Sundarkand Collection

    Sundarkand (सुन्दरकाण्ड)

    सुन्दरकाण्ड मूल (SundarKand Mool) ॥ श्रीहरि: ॥ पाययण-विधि विधिपूर्वक पाठ करनेवाले महानुभावोंको पाठारम्भके पूर्व श्रीतुलसीदासजी, श्रीवाल्मीकिजी, श्रीशिवजी तथा श्रीहनुमानुजीका आवाहन-पूजन करनेके पश्चात्‌ तीनों भाइयोंसहित श्रीसीतारामजीका आवाहन, षोडशोपचार-पूजन और ध्यान करना चाहिये। तदनन्तर पाठका आरम्भ करना चाहिये। सबकेआवाहन, पूजन और ध्यानके मन्त्र क्रमशः नीचे लिखे जाते हैं-- अथ आवाहनमन्त्र: तुलसीक नमस्तुभ्यमिहागच्छ शुचिव्रत । नैर्ऋत्य उपविश्येदं पूजन प्रतिगृह्मयताम्‌ ॥ १ ॥ ॐ तुलसीदासाय नमः । श्रीवाल्मीक नमस्तुभ्यमिहागच्छ शुभप्रद। उत्तरपूर्वयोर्मध्ये तिष्ठ गृह्लीष्व मेऽर्चनम् ॥ २॥ ॐ वाल्मीकाय नमः। गौरीपते नमस्तुभ्यमिहागच्छ महेश्वर। पूर्वदक्षिणयोर्म ध्ये तिष्ठ पूजां गृहाण मे ॥३॥ ॐ गौरीपतये नमः । श्रीलक्ष्मण नमस्तुभ्यमिहागच्छ सहप्रिय: | याम्यभागे समातिष्ठ पूजन संगृहाण मे ॥४॥ ॐ श्रीसपत्नीकाय लक्ष्मणाय नम: । श्रीशत्रुज्न नमस्तुभ्यमिहागच्छ सहप्रिय: | पीठस्य पश्चिमे भागे पूजन स्वीकुरुष्व मे ॥ ५॥ ॐ श्रीसपत्नीकाय शत्रुज्नाय नम: । श्रीभरत नमस्तुभ्यमिहागच्छ सहप्रिय:| पीठकस्योत्तरे भागे तिष्ठ पूजां गृहाण मे ॥ ६ ॥ ॐ श्रीसपत्नीकाय भरताय नमः। श्रीहनुमन्नमस्तुभ्यमिहागच्छ कृपानिधे। पूर्वभागे समातिष्ठ पूजनं स्वीकुरु प्रभो॥ ७॥ ॐ हनुमते नमः । अथ प्रधानपूजा च कर्तव्या विधिपूर्वकम्‌। पुष्पाजनलिं गृहीत्वा तु ध्यान कुर्यात्पस्य च॥ ८ ॥ रक्ताम्भोजदलाभिरामनयनं पीताम्बरालड्डतं श्यामाज़ूं द्विभुजं प्रसन्ननदनं श्रीसीतया शोभितम्‌। कारुण्यामृतसागरं प्रियगणैर्थ्रात्रादिभिर्भावितं वबन्दे विष्णुशिवादिसेव्यमनिशं भक्तेष्टसिद्ध्रिप्रदम्‌॥ ९ ॥ आगच्छ जानकीनाथ जानक्या सह राघव। गृहाण मम पूजां चर वायुपुत्रादिभिर्युत:॥ १०॥ इत्यावाहनम्‌ सुवर्णरचितं राम दिव्यास्तरणशोभितम्‌ । आसन हि मया दत्त गृहाण मणिचित्रितम्‌॥ ११॥ इति षोडशोपचारै: पूजयेत्‌ ॐ अस्य श्रीमन्मानसरामायणश्रीरामचरितस्य श्रीशिवकाक भुशुण्डियाज्ञवल्क्यगोस्वामितुलसीदासा ॠषयः श्रीसीतारामो देवता श्रीरामनाम बीजं भवरोगहरी भक्तिः शक्तिः मम नियन्त्रिताशेषविघ्नतया श्रीसीताराम- प्रीतिपूर्वकसकलमनोरथसिद्धयर्थं पाठे विनियोगः । अथ आचमनम्‌ श्रीसीतारामाभ्यां नमः। श्रीरामचन्द्राय. नमः । श्रीरामभद्राय नमः। इ्ति मन्त्रत्रितयेन आचमन कुर्यात्‌। श्रीयुगलबीजमन्त्रेण प्राणायामं कुर्यात् ॥ अथ करन्यासः जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥ अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिनहहि, न पाप पुंज समुहाहीं॥ तर्जनीभ्यां नमः । राम सकल नामन्ह ते अधिका। होठ नाथ अघ खग गन बधिका॥ मध्यमाभ्यां नमः । उमा दारू जोषित की नाईं। सबहि. नचावत रामु गोसाई॥ अनामिकाभ्यां नम: । सनमुख होड जीव मोहि. जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥ कनिष्डिकाभ्यां नमः । मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥ करतलकरपृष्ठाभ्यां नम: । इति करन्यास: अथ हृदयादिन्यासः जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि सुकुति धन धरम धाम के॥ हृदयाय नमः । राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि. न पाप पुंज समुहाहीं॥ शिरसे स्वाहा। राम सकल नामन्ह ते अधिका। होठ नाथ अघ खग गन बधिका॥ शिखायै वषट्‌। उमा दारू जोषित की नाईं। सबहि नचावत रासु गोसाई॥ कवचाय हुम्‌। सनमुख होड़ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥ नेत्राभ्यां वौषट्‌। मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥ अस्त्राय फट् । इति हृदयादिनन्‍यास: अथ ध्यानम्‌ मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन॥ नील तामरस स्याम काम आरि। हृदय कंज मकरंद मधुप हरि ॥ जातुधान बरूथ बल भंजन। सुनि सज्जन रंजन अघ गंजन॥ भूसुर ससि नव बूंद बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक॥ भुज बल बिपुल भार महि खंडित। खर दूषन बिराध बध पंडित॥ रावनारि सुखरूप भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर॥ सुजस पुरान बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि संत समागम॥ कारुनीक ब्यलीक मद खंडन। सब बिधि कुसल कोसला मंडन॥ कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसिदास प्रभु पाहि प्रनत जन॥ इति ध्यानम्‌ ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥ प्रनव्ँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन। जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥ किष्किन्धाकाण्ड (दोहा २९) बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेड सो तनु बरनि न जाइ। उभय घरी महूँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ॥ अंगद कहइ जाउऊँ मैं पारा। जियेँ संसय कछु फिरती बारा॥ जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सब ही कर नायक ॥ १ ॥ कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥ पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥२॥ कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥ राम काज लगि तब अवतारा। सुनतहिं भयउठ पर्बताकारा॥ ३॥ कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहूँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥ सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं नाघडँ जलनिधि खारा॥ ४॥ सहित सहाय रावनहि मारी। आनऊँ इहाँ त्रिकूट उपारी॥ जामवंत मैं पूँछठँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही॥ ५॥ एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई॥ तब निज भुज बल राजिवनैना। कौतुक लागि संग कपि सेना॥६॥ [छन्द ] कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं। त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं॥ जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई। रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥ [दोहा ३० (क)] भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरू नारि। तिनह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि॥ [सोरठा ३० (ख)] नीलोत्पल तन स्थाम काम कोटि सोभा अधिक। सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ श्रीजानकीवल्लभो विजयते श्रीरामचरितमानस पञ्चम सोपान सुन्दरकाण्ड श्लोक शान्त॑ शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌। रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरि वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ॥ १ ॥ शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणोंसे परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देनेवाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजीसे निरन्तर सेवित, वेदान्तके द्वारा जाननेयोग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, मायासे मनुष्यरूपमें दीखनेवाले, समस्त पापोंको हरनेवाले, करुणाकी खान, रघुकुलमें श्रेष्ठ तथा राजाओंके शिरोमणि, राम कहलानेवाले जगदीश्वरकी मैं वन्दना करता हूँ॥१॥ नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा। भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे कामादिदोषरहितं कुरू मानसं च॥२॥ हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अन्तरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदयमें दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ट ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिये और मेरे मनको काम आदि दोषोंसे रहित कीजिये॥ २॥ अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥३॥ अतुल बलके धाम, सोनेके पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीरवाले, दैत्यरूपी वन [को ध्वंस करने] के लिये अग्निरूप, ज्ञानियोंमें अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणोंके निधान, वानरोंके स्वामी, श्रीरघुनाथजीके प्रिय भक्त पवनपुत्र श्रीहनुमान्जीको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ३॥ जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥ तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥१॥ जाम्बवान्‌के सुन्दर वचन सुनकर हनुमान्जीके हृदयको बहुतही भाये। [वे बोले --] हे भाई ! तुमलोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तबतक मेरी राह देखना॥ १॥ जब लगि आवों सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥ यह कहि नाइ सबन्हि कहूँ माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥ २॥ जबतक मैं सीताजीको देखकर [लौट] न आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदयमें श्रीरघुनाथजीको धारण करके हनुमानजी हर्षित होकर चले ॥२॥ सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेठ ता ऊपर॥ बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेड पवनतनय बल भारी॥ ३॥ समुद्रके तीरपर एक सुन्दर पर्वत था। हनुमानजी खेलसे ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्रीरघुवीरका स्मरण करके अत्यन्त बलवान हनुमानजी उसपरसे बड़े वेगसे उछले॥ ३॥ जेहिं गिरि चरन देह हनुमंता। चलेड सो गा पाताल तुरंता॥ जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेड हनुमाना॥ ४॥ जिस पर्वतपर हनुमानजी पैर रखकर चले (जिसपरसे वे उछले), वह तुरंत ही पातालमें धँस गया। जैसे श्रीरघुनाथजीका अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमानजी चले॥४॥ जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तें मैनाक होहि श्रमहारी॥५॥ समुद्रने उन्हें श्रीरघुनाथजीका दूत समझकर मैनाक पर्वतसे कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करनेवाला हो (अर्थात्‌ अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे) ॥५॥ [दोहा १] हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम। राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥ हनुमानूजीने उसे हाथसे छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा-- भाई! श्रीरामचन्द्रजीका काम किये बिना मुझे विश्राम कहाँ॥१॥ जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानें कहूँ बल बुद्धि बिसेषा॥ सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥१॥ देवताओंने पवनपुत्र हनुमानूजीको जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धिको जाननेके लिये (परीक्षार्थ) उन्होंने सुरसानामक सर्पोकी माताको भेजा, उसने आकर हनुमानूजीसे यह बात कही--॥१॥ आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥ राम काजु करि फिरि मैं आवाँ। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥२॥ आज देवताओंने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर पवनकुमार हनुमानूजीने कहा--श्रीरामजीका कार्य करके मैं लौट आऊँ और सीताजीकी खबर प्रभुको सुना दूँ,॥२॥ तब तव बदन पैठिहि आई। सत्य कहऊँ मोहि जान दे माई॥ कवनेहुँ जतन देह नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥३॥ तब मैं आकर तुम्हारे मुँहमें घुस जाऊँगा [तुम मुझे खा लेना]। हे माता! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे। जब किसी भी उपायसे उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमानूजीने कहा-तो फिर मुझे खा न ले॥३॥ जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥ सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥४॥ उसने योजनभर (चार कोसमें) मुँह फैलाया। तब हनुमानूजीने अपने शरीरको उससे दूना बढ़ा लिया ॥ उसने सोलह योजनका मुख किया। हनुमानजी तुरंत ही बत्तीस योजनके हो गये॥४॥ जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥ सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥५॥ जैसे-जैसे सुरसा मुखका विस्तार बढ़ाती थी, हनुमानजी उसका दूना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन (चार सौ कोसका) मुख किया। तब हनुमानूजीने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया॥५॥ बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरू नावा॥ मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥६॥ और वे उसके मुखमें घुसकर [तुरंत] फिर बाहर निकल आये और उसे सिर नवाकर विदा माँगने लगे। [उसने कहा--] मैंने तुम्हारे बुद्धि-बलका भेद पा लिया, जिसके लिये देवताओंने मुझे भेजा था॥६॥ [दोहा २] राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान। आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥ तुम श्रीरामचन्द्रजीका सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धिके भण्डार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गयी, तब हनुमानजी हर्षित होकर चले॥२॥ निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥ जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥१॥ समुद्रमें एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाशमें उड़ते हुए पक्षियोंको पकड़ लेती थी। आकाशमें जो जीव-जन्तु उड़ा करते थे, वह जलमें उनकी परछाईं देखकर,॥१॥ गहि छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥ सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहि चीन्हा॥२॥ उस परछाईको पकड़ लेती थी, जिससे वे उड़ नहीं सकते थे [और जलमें गिर पड़ते थे]। इस प्रकार वह सदा आकाशमें उड़नेवाले जीवोंको खाया करती थी ॥ उसने वही छल हनुमान्‌जीसे भी किया। हनुमानूजीने तुरंत ही उसका कपट पहचान लिया ॥२॥ ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मति धीरा॥ तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥३॥ पवनपुत्र धीरबुद्धि वीर श्रीहनुमान्‌जी उसको मारकर समुद्रके पार गये। वहाँ जाकर उन्होंने वनकी शोभा देखी। मधु (पुष्प)-के लोभसे भौंरे गुंजार कर रहे थे॥३॥ नाना तरू फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए॥ सैल बिसाल देखरि एक आगें। ता पर धाइ चढ़े भय त्यागें॥४॥ अनेकों प्रकारके वृक्ष फल-फूलसे शोभित हैं। पक्षी और पशुओंके समूहको देखकर तो वे मनमें [बहुत ही] प्रसन्न हुए। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान्‌जी भय त्यागकर उसपर दौड़कर जा चढ़े॥४॥ उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥ गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥५॥ [शिवजी कहते हैं--] हे उमा! इसमें वानर हनुमान्‌की कुछ बड़ाई नहीं है। यह प्रभुका प्रताप है, जो कालको भी खा जाता है। पर्वतपर चढ़कर उन्होंने लंका देखी। बहुत ही बड़ा किला है, कुछ कहा नहीं जाता॥५॥ अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥६॥ वह अत्यन्त ऊँचा है, उसके चारों ओर समुद्र है। सोनेके परकोटे (चहारदीवारी)-का परम प्रकाश हो रहा है॥६॥ [छन्‍द १] कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना। चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥ गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै। बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥ विचित्र मणियोंसे जड़ा हुआ सोनेका परकोटा है, उसके अंदर बहुत-से सुन्दर-सुन्दर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुन्दर मार्ग और गलियाँ हैं; सुन्दर नगर बहुत प्रकारसे सजा हुआ है। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन गिन सकता है? अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यन्त बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती॥१॥ [छन्‍द २] बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं। नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥ कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं। नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥ वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएँ और बावलियाँ सुशोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवताओं और गन्धर्वों की कन्याएँ अपने सौन्दर्य से मुनियों के भी मनों को मोहे लेती हैं।कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं। वे अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार सेभिड़ते और एक-दूसरे को ललकारते हैं॥२॥ करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं। कहूँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥ एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही। रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥ भयंकर शरीरवाले करोड़ों योद्धा यत्न करके (बड़ी सावधानी से) नगर की चारों दिशाओं में (सब ओर से) रखवाली करते हैं। कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों, मनुष्यों, गायों, गदहों और बकरों को खा रहे हैं। तुलसीदास ने इनकी कथा इसीलिये कुछ थोड़ी-सी कही है कि ये निश्चय ही श्रीरामचन्द्रजी के बाण रूपी तीर्थ में शरीरों को त्यागकर परमगति पावेंगे II ३ II [दोहा ३] पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार। अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥ नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमानजी ने मन में विचार किया कि अत्यन्त छोटा रूप धरूँ और रात के समय नगर में प्रवेश करूँ॥