Harit Smriti Chapter 3 (तृतीय अध्याय)

तृतीयोऽध्यायः तृतीय अध्याय उपनीतो माणवको वसेद्‌गुरुकुलेषु च ॥ गुरोः कुले प्रियं कुर्यात्कर्मणा मनसा गिरा ॥१॥ यज्ञोपवीत होनेके उपरान्त बालक गुरुकुल में निवास करे, और कर्म, मन, वाणी से गुरु के कुल में प्रीति रखे ॥१॥ ब्रह्मचर्यमधः शय्या तथा वहरुपासना ॥ उदकुंभान्गुरोर्दद्या गोग्रासं चेंधनानि च ॥२॥ गुरुके घरमें वास करनेके समय, ब्रह्मचर्य, पृथ्वी पर शयन, अग्निहोत्र करता रहे और गुरु के लिये जल का घडा, और ईंधन लकडी और गायों के निमित्त घास ला कर दे ॥२॥ कुर्यादध्ययनं चैव ब्रह्मचारी यथाविधि ॥ विधि त्यक्त्वा प्रकुर्वाणो न स्वाध्यायफलं लभेत् ॥३॥ ब्रह्मचारी विधिपूर्वक वेद को पढे, जो बिना विधि से अध्ययन करता है उसे अध्ययन का फल प्राप्त नहीं होता। ॥३॥ यः कश्चित्कुरुते धर्म विधि हित्वा दुरात्मवान् ॥ न तत्फलमवामोति कर्वाणोपि विधिच्यतः ॥४॥ जो कोई दुरात्मा विधि को छोड कर धर्म का आचरण करता है, वह विधिभ्रष्ट पुरुष धर्म का आचरण करके भी उसके फल को प्राप्त होता नहीं ॥४॥ तस्मादेदव्रतानीह चरेत्स्वाध्यायसिद्धये ॥ शौचाचारमशेषं तु शिक्षयेद्‌गुरु सन्निधौ ॥ ५॥ इस कारण स्वाध्याय की सिद्धि के निमित्त गुरुकुल में वेद के व्रतोंको करै, और गुरु के समीप से सम्पूर्ण शौचादि के आचरण सीखे ॥५॥ अजिने दंडकाष्ठं च मेखलाञ्चोपवीतकम् ॥ धारयेदप्रमत्तश्च ब्रह्मचारी समा हितः ॥ ६ ॥ मृगछाला, दंड, मेखला, यज्ञोपवीत, इनको सावधान और अप्रमत्त होकर धारण करे ॥६॥ सायंप्रातश्चरेद्रेक्षं भोज्याथ संयतेन्द्रियः ॥ आचम्य प्रयतो नित्यं न कुर्यादंतधावनम् ॥ ७ ॥ जितेन्द्रिय होकर भोजनकी प्राप्तिके निमित्त प्रातःकाल और संध्याके. समय मिक्षाके निमित्त भ्रमण करे और नित्य सावधानी से आचमन करने पीछे दन्तधावन करे ॥ ७॥ छत्रं चोपानरं चैव गंधमाल्यादि वर्जयेत् ॥ नृत्यं गीतमथालापं मैथुनं च विवर्जयेत् ॥ ८ ॥ छत्री, जूता, गंध, माला, नृत्य, गाना, निरर्थक बोलना और मैथुन इनको त्याग दे ॥८॥ हस्यश्वारोहणं चैव संत्यजेत्संयते न्द्रियः ॥ संध्योपास्ति प्रकुर्वीत ब्रह्मचारी व्रतस्थितः ॥ ९॥ जितेन्द्रिय हो ब्रह्मचारी हाथी और घोडे पर न चढ़ें, और व्रत में स्थित रहकर ब्रह्मचारी संध्योपासना करे ॥९॥ अभिवाद्य गुरोः पादौ संध्याकावसानतः ॥ तथा योगं प्रकुर्वीत मातापित्रोश्च भक्तितः ॥१०॥ संध्या करने के उपरान्त गुरुके दोनों चरणों में नमस्कार कर इसके पश्च्यात भक्तिसहित पिता और माता की सेवा करे ॥१०॥ एतेषु त्रिषु नष्टेषु नष्टाः स्युः सर्वदेवताः ॥ एतेषां शासने तिष्ठेब्रह्मचारी विमत्सरः ॥११॥ जो ब्रह्मचारी तीन कर्मों से अर्थात् गुरु, माता, पिता, इनकी सेवा से नष्ट हो जाए तो उस पर समस्त देवता अप्रसन्न होते हैं इससे ईर्षा रहित होकर ब्रह्मचारी इनकी शिक्षा में स्थित रहे ॥११॥ अधीत्य च गुरोर्वेदान्वेदौ वा वेदमेव वा ॥ गुरवे दक्षिणां दद्यात्संयमी ग्राममावसेत् ॥१२॥ गरसे सम्पूर्ण चारों वेद अथवा दो वेद या एक वेदको पढकर उन्हें दक्षिणा दे जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी प्राममें निवास करै ॥ १२ ॥ यस्यैतानि सुगुप्तानि जिह्वोपस्थोदरं करः ॥ संन्याससमयं कृत्वा ब्राह्मणो ब्रह्म चर्यया ॥१३॥ जिसकी जिह्वा, लिंग, इन्द्रिय, उदर और हाथ भलीभांति से वशमें है, वह ब्राह्मण संन्यास की प्रतिज्ञा को करके ब्रह्मचारी के आचरण से ॥१३॥ तस्मिन्नेव नयेत्कालमाचार्ये यावदायुषम् ॥ तदभावे च तत्पुत्रे तच्छिष्ये वायवा कुले ॥ १४ ॥ उस आचार्य गुरु के यहां ही जितनी अवस्था है उतने समय को व्यतीत करे, यदि आचार्य न हो तो उसके पुत्र के समीप, और पुत्र के न होने पर उसके शिष्य के निकट; और शिष्य भी न हो तो गुरु के कुल में रहकर जन्म बिताए ॥१४॥ न विवाहो न संन्यासो नैष्ठिकस्य विधीयते ॥ इमं यो विधिमास्थाय त्यजेदेह मतंद्रितः ॥१५॥ इस नैष्टिक ब्रह्मचारीको विवाह और संन्यास नहीं कहा; जो आलस्यरहित होकर उस विधि से शरीर छोडता है ॥१५॥ नेह भूयोऽपि जायेत ब्रह्मचारी दृढव्रतः ॥ १६ ॥ उस ब्रह्मचारीका पृथ्वीपर फिर जन्म नहीं होता अर्थात् उसको मोक्ष प्राप्त होता है ॥१६॥ यो ब्रह्मचारी विधिना समाहितश्चरेत्पृथिव्यां गुरुसेवने रतः ॥ संप्राप्य विद्यामतिदुर्लभांशिवां फलश्च तस्याः सुलभंतु विंदति ॥१७॥ जो ब्रह्मचारी सावधान होकर विधिपूर्वक गुरु की सेवा करता हुआ पृथ्वी में भ्रमण करता है यह अत्यन्त दुर्लभ और कल्याण रूप विद्या को प्राप्त होकर उस विद्या के सुलभ फल को प्राप्त होता है ॥१७॥ इति हारीते धर्मशास्त्रे तृतीयोऽध्यायः ॥३॥ हारीत स्मृतिः का तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥३॥

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