ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ३१

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ३१ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र । छंद - गायत्री, ३ पादनिव्रत, कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता ॥१॥ निरन्तर प्रगतिशील हे इन्द्रदेव! आप किन-किन तृप्तिकारक पदार्थों के भेंट करने से, किस तरह की पूजा विधि से प्रसन्न होंगे? आप किन दिव्य शक्तियों सहित हमारे सहयोगी बनेंगे ? ॥१॥ कस्त्वा सत्यो मदानां मंहिष्ठो मत्सदन्धसः । दृव्हा चिदारुजे वसु ॥२॥ सत्यनिष्ठों को आनन्द प्रदान करने वालों में सोम सर्वोपरि है; क्योंकि हे इन्द्रदेव ! यह आपको दुर्धर्ष शत्रुओं के ऐश्वर्य को नष्ट करने की प्रेरणा देता है ॥२॥ अभी षु णः सखीनामविता जरितृणाम् । शतं भवास्यूतिभिः ॥३॥ स्तुतियों से प्रसन्न करने वाले अपने मित्रों के रक्षक हे इन्द्रदेव! हमारी हर प्रकार से रक्षा करने के लिये आप उच्चकोटि की तैयारी से प्रस्तुत हों ॥३॥ अभी न आ ववृत्स्व चक्रं न वृत्तमर्वतः । नियुद्भिश्वर्षणीनाम् ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! हम याजकगण आपका अनुगमन करते हैं। आप हम याजकों की प्रार्थनाओं से हर्षित होकर, हमारे सम्मुख गोल पहिए के समान पधारें ॥४॥ प्रवता हि क्रतूनामा हा पदेव गच्छसि । अभक्षि सूर्ये सचा ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आप यज्ञ मण्डप में अपने स्थान को ज्ञात करके पधारते हैं। सूर्यदेव के साथ हम आपकी उपासना करते हैं ॥५॥ सं यत्त इन्द्र मन्यवः सं चक्राणि दधन्विरे । अध त्वे अध सूर्ये ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! जब हम आपकी प्रार्थना करते हैं, तब वे प्रार्थनाएँ चक्र के सदृश आपकी ओर गमन करती हैं। वे प्रार्थनाएँ सर्वप्रथम आपके समीप जाती हैं, बाद में सूर्यदेव के समीप गमन करती हैं ॥६॥ उत स्मा हि त्वामाहुरिन्मघवानं शचीपते । दातारमविदीधयुम् ॥७॥ शक्तियों के स्वामी हे इन्द्रदेव! स्तोतागण आपको ऐश्वर्यवान्, धन प्रदायक तथा तेजस्वी कहते हैं ॥७॥ उत स्मा सद्य इत्परि शशमानाय सुन्वते । पुरू चिन्मंहसे वसु ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! स्तुति करने वालों तथा सोम अभिषव करने वालों को आप शीघ्र ही प्रचुर ऐश्वर्य प्रदान करते हैं ॥८॥ नहि ष्मा ते शतं चन राधो वरन्त आमुरः । न च्यौत्नानि करिष्यतः ॥९॥ हे इन्द्रदेव ! आपके सैकड़ों प्रकार के ऐश्वर्य को हिंसा करने वाले शत्रु नहीं प्राप्त कर सकते। रिपुओं का विनाश करने वाली आपकी सामर्थ्य को वे रोक नहीं सकते ॥९॥ं अस्माँ अवन्तु ते शतमस्मान्त्सहस्रमूतयः । अस्मान्विश्वा अभिष्टयः ॥१०॥ हे इन्द्रदेव ! आपके सैकड़ों रक्षण-साधन हमारी सुरक्षा करें, आपके सहस्रों रक्षण-साधन हमारी सुरक्षा करें और आपकी समस्त प्रेरणाएँ हमारी सुरक्षा करें ॥१०॥ अस्माँ इहा वृणीष्व सख्याय स्वस्तये । महो राये दिवित्मते ॥११॥ हे इन्द्रदेव! आप हमें अपनी मित्रता की छत्रछाया में रखकर हमारा कल्याण करें तथा हम याजकों को तेजस्वी वैभव प्रदान करें ॥११॥ अस्माँ अविड्डि विश्वहेन्द्र राया परीणसा । अस्मान्विश्वाभिरूतिभिः ॥१२॥ हे इन्द्रदेव! आप अपने महान् धनों तथा सम्पूर्ण रक्षण-साधनों द्वारा प्रतिदिन हमारी सुरक्षा करें ॥१२॥ अस्मभ्यं ताँ अपा वृधि व्रजाँ अस्तेव गोमतः । नवाभिरिन्द्रोतिभिः ॥१३॥ हे इन्द्रदेव ! जिस प्रकार वीर मनुष्य गृह-द्वार को खोलते हैं, उसी प्रकार आप हम मनुष्यों के निमित्त गौओं के गोष्ठ को खोलें ॥१३॥ अस्माकं धृष्णुया रथो द्युमाँ इन्द्रानपच्युतः । गव्युरश्वयुरीयते ॥१४॥ हे इन्द्रदेव! आप हमारे रिपुओं को परास्त करने वाले, अत्यधिक तेज वाले, विनष्ट न होने वाले तथा गौओं (किरणों) से युक्त हैं। आप अश्वों से युक्त रथ द्वारा सर्वत्र गमन करने वाले हैं। आप उस रथ के साथ हम याजकों की सुरक्षा करें ॥१४॥ अस्माकमुत्तमं कृधि श्रवो देवेषु सूर्य । वर्षिष्ठं द्यामिवोपरि ॥१५॥ सबके प्रेरक हे सूर्यदेव ! जिस तरह आपने अत्यधिक ओजस्वी द्युलोक की स्थापना ऊपर की है, उसी प्रकार देवताओं के बीच में हमारे यज्ञों को श्रेष्ठता प्रदान करें ॥१५॥

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