३॥ मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चले सुमिरि नरहरी॥ नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥१॥ हनुमानजी मच्छक के समान (छोटा-सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करके लंका को चले। [लंका के द्वार पर] लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली-मेरा निरादर करके (बिना मुझसे पूछे) चला जा रहा है ?॥ १॥ जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥ मुठिका एक महा कपि हनी। रूधिर बमत धरनीं ढनमनी॥ २॥ हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना? जहाँ तक (जितने) चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। महाकपि हनुमानजी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर लुढ़क पड़ी॥ २॥ पुनि संभारि उठी सो लंका। जोरि पानि कर बिनय ससंका॥ जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा॥ ३॥ वह लंकिनी फिर अपने को सँभाल कर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करने लगी। [वह बोली--] रावण को जब ब्रह्माजी ने वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के विनाश की यह पहचान बता दी थी कि--॥ ३॥ बिकल होसि तैं कपि के मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे॥ तात मोर अति पुन्य बहूता। देखे नयन राम कर दूता॥ ४॥ जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाय, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बड़े पुण्य हैं, जो मैं श्रीरामचन्द्रजी के दूत (आप)-को नेत्रों से देख पायी॥ ४॥ [दोहा ४] तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग। तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥ हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाय, तो भी वे सब मिलकर [दूसरे पलड़े पर रखे हुए] उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण)-मात्र के सत्संग से होता है॥४॥ प्रबेसि नगर कीजे सब काजा। हृदय राखि कोसलपुर राजा॥ गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥ १॥ अयोध्यापुरी के राजा श्रीरघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिये। उसके लिये विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है॥ १॥ गरुड़ सुमेरू रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥ अति लघु रूप धरेउठ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥२॥ और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत उसके लिये रज के समान हो जाता है, जिसे श्रीरामचन्द्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया। तब हनुमानजी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान्‌ का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया॥ २॥ मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥ गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥३॥ उन्होंने एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज की। जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखे। फिर वे रावण के महल में गये। वह अत्यन्त विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥३॥ सयन किएँ देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीरि बैदेही॥ भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥४॥ हनुमानजी ने उस (रावण) को शयन किये देखा; परन्तु महल में जानकीजी नहीं दिखायी दीं। फिर एक सुन्दर महल दिखायी दिया। वहाँ (उसमें) भगवान्‌ का एक अलग मन्दिर बना हुआ था॥४॥ [दोहा ५] रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ। नव तुलसिका बूंद तहँ देखि हरष कपिराइ॥ वह महल श्रीरामजी के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अलंकृत था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज श्रीहनुमानजी हर्षित हुए॥५॥ लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥ मन महूँ तरक करें कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥ १॥ लंका तो राक्षसों का समूह निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमानजी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे। उसी समय विभीषणजी जागे॥ १॥ राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥ एहि सन हठि करिहडँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥२॥ उन्होंने (विभीषण ने) रामनाम का स्मरण (उच्चारण) किया। हनुमानजी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए। [हनुमानजी ने विचार किया कि] इनसे हठ करके (अपनी ओर से ही) परिचय करूँगा, क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती [प्रत्युत लाभ ही होता है]॥२॥ बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥ करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥ ३॥ ब्राह्मण रूप धरकर हनुमानजी ने उन्हें वचन सुनाये (पुकारा)। सुनते ही विभीषणजी उठकर वहाँ आये। प्रणाम करके कुशल पूछी [और कहा कि] हे ब्राह्मणदेव! अपनी कथा समझाकर कहिये॥३॥ की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई॥ की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि, करन बड़भागी॥ ४॥ क्या आप हरि भक्तों में से कोई हैं? क्योंकि आपको देखकर मेरे हृदय में अत्यन्त प्रेम उमड़ रहा है। अथवा क्या आप दीनों से प्रेम करने वाले स्वयं श्रीरामजी ही हैं, जो मुझे बड़भागी बनाने (घर बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने) आये हैं?॥४॥ [दोहा ६] तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम। सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥ तब हनुमानजी ने श्रीरामचन्द्रजी की सारी कथा कहकर अपना नाम बताया। सुनते ही दोनों के शरीर पुलकित हो गये और श्रीरामजी के गुणसमूहों का स्मरण करके दोनों के मन [प्रेम और आनन्द में] मग्र हो गये॥६॥ सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥ तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥१॥ [विभीषणजी ने कहा--] हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ, जैसे दाँतों के बीच में बेचारी जीभ। हे तात! मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्रीरामचन्द्रजी क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे?॥ १॥ तामस तनु कछ साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं॥ अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥२॥ मेरा तामसी(राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है। परन्तु हे हनुमान! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्रीरामजी की मुझ पर कृपा है; क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते ॥२॥ जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥ सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥३॥ जब श्रीरघुवीर ने कृपा की है, तभी तो आपने मुझे हठ करके (अपनी ओर से) दर्शन दिये हैं। [हनुमानजी ने कहा--] हे विभीषणजी! सुनिये, प्रभु की यही रीति है कि वे सेवक पर सदा ही प्रेम किया करते हैं॥३॥ कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥ प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिले अहारा॥ ४॥ भला कहिये, मैं ही कौन बड़ा कुलीन हूँ? [जाति का] चञ्चल वानर हूँ और सब प्रकार से नीच हूँ। प्रातःकाल जो हम लोगों (बंदरों) का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन न मिले॥४॥ [दोहा ७] अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर। कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥ हे सखा! सुनिये, मैं ऐसा अधम हूँ; पर श्रीरामचन्द्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। भगवान्‌ के गुणों का स्मरण करके हनुमानजी के दोनों नेत्रों में [प्रेमाश्रुओं का] जल भर आया॥७॥ जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥ एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥ १॥ जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी (श्रीरघुनाथजी) को भुलाकर [विषयों के पीछे] भटकते फिरते हैं, वे दु:खी क्यों न हों? इस प्रकार श्रीरामजी के गुणसमूहों को कहते हुए उन्होंने अनिर्वचनीय (परम) शान्ति प्राप्त की॥ १॥ पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥ तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहडँ जानकी माता॥२॥ फिर विभीषणजी ने, श्रीजानकीजी जिस प्रकार वहाँ (लंका में) रहती थीं, वह सब कथा कही। तब हनुमानजी ने कहा-हे भाई! सुनो, मैं जानकी माता को देखना चाहता हूँ॥२॥ जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेड पवनसुत बिदा कराई॥ करि सोड रूप गयउऊ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ॥३॥ विभीषणजी ने [माता के दर्शन की] सब युक्तियाँ (उपाय) कह सुनायीं। तब हनुमानजी विदा लेकर चले। फिर वही (पहले का मसक-सरीखा) रूप धरकर वहाँ गये, जहाँ अशोकवन में (वन के जिस भाग में) सीताजी रहती थीं॥३॥ देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥ कूस तनु सीस जटा एक बेनी। जपति हृदय रघुपति गुन श्रेनी॥४॥ सीताजी को देखकर हनुमानजी ने उन्हें मन ही में प्रणाम किया। उन्हें बैठे-ही-बैठे रात्रि के चारों पहर बीत जाते हैं। शरीर दुबला हो गया है, सिर पर जटाओं की एक वेणी (लट) है। हृदय मेंश्रीरघुनाथजी के गुणसमूहों का जाप (स्मरण) करती रहती हैं॥४॥ [दोहा ८] निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन। परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन॥ श्रीजानकीजी नेत्रों को अपने चरणों में लगाये हुए हैं (नीचे की ओर देख रही हैं) और मन श्रीरामजी के चरणकमलों में लीन है। जानकीजी को दीन (दुःखी) देखकर पवनपुत्र हनुमानजी बहुत ही दुःखी हुए॥८॥ तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई। error करइ बिचार करौं का भाई॥ हनुमानजी वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूँ (इनका दुःख कैसे दूर करूँ) ? उसी समय बहुत-सी स्त्रियों को साथ लिये सज-धजकर रावण वहाँ आया॥१॥ बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा॥ कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदिरी आदि सब रानी॥ उस दुष्ट ने सीताजी को बहुत प्रकार से समझाया। साम, दान,भय और भेद दिखलाया I रावण ने कहा--हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो। मन्दोदरी आदि सब रानियों को॥२॥ तव अनुचरीं करौं पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा॥ तन धरी ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥ मैं तुम्हारी दासी बना दूँगा, यह मेरा प्रण है। तुम एक बारमेरी ओर देखो तो सही! अपने परम स्नेही कोसलाधीशश्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करके जानकीजी तिनके की आड़ (परदा) करके कहने लगीं--॥३॥ सुनु दसमुख खटद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥ अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥ हे दशमुख! सुन, जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? जानकीजी फिर कहती हैं--तू [अपने लिये भी] ऐसा ही मन में समझ ले। रे दुष्ट! तुझे श्रीरघुवीर के बाण की खबर नहीं है॥४॥ सठ सूने हरि आनहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥ रे पापी! तू मुझे सूने में हर लाया है। रे अधम! निर्लज्ज! तुझेलज्जा नहीं आती॥५॥ [दोहा ९] आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान। परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन॥ अपने को जुगनू के समान और रामचन्द्रजी को सूर्य के समान सुनकर और सीताजी के कठोर बचनों को सुनकर रावण तलवार निकालकर बड़े गुस्से में आकर बोला--॥९॥ सीता ते मम कृत अपमाना। कटिहऊँ तव सिर कठिन कृपाना॥ नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी॥ सीता! तूने मेरा अपमान किया है। मैं तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूँगा I नहीं तो [अब भी] जल्दी मेरी बात मान ले। हे सुमुखि! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा!॥१॥ श्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज कर कर सम दसकंधर॥ सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रान पन मोरा॥ [सीताजी ने कहा--] हे दशग्रीव! प्रभु की भुजा जो श्याम कमल की मालाके समान सुन्दर और हाथी की सूँड़ के समान [पुष् तथा विशाल] है I या तो वह भुजा ही मेरे कण्ठ में पड़ेगी या तेरी भयानक तलवार ही। रे शठ! सुन, यही मेरा सच्चा प्रण है॥२॥ चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल सृजातं॥ सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा॥ सीताजी कहती हैं--हे चंद्रहास (तलवार) ! श्रीरघुनाथजी के विरह की अग्नि से उत्पन्न मेरी बड़ी भारी जलन को तू हर ले I हे तलवार! तू शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहाती है (अर्थात्‌ तेरी धारा ठंडी और तेज है), तू मेरे दुःख के बोझ को हर ले॥३॥ सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥ कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥ सीताजी के ये वचन सुनते ही वह मारने दौड़ा। तब मय दानव की पुत्री मन्दोदरी ने नीति कहकर उसे समझाया I तब रावण ने सब राक्षसियों को बुलाकर कहा कि जाकर सीता को बहुत प्रकार से भय दिखलाओ॥४॥ मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना॥ यदि महीने भर में यह कहा न माने तो मैं इसे तलवार निकालकर मार डालूँगा॥५॥ [दोहा १०] भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बाूंद। सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद॥ [यों कहकर] रावण घर चला गया। यहाँ राक्षसियों के समूह बहुत-से बुरे रूप धरकर सीताजी को भय दिखलाने लगे॥१०॥ त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका॥ सबन्हीं बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥ स्वप्र में [ मैंने देखा कि] एक बंदर ने लंका जला दी। राक्षसों की सारी सेना मार डाली गयीउसने सबों को बुलाकर अपना स्वप्न सुनाया और कहा--सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो॥१॥ (error) सपने बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी॥ खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥ स्वप्र में [ मैंने देखा कि] एक बंदर ने लंका जला दी। राक्षसों की सारी सेना मार डाली गयी रावण नंगा है और गदहे पर सवार है। उसके सिर मुँड़े हुए हैं, बीसों भुजाएँ कटी हुई हैं॥२॥ एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहँ. बिभीषन पाई॥ नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥ इस प्रकार से वह दक्षिण (यमपुरी की) दिशा को जा रहा है और मानो लंका विभीषण ने पायी है नगरमें श्रीरामचन्द्रजी की दुहाई फिर गयी। तब प्रभु ने सीताजी को बुला भेजा॥३॥ यह सपना मैं कहेउ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी॥ तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं॥ मैं पुकार कर (निश्चय के साथ) कहती हूँ कि यह स्वप्र चार (कुछ ही) दिनों बाद सत्य होकर रहेगा I उसके वचन सुनकर वे सब राक्षसियाँ डर गयीं और जानकीजी के चरणों पर गिर पड़ी॥४॥ [दोहा ११] जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच। मास दिवस बीतें मोहि मारिहे निसिचर पोच॥ तब (इसके बाद) वे सब जहाँ-तहाँ चली गयीं। सीताजी मन में सोच करने लगीं कि एक महीना बीत जाने पर नीच राक्षस रावण मुझे मारेगा॥११॥ त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥ तजौं देह करू बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥ सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं--हे माता! तू मेरी विपत्ति की संगिनी है I जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मैं शरीर छोड़ सकूँ। विरह असह्य हो चला है, अब यह सहा नहीं जाता॥१॥ आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई॥ सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥ काठ लाकर चिता बनाकर सजा दे। हे माता! फिर उसमें आग लगा दे I हे सयानी! तू मेरी प्रीति को सत्य कर दे। रावण की शूल के समान दुःख देने वाली वाणी कानों से कौन सुने॥