Pengal Upanishad (पैंगल उपनिषद) (चतुर्थ अध्याय)

॥ श्री हरि ॥ ॥ पैङ्गलोपनिषत् ॥ ॥ पैंगल उपनिषद ॥ चतुर्थोऽध्यायः चतुर्थ अध्याय अथ हैनं पैङ्गलः प्रपच्छ याज्ञवल्क्यं ज्ञानिनः किं कर्म का च स्थितिरिति । ॥१॥ इसके बाद पैङ्गल ऋषि ने याज्ञवल्क्य ऋषि से पुनः प्रश्न किया कि ज्ञानियों के कर्म कौन से हैं और उनकी स्थिति कैसी होती है? ॥१॥ स होवाच याज्ञवल्क्यः । अमानित्वादिसम्पन्नो मुमुक्षुरेकविंशतिकुलं तारयति । ब्रह्मविन्मात्रेण कुलमेकोत्तरशतं तारयति । ॥२॥ याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि जो मुमुक्षु अमानित्व आदि गुणों से सम्पन्न होता है, वह अपनी इक्कीस पीढ़ियों को तार देता है और ब्रह्मविद् हो जाने मात्र से वह अपने कुल की एक सौ एक पीढ़ियाँ तार देता है ॥२॥ आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव च । बुद्धि तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ ३॥ अपनी आत्मा को रथी, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथि तथा मन को ही लगाम जानना चाहिए ॥३॥ इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । जङ्गमानि विमानानि हृदयानि मनीषिणः ॥ ४॥ इन्द्रियों को अश्व कहा गया है, जो अपने विषय रूपी मार्ग पर गमन करते हैं, परन्तु मनीषियों को हृदय विमान के समान इन सबसे ऊपर उठा हुआ होता है ॥४॥ आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्महर्षयः । ततो नारायणः साक्षाद्धृदये सुप्रतिष्ठितः ॥ ५॥ महान् ऋषियों का कथन है कि यह आत्मा, इन्द्रिय और मन से युक्त होकर भोक्ता बनता है, इसके बाद हृदय में साक्षात् नारायण प्रतिष्ठित होते हैं ॥५॥ प्रारब्धकर्मपर्यन्तमहिनिर्मोकवव्यवहरति । चन्द्रवच्चरते देही स मुक्तश्चानिकेतनः ॥ ६॥ प्रारब्ध कर्मों के क्षय होने तक जीव, सर्प के केंचुल बदलते रहने की तरह अन्य शरीर धारण करता रहता है; किन्तु अनिकेतन (एक ग्राम में एक रात्रि ही निवास करने वाला परिव्राजक) और मुक्त पुरुष आकाश में चन्द्रमा के समान सर्वत्र सञ्चरित होता रहता है ॥६॥ तीर्थे श्वपचगृहे वा तनुं विहाय याति कैवल्यम् । प्राणानवकीर्य याति कैवल्यम् ॥ ॥७॥ ज्ञानी पुरुष तीर्थ में शरीर त्याग करे अथवा चाण्डाल के घर में, प्राणों को छोड़कर वह सदा कैवल्य को ही प्राप्त होता है ॥७॥ तं पश्चाद्दिग्बलिं कुर्यादथवा खननं चरेत् । पुंसः प्रव्रजनं प्रोक्तं नेतराय कदाचन ॥ ८॥ शरीर त्याग के पश्चात् उसके शरीर की चाहे दिशाओं को बलि दे दी जाए अर्थात् खुले में डाल दिया जाए अथवा खोदकर जमीन में गाड़ दिया जाए (वह कैवल्य को ही प्राप्त करता है)। यह विधि परिव्राजक (संन्यासी) के लिए है, इतर (अन्य) किसी के लिए कभी नहीं ॥८॥ नाशौचं नाग्निकार्यं च न पिण्डं नोदकक्रिया। न कुर्यात्पार्वणादीनि ब्रह्मभूताय भिक्षवे ॥ ९॥ जो संन्यासी ब्रह्मलीन हो गया है, उसके निमित्त अशौच (सूतक) नहीं रहता। उसकी आत्म शान्ति के लिए न अग्नि कार्य, न पिण्ड, न तर्पण और न ही पर्व पर किये जाने वाले श्राद्ध (पार्वण) आदि की ही आवश्यकता है ॥