Aushansi Smriti (औशनसी स्मृतिः)

औशनसी स्मृतिः ॥ॐ॥ ॥श्री परमात्मने नमः ॥ ॥ श्री गणेशाय नमः ॥ ॥ अथौशनसं धर्मशास्त्रम् ॥ ॥ औशनसी स्मृतिः ॥ ऋषि उशना बोले : उशना उवाच ॥ अतः परं प्रवक्ष्यामि जातिवृत्ति विधानकम् ॥ अनुलोमविधानं च प्रतिलोमविधि तथा ॥ १॥ अब जाति और वृत्ति का विधान अनुलोम अर्थात नीच जाति की कन्या में ऊँचे वर्ण से उत्पन्न की विधि तथा प्रतिलोम अर्थात ऊँचे वर्णकी कन्या में नीच वर्ण से उत्पन्न की विधि कही जाती है ॥१॥ सांतरा सं युक्तं सर्व संक्षिप्य चोच्यते ॥ नृपाब्राह्मणकन्यायां विवाहेषु समन्वयात् ॥२॥ अंतरालक अर्थात जो इनके बीच में उत्पन्न हुए हैं पुलिंद आदि उनका संयुक्त सम्पूर्ण संक्षेप से कहा जाता है; क्षत्रिय से ब्राह्मण की कन्या विवाह होने पर जो उत्पन्न होता है ॥२॥ जातः सूतोऽत्र निर्दिष्टः प्रति लोमविधिजिः ॥ वेदानहस्तथा चैषां धर्माणामनुबोधकः ॥ ३॥ वह सूत जाति का कहलाता है, वह प्रतिलोम विधि का द्विज होता है, यह सूत वेद का अधिकारी नहीं होता; यह केवल उन वेदों के धर्मों का उपदेष्टा अर्थात बताने वाला होता है। ॥३॥ सूतादिमप्रसूतायां सुतो वेणुक उच्यते ॥ नृपायामेव तस्यैव जातो यश्चर्मकारकः ॥४॥ सूत से ब्राह्मण की कन्या में जो उत्पन्न हो उसे वेणुक कहते हैं और क्षत्रिय की कन्या में जो सूत से पैदा हो उसे चमार कहते हैं ॥४॥ ब्राह्मण्यां क्षत्रियाचौर्याद्रथकारः प्रजायते ॥ वृत्तं च शूद्वत्तस्य द्विजवं प्रतिषिध्यते ॥५॥ ब्राह्मणकी कन्या क्षत्रिय से चौर्य से जो उत्पन्न हो उसे रथकार बढ़ई कहते हैं इसका धर्म ब्राह्मण का धर्म नहीं होता है, जो धर्म शूद्र का है वही धर्म इसका होता है ॥५॥ यानानां ये च वोढारस्तेषां च परिचारकाः ॥ शदवृत्त्या तुजीवं. 'तिन क्षात्रं धर्ममावरेत् ॥६॥ जो यान अर्थात सवारी उठाने वाले हैं, अथवा जो उनके सेवक होकर शुद्र की जीविका से निर्वाह करते हैं उनको भी क्षत्रिय के धर्म का आचरण नहीं करना चाहिए ॥६॥ ब्राह्मण्यां वैश्यसंसर्गाज्जातो मागध उच्यते ॥ े बंदित्वं ब्राह्मणानां च क्षत्रियाणां विशेषतः ॥७॥ जो वैश्य से ब्राह्मणी में उत्पन्न हो उसे मागध कहते हैं, यह क्षत्रिय और ब्राह्मणों का बंदी स्तुति करनेवाला होता है ॥७॥ प्रशंसावृत्तिको जीवदेश्यप्रेष्यकरस्तथा ॥ ब्राह्मण्यां शुदसंसर्गाजातश्चण्डाल उच्यते ॥ ८॥ उसकी जीविका प्रशंसा ही है अथवा वह वैश्य का दास होकर ही रहे। ब्राह्मणी से उत्पन्न हुआ शूद्र चांडाल कहलाता है ॥८॥ सीसमाभरणं तस्य कार्णायसमथापि वा ॥ व्ध्री कंठे समाबद्धय झल्लरी कक्षतोपि वा ॥९॥ इसके आभूषण शीशे तथा लोहे के होते हैं, यह गले में वधी- चमड़े का पट्टा और कोख में झालरी बांधकर ॥९॥ मलापकर्पाणं ग्रामे पूर्वहि परिशुद्धिकम् ॥ नापराहे प्रविष्टोपि वहिनामाच नैवते ॥१०॥ मध्याह्नकाल से पहले गाँव में शुद्धि के लिये मल को उठाए और मध्याह्न के पीछे गाँव में प्रवेश न करे परन्तु नैऋत दिशा में गाँव से बाहर ही निवास करे ॥१०॥ पिंडीभूता भवंत्यत्र नो चेध्या विशेषतः ॥ चण्डालादैश्यकन्यायां जातः श्वपच उच्यते ॥११॥ और यह सब जने एक ही स्थान पर रहें, और जो न रहें तो यह वध के योग्य हैं, चांडाल से वैश्य की कन्या में उत्पन्न हुआ श्वपच कहलाता है ॥११॥ श्वमांसभक्षणं तेषां श्वान एव च तलम् ॥ नृपायां वैश्यसंसर्गादायोगव इति स्मृतः ॥ १२ ॥ वह कुत्ते के मांस का ही भक्षण करते हैं और उनका बल कुत्ता ही है, क्षत्रिय की कन्या में जो वैश्य से उत्पन्न होता है वह आयोगव-जुलाहा या कोरी कहलाता है ॥१२॥ तंतुवाया भवत्येव वसुका स्योपजीविनः ॥ शीलिकाः केचिदत्रैव जीवनं वस्त्रनिर्मिते ॥ १३ ॥ वह चुनकर और कांस्य के व्यापार से अपनी जीविका निर्वाह कर, इन्ही में से जो वस्त्र निर्माण करने से जो जीविका करते हैं, वह शीलक कहलाते हैं ॥१३॥ आयोगवन विमाया जातास्ताम्रोपनीविनः ॥ तस्यैव नृपकन्यायां जातः सूनिक उच्यते ॥ १४॥ आयोगव से जो ब्राह्मण की कन्या में उत्पन्न होते हैं वह ताम्रोपजीवी- ठठेरे होते हैं और क्षत्रियकन्या में आयोगव से जो उत्पन्न हो उसे सूनिक-सोनी होते हैं ॥१४॥ सूनिकस्य नृपायां तु जाता उद्धकाः स्मृताः ॥ निर्णजयेयुर्वस्त्राणि अस्पृश्याश्च भवंत्यतः ॥१५॥ क्षत्रिय की कन्या में जो सुनिक से उत्पन्न हो उसे उर्दूधक कहते हैं, यह वस्त्रों को धोतेहैं और स्पर्श करने योग्य नहीं होते ॥१५॥ नृपायां वैश्यतश्चौर्यात्पुलिंदः परिकीर्तितः ॥ पशुवृत्तिर्भवत्तस्य हन्युस्तान्दुष्टसत्त्वकान् ॥१६॥ जारीसें जो वैश्य द्वारा क्षत्रिय की कन्या में उत्पन्न हो वह पुलिंद कहालाते हैं, पुलिंद दुष्ट जीवों के मारनेवाले और पशुओं को मारकर मांसवृत्ति करते हैं ॥१६॥ नृपायां शूदसंसर्गाज्जातः पुल्कस उच्यते ॥ सुरावृत्ति समारुह्य मधुविक्रयकर्म गा॥ १७ ॥ शूद्र से क्षत्रिय की कन्या में जो उत्पन्न हो उसे पुल्कस - कलाल कहते हैं, वह मदिरा से जीविका करके मदिरा तथा मीठा वेचते हैं ॥१७॥ कृतकानां सुराणां च विक्रेता पाचको भवेत् ॥ पुल्कसाबेश्यकन्यायां जातो रजक उच्यते ॥ १८॥ यह मदिरा बनाते भी हैं और बनी बनाई मदिरा को बेचते भी हैं, इस पुल्कस से वैश्य की कन्या में जो उत्पन्न हो उसे रजक कहतेहैं ॥१८॥ नृपायां शूद्रतश्चौ-जातो रंजक उच्यते ॥ वैश्यायां रंजकाजातो नर्तको गायको भवेत् ॥ १९॥ शुद्र द्वारा जार से क्षत्रिय की कन्या में जो उत्पन्न होता है उसे रंजक- रंगरेज कहते हैं, वैश्य की कन्या में जो रंजक से उत्पन्न हो उसे नर्तक -नट अथवा गायक- कत्थक कहते हैं ॥१९॥ वैश्यायां शूदसंसर्गाज्जातो वैदेहिकः स्मृतः ॥ अजानां पालनं कुर्योन्महिषीणां गवामपि ॥२०॥ शूद्रसे जो वैश्यकी कन्या उत्पन्नहो उसे वैदेहिक (गडरिया) कहतेहैं; वह गाय, भैंस, बकरी इनको पाले ॥२०॥ दधिक्षीराज्यतक्राणां विक्रयानीवनं भवेत् ॥ वैदेहिकात्तु विप्रायां जाताश्वर्मोपजीविनः ॥ २१ ॥ और जीविका उसको दही, घी, मट्ठा, इनका बेचना है, ब्राह्मणी में जो वैदेहिक से उत्पन्न हो वह चोपजीवी होता है अर्थात् चमड़ा बेचकर जीविका करता है ॥२१॥ नृपायामेव तस्यैव सूचिकः पाचकः स्मृतः ॥ वैश्यायां शूद्रतश्चार्याज्जातश्चक्री च उच्यते ॥ २२॥ क्षत्रिय की कन्या में जो वैदेहिक से उत्पन्न हो उसे सूचिक-दरजी अथवा पाचक रसोई बनाने वाला कहते हैं, चोरी से जो वैश्य की कन्या में शूद्र से उत्पन्न हो, वह चक्री-तेली कहलाता है ॥२२॥ तैलपिष्टकजीवी तु लवणं भावयन्पुनः ॥ विधिना ब्राह्मणः प्राप्य नृपायां तु समंत्रकम् ॥२३॥ इसकी जीविका, तिल, खल, अथवा लवण से है, जिस क्षत्रिय की कन्या का ब्राह्मण के साथ विधि विधान सहित विवाह हुआ है उस कन्यासे जो उत्पन्न होताहै ॥ २३ ॥ जातः सुवर्ण इत्युक्तः सानुलोमद्विजः स्मृतः ।। अथ वर्णक्रियां कुन्नित्यनैमित्तिकी क्रियाम् ॥ २४ ॥ उसे अनुलोम सुवर्ण द्विज कहतेहैं, यह नित्य नैमित्तिक क्रिया को करता हुआ ॥२४॥ अश्व रथं हस्तिनं च वाहयेद्दा नृपाज्ञया ॥ सैनापत्यं च भैषज्यं कुर्याज्जीवेत्तु वृद्धिषु ॥ २५॥ घोडा, रथ, हाथी इनको राजाकी आज्ञासे चलाता हुआ और सेनापति बनकर अथवा औषधोंसे अपना निर्वाह करे ॥२५॥ नृपायां विप्रतश्चौर्यात्संजातो यो भिषक्स्मृतः ॥ अभिषिक्तनृपस्याज्ञा परिणाल्येत्तु वैद्यकम् ॥२६॥ क्षत्रिय की कन्या में चोरी से जो ब्राह्मण से उत्पन्न होताहै, वह भिषक् कहाता है, वह राजा की आज्ञा से वैद्यक करता है ॥२६॥ आयुर्वेदमथाष्टांग तंत्रोक्तं धर्ममाचरेत्। ज्योतिष गणितं वापि कायिकी वृद्धिमाचरेत् ॥२७॥ यह अष्टांग आयुर्वेद अथवा तंत्रोक्त धर्मों को करे और ज्योतिष अथवा गणितविद्या से अपना निर्वाह करे ॥२७॥ नृपायां विधिना विप्राज्जातो नृप इति स्मृतः ॥ नृपायां नृपसंसर्गात्प्रमादाढूढजातकः ॥ २८ ॥ क्षत्रिय को कन्या में जो विधानपूर्वक यथा शास्त्र विवाह करके ब्राह्मण से उत्पन्न हो वह नृप होता है; और इस राजा से क्षत्रिय की कन्या प्रमाद से जो उत्पन्न हो, उसे गूढ़ कहते हैं ॥२८॥ सोपि क्षत्रिय एव स्यादभिपेके च वर्जितः ॥ अभिषेकं बिना प्राप्य गोज इत्यभिधायकः ॥२९॥ और वह भी क्षत्रिय होता है परन्तु अभिपेक राजतिलक के योग्य नहीं होता; अभिषेक की अयोग्यता से इसे गोज-गोल कहते हैं ॥२९॥ सर्व तु राजवृत्तस्य शस्यते पदवंदनम् ॥ पुन करणे राज्ञां नृपकालीन एव च ॥३०॥ सब प्रकार से राजा के चरणों की वंदना करना ही श्रेष्ठ है; यह गोज राजाओं के दूसरा विवाह करने में राजा के समान है; अर्थात् इसके यहां राजा दूसरा विवाह कर सकता है ॥३०॥ वैश्यायां विधिना विमानातो हांचष्ठ उच्यते ॥ कृप्याजीवी भवेत्तस्य तथैवाने यवृत्तिकः ॥ ३१ ॥ विधानसहित विवाही हुई वैश्य की कन्या में जो ब्राह्मण से उत्पन्न होता हो उसे अंबष्ठ कहते हैं, खेती अथवा आग्नेय (लकडी) यही उसकी जीतवका ॥