२॥ सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥ निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी॥ ३॥ सीताजी के वचन सुनकर त्रिजटा ने चरण पकड़कर उन्हें समझाया और प्रभु का प्रताप, बल और सुयश सुनाया। उसने कहा--हे सुकुमारी! सुनो, रात्रि के समय आग नहीं मिलेगी। ऐसा कहकर वह अपने घर चली गयी॥ ३॥ कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला॥ देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा॥ ४॥ सीताजी मन-ही-मन कहने लगीं--विधाता ही विपरीत हो गया। न आग मिलेगी, न पीड़ा मिटेगी। आकाश में अंगारे प्रकट दिखायी दे रहे हैं, पर पृथ्वी पर एक भी तारा नहीं आता॥ ४॥ पावकमय ससि स्त्रवतत न आगी। मानहुं मोहि जानि हतभागी॥ सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरू मम सोका॥ ५॥ चन्द्रमा अग्निमय है, किन्तु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता। हे अशोकवृक्ष! मेरी विनती सुन! मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर॥५॥ नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥ देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कल्प सम बीता॥ ६॥ तेरे नये-नये कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं। अग्नि दे, विरह- रोग का अन्त मत कर (अर्थात्‌ विरह-रोग को बढ़ाकर सीमातक न पहुँचा)। सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान्‌जी को कल्प के समान बीता॥ ६॥ [सोरठा १२] कपि करि हृदय बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब। जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहे॥ तब हनुमान्‌जी ने हृदय में विचार कर (सीताजी के सामने) अँगूठी डाल दी, मानो अशोक ने अंगारा दे दिया। (यह समझकर) सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया॥ १२॥ तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥ चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयेँ अकुलानी॥ १॥ तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यन्त सुन्दर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं॥ १॥ जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥ (error) राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥ यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥ ५॥ (हनुमान्‌जी ने कहा-- ) हे माता जानकी! मैं श्रीरामजी का दूत हूँ। करुणानिधान की सच्ची शपथ करता हूँ। हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हूँ। श्रीरामजी ने मुझे आपके लिये यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है॥५॥ नर बानरहि संग कहु कैसें। कही कथा भइ संगति जैसें॥६॥ (सीताजी ने पूछा-- ) नर और वानर का संग कैसे हुआ? तब हनुमान्‌जी ने जैसे संग हुआ था, वह सब कथा कही॥ ६॥ [दोहा १३] कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास। जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥ हनुमान्‌जी के प्रेमयुक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया। उन्होंने जान लिया कि यह मन, कर्म और वचन से कृपासागर श्रीरघुनाथजी का दास है॥१३॥ हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥ बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयहु तात मो कहूँ जलजाना॥ १॥ भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यन्त गाढ़ी प्रीति हो गयी। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यन्त पुलकित हो गया। (सीताजी ने कहा-- ) हे तात हनुमान्‌! विरहसागर में डूबती हुई मुझको तुम जहाज हुए॥१॥ अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी॥ कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥२॥ मैं बलिहारी जाती हूँ, अब छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित खर के शत्रु सुखधाम प्रभु का कुशल-मंगल कहो। श्रीरघुनाथजी तो कोमलहदय और कृपालु हैं। फिर हे हनुमान्‌! उन्होंने किस कारण यह निष्ठुरता धारण कर ली है?॥२॥ सहज बानि सेवक सुखदायक। कबहुँऊ सुरति करत रघुनायक॥ कबहुं नयन मम सीतल ताता। होइहहिं निरखि श्याम मृदु गाता॥३॥ सेवक को सुख देना उनकी स्वाभाविक बानि है। वे श्रीरघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? हे तात! क्या कभी उनके कोमल साँवले अंगों को देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे?॥ ३॥ बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥ देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥ ४॥ (मुँहसे) वचन नहीं निकलता, नेत्रों में (विरह के आँसुओं का) जल भर आया। (बड़े दुःख से वे बोलीं-- ) हा नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया! सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर हनुमान्‌जी कोमल और विनीत वचन बोले-- ॥ ४॥ मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥ जनि जननी मानहु जियेँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम के दूना॥५॥ हे माता! सुन्दर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित (शरीर से) कुशल हैं, परन्तु आपके दुःख से दुःखी हैं। हे माता! मन में ग्लानि न मानिये (मन छोटा करके दुःख न कीजिये)। श्रीरामचन्द्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है॥५॥ [दोहा १४] रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर। अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर॥ हे माता! अब धीरज धरकर श्रीरघुनाथजी का संदेश सुनिये। ऐसा कहकर हनुमानजी प्रेम से गदगद हो गये। उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥ १४॥ कहेउ राम बियोग तब सीता। मो कहूँ सकल भए बिपरीता॥ नव तरू किसलय मनहूँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू॥ १॥ (हनुमानजी बोले-- ) श्रीरामचन्द्रजी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिये सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गये हैं। वृक्षों के नये-नये कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चन्द्रमा सूर्य के समान॥ १॥ कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥ जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥२॥ और कमलों के वन भालों के वन के समान हो गये हैं। मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते हैं। जो हित करनेवाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे हैं। त्रिविध (शीतल, मन्द, सुगन्ध) वायु साँप के श्वास के समान (जहरीली और गरम) हो गयी है॥ २॥ कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहां यह जान न कोई॥ तत्व प्रेम कर मम अरू तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥३॥ मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥३॥ सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥ प्रभु संदेस सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥४॥ और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले। प्रभु का सन्देश सुनते ही जानकीजी प्रेम में मग्न हो गयीं। उन्हें शरीर की सुध न रही॥ ४॥ कह कपि हृदयँ धीर धरू माता। सुमिरि राम सेवक सुखदाता॥ उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई॥५॥ हनुमानूजीने कहा--हे माता! हृदयमें धीरज धारण करो और सेवकोंको सुख देनेवाले श्रीरामजीका स्मरण करो। श्रीरघुनाथजीकी प्रभुताकों हृदयमें लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो॥७५॥ [दोहा १५ ] निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु। जननी हृदय धीर धरू जरे निसाचर जानु॥ १५॥ राक्षसोंका समूह पतंगोंके समान और श्रीरघुनाथजीके बाण अग्रिके समान हैं। हे माता! हृदयमें धैर्य धारण करो और राक्षसोंको जला हुआ समझो॥१५॥ जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई॥ राम बान रबि उएँ जानकी। तम बरूथ कहँ जातुधान की॥१॥ श्रीरामचन्द्रजीने यदि खबर पायी होती तो वे विलम्ब न करते। हे जानकीजी! रामबाणरूपी सूर्यके उदय होनेपर राक्षसोंकी सेनारूपी अन्धकार कहाँ रह सकता है?॥ १॥ अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई॥ कछुक दिवस जननी धरू धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥ २॥ हे माता! मैं आपको अभी यहाँसे लिवा जाऊँ; पर श्रीरामचन्द्रजीकी शपथ है, मुझे प्रभु (उन)-की आज्ञा नहीं है। [अतः] हे माता! कुछ दिन और धीरज धरो। श्रीरामचन्द्रजी वानरोंसहित यहाँ आवेंगे॥ २॥ निसिचर मारि तोहि ले जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥ हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना॥ ३॥ और राक्षसोंको मारकर आपको ले जायेंगे। नारद आदि [ऋषि-मुनि] तीनों लोकोंमें उनका यश गायेंगे। [सीताजीने कहा--] हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्‍हें-नन्‍हें-से) होंगे, राक्षस तो बड़े बलवान योद्धा हैं॥३॥ मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥ कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा॥ ४॥ अतः मेरे हृदयमें बड़ा भारी सन्देह होता है [कि तुम-जैसे बंदर राक्षसोंको कैसे जीतेंगे!] यह सुनकर हनुमानूजीने अपना शरीर प्रकट किया। सोनेके पर्वत (सुमेरु)-के आकारका (अत्यन्त विशाल) शरीर था, जो युद्धमें शत्रुओंके हृदयमें भय उत्पन्न करनेवाला, अत्यन्त बलवान्‌ और वीर था॥४॥ सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥ ५७५॥ तब (उसे देखकर) सीताजीके मनमें विश्वास हुआ। हनुमानूजीने फिर छोटा रूप धारण कर लिया॥५॥ [दोहा १६] सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल। प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल॥१६॥ हे माता! सुनो, वानरोंमें बहुत बल-बुद्धि नहीं होती। परन्तु प्रभुके प्रतापसे बहुत छोटा सर्प भी गरुड़को खा सकता है (अत्यन्त निर्बल भी महान्‌ बलवान्‌को मार सकता है)॥१६॥ मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥ आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥ १॥ भक्ति, प्रताप, तेज और बलसे सनी हुई हनुमान्‌ूजीकी वाणी सुनकर सीताजीके मनमें सन्‍्तोष हुआ। उन्होंने श्रीरामजीके प्रिय जानकर हनुमानूजीको आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शीलके निधान होओ॥ १॥ अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥ करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥ २॥ हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापेसे रहित), अमर और गुणोंके खजाने होओ। श्रीरघुनाथजी तुमपर बहुत कृपा करें। “प्रभु कृपा करें' ऐसा कानोंसे सुनते ही हनुमानजी पूर्ण प्रेममें मग्र हो गये॥ २॥ बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥ अब कृतकृत्य भयऊँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥ ३॥ हनुमानजीने बार-बार सीताजीके चरणोंमें सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा-हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है॥ ३॥ सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा॥ सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥ ४॥ हे माता! सुनो, सुन्दर फलवाले वृक्षोंको देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आयी है। [सीताजीने कहा--] हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वनकी रखवाली करते हैं॥ ४॥ तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥ ५॥ [हनुमानजीने कहा--] हे माता! यदि आप मनमें सुख मानें (प्रसन्न होकर आज्ञा दें) तो मुझे उनका भय तो बिलकुल नहीं है॥५॥ [दोहा १७] देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु। रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥१७॥ हनुमानजीको बुद्धि और बलमें निपुण देखकर जानकीजीने कहा-जाओ। हे तात! श्रीरघुनाथजीके चरणोंको हृदयमें धारण करके मीठे फल खाओ॥ १७॥ चलेउ नाइ सिरू पैठेउ बागा। फल खाएसि तरू तोरें लागा॥ रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥ १॥ वे सीताजीको सिर नवाकर चले और बागमें घुस गये। फल खाये और वृक्षोंको तोड़ने लगे। वहाँ बहुत-से योद्धा रखवाले थे। उनमेंसे कुछको मार डाला और कुछने जाकर रावणसे पुकार कौ--॥ १॥ नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥ खाएसि फल अरू बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥२॥ [और कहा--] हे नाथ! एक बड़ा भारी बंदर आया है। उसने अशोकवाटिका उजाड़ डाली। फल खाये, वृक्षोंको उखाड़ डाला और रखवालोंको मसल-मसलकर जमीनपर डाल दिया॥ २॥ सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेसि हनुमाना॥ सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अथमारे॥ ३॥ यह सुनकर रावणने बहुत-से योद्धा भेजे। उन्हें देखकर हनुमानूजीने गर्जना की। हनुमानूजीने सब राक्षसोंको मार डाला, कुछ जो अधमरे थे, चिल्लाते हुए गये॥ ३॥ पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग ले सुभट अपारा॥ आवत देखि बिटप गहि तरजा। कपि बिपुल ध्वनि गर्जा हर्षा॥ ४॥ फिर रावणने अक्षयकुमारको भेजा। वह असंख्य श्रेष्ठ योद्धाओंको साथ लेकर चला। उसे आते देखकर हनुमानूजीने एक वृक्ष [हाथमें] लेकर ललकारा और उसे मारकर महाध्वनि (बड़े जोर)-से गर्जना की॥ ४॥ [दोहा १८] कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि। कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥ उन्होंने सेनामें कुछको मार डाला और कुछको मसल डाला और कुछको पकड़-पकड़कर धूलमें मिला दिया। कुछने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु! बंदर बहुत ही बलवान्‌ है॥ १८॥ सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। 'पठएसि मेघनाद बलवाना॥ मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिआअ कपिहि कहाँ कर आही॥ १॥ पुत्रका वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने [अपने जेठे पुत्र] बलवान्‌ मेघनादको भेजा। (उससे कहाकि-) हे पुत्र! मारना नहीं; उसे बाँध लाना। उस बंदरको देखा जाय कि कहाँका है॥१॥ चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥ कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरू धावा॥२॥ इन्द्रको का जीतनेवाला अतुलनीय योद्धा मेघनाद चला। भाईका मारा जाना सुन उसे क्रोध हो आया। हनुमानूजीने देखा कि अबकी भयानक योद्धा आया है। तब वे कटकटाकर गर्जे और दौड़े॥ २॥ अति बिसाल तरू एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥ रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा॥३॥ उन्होंने एक बहुत बड़ा वृक्ष उखाड़ लिया और [उसके प्रहारसे ] लंकेश्वर रावणके पुत्र मेघनादको बिना रथका कर दिया (रथको तोड़कर उसे नीचे पटक दिया) | उसके साथ जो बड़े- बड़े योद्धा थे, उनको पकड़-पकड़कर हनुमानजी अपने शरीरसे मसलने लगे॥ ३॥ तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहूँ गजराजा॥ मुठिका मारि चढ़ा तरू जाई। ताहि एक छन मसुरुछा आई॥४॥ उन सबको मारकर फिर मेघनादसे लड़ने लगे। [लड़ते हुए वे ऐसे मालूम होते थे] मानो दो गजराज (श्रेष्ठ हाथी) भिड़ गये हों। हनुमानजी उसे एक घूँसा मारकर वृक्षपर जा चढ़े। उसको क्षणभरके लिये मूर्च्छा आ गयी॥४॥ उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥ ५॥ फिर उठकर उसने बहुत माया रची; परन्तु पवनके पुत्र उससे जीते नहीं जाते॥ ५॥ [दोहा १९] ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार। जौं न ब्रह्मसर मानऊँ महिमा मिटइ अपार॥ अन्तमें उसने ब्रह्मास्त्रका सन्धान (प्रयोग) किया, तब हनुमानूजीने मनमें विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्रको नहीं मानता हूँ तो उसकी अपार महिमा मिट जायगी॥ १९॥ ब्रह्मबान कपि कहूँ तेहिं मारा। परतिहूँ बार कटकु संघारा॥ तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥ १॥ उसने हनुमानजीको ब्रह्मबाण मारा, [जिसके लगते ही वे वृक्षसे नीचे गिर पड़े] परन्तु गिरते समय भी उन्होंने बहुत-सी सेना मार डाली। जब उसने देखा कि हनुमान्जी मूच्छित हो गये हैं, तब वह उनको नागपाशसे बाँधकर ले गया॥१॥ जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥ तासु दूत कि बंध तरू आवबा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बाँधावा॥ २॥ [शिवजी कहते हैं--] हे भवानी ! सुनो, जिनका नाम जपकर ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण)-के बन्धनको काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बन्धनमें आ सकता है ? किन्तु प्रभुके कार्यके लिये हनुमानूजीने स्वयं अपनेको बँधा लिया॥ २॥ कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए॥ दसमुख सभा दीरिब्र कपि जाईं। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥ ३॥ बंदर का बाँधा जाना सुनकर राक्षस दौड़े और कौतुक के लिये (तमाशा देखने के लिये) सब सभामें आये। हनुमान जी ने जाकर रावण की सभा देखी। उसकी अत्यन्त प्रभुता (ऐश्वर्य) कुछ कही नहीं जाती॥ ३॥ कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भूकुटि बिलोकत सकल सभीता॥ देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥ ४॥ देवता और दिक्पाल हाथ जोड़े बड़ी नम्नता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे हैं। (उसका रुख देख रहे हैं।) उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमान जी के मनमें जरा भी डर नहीं हुआ। वे ऐसे निःशट्ढ खड़े रहे, जैसे सर्पों के समूह में गरुड़ निःशह्लु (निर्भय) रहते हैं॥ ४॥ [दोहा २०] कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद। सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद॥ हनुमान जी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हँसा। फिर पुत्र-वध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया॥ २०॥ कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥ की थौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखडँ अति असंक सठ तोही॥ १॥ लझ्ढापति रावण ने कहा-रे वानर! तू कौन है? किसके बलपर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला ? क्या तूने कभी मुझे (मेरा नाम और यश) कानों से नहीं सुना? रे शठ! मैं तुझे अत्यन्त निःशट्ढ देख रहा हूँ॥१॥ मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥ सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया। पाह जासु बल बिरचति माया॥२॥ तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? रे मूर्ख! बता, क्या तुझे प्राण जाने का भय नहीं है ? [हनुमान जी ने कहा-- ] हे रावण! सुन; जिनका बल पाकर माया सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के समूहों की रचना करती है;॥ २॥ जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥ जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन॥३॥ जिनके बल से हे दशशीश ! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमशः) सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं; जिनके बल से सहस्रमुख (फर्णों)-वाले शेष जी पर्वत और वनसहित समस्त ब्रह्माण्ड को सिर पर धारण करते हैं;॥३॥ धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥ हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥४॥ जो देवताओं की रक्षा के लिये नाना प्रकार की देह धारण करते हैं और जो तुम्हारे जैसे मूर्खों को शिक्षा देनेवाले हैं; जिन्होंने शिव जी के कठोर धनुष को तोड़ डाला और उसी के साथ राजाओं के समूह का गर्व चूर्ण कर दिया॥४॥ खर दूषन त्रिसिर अरू बाली। बध सकल अतुलित बलसाली॥ ५॥ (error ) जिन्होंने खर, दूषण, त्रिशिर और बाली को मार डाला, जो सब-के-सब अतुलनीय बलवान थे;॥५॥ [दोहा २१] जाके बल लवबलेस तें जितेहु चराचर झारि। तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि॥ जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम [चोरी से] हर लाये हो, मैं उन्हीं का दूत हूँ॥ २१॥ जानऊँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥ समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥ १॥ मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूँ, सहस्नरबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बाली से युद्ध करके तुमने यश प्राप्त किया था। हनुमान जी के [मार्मिक] वचन सुनकर रावण ने हँसकर बात टाल दी॥ १॥ खायउऊँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेडँ रूखा॥ सब के देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥ २॥ हे [राक्षसों के] स्वामी ! मुझे भूख लगी थी, (इसलिये) मैंने फल खाये और वानर-स्वभाव के कारण वृक्ष तोड़े। हे (निशाचरों के) मालिक ! देह सब को परम प्रिय है। कुमार्ग पर चलनेवाले (दुष्ट) राक्षस जब मुझे मारने लगे॥२॥ जिनन्‍ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँथेउँ तनयेँ तुम्हारे॥ मोहिन कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहऊँ निज प्रभु कर काजा॥ ३॥ तब जिन्होंने मुझे मारा, उनको मैंने भी मारा। उस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझको बाँध लिया। [किन्तु] मुझे अपने बाँधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं है। मैं तो अपने प्रभु का कार्य किया चाहता हूँ॥ ३॥ बिनती करखझँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥ देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥ ४॥ हे रावण ! मैं हाथ जोड़कर तुमसे विनती करता हूँ, तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो । तुम अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो और भ्रम को छोड़कर भक्तभयहारी भगवान को भजो ॥ ४॥ जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥ तासों बयरू कबहूँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै॥५॥ जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, वह काल भी जिनके डर से अत्यन्त डरता है, उनसे कदापि बैर न करो और मेरे कहने से जानकी जी को दे दो॥५॥ [दोहा २२] प्रततपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि। गए सरन प्रभु राखिँ. तव अपराध बिसारि॥ खर के शत्रु श्रीरघुनाथ जी शरणागतों के रक्षक और दया के समुद्र हैं। शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरण में रख लेंगे॥ २२॥ राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥ रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥ १॥ तुम श्रीराम जी के चरणकमलों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो। ऋषि पुलस्त्य जी का यश निर्मल चन्द्रमा के समान है, उसमें तुम कलंक न लगाओ॥ १॥ राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥ बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी॥२॥ रामनामके बिना वाणी शोभा नहीं पाती, मद-मोहको छोड़, विचारकर देखो। हे देवताओंके शत्रु) सब गहनोंसे सजी हुई सुन्दरी स्त्री भी कपड़ोंके बिना (नंगी) शोभा नहीं पाती॥ २॥ राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥ सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥ ३॥ रामविमुख पुरुषकी सम्पत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पानेके समान है। जिन नदियोंके मूलमें कोई जलख्रोत नहीं है (अर्थात्‌ जिन्हें केबल बरसातका ही आसरा है) वे वर्षा बीत जानेपर फिर तुरंत ही सूख जाती हैं॥३॥ सुनु दसकंठ कहडँ पन रोपी। बिसुख राम त्राता नहिं कोपी॥ संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥४॥ हे रावण! सुनो, मैं प्रतिज्ञा ककके कहता हूँ कि रामविमुखकी रक्षा करनेवाला कोई भी नहीं है। हजारों शंकर, विष्णु और ब्रह्मा भी श्रीरामजीके साथ द्रोह करनेवाले तुमको नहीं बचा सकते॥ ४॥ [दोहा २३] मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान। भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥ २३॥ मोह ही जिसका मूल है ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देनेवाले, तमरूप अभिमानका त्याग कर दो और रघुकुलके स्वामी, कृपाके समुद्र भगवान्‌ श्रीरामचन्द्रजीका भजन करो॥ २३॥ जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥ बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥१२॥ यद्यपि हनुमानूजीने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीतिसे सनी हुई बहुत ही हितकी वाणी कही, तो भी वह महान्‌ अभिमानी रावण बहुत हँसकर (व्यंगसे) बोला कि हमें यह बंदर बड़ा ज्ञानी गुरु मिला!॥ १॥ मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही॥ उलटा होइहि. कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥२॥ रे दुष्ट! तेरी मृत्यु निकट आ गयी है। अधम! मुझे शिक्षा देने चला है। हनुमानूजीने कहा--इससे उलटा ही होगा (अर्थात्‌ मृत्यु तेरी निकट आयी है, मेरी नहीं)। यह तेरा मतिश्रम (बुद्धिका फेर) है, मैंने प्रत्यक्ष जान लिया है॥२॥ सुनि कपि बचन बहुत स्विसिआना। वेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना॥ सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥ ३॥ हनुमानूजीके वचन सुनकर वह बहुत ही कुपित हो गया [और बोला--] अरे! इस मूर्खका प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते? सुनते ही राक्षस उन्हें मारने दौड़े। उसी समय मन्त्रियोंके साथ विभीषणजी वहाँ आ पहुँचे॥३॥ नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता॥ आन दंड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥४॥ उन्होंने सिर नवाकर और बहुत विनय करके रावणसे कहा कि दूतको मारना नहीं चाहिये, यह नीतिके विरुद्ध है। हे गोसाई! कोई दूसरा दण्ड दिया जाय। सबने कहा-भाई! यह सलाह उत्तम है॥ ४॥ सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठडइअ बंदर॥५॥ यह सुनते ही रावण हँसकर बोला--अच्छा तो, बंदरको अंग-भंग करके भेज (लौटा) दिया जाय॥५॥ [दोहा २४ ] कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहऊँ समुझाइ। तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ॥२४॥ मैं सबको समझाकर कहता हूँ कि बंदरकी ममता पूँछपर होती है। अतः तेलमें कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूँछमें बाँधकर फिर आग लगा दो॥ २४॥ पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥ जिनन्‍ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई। देखऊँ मैं तिनह कै प्रभुताई॥१॥ जब बिना पूँछका यह बंदर वहाँ (अपने स्वामीके पास) जायगा, तब यह मूर्ख अपने मालिकको साथ ले आयेगा। जिनकी इसने बहुत बड़ाई की है, मैं जरा उनकी प्रभुता (सामर्थ्य) तो देखूँ।॥ १॥ बचन सुनत कपि मन मसुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना॥ जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥२॥ यह वचन सुनते ही हनुमानजी मनमें मुसकराये [और मन-ही-मन बोले कि] मैं जान गया, सरस्वतीजी [इसे ऐसी बुद्धि देनेमें] सहायक हुई हैं। रावणके वचन सुनकर मूर्ख राक्षस वही (पूँछमें आग लगानेकी) तैयारी करने लगे॥२॥ रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूछ कीन्ह कपि खेला॥ कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहें चरन करहिं बहु हाँसी॥ ३॥ [पूँछके लपेटनेमें इतना कपड़ा और घी-तेल लगा कि] नगरमें कपड़ा, घी और तेल नहीं रह गया। हनुमान्‌जीने ऐसा खेल किया कि पूँछ बढ़ गयी (लंबी हो गयी) | नगरवासी लोग तमाशा देखने आये। वे हनुमान्‌जीकों पैरसे ठोकर मारते हैं और उनकी बहुत हँसी करते हैं॥३॥ बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥ पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघुरूप तुरंता॥ ४॥ ढोल बजते हैं, सब लोग तालियाँ पीटते हैं। हनुमान्‌जीको नगरमें फिराकर, फिर पूँछमें आग लगा दी। अग्निके जलते हुए देखकर हनुमानजी तुरंत ही बहुत छोटे रूपमें हो गये॥ ४॥ निबुकि चढ़ेठ कपि कनक अटारीं। भई सभीत निसाचर नारीं॥५॥ बन्धनसे निकलकर वे सोनेकी अटारियोंपर जा चढ़े। उनको देखकर राक्षसोंकी स्त्रियाँ भयभीत हो गयीं॥५॥ [दोहा २५ ] हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरूत उनचास। अट्टटास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास॥२५॥ उस समय भगवान्‌की प्रेरणासे उनचासों पवन चलने लगे। हनुमानजी अट्टहास करके गर्जे और बढ़कर आकाशसे जा लगे॥ २५॥ देह बिसाल परम हरूआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥ जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥ १॥ देह बड़ी विशाल, परन्तु बहुत ही हलकी (फुर्तीली) है। वे दौड़कर एक महलसे दूसरे महलपर चढ़ जाते हैं। नगर जल रहा है, लोग बेहाल हो गये हैं। आगकी करोड़ों भयंकर लपटें झपट रही हैं॥१॥ तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा॥ हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई॥२॥ हाय बप्पा! हाय मैया! इस अवसरपर हमें कौन बचावेगा? [चारों ओर] यही पुकार सुनायी पड़ रही है। हमने तो पहले ही कहा था कि यह वानर नहीं है, वानरका रूप धरे कोई देवता है॥२॥ साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥ जारा नगरू निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाही॥३॥ साधुके अपमानका यह फल है कि नगर अनाथके नगरकी तरह जल रहा है। हनुमानूजीने एक ही क्षणमें सारा नगर जला डाला। एक विभीषणका घर नहीं जलाया॥ ३॥ ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥ उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥ ४॥ [शिवजी कहते हैं--] हे पार्वती! जिन्होंने अग्निको बनाया, हनुमानजी उन्हींके दूत हैं। इसी कारण वे अग्निसे नहीं जले। हनुमानूजीने उलट-पलटकर (एक ओरसे दूसरी ओरतक) सारी लंकाजला दी। फिर वे समुद्रमें कूद पड़े॥४॥ [दोहा २६ ] पूँछ बुझाइ खोड श्रम धरि लघु रूप बहोरि। जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥२६॥ पूँछ बुझाकर, थकावट दूर करके और फिर छोटा-सा रूप धारण कर हनुमानजी श्रीजानकीजीके सामने हाथ जोड़कर डे जा खड़े हुए॥ २६॥ मातु मोहि दीजे कछ चीन्‍न्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥ चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥ १॥ [हनुमानूजीने कहा--] हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिये, जैसे श्रीरघुनाथजीने मुझे दिया था। तब सीताजीने चूड़ामणि उतारकर दी। हनुमान्‌जीने उसको हर्षपूर्वक ले लिया॥ १॥ कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥ दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी॥२॥ [जानकीजीने कहा--] हे तात! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना-हे प्रभु! यद्यपि आप सब प्रकारसे पूर्णकाम हैं (आपको किसी प्रकारकी कामना नहीं है), तथापि दीनों (दुःखियों)-पर दया करना आपका विरद है [और मैं दीन हूँ] अतः उस विरदको याद करके, हे नाथ! मेरे भारी संकटको दूर कीजिये॥ २॥ तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥ मास दिवस महूँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥३॥ हे तात! इन्द्रपुत्र जयन्तकी कथा (घटना) सुनाना और प्रभुको उनके बाणका प्रताप समझाना [स्मरण कराना]। यदि महीनेभरमें नाथ न आये तो फिर मुझे जीती न पायेंगे॥ ३॥ कहु कपि केहि बिधि राखोौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना॥ तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोडइ दिनु सो राती॥ ४॥ हे हनुमान्‌! कहो, मैं किस प्रकार प्राण रखूँ! हे तात! तुम भी अब जानेको कह रहे हो। तुमको देखकर छाती ठंडी हुई थी। फिर मुझे वही दिन और वही रात !॥ ४॥ [दोहा २७] जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह। चरन कमल सिर नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥ हनुमानूजीने जानकीजीको समझाकर बहुत प्रकारसे धीरज दिया और उनके चरणकमलोंमें सिर नवाकर श्रीरामजीके पास गमन किया॥ २७॥ चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥ नाधि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥ १॥ चलते समय उन्होंने महाध्वनिसे भारी गर्जन किया, जिसे सुनकर राक्षसोंकी स्त्रियोंके गर्भ गिरने लगे। समुद्र लाँघकर वे इस पार आये और उन्होंने वानरोंको किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सुनाया॥ १॥ हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥ मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥ २॥ हनुमान् जीको देखकर सब हर्षित हो गये और तब वानरोंने अपना नया जन्म समझा। हनुमानूजीका मुख प्रसन्न है और शरीरमें तेज विराजमान है, [जिससे उन्होंने समझ लिया कि] ये श्रीरामचन्द्रजीका कार्य कर आये हैं॥२॥ मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी॥ चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछठतः कहत नवल इतिहासा॥ ३॥ सब हनुमानूजीसे मिले और बहुत ही सुखी हुए, जैसे तड़पती हुई मछलीको जल मिल गया हो। सब हर्षित होकर नये-नये इतिहास (वृत्तान्त) पूछते-कहते हुए श्रीरघुनाथजीके पास चले॥ ३॥ तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए॥ रखवारे जब बरजन लागे। सुष्टि प्रहारा हनत सब भागे॥ ४॥ तब सब लोग मधुवनके भीतर आये और अंगदकी सम्मतिसे सबने मधुर फल [या मधु और फल] खाये। जब रखवाले बरजने लगे, तब घूँसोंकी मार मारते ही सब रखवाले भाग छूटे ॥ ४॥ [दोहा २८] जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज। सुनि सुग्रीव हरष कपषि करि आए. प्रभु काज॥ उन सबने जाकर पुकारा कि युवराज अंगद वन उजाड़ रहे हैं। यह सुनकर सुग्रीव हर्षित हुए कि वानर प्रभुका कार्य कर आये हैं॥ २८॥ जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥ एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥१॥ यदि सीताजीकी खबर न पायी होती तो क्‍या वे मधुवनके फल खा सकते थे? इस प्रकार राजा सुग्रीव मनमें विचार कर ही रहे थे कि समाजसहित वानर आ गये॥ १॥ आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥ पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥२॥ सबने आकर सुग्रीवके चरणोंमें सिर नवाया। कपिराज सुग्रीव सभीसे बड़े प्रेमके साथ मिले। उन्होंने कुशल पूछी, [तब वानरोंने उत्तर दिया--] आपके चरणोंके दर्शनसे सब कुशल है। श्रीरमजीकी कृपासे विशेष कार्य हुआ (कार्यमें विशेष सफलता हुई है) ॥ २॥ नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥ सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥ ३॥ हे नाथ! हनुमानने ही सब कार्य किया और सब वानरोंके प्राण बचा लिये। यह सुनकर सुग्रीवजी हनुमानूजीसे फिर मिले और सब वानरोंसमेत श्रीरघुनाथजीके पास चले॥३॥ राम कपिन्ई जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥ फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥४॥ श्रीरामजीने जब वानरोंको कार्य किये हुए आते देखा तब उनके मनमें विशेष हर्ष हुआ। दोनों भाई स्फटिक शिलापर बैठे थे। सब वानर जाकर उनके चरणोंपर गिर पड़े॥४॥ [दोहा २९] प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज। पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज॥ दयाकी राशि श्रीरघुनाथजी सबसे प्रेमसहित गले लगकर मिले और कुशल पूछी। [वानरोंने कहा--] हे नाथ! आपके चरणकमलोंके दर्शन पानेसे अब कुशल है॥ २९॥ जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥ ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥१२॥ जाम्बवानने कहा-हे रघुनाथजी! सुनिये। हे नाथ! जिसपर आप दया करते हैं, उसे सदा कल्याण और निरन्तर कुशल है। देवता, मनुष्य और मुनि सभी उसपर प्रसन्न रहते हैं॥१॥ सोड बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥ प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू॥ २॥ वही विजयी है, वही विनयी है और वही गुणोंका समुद्र बन जाता है। उसीका सुन्दर यश तीनों लोकोंमें प्रकाशित होता है। प्रभुकी कृपासे सब कार्य हुआ। आज हमारा जन्म सफल हो गया॥ २॥ नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहूँ मुख न जाइ सो बरनी॥ पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥ ३॥ हे नाथ! पवनपुत्र हनुमानने जो करनी की, उसका हजार मुखोंसे भी वर्णन नहीं किया जा सकता। तब जाम्बवानने हनुमानूजीके सुन्दर चरित्र (कार्य) श्रीरघुनाथजीको सुनाये॥ ३॥ सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियेँ लाए॥ कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥ ४॥ [वे चरित्र] सुननेपर कृपानिधि श्रीरामचन्द्रजीके मनको बहुत ही अच्छे लगे। उन्होंने हर्षित होकर हनुमानूजीको फिर हृदयसे लगा लिया और कहा-हे तात! कहो, सीता किस प्रकार रहती और अपने प्राणोंकी रक्षा करती हैं ?॥ ४॥ [दोहा ३०] नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥ (हनुमानूजीने कहा--) आपका नाम रात-दिन पहरा देनेवाला है, आपका ध्यान ही किंवाड़ है। नेत्रोंको अपने चरणोंमें लगाये रहती हैं, यही ताला लगा है; फिर प्राण जायँ तो किस मार्गसे॥३०॥ चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥ नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥१॥ चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि [उतारकर] दी। श्रीरघुनाथजीने उसे लेकर हृदयसे लगा लिया। [हनुमानूजीने फिर कहा--] हे नाथ! दोनों नेत्रोंमें जल भरकर जानकीजीने मुझसे कुछ वचन कहे--॥१॥ अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना॥ मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हों त्यागी॥२॥ छोटे भाईसमेत प्रभुके चरण पकड़ना [और कहना कि] आप दीनबन्धु हैं, शरणागतके दुःखोंको हरनेवाले हैं और मैं मन, कर्म और वचनसे आपके चरणोंकी अनुरागिणी हूँ। फिर स्वामी (आप)-ने मुझे किस अपराधसे त्याग दिया?॥२॥ अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥ नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥३॥ [हाँ] एक दोष मैं अपना [अवश्य] मानती हूँ कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गये। किन्तु हे नाथ! यह तो नेत्रोंका अपराध है जो प्राणोंके निकलनेमें हठपूर्वक बाधा देते हैं॥३॥ बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥ 'नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी॥४॥ विरह अग्नि है, शरीर रूई है और श्वास पवन है; इस प्रकार [अग्नि और पवनका संयोग होनेसे] यह शरीर क्षणमात्रमें जल सकता है। परन्तु नेत्र अपने हितके लिये (प्रभुका स्वरूप देखकर सुखी होनेके लिये) जल (आँसू) बरसाते हैं, जिससे विरहकी आगसे भी देह जलने नहीं पाती॥४॥ सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥ ५॥ सीताजीकी विपत्ति बहुत बड़ी है। हे दीनदयालु! वह बिना कही ही अच्छी है (कहनेसे आपको बड़ा क्लेश होगा)॥५॥ [दोहा ३१] निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति। बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति॥ हे करुणानिधान! उनका एक-एक पल कल्पके समान बीतता है। अतः हे प्रभु! तुरंत चलिये और अपनी भुजाओंके बलसे दुष्टोंके दलको जीतकर सीताजीको ले आइये॥३१॥ सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥ बचन काये मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥ १॥ सीताजीका दुःख सुनकर सुखके धाम प्रभुके कमलनेत्रोंमें जल भर आया [और वे बोले--] मन, शरीर और वचनसे जिसे मेरी ही गति (मेरा ही आश्रय) है, उसे क्या स्वप्रमें भी विपत्ति हो सकती है?॥१॥ कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई॥ केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥ २॥ हनुमानूजीने कहा-हे प्रभो! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन-स्मरण न हो। हे प्रभो! राक्षसोंकी बात ही कितनी है? आप शत्रुकों जीतकर जानकीजीको ले आवेंगे॥२॥ सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउठ सुर नर मुनि तनुधारी॥ प्रति उपकार करों का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥ ३॥ [भगवान्‌ कहने लगे--] हे हनुमान्‌! सुन; तेरे समान मेरा उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है। मैं तेरा प्रत्युपकार (बदलेमें उपकार) तो क्‍या करूँ, मेरा मन भी तेरे सामने नहीं हो सकता॥३॥ सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेलँ करि बिचार मन माहीं॥ पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता॥ ४॥ हे पुत्र! सुन; मैंने मनमें [खूब] विचार करके देख लिया कि मैं तुझसे उऋण नहीं हो सकता। देवताओंके रक्षक प्रभु बार-बार हनुमानूजीको देख रहे हैं। नेत्रोंमें प्रेमाशुओंका जल भरा है और शरीर अत्यन्त पुलकित है॥४॥ [दोहा ३२] सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत। चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥ प्रभुके वचन सुनकर और उनके [प्रसन्न] मुख तथा [पुलकित] अंगोंको देखकर हनुमानजी हर्षित हो गये और प्रेममें विकल होकर 'हे भगवन्‌! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो' कहते हुए श्रीरामजीके चरणोंमें गिर पड़े॥३२॥ बार बार प्रभु चहड उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥ प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥ १॥ प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परन्तु प्रेममें डूबे हुए हनुमानूजीको चरणोंसे उठना सुहाता नहीं। प्रभुका कर-कमल हनुमानूजीके सिरपर है। उस स्थितिका स्मरण करके शिवजी प्रेममग्न हो गये॥१॥ सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥ कपि उठाइ प्रभु हृदय लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥ २॥ फिर मनको सावधान करके शंकरजी अत्यन्त सुन्दर कथा कहने लगे--हनुमानूजीको उठाकर प्रभुने हृदयसे लगाया और हाथ पकड़कर अत्यन्त निकट बैठा लिया॥२॥ कहु॒कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥ प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥ ३॥ हे हनुमान्‌! बताओ तो, रावणके द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बड़े बाँके किलेको तुमने किस तरह जलाया? हनुमानूजीने प्रभुको प्रसन्न जाना और वे अभिमानरहित वचन बोले--॥३॥ साखामृग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥ नाधि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥ ४॥ बंदरका बस, यही बड़ा पुरुषार्थ है कि वह एक डालसे दूसरी डालपर चला जाता है। मैंने जो समुद्र लाँघकर सोनेका नगर जलाया और राक्षसगणको मारकर अशोकवनको उजाड़ डाला,॥४॥ सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥५॥ यह सब तो हे श्रीरघुनाथजी! आपहीका प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता (बड़ाई) कुछ भी नहीं है॥५॥ [दोहा ३३] ता कहूँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल। तब प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल॥ हे प्रभु! जिसपर आप प्रसन्न हों, उसके लिये कुछ भी कठिन नहीं है। आपके प्रभावसे रूई [जो स्वयं बहुत जल्दी जल जानेवाली वस्तु है] बड़वानलको निश्चय ही जला सकती है (अर्थात्‌ असम्भव भी सम्भव हो सकता है)॥३३॥ नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥ सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेड भवानी॥ १॥ हे नाथ! मुझे अत्यन्त सुख देनेवाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिये॥हनुमान्‌जीकी अत्यन्त सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहा॥ १॥ उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥ यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोड पावा॥ २॥ हे उमा! जिसने श्रीरामजीका स्वभाव जान लिया, उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नहीं सुहाती! यह स्वामी-सेवकका संवाद जिसके हृदयमें आ गया, वही श्रीरघुनाथजीके चरणोंकी भक्ति पा गया॥२॥ सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबुंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥ तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलें कर करहु बनावा॥ ३॥ प्रभुके वचन सुनकर वानरगण कहने लगे--कृपालु आनन्दकन्द श्रीरामजीकी जय हो, जय हो, जय हो! तब श्रीरघुनाथजीने कपिराज सुग्रीवको बुलाया और कहा--चलनेकी तैयारी करो॥३॥ अब बिलंबु केहि कारन कीजे। तुरत कपिन्ह कहूँ आयसु दीजे॥ कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी॥ ४॥ अब विलम्ब किस कारण किया जाय? वानरोंको तुरंत आज्ञा दो। [भगवान्‌की] यह लीला (रावणवधकी तैयारी) देखकर, बहुत-से फूल बरसाकर और हर्षित होकर देवता आकाशसे अपने-अपने लोकको चले॥४॥ [दोहा ३४] कपिपति बेगि बोलाएं आए जूथप जूथ। नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥ ३४॥ वानरराज सुग्रीव ने शीघ्र ही वानरों को बुलाया, सेनापतियों के समूह आ गए। वानर-भालुओं के झुंड अनेक रंगों के हैं और उनमें अतुलनीय बल है॥ ३४॥ प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥ देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥१॥ वे प्रभु के चरणकमलों में सिर नवाते हैं। महान्‌ बलवान्‌ रीछ और वानर गरज रहे हैं। श्रीरामजी ने वानरों की सारी सेना देखी तब कमलनयन श्रीराम ने कृपापूर्वक उनकी ओर दृष्टि डाली॥१॥ राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥ हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥२॥ रामकृपा का बल पाकर श्रेष्ठ वानर मानो पंखवाले बड़े पर्वत हो गए। तब श्रीरामजी ने हर्षित होकर प्रस्थान (कूच) किया। अनेक सुंदर और शुभ शकुन हुए॥२॥ जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती॥ प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥३॥ जिनकी कीर्ति सब मंगलों से पूर्ण है, उनके प्रस्थान के समय शकुन होना, यह नीति है (लीला की मर्यादा है)। प्रभु का प्रस्थान जानकीजी ने भी जान लिया। उनके बाएँ अँग फड़क-फड़ककर मानो कह रहे थे [कि श्रीरामजी आ रहे हैं]॥३॥ जोइ जोड़ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहि सोई॥ चला कटकु को बरनें पारा। गर्जहिं बानर भालु अपारा॥४॥ जानकीजी को जो-जो शकुन होते थे, वही-वही रावण के लिए अपशकुन हुए। सेना चली, उसका वर्णन कौन कर सकता है? असंख्य वानर और भालू गर्जना कर रहे हैं॥४॥ नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी॥ केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्ररहीं॥५॥ नख ही जिनके शस्त्र हैं, वे इच्छानुसार (सर्वत्र बेरोक-टोक) चलनेवाले रीछ-वानर पर्वतों और वृक्षों को धारण किये कोई आकाशमार्ग से और कोई पृथ्वी पर चले जा रहे हैं। वे सिंह के समान गर्जना कर रहे हैं। [उनके चलने और गरजने से] दिशाओं के हाथी विचलित होकर चिग्घाड़ रहे हैं॥५॥ [छन्द १] चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे। मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किनर दुख टरे॥ कटकटरहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं। जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥ दिशाओं के हाथी चिग्घाड़ने लगे, पृथ्वी डोलने लगी, पर्वत चञ्चल हो गए (काँपने लगे) और समुद्र खलबला उठे। गन्धर्व, देवता, मुनि, नाग, किन्नर सब-के-सब मन में हर्षित हुए कि अब] हमारे दुःख टल गए। अनेकों करोड़ भयानक वानर योद्धा कटकटा रहे हैं और करोड़ों ही दौड़ रहे हैं। 'प्रबल प्रताप 'कोसलनाथ श्रीरामचन्द्रजी की जय हो ' ऐसा पुकारते हुए वे उनके गुणसमूहों को गा रहे हैं॥ १॥ [छन्द २] सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई। गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥ रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी। जनु कमठ खर्पर सर्पगाज सो लिखत अबिचल पावनी॥ उदार (परम श्रेष्ठ एवं महान्‌) सर्पराज शेषजी भी सेना का बोझ नहीं सह सकते, वे बार-बार मोहित हो जाते (घबड़ा जाते) हैं और पुनः-पुनः कच्छप की कठोर पीठ को दाँतों से पकड़ते हैं। ऐसा करते (अर्थात्‌ बार-बार दाँतों को गड़ाकर कच्छप की पीठ पर लकीर-सी खींचते हुए) वे कैसे शोभा दे रहे हैं मानो श्रीरामचन्द्रजी की सुन्दर प्रस्थान यात्रा को परम सुहावनी जानकर उसकी अचल पवित्र कथा को सर्पराज शेषजी 'कच्छप की पीठ पर लिख रहे हों॥२॥ [दोहा ३५] एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर। जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥ ३५॥ इस प्रकार कृपानिधान श्रीरामजी समुद्रतट पर जा उतरे। अनेकों रीछ-वानर वीर जहाँ-तहाँ फल खाने लगे॥ ३५॥ उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब तें जारि गयउ कपि लंका॥ निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥१॥ वहाँ (लंका में) जबसे हनुमानजी लंका को जलाकर गए, तबसे राक्षस भयभीत रहने लगे। अपने-अपने घरों में सब विचार करते हैं कि अब राक्षसकुल की रक्षा [-का कोई उपाय] नहीं है॥१॥ जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥ दूतिनह सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी॥२॥ जिसके दूत का बल वर्णन नहीं किया जा सकता, उसके स्वयं नगर में आने पर कौन भलाई है (हम लोगों की बड़ी बुरी दशा होगी)? दूतियों से नगरवासियों के वचन सुनकर मंदोदरी बहुत ही व्याकुल हो गई॥२॥ रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥ कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियेँ धरहू॥३॥ वह एकांत में हाथ जोड़कर पति (रावण)-के चरणों लगी और नीति रस में पगी हुई वाणी बोली-हे प्रियतम! श्रीहरि से विरोध छोड़ दीजिये। मेरे कहने को अत्यंत ही हितकर जानकर हृदय में धारण कीजिये॥३॥ समुझत जासु दूत कइ्ट करनी। स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥ तासु नारिनिज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥४॥ जिनके दूत की करनी का विचार करते ही (स्मरण आते ही) राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं, हे प्यारे स्वामी! यदि भला चाहते हैं, तो अपने मंत्रियों को बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिये॥४॥ तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई॥ सुनहु नाथ सीता बिनु दील्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥५॥ सीता आपके कुलरूपी कमलों के वन को दुःख देनेवाली जाड़े की रात्रि के समान आई है। हे नाथ! सुनिये, सीता को दिये (लौटाये) बिना शम्भु और ब्रह्मा के किये भी आपका भला नहीं हो सकता॥