ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १२०

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १२० ऋषि - कक्षीवान दैघतमस औशिजः देवता - आश्विनौ । छंद - १ गायत्री, २ ककुप, ३ का-विराट, ४ नष्ट रूपी, ५ तनुशिरा, ६ उषणिक, ७ विष्टार-वृहती, ८ कृतिः, ९ विराट, १०-१२ गायत्री का राधद्धोत्राश्विना वां को वां जोष उभयोः । कथा विधात्यप्रचेताः ॥१॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों को किस प्रकार की प्रार्थना प्रिय है, जिससे आप प्रसन्न होते हैं? आप को सन्तुष्ट करने में कौन सक्षम हो सकता है ? अल्पज्ञ मनुष्य आपकी उपासना कैसे करें ? ॥१॥ विद्वांसाविदुदुरः पृच्छेदविद्वानित्थापरो अचेताः । नू चिन्नु मर्ते अक्रौ ॥२॥ ज्ञान रहित और प्रतिभा रहित ये दोनों प्रकार के मनुष्य विद्वान अश्विनीकुमारों से ही उचित मार्गदर्शन प्राप्त कर लें। क्या वे मानव हित के सम्बन्ध में कुछ न कर पाने की असमर्थता प्रकट करेंगे ? ऐसा सम्भव नहीं, वे अवश्य ही मानवों के कल्याण के प्रति प्रेरित होंगे ॥२॥ ता विद्वांसा हवामहे वां ता नो विद्वांसा मन्म वोचेतमद्य । प्रार्चद्दयमानो युवाकुः ॥३॥ हम सहयोग के लिए आप अश्विनीकुमारों का आवाहन करते हैं, आप आज हमें यहाँ आकर चिंतन प्रधान मार्गदर्शन दें, आप दोनों के प्रति मित्रता के इच्छुक ये मनुष्य हवि समर्पित करते हुए आपकी अर्चना करते हैं॥३॥ वि पृच्छामि पाक्या न देवान्वषट्कृतस्याद्भुतस्य दस्रा । पातं च सह्यसो युवं च रभ्यसो नः ॥४॥ है शत्रु संहारक अश्विनीकुमारो ! हमारी प्रार्थना आप से ही है, अन्य के प्रति नहीं । अद्भुत शक्ति के उत्पादक, आदर पूर्वक दिये गये इस सोमरस को आप दोनों ग्रहण करें तथा हमें जिम्मेदारी पूर्ण कार्यों को वहन करने की सामर्थ्य प्रदान करें ॥४॥ प्र या घोषे भृगवाणे न शोभे यया वाचा यजति पज्रियो वाम् । प्रैषयुर्न विद्वान् ॥५॥ घोषा ऋषि के पुत्र, भृगु ऋषि तथा ज्ञान सम्पन्न एवं अन्न के इच्छुक पञ्च कुल में उत्पन्न अंगिरा ऋषि जिस प्रकार की स्तुति रूप वाणी का प्रयोग आप दोनों के प्रति करते रहे वैसी ही प्रस्तुतीकरण की विधा हमारी वाणी में भी आये ॥५॥ श्रुतं गायत्रं तकवानस्याहं चिद्धि रिरेभाश्विना वाम् । आक्षी शुभस्पती दन् ॥६॥ हे कल्याण के स्वामी अश्विनीकुमारो! प्रगति की इच्छा से प्रेरित ऋषि का यह गायत्री छन्द का स्तोत्र आप दोनों ने श्रवण किया। आप दोनों नेत्रहीनों को दृष्टि प्रदान करते हैं, इसके लिए हम आपका गुणगान करते हैं हमारा भी मनोरथ पूर्ण करें ॥६॥ युवं ह्यास्तं महो रन्युवं वा यन्निरततंसतम् । ता नो वसू सुगोपा स्यातं पातं नो वृकादघायोः ॥७॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों किसी साधक को प्रचुर दान भी देते हैं और किसी से धन शक्ति को पूर्णरूपेण अलग भी कर देते हैं। ऐसे आप दोनों हमारे श्रेष्ठ संरक्षक बने । दुष्कर्मी तथा भेड़िये के समान क्रोधी शत्रुओं से हमें बचायें ॥७॥ मा कस्मै धातमभ्यमित्रिणे नो माकुत्रा नो गृहेभ्यो धेनवो गुः । स्तनाभुजो अशिश्वीः ॥८॥ किसी भी प्रकार के शत्रुओं से हमारा पराभव न हों। अपने दूध से भरण - पोषण करने वाली गौएँ बछड़ों से अलग होकर हमारे घरों का कभी त्याग न करें अर्थात् हमारे घर दुग्ध आदि पोषक रसों से सदैव परिपूर्ण बने रहें ॥८॥ दुहीयन्मित्रधितये युवाकु राये च नो मिमीतं वाजवत्यै । इषे च नो मिमीतं धेनुमत्यै ॥९॥ आप से सहयोग पाने के इच्छुक हम लोग मित्रों के भरण-पोषण के लिए प्रचुर धन सम्पदा चाहते हैं। अतएव शक्ति से सम्पन्न धन और गोधन से भरपूर अत्र में प्रदान करें ॥९॥ अश्विनोरसनं रथमनश्वं वाजिनीवतोः । तेनाहं भूरि चाकन ॥१०॥ सैन्य शक्ति से सम्पन्न अश्विनीकुमारों से अश्वों के बिना चलने वाले इस रथ को हमने प्राप्त किया है। इससे हम प्रचुर यश प्राप्ति की अभिलाषा करते हैं॥१०॥ अयं समह मा तनूह्याते जनाँ अनु । सोमपेयं सुखो रथः ॥११॥ यह सुखदायक रथ धनों से परिपूर्ण हैं। अश्विनीकुमार सोमपान के लिए याज्ञिक जनों के समीप इसी में सवार होकर जाते हैं। यह रथ हमें यशस्विता प्रदान करने वाला हो ॥११॥ अध स्वप्नस्य निर्विदेऽभुञ्जतश्च रेवतः । उभा ता बस्रि नश्यतः ॥१२॥ असमर्थों को भोजन प्रदान करने तक की उदारता न रखने वाले धनवानों को और आलस्य-प्रमाद में पड़े रहने वाले व्यक्तियों को देखकर हमें बहुत खेद होता है; (क्योंकि) शीघ्र ही उनका विनाश सुनिश्चित है॥१२॥

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