३१॥ ध्वजिनीजीविका वापि अंबष्ठाः शस्त्रजीविनः ।। वैश्यायां विप्रतश्चौर्यात्कुंभकारः स उच्यते ॥ ३२ ॥ अंबष्ठों की जीविका सेना अथवा शस्त्र की है, चोरी से वैश्य के कन्या में जो ब्राह्मण से उत्पन्न हो उसे कुम्हार कहते हैं ॥३२॥ कुलालवृत्त्या जीवेत नापिता वा भवन्त्यतः ॥ सूतके प्रेतके वापि दीक्षाकालेथ वापनम् ॥ ३३ ॥ इसकी जीविका कुलाल की वृत्ति मट्टी के पात्र बनाने से होती है; इसी से नापित-नाई उत्पन्न होते हैं; जन्ममृतक अथवा मरणमृतक में अथवा दीक्षा काल में यह केशों का छेदन करते हैं ॥३३ ॥ नाभेरूवं तु वपनं तस्मानापित उच्यते ॥ कायस्थ इति जीवेच विचरेच इत स्ततः ॥३४॥ नाभी के ऊपर के केशों के काटने के कारण उसे नापित कहते हैं, और यह कायस्थ नाम से इधर उधर विचरण करता हुआ जीविका करताहै ॥३४॥ काकाल्लोल्यं यमाक्रौर्य स्थपतेरथ कृतनम् ॥ आद्यक्षराणि संगृह्य कायस्थ इति कीर्तितः ॥ ३५ ॥ काक (कौआ) से, चपलता, यमराज से क्रूरता, स्थपति- बढ़ई से काटना इन तीनों अर्थक जताने के लिये इन तीनों शब्दों के पहले अक्षर को लेकर इसको कायस्थ कहा गया है ॥३५॥ शूद्रयां विधिना विप्राज्जातः पारशवो मतः ॥ भद्रकादीन्समाश्रित्य जीवेयुः पूतकाः स्मृताः ॥३६॥ विधि सहित विवाही हुई शूद्र की कन्या में जो ब्राह्मणसे उत्पन्न होता है उसे पारवंश-पारधी कहते हैं, यह अच्छे पहाड़ों आदि पर रहकर जीविका करता है और उसे पूतक कह लाते हैं ॥३६॥ शिवायागमविद्यायैस्तथा मंडलवृत्तिभिः ॥ तस्यां वै चौरसो वृत्तो निषादो जात उच्यते ॥ ३७ ॥ शिवादि आगम विद्या पंचरात्र आदियों से अथवा यह मंडलवृत्ति से जीताहै, उसी जाति में स्त्री पुरुष दोनों पारशव हों उनके जो औरस पुत्र होता है उसे निषाद कहते हैं ॥३७॥ वने दुष्टमृगान्हत्वा जीवनं मांसविक्रयः ॥ नृपाज्जातोथ वैश्यायां गृह्यायां विधिना सुतः ॥ वैश्यवृत्त्या तु जीवेत क्षत्रधर्म न चारयेत् ॥ ३८ ॥ उसकी जीविका वन में वन के दुष्ट मृगों को मारकर उनके मांस को बेचना है, जो पुत्र विधि सहित विवाही हुई वैश्य की कन्या में क्षत्रिय से उत्पन्न होता है, उसकी जीविका वैश्य की वृत्ति से होती है, और क्षत्रिय के धर्म को उसको नहीं करना चाहिए ॥३८॥ तस्यां तस्यैव चौर्येण मणिकारः प्रजायते ॥ मणीनां राजतां कुर्य्यान्मुक्तानों वेधनक्रियाम् ॥३९॥ जो चोरी से वैश्यकी कन्या में क्षत्रिय से उत्पन्न हो वह मणिकार- मीनाकार होता है मणियों का रंगना अथवा मोतियों को बींधना ही उसका काम है ॥३९॥ प्रवालानां च सूत्रिख शाखानां वलयक्रियाम् ॥ शूदस्य विप्रसंसर्गाजात उग्र इति स्मृतः ॥४०॥ अथवा मूंगों की माला या कड़े बनाता है, ब्राह्मण के संसर्ग से जो शूद्र के घर उत्पन्न हो उसे उग्र कहते हैं ॥४०॥ नृपस्य दंडधारः स्यादं दंडयेषु संचरेत् ॥ तस्यैव चावसंवृत्त्या जातः शुडिक उच्यते ॥४१॥ वह राजाका दंडधारी होता है और दंड के योग्यों को दंड देता है, और जो चोरी से ब्राह्मण से शूद्रों में उत्पन्न हो वह शुंडिक-करार कहलाता है ॥४१॥ जातदु समारोप्य, शुंडाकर्मणि योजयेत् ॥ शुदायां वैश्यसंसर्गाद्विधिना सूचिकः स्मृतः ॥४२॥ उत्पन्न होते ही राजा दुष्टों के ऊपर अधिपति बनाकर उस शुंडिक को शुंडाकर्म-शूली देने के काम में नियुक्त करना चाहिए। विधिसहित विवाही हुई शूद्रकी कन्यामें जो वैश्यसे उत्पन्न हो उसे सूचिक-दरजी कहते हैं ॥ ४२ ॥ लोशनसी मितिः सूचिकादिमकन्यायां जातस्तक्षक उच्यते । शिल्पकर्माणि चान्यानि प्रासादलक्षण तथा ॥४३ ॥ ब्राह्मण की कन्या में सूचिक से जो उत्पन्न हो वह तक्षक-बढई कहलाता है, वह शिल्पक कारीगरी अथवा प्रासादलक्षण मकान बनाने का काम करता है ॥१३॥ नृपायामेव तस्यैव जातो यो मस्पबंधक ॥ शूद्रायां वैश्यतश्चीयोत्कटकार इति स्मृतः ॥४४॥ सूचिक से जो क्षत्रिय की कन्या में उत्पन्न हो वह मत्स्यबंधक - धीवर कहा जाता है, जो चोरी से शूद्र की कन्या में वैश्य से उत्पन्न हो उसे कटकार कहते हैं ॥१४॥ वशिष्ठशापात्रेतायां केचित्पारशवास्तथा ॥ वैखानसेन केचित्तु केचिद्भागवते च ॥४५॥ वशिष्ठजी के शाप से भी त्रेतायुग में कोई एक पारशव हुए थे, वे वैखानस -हरि के गाने से अथवा परमेश्वरकी भक्तिसे ॥४५॥ वेदशास्त्रावलंबास्ते भविष्यति कलौ युगे ॥ कटकारास्ततः पश्चाः नारायणगणाः स्मृताः ॥४६॥ वे शापवाले पारशव कलियुग में वेदशास्त्र के जानने वाले होंगे, इसके उपरान्त वह कटकार नाम के नारायण के गण कहलायेंगे ॥४६॥ शाखा वैखानसेनोक्तास्तंत्रमार्गविधिकियाः ॥ निषेकाद्याः श्मशानाताः क्रियाः पूजांगसूचिकाः ॥१७॥ तंत्र मार्गकी विधि से जिनमें कर्म हैं वैखानस ऋपिने ऐसी शाखा कही है और गर्भ से लेकर शमशान तक १६ संस्कार भी इनके होते हैं, इसी कारणसे यह सूचिक पूज्य हैं ॥७॥ पञ्चरात्रेण वा प्राई प्रोक्तं धर्म समाचरेत् ॥ शूद्रादेव तु शूद्रायां जातः शूद इति स्मृतः ॥४८॥ इनको नारदपांचरात्र में कहे हुए धर्म को करना चाहिए। शूद्र की कन्या में शूद्र से शूद्र ही होता है ॥४८॥ द्विजशुश्रूपणपरः पाक यज्ञपरान्वितः ॥ सच्छूद्रं तं विजानीयादसच्छूदस्ततोऽन्यथा ॥ ४९॥ जो शूद्र द्विजों की सेवा में पाकयज्ञ कर्म में सावधान रहे, वह शूद्र उत्तम है, और जो न रहे उस शूद्र को निन्दा के योग्य जानना चाहिए ॥४९॥ चौर्यास्काकवचो ज्ञेयश्चाश्वानां तृणवाहकः ॥ ५० ॥ शूद्र की कन्या में जो चोरी से शूद्र से उत्पन्न हो वह घोडों की घास लानेवाला तृणवाहक काकवच कहलाता है ॥ ५०॥ एतत्संक्षेपतः प्रोक्तं जातिवृत्तिविभागशः ॥ जात्यंतराणि दृश्यते संकल्पादित एव तु ॥५१॥ यह मैंने भिन्न भिन्न जाति और जीविका के अनुसार संक्षेप से कहा और जाति भी इनमें हीं मन के संकल्प से दिखाई देती है ॥५१॥ ॥ इति औशनसीस्मृति समाप्ता ॥ ॥ औशनसी स्मृति समाप्ता ॥

Recommendations