५॥ [दोहा ३६] राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक। जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक॥ ३६॥ श्रीरामजी के बाण सर्पों के समूह के समान हैं और राक्षसों के समूह मेढक के समान। जब तक वे इन्हें ग्रस नहीं लेते (निगल नहीं जाते) तब तक हठ छोड़कर उपाय कर लीजिये॥ ३६॥ श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥ सभय सुभाउठ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा॥१॥ मूर्ख और जगत्प्रसिद्ध अभिमानी रावण कानों से उसकी वाणी सुनकर खूब हँसा [और बोला--] स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत डरपोक होता है। मंगल में भी भय करती हो! तुम्हारा मन (हृदय) बहुत ही कच्चा (कमजोर) है॥१॥ जौ आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥ कंपहि लोकप जाकीं त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥२॥ यदि वानरों की सेना आएगी तो बेचारे राक्षस उसे खाकर अपना जीवननिर्वाह करेंगे। लोकपाल भी जिसके डर से काँपते हैं, उसकी स्त्री डरती हो, यह बड़ी हँसी की बात है॥२॥ अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभा ममता अधिकाई॥ मंदोदरी हृदयँ कर चिंता। भयड कंत पर बिधि बिपरीता॥३॥ रावण ने ऐसा कहकर हँसकर उसे हृदय से लगा लिया और ममता बढ़ाकर (अधिक स्नेह दर्शाकर) वह सभा में चला गया। मंदोदरी हृदय में चिंता करने लगी कि पति पर विधाता प्रतिकूल हो गए॥३॥ बैठेठ सभाँ खबरि असि पाई। सिंधु पार सेना सब आई॥ बूझेसि सचिचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्टठ करि रहहू॥४॥ ज्यों ही वह सभा में जाकर बैठा, उसने ऐसी खबर पाई कि शत्रु की सारी सेना समुद्र के उस पार आ गई है। उसने मंत्रियों से पूछा कि उचित सलाह कहिये [अब क्या करना चाहिये?] तब वे सब हँसे और बोले कि चुप किये रहिये (इसमें सलाह की कौन-सी बात है?)॥४॥ जितेहु सुरासुरु तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माहीं॥५॥ आपने देवताओं और राक्षसों को जीत लिया, तब तो कुछ श्रम ही नहीं हुआ। फिर मनुष्य और वानर किस गिनती में हैं?॥५॥ [दोहा ३७] सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस। राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥ ३७॥ मंत्री, वैद्य और गुरु-ये तीन यदि [अप्रसन्नता के] भय या [लाभ की] आशा से [हित की बात न कहकर] प्रिय बोलते हैं (ठकुरसुहाती कहने लगते हैं); तो [क्रमशः] राज्य, शरीर और धर्म-इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है॥ ३७॥ [दोहा ३९] सोइ रावन कहुँ बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥ अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥१॥ रावण के लिये भी वही सहायता (संयोग) आ बनी है। मंत्री उसे सुना-सुनाकर (मुँह पर) स्तुति करते हैं। [इसी समय] अवसर जानकर विभीषणजी आये। उन्होंने बड़े भाई के चरणों में सिर नवाया॥ १॥ पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाहइ अनुसासन॥ जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥२॥ फिर वे सिर नवाकर अपने आसन पर बैठ गये और आज्ञा पाकर ये वचन बोले--हे कृपालु ! जब आपने मुझसे बात (राय) पूछी ही है तो हे तात! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपके हित की बात कहता हूँ--॥ २॥ जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥ सो परनारि लिलार गोसाई। तजउ चउथि के चंद कि नाई॥३॥ जो मनुष्य अपना कल्याण, सुन्दर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के सुख चाहता हो, वह हठे स्वामी ! परस्त्री के ललाट को चौथ के चन्द्रमा की तरह त्याग दे ( अर्थात्‌ जैसे लोग चौथ के चन्द्रमा को नहीं देखते, उसी प्रकार परस्त्री का मुख ही न देखे) ॥ ३॥ चहह भुवन एक पति होई। भूत द्रोह तिष्टह नहिं सोई॥ गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥४॥ चौदहों भुवनों का एक ही स्वामी हो, वह भी जीवों से वैर करके ठहर नहीं सकता (नष्ट हो जाता है)। जो मनुष्य गुणों का समुद्र और चतुर हो, उसे चाहे थोड़ा भी लोभ क्यों न हो, तो भी कोई भला नहीं कहता॥ ४॥ [दोहा ३८] काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ। सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥ ३८॥ हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ--ये सब नरक के रास्ते हैं। इन सबको छोड़कर श्रीरामचन्द्रजी को भजिये, जिन्हें संत (सत्पुरुष) भजते हैं॥ ३८॥ तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥ बहा अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥ १॥ हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे [सम्पूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भण्डार] भगवान्‌ हैं; वे निगमय (विकाररहित), अजन्मा, व्यापक, अजेय, अनादि और अनन्त ब्रह्म हैं॥१॥ गो द्विज थेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥ जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥ २॥ उन कृपा के समुद्र भगवान ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गौ और देवताओं का हित करने के लिये ही मनुष्य-शरीर धारण किया है। हे भाई! सुनिये, वे सेवकों को आनन्द देने वाले, दुष्टों के समूह का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं॥२॥ ताहि बयरू तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥ देहु नाथ प्रभु कहूँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥ ३॥ बैर त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइये। वे श्रीरघुनाथजी शरणागत का दुःख नाश करने वाले हैं। हे नाथ! उन प्रभु (सर्वेश्वर)-को जानकीजी दे दीजिये और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्रीरामजी को भजिये॥ ३॥ सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥ जासू नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियेँ रावन॥ ४॥ जिसे सम्पूर्ण जगत से द्रोह करने का पाप लगा है, शरण जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते। जिनका नाम तीनों तापों का नाश करने वाला है, वे ही प्रभु (भगवान्‌) मनुष्यरूप में प्रकट हुए हैं। हे रावण! हृदय में यह समझ लीजिये॥ ४॥ [दोहा ३९ (क)]. बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस। परिहरि मान मोह मंद भजहु कोसलाधीस॥ हे दशशीश! मैं बार-बार आपके चरणों लगता हूँ और विनती करता हूँ कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपति श्रीरामजी का भजन कीजिये ॥ ३९ (क) ॥ [दोहा ३९ (ख)] मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात। तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरू तात॥ मुनि पुलस्त्यजी ने अपने शिष्य के हाथ यह बात कहला भेजी है। हे तात! सुन्दर अवसर पाकर मैंने तुरंत ही वह बात प्रभु (आप)-से कह दी॥ ३९ (ख)॥ माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना॥ तात अनुज तब नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥ १॥ माल्यवान्‌ नाम का एक बहुत ही बुद्धिमान्‌ मंत्री था। उसने उन (विभीषण)-के वचन सुनकर बहुत सुख माना [और कहा--] हे तात! आपके छोटे भाई नीति-विभूषण (नीति को भूषण रूप में धारण करने वाले अर्थात्‌ नीतिमान्‌) हैं। विभीषण जो कुछ कह रहे हैं उसे हृदय में धारण कर लीजिये॥ १॥ रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ हह कोऊ॥ माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहउ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥२॥ रावण ने कहा--] ये दोनों मूर्ख शत्रु की महिमा बखान रहे हैं। यहाँ कोई है ? इन्हें दूर करो न! तब माल्यवान्‌ तो घर लौट गया और विभीषणजी हाथ जोड़कर फिर कहने लगे--॥ २॥ सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥ जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥३॥ हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती हैं, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की सम्पदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है, वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥ ३ ॥ तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥ कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥४॥ आपके हृदय में उलटी बुद्धि आ बसी है। इसीसे आप हित को अहित और शत्रु को मित्र मान रहे हैं। जो राक्षस कुल के लिये कालरात्रि [-के समान] हैं, उन सीता पर आपकी बड़ी प्रीति है॥ ४॥ [ दोहा ४० ] तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार। सीता देहु राम कहूँ अहित न होइ तुम्हार॥ ४०॥ हे तात! मैं चरण पकड़कर आपसे भीख माँगता हूँ कि आप मेरा दुलार रखिये। श्रीरामजी को सीताजी दे दीजिये, जिसमें आपका अहित न हो ।I ४०II बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी॥ सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहि निकट मृत्यु अब आई॥१॥ विभीषण ने विद्वानों, पुराणों और वेदों द्वारा अनुमोदित वाणी से नीति को बताते हुए कहा। इसे सुनते ही रावण क्रोधित होकर उठ खड़ा हुआ और बोला कि दुष्ट, अब तेरे निकट मृत्यु आ गई है! जिअसि सदा सठ मोर जिआवबा। रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा॥ कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥२॥ रे मूर्ख, तू सदा मेरे अन्न से पलता है, पर हे मूढ़, तुझे शत्रु का ही पक्ष अच्छा लगता है। रे दुष्ट, बता तो सही, जगत में ऐसा कौन है जिसे मैंने अपनी भुजाओं के बल से नहीं जीता? मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥ अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा॥३॥ मेरे नगर में रहकर तपस्वियों पर प्रेम करता है। मूर्ख, उन्हीं के पास जा और उन्हीं को नीति बता। ऐसा कहकर रावण ने उसे लात मारी। परन्तु छोटे भाई विभीषण ने बार-बार उसके चरण ही पकड़े। उमा संत कह इहडइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥ तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥४॥ [शिवजी कहते हैं] हे उमा, संत की यही बड़ाई है कि वे बुराई करने पर भी भलाई ही करते हैं। [विभीषण ने कहा] आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा सो तो अच्छा ही किया; परन्तु हे नाथ, आपका भला श्रीरामजी को भजने में ही है। सचिव संग ले नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥ ५॥ इतना कहकर विभीषण अपने मंत्रियों को साथ लेकर आकाश मार्ग में चले गए और सबको सुनाकर वे ऐसा कहने लगे। [ दोहा ४१ ] रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि। मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि॥४१॥ श्रीरामजी सत्यसंकल्प एवं सर्वसमर्थ प्रभु हैं और तुम्हारी सभा काल के वश है। अतः मैं अब श्रीरघुवीर की शरण जाता हूँ, मुझे दोष न देना। अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयू हीन भए सब तबहीं॥ साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥१॥ ऐसा कहकर विभीषण जी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। [शिवजी कहते हैं] हे भवानी, साधु का अपमान तुरंत ही सम्पूर्ण कल्याण की हानि कर देता है। रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥ चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं॥ २॥ रावण ने जिस क्षण विभीषण को त्यागा, उसी क्षण वह अभागा वैभव से हीन हो गया। विभीषण जी हर्षित होकर मन में अनेकों मनोरथ करते हुए श्रीरघुनाथ जी के पास चले। देखिहै जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥ जे पद परसि तरी रिषिनारी। दंडक कानन पावनकारी॥ ३॥ [वे सोचते जाते थे] मैं जाकर भगवान के कोमल और लाल वर्ण के सुंदर चरणकमलों के दर्शन करूंगा, जो सेवकों को सुख देने वाले हैं, जिन चरणों का स्पर्श पाकर ऋषिपत्नी अहल्या तर गईं और जो दंडक वन को पवित्र करने वाले हैं। जे पद जनकसुताँ उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए॥ हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य, मैं देखिहडें तेई॥४॥ जिन चरणों को जानकी जी ने हृदय में धारण कर रखा है, जो कपट मृग के साथ पृथ्वी पर दौड़े थे और जो चरणकमल साक्षात् शिवजी के हृदय रूपी सरोवर में विराजते हैं, मेरा अहोभाग्य है कि उन्हीं को आज मैं देखूंगा। [ दोहा ४२ ] जिनह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ। ते पद आजु बिलोकिहऊँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ॥ ४२॥ जिन चरणों की पादुकाओं में भरत जी ने अपना मन लगा रखा है, अहा! आज मैं उन्हीं चरणों को अभी जाकर इन नेत्रों से देखूंगा। एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा॥ कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउठ रिपु दूत बिसेषा॥ १॥ इस प्रकार प्रेम सहित विचार करते हुए वे शीघ्र ही समुद्र के इस पार (जिधर श्रीरामचन्द्र जी की सेना थी) आ गए। वानरों ने विभीषण को आते देखा तो उन्होंने जाना कि शत्रु का कोई खास दूत है। ताहि राखि कपीस पहिं. आए। समाचार सब ताहि. सुनाए॥ कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई॥२॥ उन्हें [पहरे पर] ठहराकर वे सुग्रीव के पास आए और उनको सब समाचार कह सुनाए। सुग्रीव ने [ श्रीराम जी के पास जाकर] कहा - हे रघुनाथ जी! सुनिए, रावण का भाई [आपसे] मिलने आया है। कह प्रभु सखा बूझिए काहा। कह कपीस सुनहु नरनाहा॥ जानि न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि. कारन आया॥ ३॥ प्रभु श्रीराम जी ने कहा - हे मित्र! तुम क्या समझते हो (तुम्हारी क्या राय है)? वानरराज सुग्रीव ने कहा - हे महाराज! सुनिए, राक्षसों की माया जानी नहीं जाती। यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला (छली) न जाने किस कारण आया है। भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥ सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी॥ ४॥ [जान पड़ता है] यह मूर्ख हमारा भेद लेने आया है। इसलिए मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इसे बाँध रखा जाए। [ श्रीराम जी ने कहा] हे मित्र! तुमने नीति तो अच्छी विचारी। परन्तु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना! सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना॥ ५॥ प्रभु के वचन सुनकर हनुमान जी हर्षित हुए [और मन ही मन कहने लगे कि] भगवान कैसे शरणागतवत्सल (शरण में आए हुए पर पिताजी के भाँति प्रेम करने वाले) हैं। [ दोहा ४३ ] सरनागत कहूँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि। ते नर पावर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥ ४३॥ [ श्रीराम जी फिर बोले] जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (शूद्र) हैं, पापमय हैं; उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है)। कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजडँ नहिं ताहू॥ सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥ १॥ जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव जैसे ही मेरे सम्मुख होता है, वैसे ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥ जौं पै दुष्ट हृदय सोड होई। मोरें सनमुख आव कि सोई॥२॥ पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदि वह (रावण का भाई) निश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था? निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥ भेद लेन पठवा दससीसा। तबहूँ न कछु भय हानि कपीसा॥ ३॥ जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-हिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है। जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥ जां सभीत आवा सरनाईं। रखिहउँ ताहि. प्रान की नाईं॥४॥ क्योंकि हे सखे! जगत में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं और यदि वह भयभीत होकर मेरे शरण आया है तो मैं उसे प्राणों की तरह रखूँगा। [ दोहा ४४ ] उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत। जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत॥ ४४॥ कृपा के धाम श्रीराम जी ने हँसकर कहा-दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ। तब अंगद और हनुमान समेत सुग्रीव जी 'कृपालु श्रीराम की जय हो' कहते हुए चले। सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥ दूरिहि ते देखे टद्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता॥१॥ विभीषणजीको आदरसहित आगे करके वानर फिर वहाँ चले, जहाँ करुणाकी खान श्रीरघुनाथजी थे। नेत्रोंको आनन्दका दान देनेवाले (अत्यन्त सुखद) दोनों भाइयोंको विभीषणजीने दूरहीसे देखा॥ १॥ बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥ भुज प्रलंब_ कंजारु। लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥ २॥ फिर शोभाके धाम श्रीरामजीको देखकर वे पलक [मारना] रोककर ठिठककर (स्तब्ध होकर) एकटक देखते ही रह गये। भगवान्‌की विशाल भुजाएँ हैं, लाल कमलके समान नेत्र हैं और शरणागतके भयका नाश करनेवाला साँवला शरीर है॥२॥ सिंघ कंध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा॥ नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता॥३॥ सिंहके-से कंधे हैं, विशाल वक्ष:स्थल (चौड़ी छाती) अत्यन्त शोभा दे रहा है। असंख्य कामदेवोंके मनको मोहित करनेवाला मुख है। भगवान्‌के स्वरूपको देखकर विभीषणजीके नेत्रोंमें [प्रेमाशुओंका] जल भर आया और शरीर अत्यन्त पुलकित हो गया। फिर मनमें धीरज धरकर उन्होंने कोमल वचन कहे ॥ ३॥ नाथ दसानन कर में श्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥ सहज पापप्रिय. तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा॥४॥ हे नाथ! मैं दशमुख रावणका भाई हूँ। हे देवताओंके रक्षक! मेरा जन्म राक्षसकुलमें हुआ है। मेरा तामसी शरीर है, स्वभावसे ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लको अन्धकारपर सहज स्त्रेह होता है ॥ ४॥ [ दोहा ४५ ] श्रवन सुजसु सुनि आयडँ प्रभु भंजन भव भीर। त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥ मैं कानोंसे आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव (जन्म-मरण) -के भयका नाश करनेवाले हैं। हे दु:खियोंके दुःख दूर करनेवाले और शरणागतको सुख देनेवाले श्रीरघुवीर! मेरीरक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये॥ ४५॥ अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥ दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥१॥ प्रभुने उन्हें ऐसा कहकर दण्डवत्‌ करते देखा तो वे अत्यन्त हर्षित होकर तुरंत उठे । विभीषणजीके दीन वचन सुननेपर प्रभुके मनको बहुत ही भाये। उन्होंने अपनी विशाल भुजाओंसे पकड़कर उनको हृदयसे लगा लिया ॥ १॥ अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी॥ कह लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥ २॥ छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित गले मिलकर उनको अपने पास बैठाकर श्रीरामजी भक्तोंक भयको हरनेवाले वचन बोले-हे लंकेश ! परिवारसहित अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निवास बुरी जगहपर है॥ २॥ खल मंडली बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥ मैं जानडँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती॥ ३॥ दिन-रात दुष्टोंकी मण्डलीमें बसते हो। [ऐसी दशामें] हे सखे ! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है? मैं तुम्हारी सब रीति (आचार-व्यवहार) जानता हूँ। तुम अत्यन्त नीतिनिपुण हो, तुम्हें अनीति नहीं सुहाती॥ ३॥ बरू भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देह बिधाता॥ अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥४॥ हे तात! नरकमें रहना वरं अच्छा है, परन्तु विधाता दुष्टका संग [कभी] न दे। [विभीषणजीने कहा--] हे रघुनाथजी ! अब आपके चरणोंका दर्शन कर कुशलसे हूँ, जो आपने अपना सेवक जानकर मुझपर दया की है॥४॥ [ दोहा ४६ ] तब लगि कुसल न जीव कहूँ सपनेहुँ मन बिश्राम। जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम॥ तबतक जीवकी कुशल नहीं और न स्वप्रमें भी उसके मनको शान्ति है, जबतक वह शोकके घर काम (विषय-कामना)-को छोड़कर श्रीरामजीको नहीं भजता॥ ४६॥ तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना॥ जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा॥ १॥ लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभीतक हृदयमें बसते हैं, जबतक कि धनुष-बाण और कमरमें तरकस धारण किये हुए श्रीरघुनाथजी हृदयमें नहीं बसते॥ १॥ ममता तरुन तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी॥ तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥२॥ ममता पूर्ण अँधेरी रात है, जो राग-द्वेषरूपी उल्लुओंको सुख देनेवाली है । वह (ममतारूपी रात्रि) तभीतक जीवके मनमें बसती है, जबतक प्रभु (आप) -का प्रतापरूपी सूर्य उदय नहीं होता॥ २॥ अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे॥ तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रेबिध भव सूला॥३॥ हे श्रीरामजी! आपके चरणारविन्दके दर्शन कर अब मैं कुशलसे हूँ, मेरे भारी भय मिट गये। हे कृपालु! आप जिसपर अनुकूल होते हैं, उसे तीनों प्रकारके भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदेविक और आधिभौतिक ताप) नहीं व्यापते॥ ३॥ मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥ जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा॥ ४॥ मैं अत्यन्त नीच स्वभावका राक्षस हूँ। मैंने कभी शुभ आचरण नहीं किया। जिनका रूप मुनियोंके भी ध्यानमें नहीं आता, उन प्रभुने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदयसे लगा लिया॥ ४॥ [ दोहा ४७ ] अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज। देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज॥ हे कृपा और सुखके पुझ् श्रीरामजी! मेरा अत्यन्त असीम सौभाग्य है, जो मैंने ब्रह्मा और शिवजीके द्वारा सेवित युगल चरणकमलोंको अपने नेत्रोंसे देखा॥ ४७॥ सुनहु सखा निज कहडऊँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥ जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवबै सभय सरन तकि मोही॥ १॥ [ श्रीरमजीने कहा--] हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य [सम्पूर्ण] जड-चेतन जगत्‌का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तककर आ जाय॥ १॥ तजि मद मोह कपट छल नाना। करखजँ सद्य तेहि साधु समाना॥ जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहद परिवारा॥ २॥ और मद, मोह तथा नाना प्रकारके छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधुके समान कर देता हूँ। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर और मित्र-परिवार॥ २॥ सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥ समदरसी इह भगति न चोरी। सर्वथा सुरन्ह सिध्ह मन जोरी॥ ३॥ इन सबके ममत्वरूपी तागोंको बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बटकर उसके द्वारा जो अपने मनको मेरे चरणोंमें बाँध देता है (सारे सांसारिक सम्बन्धोंका केन्द्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मनमें हर्ष, शोक और भय नहीं है॥३॥ अस सज्जन मम उर बस केसें। (error) लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥ तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरि देह नहिं आन निहोरें॥४॥ ऐसा सज्जन मेरे हृदयमें कैसे बसता है, जैसे लोभीके हृदयमें धन बसा करता है। तुम-सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं। मैं और किसीके निहोरेसे (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता॥ ४॥ [ दोहा ४८ ] सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम। ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम॥ जो सगुण (साकार) भगवान्‌के उपासक हैं, दूसरेके हितमें लगे रहते हैं, नीति और नियमोंमें दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणोंके चरणोंमें प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणोंके समान हैं॥ ४८॥ सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥ राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥ १॥ हे लंकेश्वर! सुनो, तुम्हारे अंदर उपर्युक्त सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यन्त ही प्रिय हो। श्रीरामजीके वचन सुनकर सब वानरोंके समूह कहने लगे--कृपाके समूह श्रीरामजीकी जय हो!॥ १॥ सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥ पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदय समात न प्रेमु अपारा॥२॥ प्रभुकी वाणी सुनते हैं और उसे कानोंके लिये अमृत जानकर विभीषणजी अघाते नहीं हैं। वे बार-बार श्रीरामजीके चरणकमलोंको पकड़ते हैं। अपार प्रेम है, हृदयमें समाता नहीं है॥२॥ सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी॥ उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥३॥ [विभीषणजीने कहा--] हे देव! हे चराचर जगत्‌के स्वामी ! हे शरणागतके रक्षक! हे सबके हदयके भीतरकी जाननेवाले ! सुनिये, मेरे हृदयमें पहले कुछ वासना थी, वह प्रभुके चरणोंकी प्रीतिरूपी नदीमें बह गयी॥३॥ अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी॥ एवमस्तु कहि प्रभु रणधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥४॥ अब तो हे कृपालु ! शिवजीके मनको सदैव प्रिय लगनेवाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिये। 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर रणधीर प्रभु श्रीरामजीने तुरंत ही समुद्रका जल माँगा ॥ ४॥ जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरसु अमोध जग माहीं॥ अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥५॥ [और कहा--] हे सखा! यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत्‌में मेरा दर्शन अमोघ है (वह निष्फल नहीं जाता)। ऐसा कहकर श्रीरामजीने उनको राजतिलक कर दिया। आकाशसे पुष्पोंकी अपार वृष्टि हुई॥५॥ [ दोहा ४९ (क) ] रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड। जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हो राजु अखंड॥ श्रीरमजीने रावणके क्रोधरूपी अग्निमें, जो अपनी (विभीषणकी) शधास (वचन) रूपी पवनसे प्रचण्ड हो रही थी, जलते हुए विभीषणको बचा लिया और उसे अखण्ड राज्य दिया॥ ४९ (क)॥ [दोहा ४९ (ख)] जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ। सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥ शिवजीने जो सम्पत्ति रावणको दसों सिरोंकी बलि देनेपर दीथी, वही सम्पत्ति श्रीरघुनाथजीने विभीषणको बहुत सकुचते हुए दी॥४९ (ख)॥ अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥ निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥ १॥ ऐसे परम कृपालु प्रभुको छोड़कर जो मनुष्य दूसरेको भजते हैं, वे बिना सींग-पूँछके पशु हैं। अपना सेवक जानकर विभीषणको श्रीरामजीने अपना लिया। प्रभुका स्वभाव वानरकुलके मनको [बहुत] भाया॥ १॥ पुनि सर्बग्य सर्ब, उर बासी। सर्बरूप सब रहित उदासी॥ बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक॥२॥ फिर सब कुछ जाननेवाले, सबके हृदयमें बसनेवाले, सर्वरूप (सब रूपोंमें प्रकट), सबसे रहित, उदासीन, कारणसे (भक्तोंपर कृपा करनेके लिये) मनुष्य बने हुए तथा राक्षसोंके कुलका नाश करनेवाले श्रीरामजी नीतिकी रक्षा करनेवाले वचन बोले--॥ २॥ सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥ संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँती॥ ३॥ हे वीर वानरराज सुग्रीव और लड्जापति विभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्रकों किस प्रकार पार किया जाय? अनेक जातिके मगर, साँप और मछलियोंसे भरा हुआ यह अत्यन्त अथाह समुद्र पार करनेमें सब प्रकारसे कठिन है॥३॥ कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तब सायक॥ जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई॥४॥ विभीषणजीने कहा-हे रघुनाथजी! सुनिये, यद्यपि आपका एक बाण ही करोड़ों समुद्रोंको सोखनेवाला है (सोख सकता है), तथापि नीति ऐसी कही गयी है (उचित यह होगा) कि [पहले] जाकर समुद्रसे प्रार्थागा की जाय॥४॥ [दोहा ५०] प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि। बिनु प्रयास सागर तरिहे सकल भालु कपि धारि॥ हे प्रभु! समुद्र आपके कुलमें बड़े (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बतला देंगे। तब रीछ और वानरोंकी सारी सेना बिना ही परिश्रमके समुद्रके पार उतर जायगी॥५०॥ सखा कही तुम्ह नीकि उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई॥ मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥ १॥ [ श्रीरामजीने कहा--] हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाय, यदि दैव सहायक हों । यह सलाह लक्ष्मणजीके मनको अच्छी नहीं लगी। श्रीरामजीके वचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुःख पाया॥ १॥ नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥ कादर मन कहेँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥२॥ [लक्ष्मणजीने कहा--] हे नाथ! दैवका कौन भरोसा! मनमें क्रोध कीजिये (ले आइये) और समुद्रको सुखा डालिये। यह दैव तो कायरके मनका एक आधार (तसल्ली देनेका उपाय) है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं॥२॥ सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं. करब धरहु मन धीरा॥ अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई॥३॥ यह सुनकर श्रीरघुवीर हँसकर बोले-ऐसे ही करेंगे, मनमें धीरज रखो । ऐसा कहकर छोटे भाईको समझाकर प्रभु श्रीरघुनाथजी समुद्रके समीप गये ॥ ३॥ प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरू नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥ जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं. आए। पाछें. रावन दूत पठाए॥४॥ उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया। फिर किनारेपर कुश बिछाकर बैठ गये। इधर ज्यों ही विभीषणजी प्रभुके पास आये थे, त्यों ही रावणने उनके पीछे दूत भेजे थे॥४॥ [दोहा ५१] सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह। प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह॥ कपटसे वानरका शरीर धारणकर उन्होंने सब लीलाएँ देखीं। वे अपने हृदयमें प्रभुके गुणोंकी और शरणागतपर उनके खेहकी सराहना करने लगे॥ ५१॥ प्रगटण बखानहिं. राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥ रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥ १॥ फिर वे प्रकटरूपमें भी अत्यन्त प्रेमके साथ श्रीरामजीके स्वभावकी बड़ाई करने लगे, उन्हें दुराव (कपट वेष) भूल गया। तब वानरोंने जाना कि ये शत्रुके दूत हैं और वे उन सबको बाँधकर सुग्रीवके पास ले आये॥ १॥ कह सुग्रीवः सुनहु॒ सब बानर। अंग भंग करि पठवहु निसिचर॥ सुनि सुग्रीवः बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए॥ २॥ सुग्रीवने कहा--सब वानरो! सुनो, राक्षसोंके अद्ग-भज्ग करके भेज दो। सुग्रीवके वचन सुनकर वानर दौड़े। दूतोंको बाँधकर उन्होंने सेनाके चारों ओर घुमाया॥२॥ बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपषि न॒त्यागे॥ जो हमार हर नासा काना। तेहि. कोसलाधीस के आना॥ ३॥ वानर उन्हें बहुत तरहसे मारने लगे। वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरोंने उन्हें नहीं छोड़ा। [तब दूतोंने पुकारकर कहा--] जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्रीरामजीकी सौगंध है॥३॥ सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए॥ रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥ ४॥ यह सुनकर लक्ष्मणजीने सबको निकट बुलाया। उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हँसकर उन्होंने राक्षसोंको तुरंत ही छुड़ा दिया। [और उनसे कहा--] रावणके हाथमें यह चिट्ठी देना [और कहना--] हे कुलघातक ! लक्ष्मणके शब्दों (सँदेसे)-को बाँचो ॥ ४॥ [दोहा ५२] कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार। सीता देह मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥ फिर उस मूर्खसे जबानी यह मेरा उदार (कृपासे भरा हुआ) सन्देश कहना कि सीताजीको देकर उनसे (श्रीरामजीसे ) मिलो, नहीं तो तुम्हागा काल आ गया [समझो] ॥ ५२॥ तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥ कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्‍्ह नाए॥१॥ लक्ष्मणजीके चरणोंमें मस्तक नवाकर, श्रीरामजीके गुणोंकी कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिये। श्रीरामजीका यश कहते हुए वे लड्ढामें आये और उन्होंने रावणके चरणोंमें सिर नवाये॥ १॥ बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥ पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि. मृत्यु आई अति नेरी॥२॥ दशमुख रावणने हँसकर बात पूछी--अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता ? फिर उस विभीषणका समाचार सुना, मृत्यु जिसके अत्यन्त निकट आ गयी है॥२॥ करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जब कर कीट अभागी॥ पुनि कह भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई॥३॥ मूर्खने राज्य करते हुए लझ्लाको त्याग दिया ॥। अभागा अब जौका कीड़ा (घुन) बनेगा (जौके साथ जैसे घुन भी पिस जाता है, वैसे ही नर-वानरोंके साथ वह भी मारा जायगा); फिर भालु और वानरोंकी सेनाका हाल कह, जो कठिन कालकी प्रेरणासे यहाँ चली आयी है॥