Harit Smriti Chapter 6 (छठा अध्याय)

षष्ठोऽध्यायः छठा अध्याय अतः परं प्रवक्ष्यामि चतुर्थाश्रममुत्तमम् ॥ श्रद्धया तमनुष्ठाय तिष्ठन्मुच्येत बंधनात् ॥१॥ इसके पीछे उत्तम चौथे आश्रम संन्यास का धर्म कहता हूँ, श्रद्धासहित उस धर्मक अनुष्ठान करने वाला मनुष्य संसार के बंधन से छूट जाता है ॥१॥ एवं वनाश्रमे तिष्ठन्यातयश्चैव किल्विषम् ॥ चतुर्थमाश्रमं गच्छेत्संन्यासविधिना दिजः ॥२॥ इस प्रकार वानप्रस्थ आश्रम में स्थिति और पापों को दूर करता हुआ ब्राह्मण संन्यास को विधि से चौथे आश्रम में जाए अर्थात संन्यास को ग्रहण करे ॥२॥ दत्त्वा पितृभ्यो देवेभ्यो मानुषेभ्यश्च यत्नतः ॥ दत्वा श्राद्ध पितृभ्यश्च मानुषेभ्यस्तथात्मनः ॥३॥ पितर, देवता और मनुष्य इनके निमित्त दान करके और पितर मनुष्य अपनी आत्मा के लिये श्राद्ध करके ॥३॥ इष्टिं वैश्वानरी कृत्वा प्राङ्‌मुखोदङ्‌मुखोऽपिवा । अग्निं स्वात्मनि संरोप्य मंत्रवत्प्रवजेत्पुनः ॥ ४ ॥ पूर्व अथवा उत्तर को मुखकर के वैश्वानरी यज्ञ करे, फिर अपने अग्नि को मानकर मंत्र का ज्ञाता पुरुष संन्यास को ग्रहण करे ॥४॥ ततः प्रभृति पुत्रादौ स्नेहालांपादि वर्जयेत् ॥ बंधूनामभयं दद्यात्सर्वभूताभयं तथा ॥५॥ उसी समय से पुत्रादिकों का स्नेह और संभाषणादि को त्याग दे, और अपने बंधु तथा सम्पूर्ण प्राणियों को अभय दान करें ॥५॥ त्रिदंडं वैष्णवं सम्यक संततं समपर्वकम् ॥ वेष्टितं कृष्णगोवाल रज्जुमचतुरंगुलम् ॥६॥ चार अंगुल का कपड़ा और काली गौके बालों की रस्सी लिपटी हो और जिसकी ग्रांथि सम हो, ऐसे बांस का त्रिदण्ड ग्रहण कर ॥६॥ शौचार्थमासनार्थ च मुनिभिः समुदाहृतम् ॥ कौपी नाच्छादनं वासः कयां शीतनिवारिणीम् ॥७॥ शौच और आसन के विचार के लिए मुनियों की कही हुई कौपीन और शीत को दूर करनेवाली गुदडी ॥७॥ पादुके चापि गृहीयाकुर्या नान्यस्य संग्रहम् ॥ एतानि तस्य लिंगानि यतेः प्रोक्तानि सर्वदा ॥८॥ और खडाऊं इनको ग्रहण कर, अन्य वस्तु का संग्रह न करे; यह संन्यासी के सदैव काल के चिह्न कहे हैं ॥८॥ संगृह्य कृतसंन्यासो गत्वा तीर्थमनुत्तमम् ॥ स्नात्वाचम्य च विधिववस्त्रपूतेन वारिणा ॥९॥ पूर्वोक्त सम्पूर्ण वस्तुओं का संग्रह कर संन्यास लेनेवाला उत्तम तीर्थ में जाकर वस्त्रपूत अर्थात छने हुए जल से विधिसहित आचमन करे, और स्नान करे ॥९॥ तर्पयित्वा तु देवांश्च मंत्रवद्भास्करं नमेत् ॥ आत्मानं प्राङ्‌मुखो मौनी प्राणायामत्रयं चरेत् ॥१०॥ इसके उपरान्त देवताओं को तर्पण करके सूर्यभगवान को तथा आत्मा को नमस्कार कर, पूर्व को मुख करके मौन धारण कर तीन प्राणायाम करे ॥१०॥ गायत्री च यथाशक्तिं जप्त्वा ध्यायेत्परं पदम् ॥ स्थित्यर्थमात्मनो नित्यं भिक्षाटनमथाचरेत् ॥ ११ ॥ उसके पश्च्यात यथाशक्ति गायत्री का जप करने के उपरान्त ब्रह्म का ध्यान करे, प्रतिदिन अपनी जीविका के निमित्त भिक्षा के लिये भ्रमण करे ॥११॥ सायंकाले तु विप्राणां गृहाण्यभ्यवपद्य तु ॥ सम्यग्याचेच कवलं दक्षिणेन करेण वै ॥१२॥ सन्ध्या के समय ब्राह्मण के घर पर जाकर दहिने हाथ से भलीभांति केवल ग्रास मांगे ॥१२॥ पात्रं वामकरे स्थाप्य दक्षिणेन तु शोषयेत् । यावतानेन तृप्तिः स्यात्तापक्ष समाः चरेत् ॥१३॥ बांये हाथ में पात्र को रखकर उसे दाहिने हाथ से खाली करे अर्थात् पात्र में अन्न को निकाले; जितने अन्न से अपनी तृप्ति हो सके उतनी ही भिक्षा का संग्रह करे ॥१३॥ ततो निवृत्त्य तत्पात्रं संस्थाप्यान्यत्र संयमी ॥ चतुर्भिरंगुलैश्छा य ग्रासमात्रं समाहितः ॥१४॥ इसके पश्च्यात फिर लौटकर उस पात्र को दूसरे स्थान पर रखे और चार अंगुल से ढककर सावधानी से एक को ॥ १४ ॥ सर्वव्यंजनसंयुक्तं पृथक्पाने नियोजयेत् ॥ सूर्यादिभूतदेवेभ्यो दत्वा संप्रोक्ष्य वारिणा ॥१५॥ सम्पूर्ण व्यंजनों सहित दूसरे पात्र में रखे, और उसको सूर्य आदि भूत देवताओं को देकर, और जल से छिडककर ॥ १५ ॥ जीत पात्रपुटके पात्रे वा वाग्यतो यतिः ॥ वटकावन्थपणेषु कुंभीतैन्दुकपात्रके ॥१६॥ पत्तों के दौने या पात्र में संन्यासी मौन धारण कर भोजन करे, बड, पीपल, अगस्त, तेंदु, ॥१६॥ कोविदारकर्द बेषु न भुजीयात्कदाचन ॥ सर्व उच्यते यतयः कास्यभोजिनः ॥१७॥ कनेर, कदंब इनके पत्तों में कभी भोजन न करे, जो संन्यासी कांसे के पात्र में भोजन करते हैं उनको मलीन कहा है ॥१७॥ कांस्यभाडेषु यत्पाको गृहस्थस्य तथैव च ॥ कांस्य भोज़यतः सर्व किरिबर्ष प्राप्नुयात्तयोः ॥१८॥ कांसे के पात्र में जो भोजन पकाता है और कांसे के पात्र में जिमाने वाले गृहस्थी को जो पाप होता है, उन दोनों के कांसे के पात्र में भोजन करनेवाले संन्यासी को लगताहै ॥१८॥ भुक्त्वा पात्रे यतिनित्यं क्षालयेन्मंत्रपूर्वकम् ॥ न दुष्यते च तत्पात्रं यज्ञेषु चमसा इव ॥१९॥ संन्यासी जिस पात्र में परतिदिन भोजन करे उस पात्र का मंत्रों से प्रक्षालन करे, वह पात्र यज्ञ के चमसा के समान कभी अशुद्ध नहीं होता ॥१९॥ अथाचस्य निदिध्यास्य उपतिष्ठेच भास्करम् ॥ जपध्यानेतिहासैश्च दिनशेषं नयेदुधः ॥२०॥ इसके उपरान्त आचमन और ध्यान करके भगवान सूर्यदेवकी स्तुति करे, और विद्वान मनुष्य शेष दिनको जप ध्यान और इतिहासों में व्यतीत करे ॥२०॥ कृतसंध्यस्ततो रात्रि नयेदेवगृहादिषु ॥ हत्पुंडरीकनिलये ध्यायेदात्मानमव्ययम् ॥ २१ ॥ सायंकाल में सन्ध्यावंदनादि कर घर में रात्रि को व्यतीत करे; अपने हृदयरूपी कमल में अविनाशी आत्मा का ध्यान करे ॥२१॥ यदि धर्मरतिः शांत सर्वभूतसमो वशी ॥ प्राप्नोति परमं स्थानं यत्प्राप्य न निवर्तते ॥२२॥ यदि संन्यासी इस प्रकार से धर्म में तत्पर और सब प्राणियों में समदर्शी, वशी और शांत हो तो वह उत्तम स्थान को प्राप्त होता है, वहां जाकर फिर उसे इस संसार में आना नहीं पड़ता ॥२२॥ त्रिदंडभृयो हि पृथक्समाचरेच्छनैः शनैर्यस्तु बहिर्मुखाक्षः ॥ संमुच्य संसारसमस्तवंधनात् स याति विष्णोरमृतात्मनः पदम ॥२३॥ जो त्रिदंडी संन्यासी पृथक् पृथक ऐसा आचरण करे और धीरे धीरे जिसकी इन्द्रियाँ संसार से विरक्त हो जाए, वह संसार के सम्पूर्ण बंधनों को तोडकर अमृतरूपी विष्णुभगवान के पद को प्राप्त होता है ॥२३॥ इति हारीते धर्मशास्त्रे षष्ठोऽध्यायः ॥६॥ हारीत स्मृतिः का षष्ठ अध्याय समाप्त हुआ ॥६॥

Recommendations