ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ६७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ६७ ऋषि-पाराशर शाक्त्यः देवता - अग्नि । छंद - द्विपदा विराट वनेषु जायुर्मर्तेषु मित्रो वृणीते श्रुष्टिं राजेवाजुर्यम् ॥१॥ क्षेमो न साधुः क्रतुर्न भद्रो भुवत्स्वाधीर्होता हव्यवाट् ॥२॥ जैसे राजा सर्वगुण-सम्पन्न वीर पुरुष का वरण करते हैं, वैसे ही अग्निदेव यजमान का वर करते हैं। जंगल में उत्पन्न, मनुष्यों के मित्र रूप, रक्षक सदृश कल्याण रूप, होता और विवाहूक ये अग्निदेव सम्यक रूप से कल्याणप्रद हैं॥१-२॥ हस्ते दधानो नृम्णा विश्वान्यमे देवान्धाद्‌गुहा निषीदन् ॥३॥ विदन्तीमत्र नरो धियंधा हृदा यत्तष्टान्मन्त्राँ अशंसन् ॥४॥ ये अग्निदेव समस्त धनों को हाथ में धारण करते हैं। गुहा-प्रदेश (यज्ञ कुण्ड) में स्थित हुए इन्होंने देवों को शक्ति सम्पन्न बनाया। मेधावी पुरुष हृदय से उत्पन्न मन्त्र युक्त स्तुतियों द्वारा इन अग्निदेव को प्रकट करते हैं॥३-४॥ अजो न क्षां दाधार पृथिवीं तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभिः सत्यैः ॥५॥ प्रिया पदानि पश्वो नि पाहि विश्वायुरग्ने गुहा गुहं गाः ॥६॥ ये अजन्मा अग्निदेव (सूर्य रूप में) पृथ्वी को धारण करते हैं। उन्होंने अन्तरिक्ष को धारण किया। अपने सत्संकल्पों से द्युलोक को भी स्तम्भ सदृश स्थिर किया है। हे अग्निदेव! आप पशुओं के प्रिय स्थानों को संरक्षित करें। आप सम्पूर्ण प्राणियों के जीवन - आधार होकर गुह्य (अव्यक्त) प्रदेश में सुशोभित हैं॥५-६॥ य ईं चिकेत गुहा भवन्तमा यः ससाद धारामृतस्य ॥७॥ वि ये वृतन्त्यृता सपन्त आदिद्वसूनि प्र ववाचास्मै ॥८॥ जो गुह्य अग्निदेव को जानते हैं, जो यज्ञ में अग्निदेव को प्रज्वलित कर धारण करते हैं और स्तुति करते हैं, उन स्तोताओं को अग्निदेव धन प्राप्त करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं॥७-८॥ वि यो वीरुत्सु रोधन्महित्वोत प्रजा उत प्रसूष्वन्तः ॥९॥ चित्तिरपां दमे विश्वायुः सद्येव धीराः सम्माय चक्रुः ॥१०॥ जो अग्निदेव ओषधियों में अपनी महत्ता स्थापित करते हैं और लताओं से पुष्प-फलादि को प्रकट करते हैं। ज्ञानी पुरुष जलों में अन्तः स्थापित उन अग्निदेव की पूजा कर घर में आश्रय लेने की तरह उनका आश्रय प्राप्त करते हैं ॥९-१० ॥

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