३॥ जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयडउ मृदुल चित सिंधु बिचारा॥ कहु तपसिन्‍ह कै बात बहोरी। जिनह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥ ४॥ और जिनके जीवनका रक्षक कोमल चित्तवाला बेचारा समुद्र बन गया है (अर्थात्‌ उनके और राक्षसोंके बीचमें यदि समुद्र न होता तो अबतक राक्षस उन्हें मारकर खा गये होते)। फिर उन तपस्वियोंकी बात बता, जिनके हृदयमें मेरा बड़ा डर है॥४॥ [दोहा ५३] की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर। कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर॥ उनसे तेरी भेंट हुई या वे कानोंसे मेरा सुयश सुनकर ही लौट गये ? शत्रुसेनाका तेज और बल बताता क्‍यों नहीं ? तेरा चित्त बहुत ही चकित (भौंचक्का-सा) हो रहा है॥५३॥ नाथ कृपा करि पूँछेह जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥ मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥ १॥ [दूतने कहा--] हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिये (मेरी बातपर विश्वास कीजिये) | जब आपका छोटा भाई श्रीरामजीसे जाकर मिला, तब उसके पहुँचते ही श्रीरामजीने उसको राजतिलक कर दिया॥ १॥ रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना॥ श्रवन नासिका कार्टे लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥२॥ हम रावणके दूत हैं, यह कानोंसे सुनकर वानरोंने हमें बाँधकर बहुत कष्ट दिये, यहाँतक कि वे हमारे कान-नाक काटने लगे। श्रीरामजीकी शपथ दिलानेपर कहीं उन्होंने हमको छोड़ा ॥ २॥ पूँछिहू नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई॥ नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी॥ ३॥ हे नाथ! आपने श्रीरामजीकी सेना पूछी; सो वह तो सौ करोड़ मुखोंसे भी वर्णन नहीं की जा सकती। अनेकों रंगोंके भालु और वानरोंकी सेना है, जो भयंकर मुखवाले, विशाल शरीरवाले और भयानक हैं॥३॥ जेहिं पुर दहेउ हतेड सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥ अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥ ४॥ जिसने नगरकों जलाया और आपके पुत्र अक्षयकुमारको मारा, उसका बल तो सब वानरोंमें थोड़ा है। असंख्य नामोंवाले बड़े ही कठोर और भयंकर योद्धा हैं। उनमें असंख्य हाथियोंकाबल है और वे बड़े ही विशाल हैं॥ ४॥ [दोहा ५४] द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि। दध्िमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि॥ द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवानू-ये सभी बलकी राशि हैं॥ ५४॥ ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥ राम कृपाँ अतुलित बल तिनन्‍हहीं। तन समान तजैलोकहि गनहीं॥ १॥ ये सब वानर बलमें सुग्रीवके समान हैं और इनके-जैसे [एक-दो नहीं] करोड़ों हैं, उन बहुत-सोंकों गिन ही कौन सकता है? श्रीरामजीकी कृपासे उनमें अतुलनीय बल है। वे तीनों लोकोंको तृणके समान [तुच्छ] समझते हैं॥१॥ अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर॥ नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥ २॥ हे दशग्रीव! मैंने कानोंसे ऐसा सुना है कि अठारह पद्म तो अकेले वानरोंके सेनापति हैं। हे नाथ! उस सेनामें ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रणमें न जीत सके॥ २॥ परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥ सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। पूरहिं न॒ त भरि कुधर बिसाला॥३॥ सब-के-सब अत्यन्त क्रोधसे हाथ मीजते हैं। पर श्रीरघुनाथजी उन्हें आज्ञा नहीं देते। हम मछलियों और साँपोंसहित समुद्रको सोख लेंगे। नहीं तो बड़े-बड़े पर्वतोंसे उसे भरकर पूर (पाट) देंगे॥ ३ ॥ मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेडइ बचन कहहिं सब कीसा॥ गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥ ४॥ और रावणको मसलकर धूलमें मिला देंगे। सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे हैं। सब सहज ही निडर हैं; इस प्रकार गरजते और डपटते हैं मानो लड्लाको निगल ही जाना चाहते हैं॥४॥ [दोहा ५०] सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम। रावन काल कोटि कहूँ जीति सकहिं संग्राम॥ सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिरपर प्रभु (सर्वेश्वर) श्रीरामजी हैं। हे रावण! वे संग्राममें करोड़ों कालोंको जीत सकते हैं॥ ५५॥ राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥ सक सर एक सोधि सत सागर। तव भ्रातहि पूँछेठ. नय नागर॥१॥ श्रीरामचन्द्रजीके तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धिकी अधिकताको लाखों शेष भी नहीं गा सकते। वे एक ही बाणसे सैकड़ों समुद्रोंको सोख सकते हैं, परन्तु नीतिनिपुण श्रीरामजीने [नीतिकी रक्षाके लिये] आपके भाईसे उपाय पूछा॥ १॥ तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पंथ कृपा मन माहीं॥ सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥२॥ उनके (आपके भाईके) वचन सुनकर वे ( श्रीरामजी ) समुद्रसे राह माँग रहे हैं, उनके मनमें कृपा भरी है [इसलिये वे उसे सोखते नहीं ] | दूतके ये वचन सुनते ही रावण खूब हँसा [ और बोला--] जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरोंको सहायक बनाया है॥ २॥ सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई॥ मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुदरद्द्धि थाह मैं पाई॥३॥ स्वाभाविक ही डरपोक विभीषणके वचनको प्रमाण करके उन्होंने समुद्रसे मचलना (बालहठ) ठाना है। अरे मूर्ख! झूठी बड़ाई क्‍या करता है! बस, मैंने शत्रु (राम)-के बल और बुद्धिकी थाह पा ली॥३॥ सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥ सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥४॥ जिसके विभीषण-जैसा डरपोक मन्त्री हो, उसे जगतूमें विजय और विभूति (ऐश्वर्य) कहाँ ? दुष्ट रावणके वचन सुनकर दूतको क्रोध बढ़ आया। उसने मौका समझकर पत्रिका निकाली॥ ४॥ रामानुज दील्‍ही यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥ बिहसि बाम कर लीन्ही रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥ ५॥ [और कहा--] श्रीरामजीके छोटे भाई लक्ष्मणने यह पत्रिका दी है। हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठंडी कीजिये। रावणने हँसकर उसे बायें हाथसे लिया और मन्त्रीको बुलवाकर वह मूर्ख उसे बँचाने लगा॥५॥ [दोहा ५६ (क)] बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस। राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥ [पत्रिकामें लिखा था--] अरे मूर्ख! केवल बातोंसे ही मनको रिझाकर अपने कुलको नष्ट-भ्रष्ट न कर! श्रीरामजीसे विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेशकी शरण जानेपर भी नहीं बचेगा॥ ५६ (क)॥ [दोहा ५६ (ख)] की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भूंग। होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥ या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषणकी भाँति प्रभुके चरण-कमलोंका भ्रमर बन जा। अथवा रे दुष्ट | श्रीरामजीके बाणरूपी अग्रिमें परिवारसहित पतिंगा हो जा (दोनोंमेंसे जो अच्छा लगे सो कर) ॥ ५६ (ख)॥ सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई॥ भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥ १॥ पत्रिका सुनते ही रावण मनमें भयभीत हो गया, परन्तु मुखसे (ऊपरसे) मुसकराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा- जैसे कोई पृथ्वीपर पड़ा हुआ हाथसे आकाशको पकड़नेकी चेष्टा करता हो, वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डींग हाँकता है) ॥ १॥ कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥ सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥ २॥ शुक (दूत)-ने कहा--हे नाथ ! अभिमानी स्वभावको छोड़कर [इस पत्रमें लिखी] सब बातोंको सत्य समझिये। क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिये। हे नाथ! श्रीरामजीसे वैर त्याग दीजिये॥ २॥ अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥ मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही॥३॥ यद्यपि श्रीरघुबीर समस्त लोकोंके स्वामी हैं, पर उनका स्वभाव अत्यन्त ही कोमल है। मिलते ही प्रभु आपपर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे हृदयमें नहीं रखेंगे॥ ३ ॥ जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥ जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्हई सठ तेही॥ ४॥ जानकीजी श्रीरघुनाथजीको दे दीजिये। हे प्रभु! इतना कहना मेरा कौीजिये। जब उस (दूत)-ने जानकीजीको देनेके लिये कहा, तब दुष्ट रावणने उसको लात मारी ॥ ४॥ नाइ चरन सिरे चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ॥ करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई॥५७॥ वह भी [विभीषणकी भाँति] चरणोंमें सिर नवाकर वहीं चला, जहाँ कृपासागर श्रीरघुनाथजी थे। प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनायी और श्रीरामजीकी कृपासे अपनी गति (मुनिका स्वरूप) पायी॥५॥ रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउठ रहा मुनि ग्यानी॥ बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहूँ पगु धारा॥६॥ (शिवजी कहते हैं--) हे भवानी! वह ज्ञानी मुनि था, अगस्त्य ऋषिके शापसे राक्षस हो गया था। बार-बार श्रीरामजीके चरणोंकी वबन्दना करके वह मुनि अपने आश्रमको चलागया॥ ६॥ [दोहा ५७] बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥ इधर तीन दिन बीत गये, किन्तु जड समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्रीरामजी क्रोधसहित बोले--बिना भयके प्रीति नहीं होती !॥ ५७॥ लछिमन बान सरासन आनू। सोषों बारिधि बिसिख कूसानू॥ सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती॥१॥ हे लक्ष्मण ! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाणसे समुद्रको सोख डालूँ। मूर्खसे विनय, कुटिलके साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूससे सुन्दर नीति (उदारताका उपदेश),॥ १॥ ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥ क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥२॥ ममतामें फँसे हुए मनुष्यसे ज्ञानकी कथा, अत्यन्त लोभीसे वैराग्यका वर्णन, क्रोधीसे शम (शान्ति)-की बात और कामीसे भगवान्‌की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसरमें बीज बोनेसे होता है (अर्थात्‌ ऊसरमें बीज बोनेकी भाँति यह सब व्यर्थ जाता है) ॥२॥ अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥ संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥३॥ ऐसा कहकर श्रीरघुनाथजीने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजीके मनको बहुत अच्छा लगा। प्रभुने भयानक [अग्नि] बाण सन्धान किया, जिससे समुद्रके हृदयके अंदर अग्निकी ज्वाला उठी॥ ३॥ मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥ कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥४॥ मगर, साँप तथा मछलियोंके समूह व्याकुल हो गये। जब समुद्रने जीवोंको जलते जाना, तब सोनेके थालमें अनेक मणियों (रलों)-को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मणके रूपमें आया॥ ४॥ [दोहा ५८] काटेहिं पड कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच। बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पह नव नीच॥ [काकभुशुण्डिजी कहते हैं--] हे गरुड़जी! सुनिये, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटनेपर ही 'फलता है। नीच विनयसे नहीं मानता, वह डाँटनेपर ही झुकता है (रास्तेपर आता है) ॥ ५८॥ सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥ गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ् नाथ सहज जड़ करनी॥ १॥ समुद्रने भयभीत होकर प्रभुके चरण पकड़कर कहा—हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिये। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी--इन सबकी करनी स्वभावसे ही जड है॥ १॥ तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥ प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥२॥ आपकी प्रेरणासे मायाने इन्हें सृष्टिके लिये उत्पन्न किया है, सब ग्रन्थोंने यही गाया है। जिसके लिये स्वामीकी जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकारसे रहनेमें सुख पाता है॥ २॥ प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्ही कीन्ही॥ डोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥ ३॥ प्रभुने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दण्ड) दी; किन्तु मर्यादा (जीवोंका स्वभाव) भी आपकी ही बनायी हुई है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री--ये सब शिक्षाके अधिकारी हैं॥ ३॥ प्रभु॒ प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिषहि कटकु न मोरि बड़ाई॥ प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करों सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥ ४॥ प्रभुके प्रतापसे मैं सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जायगी, इसमें मेरी बड़ाई नहीं है (मेरी मर्यादा नहीं रहेगी)। तथापि प्रभुकी आज्ञा अपेल है (अर्थात्‌ आपकी आज्ञाका उल्लद्वन नहीं हो सकता) ऐसा वेद गाते हैं। अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरंत वही करूँ॥४॥ [दोहा ५९] सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ। जेहि बिधि उतर कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ॥ समुद्रके अत्यन्त विनीत वचन सुनकर कृपालु श्रीरामजीने मुसकराकर कहा--हे तात! जिस प्रकार वानरोंकी सेना पार उतर जाय, वह उपाय बताओ॥ ५९॥ नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाई रिषि आसिष पाई॥ तिन्‍ह कें परस किएँ गिरि भारे। तरिहहि,. जलधि प्रताप तुम्हारे॥ १॥ [समुद्रने कहा--] हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपनमें ऋषिसे आशीर्वाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेनेसे ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रतापसे समुद्रपर तैर जायँगे॥ १॥ मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करेहऊँ. बल अनुमान सहाई॥ एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइआ॥ २॥ मैं भी प्रभुकी प्रभुताकों हृदयमें धारण कर अपने बलके अनुसार (जहाँतक मुझसे बन पड़ेगा) सहायता करूँगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्रको बँधाइये, जिससे तीनों लोकोंमें आपका सुन्दर यश गाया जाय॥२॥ एहिं सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥ सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं, हरी राम रनधीरा॥ ३॥ इस बाणसे मेरे उत्तर तटपर रहनेवाले पापके राशि दुष्ट मनुष्योंका वध कीजिये। कृपालु और रणधीर श्रीरामजीने समुद्रके मनकी पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर लिया (अर्थात्‌ बाणसे उन दुष्टोंका वध कर दिया) ॥ ३॥ देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥ सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा। चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥ ४॥ श्रीरामजीका भारी बल और पौरुष देखकर समुद्र हर्षित होकर सुखी हो गया। उसने उन दुष्टोंका सारा चरित्र प्रभुको कह सुनाया। फिर चरणोंकी वन्दना करके समुद्र चला गया॥ ४॥ [छन्‍द] निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ। यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ॥ सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना। तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ॥ समुद्र अपने घर चला गया, श्रीरघुनाथजीको यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा। यह चरित्र कलियुगके पापोंको हरनेवाला है, इसे तुलसीदासने अपनी बुद्धिके अनुसार गाया है। श्रीरघुनाथजीके गुणसमूह सुखके धाम, सन्देहका नाश करनेवाले और विषादका दमन करनेवाले हैं। अरे मूर्ख मन! तू संसारका सब आशा-भरोसा त्यागकर निरन्तर इन्हें गा और सुन। [दोहा ६०] सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान॥ श्रीरघुनाथजीका गुणगान सम्पूर्ण सुन्दर मद्गलोंका देनेवाला है। जो इसे आदरसहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज (अन्य साधन)-के ही भवसागरको तर जायाँगे॥६०॥ मासपारायण, चौबीसवाँ विश्राम इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्ञमः सोपान: समाप्त:। 'कलियुगके समस्त पापोंका नाश करनेवाले श्रीरामचरितमानसका यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ। (सुन्दरकाण्ड समात्त)