ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ९

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ९ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - अग्निः । छंद - बृहती, ९ त्रिष्टुप सखायस्त्वा ववृमहे देवं मर्तास ऊतये । अपां नपातं सुभगं सुदीदितिं सुप्रतूर्तिमनेहसम् ॥१॥ हे श्रेष्ठकर्मा, उत्तम ऐश्वर्य युक्त, निष्पाप, पापनाशक, पानी को नीचे न गिरने देने वाले अग्निदेव ! अपने संरक्षण के लिये हम मनुष्यगण मित्र भाव से आपका वरण करते हैं॥१॥ कायमानो वना त्वं यन्मातृरजगन्नपः । न तत्ते अग्ने प्रमृषे निवर्तर्न यद्दूरे सन्निहाभवः ॥२॥ हे अग्ने ! आप वनों (समूहों) को आकार देने वाले हैं। आप मातृ रूप जलों के पास (शान्त होकर) जाते हैं। आपका निवृत्त होना हम सहन न करें। आप दूर होकर भी हमारे निकट प्रकट होते हैं॥२॥ अति तृष्टं ववक्षिथाथैव सुमना असि । प्रप्रान्ये यन्ति पर्यन्य आसते येषां सख्ये असि श्रितः ॥३॥ हे अग्निदेव ! आप स्तोताओं की स्तुति सुनकर उन्हें अभीष्ट फल प्रदान करने में अत्यधिक समर्थ हैं। साथ ही आप सदैव प्रसन्न रहते हैं। आप जिन ऋत्विजों के साथ मित्र भाव में स्थित होते हैं, उनमें कुछ (अध्वर्यु आदि) यज्ञादि कर्म में प्रवृत्त होते हैं और शेष चारों ओर बैठकर स्तुति-आदि कर्म करते हैं॥३॥ ईयिवांसमति स्रिधः शश्वतीरति सश्चतः । अन्वीमविन्दन्निचिरासो अद्रुहोऽप्सु सिंहमिव श्रितम् ॥४॥ शत्रु सेनाओं के पराभवकारी और जल में छिपे हुए सिंह के समान पराक्रमी, उन अग्निदेव को द्रोह न करने वाले (स्नेह करने वाले) अविनाशी देवों ने प्राप्त किया ॥४॥ ससृवांसमिव त्मनाग्निमित्था तिरोहितम् । ऐनं नयन्मातरिश्वा परावतो देवेभ्यो मथितं परि ॥५॥ जैसे स्वेच्छाचारी पुत्र को पिता बलात् खींच ले आते हैं, वैसे ही स्वेच्छा से गुह्य (छिपे हुए) अग्नि को मातरिश्वा वायु भलीप्रकार मंथन कर दूरस्थ प्रदेशों से देवों के लिए ले आयें ॥५॥ तं त्वा मर्ता अगृभ्णत देवेभ्यो हव्यवाहन । विश्वान्यद्यज्ञाँ अभिपासि मानुष तव क्रत्वा यविष्ठ्य ॥६॥ हे मनुष्यों के हितकारी और सर्वदा तरुण अग्निदेव ! आप अपने पराक्रम पूर्ण कर्तृत्वों से सम्पूर्ण यज्ञों के पालनकर्ता हैं। हे हव्यादि वहनकर्ता अग्निदेव ! मनुष्यों ने आपको देवों के लिए ग्रहण किया है ॥६॥ तद्भद्रं तव दंसना पाकाय चिच्छदयति । त्वां यदग्ने पशवः समासते समिद्धमपिशवरे ॥७॥ हे अग्निदेव ! जब रात्रि में आप प्रज्वलित होते हैं, तो पशु भी आकर आपके समीप बैठते हैं। आपका यह कल्याणकारी कर्म बालवत् अज्ञानी को भी पूजादि के लिए प्रेरित करता है॥७॥ आ जुहोता स्वध्वरं शीरं पावकशोचिषम् । आशुं दूतमजिरं प्रत्नमीड्यं श्रुष्टी देवं सपर्यत ॥८॥ हे ऋत्विजो ! पवित्र दीप्तिमान् काष्ठों में सोये हुए, उत्तम यज्ञ- सम्पादक अग्निदेव की हव्यादि द्वारा परिचर्या करें। उन सर्वत्र व्याप्त, दूत-रूप, शीघ्र गमनशील, चिरपुरातन, बहुस्तुत, दीप्तिमान् अग्निदेव का शीघ्र पूजन करें। ॥८॥ त्रीणि शता त्री सहस्राण्यग्निं त्रिंशच्च देवा नव चासपर्यन् । औक्षन्घृतैरस्तृणन्बर्हिरस्मा आदिद्धोतारं न्यसादयन्त ॥९॥ तीन हजार तीन सौ उन्तालीस देवों ने अग्निदेव की पूजा की है, उन्हें घृत से सिञ्चित किया है और उनके लिए कुश का आसन बिछाया है । फिर उन सबने उन्हें होता रूप में वरण कर, उस पर विराजित किया है॥९॥

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