगादि समुद्रवाहिनी में प्रवाह के सन्मुख स्थित होकर स्नान करना चाहिए, नदी के न होनेपर तालाब आदि के जल में स्नान करना चाहिए ॥२६॥ शुचिदेशे समभ्युक्ष्य स्थापयेत्सकलांवरम् ॥ मृत्तोयेने स्वकं देहं लिपेत्मक्षाल्य यत्नतः ॥२७॥ प्रथम शुद्धदेश में जल को छिडककर सम्पूर्ण वस्त्रों को रखदे, इसके पश्च्यात यत्नपूर्वक मिटटी और जल से अपनी देह को लीपकर प्रक्षालन करे ॥२७॥ स्नानादिकं च समाप्य कुर्यादाचमनं बुधः ॥ सोऽन्तर्जलं प्रवि श्याथ वांग्यतो नियमेन हि ॥२८॥ हरि संस्मृत्य मनसा मज्जयेच्चोरुमजले ॥ ततस्तीरं समासाद्य आचम्यापः समंत्रतः ॥ २९ ॥ स्नानादि को करके बुद्धिमान् मनुष्य आचमन करे फिर वह पुरुष जल के भीतर प्रवेश करके मौन होकर नियम सहित हरि का स्मरण करके जंघा तक जल में गोता लगाए इसके पश्च्यात किनारे पर आकर मंत्रोंसहित जलसे आचमन करके ॥२८-२९॥ प्रोक्षयेदारुणमैत्रः पावमा नीभिरेव च ॥ कुशाग्रकृततोयेन प्रोत्यात्मानं प्रयत्नतः ॥३०॥ वरुण देवता के मन्त्र अथवा पावमानी सुक्त से शरीर का प्रोक्षण करै; कुशा के अग्र के जल से यत्न सहित देह का प्रोक्षण करके ॥३०॥ स्योनापृथ्वी ति मृगा। इदविष्णुरिति द्विजाः ॥ ततो नारायगं देवं संस्मरेत्प्रतिमननम् ॥३१॥ स्योनापृथ्वी इत्यादि मंत्रोंसे अथवा इदंविष्णु इत्यादि मंत्रों को पढकर देह में मट्टी लगाए; इसके पीछे प्रत्येक गोते में नारायण का स्मरण करे ॥३१॥ निमळ्यांतर्जले सम्यक्रियते चाघमर्षणम् ॥ स्नात्वाक्षततिलैस्तदेवपिपितृभिः सह ॥ ३२ ॥ इसके पीछे जलके बीच में निमग्न हुए अघमर्षण मंत्र (ऋतंचसत्यमित्यादि) का जप करना चाहिए। इसके पीछे स्नान करके अक्षत और तिल से देव, ऋषि और पितरों का ॥३२॥ तर्पयित्वा जलं तस्मानिष्पी ड्य च समाहितः ॥ जलतीरं समासाद्य तत्र शुक्ले च वाससी ॥ ३३ ॥ तर्पण करके किनारे पर आकर वन को निचोड कर सावधानी से सफेद वस्त्रों को ॥३३ ॥ परि धायोत्तरीयं च कुर्यात्कशान्न धूनयेत् ॥ न रक्तमुल्वणं वासो न नीलं च प्रशस्यते ॥३४॥ पहनकर दुपट्टा पहने और बालों को झाडे नहीं; अर्थात् शिखा को नहीं फटकारे क्योंकि उसके जल का अंग पर गिरना अच्छा नहीं है अत्यन्तलाल और नीलावस्त्र श्रेष्ठ नहीं है ॥३४॥ मलाक्तं गंधहीनं च वर्जयेदंबरं बुधः ॥ ततः प्रक्षालयेत्पादौ मृत्तोयेन विचक्षणः ॥३५॥ मैले कुचले और गन्धहीन वस्त्र को त्याग दे, इसके पीछे बुद्धिमान् मनुष्य मट्टी के जल से पैरों को धोए ॥३५॥ दक्षिणं तु करं कृत्वा गोकर्णाकृतिवत्पुनः ॥ त्रिपिवेदीक्षितं तोयमास्यं दिः परिमार्जयेत् ॥३६॥ इसके पीछे दहिने हाथ का गौ के कान के समान आकार बनाए और तीन बार जल पिये फिर दोबारा अंगूठे से मुखमार्जन करे अर्थात् दोनों होठों को पोंछे ॥३६॥ पादौ शिरस्ततोऽभ्युक्ष्य त्रिभिरास्यमुपस्पृशेत् ॥ अंगुष्ठा नामिकाभ्यां च चक्षुपी समुपस्पृशेत् ॥ ३७ ॥ फिर पैर और शिर पर जलछिडक कर बीच की तीन अंगुलियों से मुख का स्पर्श करें, अंगूठे और अनामिका से दोनों नेत्रों को स्पर्श करे ॥३७॥ तथैव पंचभिर्मुनि स्पृशेदेवं स माहितः ॥ अनेन विधिनाचम्य ब्राह्मणः शुद्धमानसः ॥३८॥ इस प्रकार विधि सहित बुद्धिमान् मनुष्य सावधान होकर पांचों उंगलियों से मस्तक का स्पर्श करें, शुद्ध मनवाला ब्राह्मण इस विधि से आचमन करके ॥३८॥ कुर्वीत दर्भ पाणिस्तूदङ्‌‌मुख प्रामुखोऽपि वा । नाणायामत्रय धीमान्यथान्यायमत द्वितः ॥३९॥ कुशा हाथ में लेकर पूर्व मुंह होकर आलस को छोडकर न्याससहित तीन प्राणायाम करे ॥३९॥ जपयज्ञ ततः कुर्याद्वायत्री वेदमातरम् ॥ त्रिविधो जपयज्ञः स्यात्तस्य तत्व निःबोधत ॥४०॥ इसके पीछे वेदों की माता गायत्री को जप और जपयज्ञ करे यह जपयज्ञ तीन प्रकार का है, आपसे उसका स्वरूप कहता हूँ ॥४०॥ वाचिकच उपांशुश्च मानसश्च विधाकृतिः ॥ त्रयाणामपि यज्ञानां श्रेष्ठः स्यादुत्तरोत्तरः ॥४१॥ वाचिक, उपांशु धीमी वाणी से और मानसिक, यह तीन प्रकार के जप के भेद। इन तीनों जपयज्ञो के बीच में उत्तरोतर श्रेष्ठ है ॥४१॥ यदुच्चनीचोच्चरितैः शब्दैः स्पष्टपदाक्षरः ॥ मंत्रमुच्चारयन्वाचा जपयज्ञस्तु वाचिकः ॥४२॥ जिसका ऊँचा और नीचा उच्चारण स्पष्ट पदाक्षरों के शब्दों से मन्त्रपाठ किया जाता है उसी जप को वाचिक कहते हैं ॥४२॥ शनैरुचारयन्मत्रं किंचिदोष्ठीः प्रचालयेत् ॥ किंचिच्छवणयोग्यः स्यात्स : पांशुर्जपः स्मृतः ॥४३॥ और जिसमें कुछ कुछ होठ कंपित हो और धीरे धीरे मन्त्र का उचारण हो, कुछ कुछ शब्द सुनाई आता हो, उसे उपांशु जप कहते हैं ॥४३॥ धिया पदाक्षरश्रेण्या अवर्णमपदाक्षरम् ॥ शब्दाचिंतनाभ्यां तु तदुक्तं मानसं स्मृतम् ॥४४॥ बुद्धि से ही पद और अक्षर की पंक्ति का स्मरण हो वर्ण और पदाक्षर सुनाई न आए; केवल शब्द और अर्थ का विचार ही जिसमें हो, उसका नाम मानसिक जपयज्ञ है ॥४४॥ जपेन देवता नित्यं स्तूयमाना प्रसीदति ॥ प्रसन्ने विपुलान्गोत्रान्प्रामुवति मनीषिणः ॥४५॥ जप से स्तुति किए जाकर देवता प्रसन्न होते हैं, देवताओं के प्रसन्न होने पर मनुष्यों को बहुत सी वंश की वृद्धि प्राप्त होती है ॥४५॥ राक्षसाश्च पिशाचाच महासाश्च भीषणाः ॥ जपितान्नोपसर्पत दूरादेव प्रयांति ते ॥४६॥ जपकरने से भयंकर राक्षसगण, पिशाच और सर्प यह निकट नहीं आ सकते अपितु वह दूर से ही भाग जाते हैं ॥४६॥ छंदऋष्यादि विज्ञाय जपेन्मंत्रमतंदितः ॥ जपेदहरहर्शात्वा गायत्री मनसा द्विजः ॥४७॥ छंद और ऋषि को जान कर आलस्यरहित होकर मन्त्र जपे, प्रतिदिन मन से छन्द आदि को जानकर ब्राह्मण गायत्री को जप ॥४७॥ सहस्रपरमां देवीं शतमध्यां दशावराम् ॥ गायत्री यो जपेन्नित्यं स न पापेन लिप्यते ॥