ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ७५

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ७५ ऋषिः अवस्युरात्रेयः देवता - आश्विनौ । छंद - पंक्ति प्रति प्रियतमं रथं वृषणं वसुवाहनम् । स्तोता वामश्विनावृषिः स्तोमेन प्रति भूषति माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥१॥ हे अश्विनीकुमारो ! आपके अत्यन्त प्रिय बलयुक्त, धनवाहक रथ को स्तोता ऋषि अपने स्तोत्रों से विभूषित करते हैं। हे मधुविद्या के ज्ञाताओ ! आप हमारे आवाहन का श्रवण करें ॥१॥ अत्यायातमश्विना तिरो विश्वा अहं सना । दस्रा हिरण्यवर्तनी सुषुम्ना सिन्धुवाहसा माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥२॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप अन्यों को लाँघकर हमारे निकट आएँ । हम अपने शत्रुओं पर विजय पाने में सफल हों। शत्रुनाशक, स्वर्ण रथयुक्त, उत्तम धनसम्पन्न, नदियों की भाँति प्रवहमान, हे मधुविद्याविद् ! आप हमारे आवाहन का श्रवण करें ॥२॥ आ नो रत्नानि बिभ्रतावश्विना गच्छतं युवम् । रुद्रा हिरण्यवर्तनी जुषाणा वाजिनीवसू माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥३॥ स्वर्णरथी, शत्रु उत्पीड़क, रत्नधारक, धन-धान्ययुक्त, यज्ञप्रेमी हे अश्विनीकुमारो ! आप हमारे यज्ञ में आकर प्रतिष्ठित हों। हे मधु विद्याविशारद ! आप हमारे आवाहन को श्रवण करें ॥३॥ सुष्टुभो वां वृषण्वसू रथे वाणीच्याहिता । उत वां ककुहो मृगः पृक्षः कृणोति वापुषो माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥४॥ हे धनवर्षक अश्विनीकुमारो ! हम स्तोताजन आप दोनों की उत्तम स्तुति करते हैं। अपनी वाणी (मंत्रशक्ति) को आपके रथ में स्थापित किया हैं। आपका महान् अन्वेषक (साधक-याजक) आपके निमित्त हविष्यान्न तैयार करता हैं। हे मधुविद्याविद् देवो ! आप हमारे आवाहन को सुनें ॥४॥ बोधिन्मनसा रथ्येषिरा हवनश्रुता । विभिश्च्यवानमश्विना नि याथो अद्वयाविनं माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥५॥ हे अश्विनीदेवो ! आप दोनों द्रुतगामी रथ पर आरूढ़ रहने वाले, बोधयुक्त मन वाले एवं स्तुतियाँ सुनने वाले हैं। आप निश्छल मन वाले च्यवन ऋषि के समीप अश्वों से पहुँचे थे। हे मधुविद्या के ज्ञातादेवो! आप हमारे आवाहन को सुनें ॥५॥ आ वां नरा मनोयुजोऽश्वासः पुषितप्सवः । वयो वहन्तु पीतये सह सुम्नेभिरश्विना माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥६॥ हे नेतृत्वकर्ता अश्विनीकुमारो ! मन के संकेत मात्र से योजित होने वाले, बिन्दुदार चिह्नों वाले, वेगवान् अश्व आप दोनों को सोमपान के निमित्त सम्पूर्ण सुखों के साथ हमारी ओर लायें। हे मधुविद्याविशारद देवो ! आप दोनों हमारा आवाहन सुनें ॥६॥ अश्विनावेह गच्छतं नासत्या मा वि वेनतम् । तिरश्चिदर्यया परि वर्तिर्यातमदाभ्या माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥७॥ हे अडिग, असत्यरहित अश्विनीकुमारों ! आप दोनों हमारे अभिमुख आगमन करें । हमारा निवेदन अस्वीकार न करें। हे सर्वदा विजयशील देवो ! आप दोनों अत्यन्त दूरस्थ प्रदेश से भी हमारे यज्ञगृह में आगमन करें। हे मधुविद्या के ज्ञाता देवो! आप दोनों हमारा आवाहन सुनें ॥७॥ अस्मिन्यज्ञे अदाभ्या जरितारं शुभस्पती । अवस्युमश्विना युवं गृणन्तमुप भूषथो माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥८॥ हे शुभ कर्मों के पालक, अडिग, अश्विनीकुमारो ! इस यज्ञ में आप दोनों, स्तुति करने वाले अवस्यु के समीप जाकर उन्हें आप दोनों विभूषित करें । हे मधुविद्याविद् देवो! आप दोनों हमारा आवाहन सुनें ॥८॥ अभूदुषा रुशत्पशुराग्निरधाय्यृत्वियः । अयोजि वां वृषण्वसू रथो दस्रावमों माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥९॥ हे धनवर्षक, शत्रुनाशक, अश्विनीकुमारो ! उषा प्रकाशित हुई है । ऋतु के अनुरूप तेजस्वी किरणों वाले अग्निदेव वेदी पर पूर्णतया संस्थापित हुए हैं। आपका अनश्वर रथ योजित किया गया है। हे मधु विद्याविद् देवो ! आप दोनों हमारा आवाहन सुनें ॥९॥

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