९॥ दग्धस्य दहनं नास्ति पक्वस्य पचनं यथा । ज्ञानाग्निदग्धदेहस्य न च श्राद्धं न च क्रिया ॥ १०॥ जिस प्रकार जले हुए को जलाया नहीं जाता और पके हुए को पुनः पकाया नहीं जाता, उसी प्रकार ज्ञानाग्नि से दग्ध (संन्यासी) के लिए न कोई श्राद्ध आवश्यक है और न ही कोई क्रिया-कर्म ॥१०॥ यावच्चोपाधिपर्यन्तं तावच्छ्रुश्रूषयेद्गुरुम् । गुरुवद्‌गुरुभार्यायां तत्पुत्रेषु च वर्तनम् ॥ ११॥ जब तक सांसारिक उपाधियाँ हैं, तब तक गुरु की शुश्रूषा (सेवा) करनी चाहिए। गुरु के समान ही गुरु पत्नी और गुरु सन्तानों के प्रति भी सम्मान पूर्ण व्यवहार करना चाहिए ॥११॥ शुद्धमानसः शुद्धचिद्रूपः सहिष्णुः सोऽहमस्मि सहिष्णुः सोऽहमस्मीति प्राप्ते ज्ञानेन विज्ञाने ज्ञेये परमात्मनि हृदि संस्थिते देहे लब्धशान्तिपदं गते तदा प्रभामनोबुद्धिशून्यं भवति । ॥१२॥ मैं शुद्ध मानस, शुद्ध चैतन्य रूप, सहिष्णु, वह सहिष्णु मैं ही हूँ, इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त हो जाने से, ज्ञान के अनुभव से और ज्ञेय परमात्मा के हृदय में भली प्रकार प्रतिष्ठित हो जाने से जब देह को शान्ति पद की प्राप्ति हो जाए, तब साधक मन-बुद्धि शून्य होकर चैतन्य रूप हो जाता है ॥१२॥ अमृतेन तृप्तस्य पयसा किं प्रयोजनम् । एवं स्वात्मानं ज्ञात्वा वेदैः प्रयोजनं किं भवति । ज्ञानामृततृप्तयोगिनो न किञ्चित्कर्तव्यमस्ति तदस्ति चेन्न स तत्त्वविद्भवति । दूरस्थोऽपि न दूरस्थः पिण्डवर्जितः पिण्डस्थोऽपि प्रत्यगात्मा सर्वव्यापी भवति । ॥१३॥ अमृत का पान कर लेने पर दूध से क्या प्रयोजन ? इसी प्रकार अपने आपको ज्ञान (आत्मज्ञान) प्राप्त कर लेने पर वेदों से क्या प्रयोजन (सिद्ध) होता है? ज्ञानामृत से तृप्त योगी के लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता। यदि कोई कर्तव्य शेष रहता है, तो इसका अभिप्राय है कि वह तत्त्वविद् नहीं है। वह दूर स्थित होने पर भी दूर नहीं और पिण्ड में स्थित होने पर भी पिण्ड से पृथक् प्रत्यगात्मा है, जो सर्वव्यापी होता है ॥१३॥ हृदयं निर्मलं कृत्वा चिन्तयित्वाप्यनामयम् । अहमेव परं सर्वमिति पश्येत्परं सुखम् ॥ १४॥ हृदय को निर्मल करके और अपने को 'मैं अनामय ब्रह्म हूँ', ऐसा चिन्तन करके मैं ही सब कुछ हूँ, ऐसा सोचने व देखने से परम सुख प्राप्त होता है ॥१४॥ यथा जले जलं क्षिप्तं क्षीरे क्षीरं घृते घृतम् । अविशेषो भवेत्त्वद्वज्जिवात्मपरमात्मनोः ॥ १५॥ जिस प्रकार जल में जल, दुग्ध में दुग्ध और घृत में घृत डाल देने से, वे एकरूप हो जाते हैं, उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा दोनों मिलकर अविशेष अर्थात् अभिन्न (एक) हो जाते हैं ॥१५॥ देहे ज्ञानेन दीपिते बुद्धिरखण्डाकाररूपा यदा भवति तदा विद्वान्ब्रह्मज्ञानाग्निना कर्मबन्धं निर्दहेत् । ॥१६॥ जब ज्ञान के द्वारा देह में स्थित अभिमान विनष्ट हो जाता है तथा बुद्धि अखण्डाकार हो जाती है, तब विद्वान् पुरुष ब्रह्मज्ञान रूपी अग्नि से कर्म बन्धनों को भस्म कर देता है ॥१६॥ ततः पवित्रं परमेश्वराख्यमद्वैतरूपं विमलाम्बराभम् । यथोदके तोयमनुप्रविष्टं तथात्मरूपो निरुपाधिसंस्थितः ॥ १७॥ इसके पश्चात् वह विमल वस्त्र के समान पवित्र और अद्वैतरूप परमेश्वर को प्राप्त करके उसी प्रकार अपने आत्म रूप (सत्य स्वरूप) में प्रतिष्ठित हो जाता है, जिस प्रकार जल दूसरे जल में प्रविष्ट होकर (मिलकर) एकरूप हो जाता है ॥१७॥ आकाशवत्सूक्ष्मशरीर आत्मा न दृश्यते वायुवदन्तरात्मा । स बाह्यमभ्यन्तरनिश्चलात्मा ज्ञानोल्कयापश्यति चान्तरात्मा ॥ १८॥ आत्मा आकाश के सदृश सूक्ष्म और वायु के सदृश दिखाई न पड़ने वाली है। वह बाह्य और अन्दर से भी निश्चल है, जिसे मात्र ज्ञान रूपी उल्का (विद्युत् या मशाल) से ही देखा जा सकता है ॥१८॥ यत्रयत्र मृतो ज्ञानी येन वा केन मृत्युना । यथा सर्वगतं व्योम तत्रतत्र लयं गतः ॥ १९॥ ज्ञानी कहीं भी और कैसे भी मृत्यु को प्राप्त करे, वह हर स्थिति में ब्रह्म में ही लय हो जाता है, क्योंकि आकाश के समान ही ब्रह्म भी सर्वव्यापी है ॥१९॥ घटाकाशमिवात्मानं विलयं वेत्ति तत्त्वतः । स गच्छति निरालम्बं ज्ञानालोकं समन्ततः ॥ २०॥ जिस प्रकार घटाकाश आकाश में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार जो योगी अपने को तत्त्वतः जान लेता है, वह सभी ओर से निरालम्ब और ज्ञानालोक स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है ॥२०॥ तपेद्वर्षसहस्राणि एकपादस्थितो नरः । एतस्य ध्यानयोगस्य कलां नार्हति षोडशीम् ॥ २१॥ यदि कोई एक पैर पर खड़े होकर एक सहस्र वर्ष तक तप करे, तो भी वह ध्यान योग की षोडश कलाओं में से एक के बराबर भी नहीं हो सकता ॥२१॥ इदं ज्ञानमिदं ज्ञेयं तत्सर्वं ज्ञातुमिच्छति । । अपि वर्षसहस्रायुः शास्त्रान्तं नाधिगच्छति ॥ २२॥ ज्ञान और ज्ञेय को यदि कोई सम्पूर्णरूप से जानना चाहे, तो सहस्र वर्ष की आयु पर्यन्त शास्त्राध्ययन करने पर भी उसका पार नहीं पा सकता ॥२२॥ विज्ञेयोऽक्षरतन्मात्रो जीवितं वापि चञ्चलम् । विहाय शास्त्रजालानि यत्सत्यं तदुपासताम् ॥ २३॥ मनुष्य को जानना चाहिए कि मात्र अक्षर ब्रह्म ही सत्य है। मनुष्य का जीवन चञ्चल है; इसलिए शास्त्र-जाल को छोड़कर जो सत्य है, उसी की उपासना करे ॥२३॥ अनन्तकर्मशौचं च जपो यज्ञस्तथैव च । तीर्थयात्राभिगमनं यावत्तत्त्वं न विन्दति ॥ २४॥ विभिन्न कर्म-शौच, जप, यज्ञ, तीर्थयात्रा आदि की सार्थकता तभी तक है, जब तक तत्त्व की प्राप्ति न हो ॥२४॥ अहं ब्रह्मेति नियतं मोक्षहेतुर्महात्मनाम् । द्वे पदे बन्धमोक्षाय न ममेति ममेति च ॥ २५॥ 'मैं ब्रह्म हूँ' यही भाव महात्मा पुरुषों के मोक्ष का आधार होता है । बन्धन और मोक्ष के कारण रूप ये ही दो पद हैं, 'यह मेरा है' (बन्धन), 'यह मेरा नहीं है' (मोक्ष) ॥२५॥ ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते । मनसो ह्युन्मनी भावे द्वैतं नैवोपलभ्यते ॥ २६॥ मेरा है, यह भाव बन्धन में डालता है और मेरा नहीं है, यह भाव मोक्ष प्रदान करता है। जब मन उन्मनी अवस्था (भाव) को प्राप्त हो जाता है, तब द्वैत भाव समाप्त हो जाता है ॥२६॥ यदा यात्युन्मनीभावस्तदा तत्परमं पदम् । यत्रयत्र मनो याति तत्रतत्र परं पदम् ॥ २७॥ जब उन्मनी भाव प्राप्त हो जाता है, तभी परम पद प्राप्त होता है। उस अवस्था में जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहीं-वहीं परम पद है ॥२७॥ तत्रतत्र परं ब्रह्म सर्वत्र समवस्थितम् । हन्यान्मुष्टिभिराकाशं क्षुधार्तः खण्डयेत्तुषम् ॥ २८॥ परब्रह्म यत्र-तत्र-सर्वत्र अवस्थित है, पर जो व्यक्ति यह नहीं जानता कि मैं ब्रह्म हूँ' उसकी मुक्ति उसी प्रकार नहीं होती (अथवा मुक्ति के लिए किया गया प्रयास निष्फलं जाता है), जिस प्रकार कोई आकाश में मुष्टि प्रहार करे या भूखा व्यक्ति चावल प्राप्त करने के लिए भूसी को कूटे ॥२८॥ नाहं ब्रह्मेति जानाति तस्य मुक्तिर्न जायते । य एतदुपनिषदं नित्यमधीते सोऽग्निपूतो भवति । स वायुपूतो भवति । स आदित्यपूतो भवति । स स ब्रह्मपूती २ ब्रह्मपूतो भवति । स विष्णुपूतो भवति । स रुद्रपूतो भवति । स सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति । स सर्वेषु वेदेष्वधीतो भवति । स सर्ववेदव्रतचर्यासु चरितो भवति । तेनेतिहासपुराणानां रुद्राणां शतसहस्राणि जप्तानि फलानि भवन्ति । प्रणवानामयुतं जप्तं भवति । दश पूर्वान्दशोत्तरान्पुनाति । स प‌ङ्क्तिपावनो भवति । स महान्भवति । ब्रह्महत्यासुरापानस्वर्णस्तेयगुरुतल्पगमनतत्संयोगिपातकेभ्यः पूतो भवति । ॥ २९॥ जो इस उपनिषद् का नित्य पाठ करता है (अध्ययन करता है), वह अग्नि के समान, वायु के समान, आदित्य के समान, ब्रह्म के समान, विष्णु के समान और रुद्र के समान पवित्र होता है। वह समस्त तीर्थों में स्नान किए हुए के समान होता है, समस्त वेदों का ज्ञाता होता है, समस्त वेदों में वर्णित व्रतों का पालन करने वाला होता है। उसे इतिहास-पुराण आदि के अध्ययन तथा एक लक्ष रुद्रमन्त्र के जप का फल प्राप्त होता है। उसे दस सहस्र 'प्रणव' नाम के जप का फल मिलता है। उसके पूर्व की दस और बाद की दस पीढ़ियाँ पवित्र हो जाती हैं। वह साथ में बैठने वालों को पवित्र करता है, जिसके कारण 'पंक्ति पावन' हो जाता है। वह महान् होता है। वह ब्रह्महत्या, सुरापान, सुवर्ण की चोरी, गुरुपत्नी-गमन तथा ऐसे महापातक करने वालों की संगति से उत्पन्न पातकों से मुक्त (पवित्र) हो जाता है ॥२९॥ तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम् ॥ ॥३०॥ ज्ञानीजन विश्वव्यापी भगवान् विष्णु के परमपद को द्युलोक में व्याप्त दिव्य प्रकाश की भाँति देखते हैं ॥३०॥ तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते । विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥ ॥ ३१॥ ॥ ॐ सत्यमित्युपनिषत ॥ वे विप्र (ब्रह्मनिष्ठ जीवनयापन करने वाले) आलस्य प्रमादादि से रहित, सदैव श्रेष्ठ कर्म करने वाले साधक विष्णु (अन्तर्यामी परमेश्वर) के परम पद को प्राप्त करते हैं। यह बात सत्य है-ऐसी यह उपनिषद् (रहस्यमयी विद्या) है ॥३१॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥३॥ ॥ चतुर्थ तृतीय अध्याय समाप्त ॥

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