Harit Smriti Chapter 1 (प्रथमोऽध्यायः प्रथम अध्याय)

हारीत स्मृतिः ॥ॐ॥ ॥श्री परमात्मने नम: ॥ ॥श्री गणेशाय नमः॥ ॥ हारीत स्मृतिः॥ प्रथमोऽध्यायः प्रथम अध्याय यहां से हारीतस्मृतिका आरम्भ है इसमें हारीतशिष्य और अन्यान्य ऋषियों का संवाद हे। ऋषियों का प्रश्न ये वर्णाश्रमधर्मस्थास्ते भक्ताः केशवं प्रति | इति पूर्व त्वया प्रोक्तं भूर्भुव:स्वद्विजोत्तम ॥ १ ॥ भूः भुवः और स्वर्गलोकमें स्थित जिन सम्पूर्ण द्विजश्रेष्ठों ने वर्णाश्रम धर्म को अवलम्बन किया, वह केशव भगवान के भक्त हैं यह आपने पहले कहा था ॥१॥ वर्णानामाश्रमाणां च धर्मानो हि सत्तम ॥ येन संतुष्यते देवो नारसिंहः सनातनः ॥ २ ॥ इस समय वर्ण और आश्रम का धर्म आप हमसे कहिए, जिससे सनातन नरसिंह देव सन्तुष्ट हों ॥२॥ अत्राहं कथयिष्यामि पुरावृत्तमनुत्तमम् ॥ ऋषिभिः सह संवादं हारीतस्य महात्मनः ॥३॥ यह सुनकर हारीत शिष्य ने उत्तर दिया कि मैं इस समय पूर्वकाल में ऋषियों के साथ महात्मा हारीत का जो अति उत्तम संवाद हुआ था वह आपसे कहूंगा ॥३॥ हारीतं सर्वधर्मज्ञमासीनमिव पावकम् ॥ प्रणिपत्याववन्सः मुनयो धर्म कोक्षिणः ॥४॥ पूर्वकालमें धर्म के ज्ञाता सम्पूर्ण मुनि सब धर्मों के जाननेवाले अग्नि की समान दीप्तिमान बैठे हुए हारीत ऋषि को नमस्कार करके पूछते हुए कहा ॥ ४ ॥ भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वधर्मप्रवर्तक ॥ वर्णानामाश्रमाणां च धर्मानो हि भार्गव ॥५॥ कि हे भार्गव ! हे सर्वधर्मज्ञ ! हे सर्वधर्मप्रवर्तक भगवन् ! हमसे वर्ण और आश्रमों के धर्मको कहिये ॥५॥ समासाचोगशास्त्रं च विष्णुभक्तिकरं परम् ॥ एतच्चान्यच्च भगवहि नः परमो गुरुः ॥ ६॥ और संक्षेप से विष्णु भक्तिकारक योगशास्त्र और जो अन्यान्य विष्णु भक्ति है उसे भी आप कहिये, क्योंकि आप हम सबके परमगुरु हों ॥६॥ हारीतस्तानुवाचाथ तैरेवं चोदितो मुनिः ॥ शृण्वन्तु मुनयः सर्व धर्मान्व क्ष्यामि शाश्वतान् ॥७॥ मुनियों के इस प्रकार पूछनेपर भगवान् हारीत मुनिने उत्तर दिया कि हे सज्जनश्रेष्ठ मुनि गण! मैं वर्ण और आश्रमसमूह का नित्य धर्म योगशास्त्र कहता हूँ ॥ ७ ॥ वर्णानामाश्रमाणां च योगशास्त्रं च सत्तमाः ॥ सन्धार्य मुच्यते मयों जन्मसंसारबंधनात् ॥ ८ ॥ इस धर्म और योगशास्त्र को भलीभांति जानकर मनुष्य जन्म संसार के बंधन से छूट जाताहै ॥ ८॥ पुरा देवो जगत्वष्टा परमात्मा जलोपरि ॥ सुष्वाप भोगिपर्यक शयने तु श्रिया सह ॥ ९ ॥ पूर्व कालमै सृष्टिके रचनेवाले जलके अपर लक्ष्मीके सहित शेषकी शय्यापर परमात्मा देव भगवान विष्ण योगनिद्रामें मग्न थे ॥९॥ तस्य सुप्तस्य नाभौ तु महत्पद्ममभूकिल ॥ पद्ममध्येऽभवब्रह्मा वेदवेदांगभूषणः ॥ १० ॥ उन सोतेहुए भगवान की नाभि से एक बडा कमल उत्पन्न हुआ, उस कमल के बीच मे से वेद वेदांगों के भूषण ब्रह्माजी उत्पन्न हुए ॥१०॥ स चोक्तो देवदेवेन जगत्सृज पुनः पुनः ॥ सोपि सृष्ट्रा जगत्सर्व सदेवासुरमानुपम् ॥ ११ ॥ देवादिदेव भगवान् विष्णुजी ने उनसे बारम्बार जगतकी सृष्टि रचनेके लिये कहा; तब ब्रह्माजीने भी देवता, असुर, मनुष्य इनके सहित सम्पूर्ण जगत को रचकर ॥११॥ यज्ञसिद्ध्यर्थमनधान्ब्राह्मणा न्मुखतोऽसृजत् ॥ अमृजक्षत्रियान्वाहविश्यानप्यूरदेशतः ॥ १२ ॥ यज्ञ की सिद्धि के लिये पापरहित ब्राह्मणोंको मुख से उत्पन्न किया, इसके पीछे क्षत्रियोंको भुजांओं से और वैश्यों को जंघाओं से रचा ॥ १२ ॥ शदांश्च पादयोः सृष्ट्वा तेपां चैवानुपूर्वशः । यथा प्रोवाच भगवान्यायोनिः पितामहः ॥ १३ ॥ तचः संप्रवक्ष्यामि शृणुत द्विजसत्तमाः ॥ धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वयं मोक्षफलपदम् ॥ १४ ॥ और शूद्रों को चरणोंसे रचकर भगवान् पद्मयोनि ने उनसे जो वचन कहे, हे द्विजोत्तमो ! उन वचनों को मैं तुमसे कहता हूँ तुम श्रवण करो, और वह वचन धन, यश, अवस्या, स्वर्ग, मोक्ष फल, इनके देनेवाले हैं ॥१३-१४॥ ब्राह्मण्यो ब्राह्मणेनैवमुत्पन्नो ब्राह्मणः स्मृतः ॥ तस्य धर्म प्रवक्ष्यामि तद्योग्यं देशमेव च ॥ १५॥ ब्राह्मणी के गर्भ में ब्राह्मण के औरस से उत्पन्न हुआ मनुष्य ही ब्राह्मण कहलाता है; उसके धर्म और उसके रहने योग्य देश को कहता हूँ ॥१५॥ कृष्णसारो मृगो यत्र स्वभावेन प्रवर्त्तते ॥ तस्मिन्देशे वसेद्धर्माः सिद्धयंति द्विजसत्तमाः ॥ १६ ॥ हे! द्विजसत्तमगण ! जिस देश में काला मृग स्वभाव से ही विचरण करे उस देश में ब्राह्मण निवास करै, कारण किं किये हुये धर्म उसी देशमें सिद्ध होते हैं ॥१६॥ षट्कर्माणि निजान्याहुाह्मणस्य महात्मनः ॥ तैरेव सततं. यस्तु वर्तयेसुखमे धते ॥ १७ ॥ महात्मा ब्राह्मणों के अपने छह कर्म कहे हैं; जो उन छह प्रकार के काम से निरन्तर जीवन व्यतीत करता है, वही सुखी होताहै, अर्थात् धनवान् और पुत्रवान होता है ॥१७॥ अध्यापनं चाध्ययनं याननं यननं तथा ॥ दानं प्रतिग्रहश्वेति षट्कर्माणीति प्रोच्यते ॥ १८ ॥ पढाना, पढना, यज्ञ कराना, यज्ञ करना, दान और प्रतिग्रह यह छह प्रकार के कर्म कहे हैं ॥ १८॥ अध्यापनं च त्रिविधं धर्मार्थमृक्थकारणात् ॥ शुभ्रूपाकरणं चेति त्रिविधं परि कीर्तितम् ॥ १९ ॥ इनमें पढाना तीन प्रकार का है पहला धर्म के निमित्त दूसरा धन के निमित्त, और तीसरा सेवा शुश्रूषा के लिये ॥१९॥ एषामन्यतमाभावे वृथाचारो भवेद्विजः ॥ तत्र विद्या न दातव्या पुरुषेण हितैपिणा ॥ २० ॥ जो ब्राह्मण इन तीनों में से एक को भी नहीं करता वह वृथा चारी कहालाता है, ऐसे कर्महीन ब्राह्मण को हित का अभिलाषी मनुष्य कभी विद्यादान न करे ॥२०॥ योग्यानध्यापयेच्छिप्यानयोग्यानपि वर्जयेत ॥ विदितात्प्रतिगृह्णीयाट्टहे धर्मप्रसिद्धये ॥ २१ ॥ योग्य शिष्य को विद्या पढाए और अयोग्य शिष्यको त्याग देना ही उचित है, विदित अर्थात् निष्पाप मनुष्य को जानकर मनुष्य के निकट से गृहस्थधर्म की सिद्धि के लिये प्रतिग्रह ले ॥२१॥ वेदश्चैवाभ्यसेन्नित्यं शुचौ देशे समाहितः ॥ धर्मशास्त्रं तथा पाठयं ब्राह्मणैः शुद्धमानसैः ॥ २२ ॥ प्रतिदिन शुद्ध देश में सावधान होकर वेद का अभ्यास करे, और शुद्ध मनवाले ब्राह्मणों से सर्वदा धर्मशास्त्र पढना उचित है ॥२२॥ वेदवत्पठितव्यं च श्रोतव्यं च दिवानिशि ॥ स्मृतिहीनाय विप्राय श्रुतिहीने तथैव च ॥२३ ॥ धर्मशास्त्र भी वेद की समान ही पढना उचित है, रात दिन धर्मशास्त्रको सुनना चाहिये। श्रुति स्मृति इन दोनों से हीन ब्राह्मण को ॥२३ ॥ दानं भोजनमन्यच्च दत्तं कुल विनाशनम् ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन धर्मशास्त्रं पठेदिनः ॥ २४ ॥ जो दान देता है, या जो भोजन कराता है, उस दान और भोजनादि कर्म से दाता का कुल नष्ट हो जाता है। इस कारण ब्राह्मण को सब प्रकार से यत्नसहित धर्मशास्त्र को पढना चाहिए ॥२४॥ श्रुतिस्मृती व विप्राणां चक्षुषी देवनिम्मिते ।। काणस्तत्रैकया हीनो दाभ्यामन्धः प्रकीर्तितः ॥२५ ॥ श्रुति और स्मृति ब्राह्मण के दोनों नेत्र परमेश्वर के बनाये हुए हैं। इन श्रुति अथवा स्मृतिरूप एक नेत्र के बिना वह काना है, और श्रुति स्मृति रूप दोनों से जो हीन है उसे अंधा कहा है ॥२५॥ गुरुशुश्रूषणं चैव यथान्यायमतंद्रितः ॥ सायंप्रातरुपासीत विवाहाग्निं दिजोत्तमः ॥ २६ ॥ सुस्तातस्तु प्रकुर्वांत वैश्वदेवं दिनदिने ॥ अतिथीनागता छत्तपा पूजयेदविचारतः ॥ २७ ॥ और भली भांतिसे स्नान करके प्रतिदिन ही बलि वैश्वदेव कर और अपनी शक्ति के अनुसार घर पर आए हुए अतिथियों की बिना विचार किये हुए अर्थात् यह गुणवान है अथवा नहीं इस बात का विचार नहीं करके सैदैव पूजा करनी चाहिए ॥२६-२७॥ अन्यानभ्यागतान्विप्रान्पूजयेच्छक्तितो गही ॥ स्वदारनिरतो नित्यं परदारविवर्जितः ॥ २८ ॥ और अन्य अभ्यागदों की भी गृहस्थी ब्राह्मण को अपनी शक्ति के अनुसार पूजा करनी चाहिए, और सर्वदा अपनी स्त्री में ही रत रह कर पराई स्त्री को त्याग देन चाहिए ॥ २८ ॥ कृतहोमस्तु भुजीत सायंप्रातरुदारधीः ॥ सत्यवादी जितक्रोधो नाधम्र‌मे वर्तयेन्मतिम् ॥ २९ ॥ आलस्यरहित होकर गुरूकी सेवा करनी चाहिए और प्रातःकाल और संध्याकाल में विवाहाग्नि की उपासना करनी चाहिए ॥ २६ ॥ स्वकर्मणि च संप्राप्ते प्रमादान निवर्त्तते ॥ सत्यां हितां वदेदाचं परलोकहितैषिणीम् ॥ ३० ॥ उदार बुद्धिवाले मनुष्य को सायंकाल और प्रातःकाल में होम करके भोजन करना चाहिए, सत्य बोलन चाहिए, क्रोध को जीतना चाहिए और अधर्म बुद्धि का त्याग कर देना चाहिए ॥२९॥ एष धर्मः समुदिष्टो ब्राह्मणस्य समासतः ॥ धर्ममेव हि यः कुर्यात्स याति ब्रह्मणः पदम् ॥ ३१ ॥ अपने कर्म के समय में प्रमाद से कर्म को नहीं छोड़ना चाहिए और सत्य हितकारी तथा परलोक में सुख प्रदान करने वाली वाणी को कहना चाहिए ॥३०॥ इत्येष धर्मः कथितो मयायं पृष्टो भवद्रिस्त्वखिलापहारी ॥ यह संक्षेप से ब्राह्मणोंका धर्म कहा; जो ब्राह्मणं सर्वदा धर्माचरण करते हैं वह ब्रह्मपद अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करते हैं ॥३१॥ वदामि राज्ञामपि चैव धान्पृथक्पृथग्वोधत विप्रवाः ॥ ३२ ॥ हे द्विजोत्तमो ! जो धर्म तुमने मुझसे पूछा था वह सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाला धर्म मैने तुमसे कहा; अब राजाओं के भी पृथक् पृथक धर्मों को कहता हूँ, तुम श्रवण करो ॥ ३२ ॥ इति हारीते धर्मशास्त्रे प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥ हारीत स्मृतिः का पहला अध्याय समाप्त हुआ ॥१॥

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