ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त २६

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त २६ ऋषि - वामदेवो गौतमः, १-३ इन्द्रो देवता - १-३ इन्द्र, आत्मा, ४-७ श्येन। छंद त्रिष्टुप, अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं कक्षीवाँ ऋषिरस्मि विप्रः । अहं कुत्समार्जुनयं न्यूनेऽहं कविरुशना पश्यता मा ॥१॥ मैं ही मनु के रूप में हुआ हूँ। मैं ही आदित्य हूँ तथा मैं हीं विवेकी कक्षीवान् ऋषि हूँ। मैं ही अर्जुनी पुत्र 'कुत्स' के रूप में हैं और मैं ही क्रान्तदशी उशना अंष हूँ। हे याजको आप मुझे भली प्रकार देखें ॥१॥ अहं भूमिमददामार्यायाहं वृष्टिं दाशुषे मर्त्याय । अहमपो अनयं वावशाना मम देवासो अनु केतमायन् ॥२॥ मैंने सत्पुरुषों के निमित्त भूमि प्रदान की तथा दानी मनुष्यों के निमित्त जल बरसाया है। ध्वनि करते हुए जल प्रवाहों को मैंने ही आगे बढ़ाया था। अतः समस्त देवता मेरे संकल्प का अनुसरण करें ॥२॥ अहं पुरो मन्दसानो व्यैरं नव साकं नवतीः शम्बरस्य । शततमं वेश्यं सर्वताता दिवोदासमतिथिग्वं यदावम् ॥३॥ सोमरस पान से हर्षित होकर मैंने शम्बरासुर की निन्यानवे पुरियों को एक साथ ध्वस्त किया था। यज्ञ में अतिथियों को गौएँ प्रदान करने वाले राजर्षि 'दिवोदास' की मैंने रक्षा की थी। इसके बाद उनके लिए सौवीं पुरी को निवास के योग्य बनाया था ॥३॥ प्र सु ष विभ्यो मरुतो विरस्तु प्र श्येनः श्येनेभ्य आशुपत्वा । अचक्रया यत्स्वधया सुपर्णो हव्यं भरन्मनवे देवजुष्टम् ॥४॥ हे मरुद्गण ! (तीव्रगति के लिए विख्यात) बाज़ पक्षियों की तुलना में वह सुपर्ण अधिक शक्तिशाली और द्रुतगामी हैं। देवों द्वारा ग्रहण किये जाने वाले सोमरस रूपी हव्य को श्रेष्ठ पंखों वाले पक्षी ने चक्र विहीन रथ द्वारा स्वर्गलोक से लाकर मनुष्यों को (प्रजापति मनु को) प्रदान किया था ॥४॥ भरद्यदि विरतो वेविजानः पथोरुणा मनोजवा असर्जि । तूयं ययौ मधुना सोम्येनोत श्रवो विविदे श्येनो अत्र ॥५॥ जब समस्त लोकों को कम्पायमान करते हुए वह बाज़ पक्षी घुलोक से सोमरस को लेकर चला, तब उसने विस्तृत आकाश मार्ग में मन के सदृश वेग से उड़ान भरीं। शान्ति प्रदायक तथा मधुर रस को शीघ्रतापूर्वक लाने के बाद उस बाज़ पक्षी ने इस जगत् में प्रचुर यश- लाभ प्राप्त किया ॥५॥ ऋजीपी श्येनो ददमानो अंशुं परावतः शकुनो मन्द्रं मदम् । सोमं भरद्दादृहाणो देवावान्दिवो अमुष्मादुत्तरादादाय ॥६॥ सुदूर प्रदेश से सोमरस को लेकर ऋजु मार्ग से गमन करने वाले तथा देवताओं के संग निवास करने वाले श्येन पक्षी ने मीठे तथा हर्ष प्रदायक सोमरस को उच्च द्युलोक से ग्रहण करके उसे दृढ़तापूर्वक पृथ्वी पर पहुँचाया ॥६॥ आदाय श्येनो अभरत्सोमं सहस्रं सवाँ अयुतं च साकम् । अत्रा पुरंधिरजहादरातीर्मदे सोमस्य मूरा अमूरः ॥७॥ उस श्येन पक्षी ने सहस्र संख्यक यज्ञों के माध्यम से सोमरस को प्राप्त करके उड़ान भरी। इसके बाद अनेक सत्कर्म करने वाले तथा ज्ञान सम्पन्न इन्द्रदेव ने सोमरस के पान से हर्षित होकर मूढ़ रिषुओं का संहार किया ॥७॥

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