१८॥ सहस्र गायत्री का जप श्रेष्ठ है, और शत (१००) गायत्री का जप मध्यम, और दश का जप निकृष्ट (अधम) है, जो प्रतिदिन गायत्री का जप करता है वह पाप से लिप्त नहीं होता ॥४८॥ अथ पुष्पांजलिं कृत्वा भानवे चोर्ध्ववाहुकः ॥ उदुत्यं च जपेत्सूक्तं तच्चक्षुरिति चापरम् ॥ ४९ ॥ इसके उपरान्त श्री सूर्यनारायण को पुष्पसहित जल की अंजुली देकर उर्धबाहु होकर अर्थात ऊपर को दोनों हाथ उठा कर "उदुत्यं जातवेदसम्, और "तचक्षुर्देवहितम्" इन सूक्तों सूर्य की स्तुतिक मंत्रों का जप करना चाहिए ॥४९॥ प्रदक्षिणमुपावृत्त्य नमस्कादिवाकरम् ॥ तत्तत्तीर्थन देवादीनद्भिः संतपयेदिजः ॥५०॥ इसके पश्च्यात सात बार अथवा तीन बार प्रदक्षिणा करके सूर्य को नमस्कार करे। फिर द्विज, जल से देव आदिक तीर्थ से सूर्य देवता इत्यादि का तर्पण करै ॥५०॥ स्नानवस्त्रं तु निष्पीय पुनरा चमनं चरेत् ॥ तद्भक्तजनस्येह स्नानं दानं प्रकीर्तितम् ॥५१॥ फिर स्नान के वस्त्रको निचोडकर पुनर्वार आचमन करे, क्योंकि इसी स्थान पर भक्तों का स्नान और दान कहा है ॥५१॥ दर्भासीनो दर्भपाणिब्रह्मयज्ञविधानतः ॥ प्राङ्‌मुखो ब्रह्मयज्ञं तु कुर्याच्छ्रद्धासमन्वितः ॥५२॥ श्रद्धायुक्त होकर कुशा के आसन पर बैठकर कुशा हाथ में लेकर पूर्वमुख होकर ब्रह्मयज्ञ को विधि के अनुसार ब्रह्मयज्ञ करे ॥५२॥ ततोऽध्यं भानवे दद्यात्तिलपुष्पाक्षतान्वितम् ॥ उत्थाय मुद्धपर्यंत हंसशुचि पदित्यूचा ॥५३॥ इसके उपरान्त उठकर फिर तिल पुष्य और अक्षतों से अर्थ को मस्तक पर्यन्त उठाकर हंस शुचिपत् इत्यादि ऋचा से अभिमंत्रित करके सूर्य को दे ॥५३॥ ततो देवं नमस्कृत्य गृहं गच्छेत्ततः पुनः ॥ विधिना पुरुषसूक्तस्य गत्वा विष्णुं समर्चयेत् ॥५४॥ फिर सूर्यभगवान को नमस्कार करके घर को जाए, वहां विधि से पुरुषसूक्त (सहस्त्र शीर्षा इत्यादि १६ मंत्र) से विष्णु का पूजन करे ॥५४॥ वैश्वदेवं ततः कुर्यादलिकर्म विधानतः ॥ गोदोहमात्रमाकांक्षेदतिथि प्रति वै गृही ॥५५॥ इसके उपरान्त वैश्वदेव की विधि के अनुसार वैश्वदेव को बलि देनी चाहिए, जितने समय में गौ दुहन हो सकता है उतने समय तक गृहस्थी अतिथि की राह देखता रहे ॥५५॥ अष्टपूर्वमज्ञातमतिथिं प्राप्तमर्चयेत् ॥ स्वागतासनदानेन प्रत्युत्थानेन चांबुना ॥५६॥ जिसको पहले कभी न देखा हो ऐसे आये अतिथि की भी स्वागतवचन अर्थात आप अच्छे हैं, बड़ी कृपा की जो दर्शन दिए इत्यादि कहना आसन देना, देखकर उठना, जल आदि से अतिथि की पूजा सत्कार करे ॥५६॥ स्वागतेनामयस्तुष्टा भवति गृहमेधिनः ॥ आसनेन तु दत्तेन मौतो भवति देवराट्र ॥५७॥ स्वागत पूछने से गृहस्थी की अग्नि संतुष्ट होती है, आसन प्रदान करने से इन्द्र प्रसन्न होते हैं ॥५७॥ पादशौचेन पितरः प्रीतिमायाँति दुर्लभाम् ॥ अन्न दानेन युक्तेन तृप्यते हि प्रजापतिः ॥५८॥ चरणोंके धोनेसे पितृगण दुर्लभ प्रीतिको प्राप्त होते हैं, उत्तम अन्न के देने से प्रजापति ब्रह्माजी प्रसन्न होते हैं ॥५८॥ तस्मादतिथये कार्य पूजनं गृहमेधिना ॥ भक्त्या च शक्तितो नित्यं पूजयेद्विष्णुमन्वहम् ॥५९॥ इस कारण गृहस्थियों को अतिथि का पूजन करना अवश्य कर्तव्य है, तथा गृहस्थी भक्ति और शक्तिसे सर्वदा विष्णुका पूजन करे ॥५९॥ भिक्षां च भिक्षवे दयात्परिवाङ् ब्रह्मचारिणे ॥ अकल्पितान्नादुद्धृत्य सव्यंजनसमन्विताम् ॥६०॥ अनंतर अन्न के विभाग से पूर्व ही व्यंजन सहित भिक्षा दे ॥६०॥ अकृते वैश्वदेवेऽपि भिक्षौ च गृहमागते ॥ उद्धृत्य वैश्वदेवार्थ भिक्षां दत्वा विस जयेत् ॥६१॥ संन्यासी और ब्रह्मचारी भिक्षुक को बलिवैश्व देव के लिये अन्न को निकालकर भिक्षा देकर विदा करें ॥ ६१॥ वैश्वदेवात्कृतान्दोषाञ्छतो भिक्षुळपोहितुम् ॥ न हि भिक्षु कृतान्दोषान्वैश्वदेवो व्यपोहति ॥६२॥ कारण कि, वैश्वदेव के न करने से जो पाप होता है उसके दूर करने को भिक्षुक समर्थ है और जो पाप भिक्षुक के निरादर करने से होताहै, उस पाप को वैश्वदेव दूर नहीं कर सकता ॥६२॥ तस्मात्प्राप्ताय यतये भिक्षा दद्यात्स माहितः ॥ विष्णुरेव यतिचायमिति निश्चित्य भावयेत् ॥६३॥ इस कारण जो अतिथि आए उसे सावधान होकर भिक्षा दे और निःसन्देह संन्यासी को विष्णु का रूप समझे ॥ ६३ ॥ सुवासिनी कुमारी च भोजयित्वा नरानपि ॥ वालवृद्धांस्ततः शेषं स्वयं भुंजीत वा गृही ॥ ६४ ॥ गृहस्थी मनुष्य प्रथम, सुहागिनी, और कुमारी, वालक और वृद्ध इन मनुष्यों को भोजन्न कराकर पीछे शेष बचे अन्न का भोजन अपने आप करने चाहिए ॥६४॥ प्राङ्‌मुखोदइन्मुखो वापि भौनी च मितभाषणः ॥ अन्नमादौ नमस्कृत्य प्रह ष्टनांतरात्मना ॥६५॥ भोजन को इस प्रकार से करना चाहिए कि पूर्वमुख अथवा उत्तरमुख होकर बैठे और मौन धारण करके अथवा परिमित बोलकर प्रसन्नचित्त होकर प्रथम अन्नदेव को नमस्कार करे ॥६५॥ पञ्च प्राणाहुतीः कुन्मित्रेण च पृथक्पृथक्। तत स्वादुकरान्नं च भुंजीत सुसमाहितः ॥६६॥ पीछे पृथक् पृथक् मन्त्रों से प्राणाहुति प्राणाय स्वाहा इत्यादि को करे और इसके पश्च्यात स्वादिष्ट अन्न को भलीभांति से सावधान होकर भोजन करना चाहिए ॥६६॥ आचम्य देवतामिष्टां संस्मरन्नुदरं स्पृशेत् ॥ इतिहासपुराणाभ्यां कंचित्कालं नयेद्बुधः ॥६७॥ भोजन के उपरान्त आचमन करके इष्टदेवता का स्मरण करता हुआ उदर का स्पर्श करे, इसके उपरान्त विद्वान् मनुष्य कुछ समय तक इतिहास और पुराणों के सुनने में बिताए ॥६७॥ ततः संध्यामुपासीत बहिर्गत्वा विधानतः ॥ कृतहोमस्तु मुंजीत रात्रौ चातिथिभोजनम् ॥ ६८ ॥ फिर विधिविधानसहित ग्राम से बाहर जाकर सन्ध्यावंदन करै फिर हवन करके और अभ्यागत को भोजन कराकर अपने आप रात्रि को भोजन करे ॥६८॥ सायं प्रातदिनातीनामशनं श्रुतिचोदितम् ॥ नांतरा भोजनं कुर्यादग्निहोत्रसमो विधिः ॥६९॥ सायंकाल और प्रातःकाल में भोजन करने की आज्ञा ब्राह्मणों को वेद ने ही दी है, इस बीच दिन में दुबारा भोजन नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह भोजन की विधि अग्निहोत्र के तुल्य है। ॥६९॥ शिष्यानध्यापयेच्चापि अनध्याये विसर्जयेत् ॥ स्मृत्युक्तानखिलांश्चापि पुराणो तानपि द्विजः ॥७० ॥ शिष्यों को पढाए परन्तु अनध्याय के दिन नहीं पढाना चाहिए, ब्राह्मण जो यह सम्पूर्ण अनध्याय अष्टमी चतुर्दशी आदिक धर्मशास्त्र और पुराणों में कहे गए हैं उनको पढाना वर्जित कर दे ॥७०॥ महानवम्यां द्वादश्यां भरण्यामपि पर्वसु ॥ तथाक्षयतृतीया यां शिष्यानाध्यापयविनः ॥७१॥ तथा महानवमी, द्वादशी, भरणी नक्षत्र, पर्व, अक्षयतृतीया, इनमें भी शिष्यों को नहीं पढ़ाना चाहिए ॥७१॥ माघमासे तु सप्तम्यां रथाख्यायां तु वर्ज येत् ॥ अध्यापनं समभ्यस्यन्नानकाले च वर्जयेत् ॥ ७२ ॥ माघमहीने की रथसप्तमी को भी पढाना उचित नहीं है तथा स्नान के समय भी पढाने को वर्जित कर दे ॥७२॥ नीयमानं शवं दृष्ट्वा महीस्थं वा द्विजोत्तमाः ॥ न पठेद्बुदितं श्रुत्वा संध्यायां तु दिजोत्तमाः ॥ ७३ ॥ हे द्विजोत्तमो ! मुरदे को ले जाते समय अथवा पृथ्वीपर पडे हुए देखकर अथवा रोने के शब्द को सुनकर, और सन्ध्या के समय में भी नहीं पढ़ाना चाहिए ॥७३॥ दानानि च प्रदेयानि गृहस्थेन द्विजोत्तमाः ॥ हिरण्यदानं गोदानं पृथिवीदानमेव च ॥७४॥ हे ब्राह्मणों! यह दान भी गृहस्थियों को देने योग्य है, सुवर्णदान, गौदान और पृथ्वीदान ॥७४॥ एवं धर्मो गृहस्थस्य सारभूत उदाहतः ॥ य एवं श्रद्धया कुर्यात्स याति ब्रह्म णः पदम् ॥७५॥ इस प्रकार गृहस्थी के सारभूत धर्म को मैंने तुमसे कहा; जो श्रद्धासहित इस धर्माचरण को करताहै, वह ब्रह्मपद को प्राप्तहोता है ॥७५॥ ज्ञानोत्कर्षश्च तस्य स्यानरसिंहप्रसादतः ॥ तस्मान्मुक्तिः मवाप्नोति ब्राह्मणो द्विजसत्तमाः ॥ ७६ ॥ और नरसिंह भगवान की कृपा से उसे अधिक ज्ञान की प्राप्ति होती है; हे द्विजोत्तमों ! उस ज्ञानसे ब्राह्मण मुक्ति को प्राप्त होते हैं ॥७६॥ एवं हि विप्राः कथितो मया वः समासतः शाश्वतधर्मराशिः ॥ गृही गृहस्थस्य सतो हि धर्म कुर्वन्प्रयत्नाद्धरिमेति युक्तम् ॥ ७७ ॥ हे विप्रगण ! संक्षेप से मैनें तुमसे सनातनधर्म का समूह कहा; गृहस्थी यत्न साहित गृहस्थ के पालने योग्य इस धर्म के करने से सर्वोचम विष्णु भगवानको प्राप्त होता है; अर्थात् उसकी मुक्ति हो जाती ॥७७॥ इति हारीते धर्मशास्त्रे चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥ हारीत स्मृतिः का चौथा अध्याय समाप्त हुआ ॥४॥

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