ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ३४

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ३४ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - ऋभवः । छंद - त्रिष्टुप ऋभुर्विभ्वा वाज इन्द्रो नो अच्छेमं यज्ञं रत्नधेयोप यात । इदा हि वो धिषणा देव्यह्नामधात्पीतिं सं मदा अग्मता वः ॥१॥ हे ऋभु, विभु, वाज तथा इन्द्रदेवो! हमें रत्न प्रदान करने के निमित्त आप सब हमारे यज्ञ मण्डप में पधारें। आज दिन में स्नेहपूर्वक स्तुतिगान करते हुए आप सबकी तृप्ति के लिए सोमरस प्रस्तुत किया गया है। ये हर्ष प्रदायक सोमरस आपके साथ संयुक्त हो ॥१॥ विदानासो जन्मनो वाजरत्ना उत ऋतुभिक्रभवो मादयध्वम् । सं वो मदा अग्मत सं पुरंधिः सुवीरामस्मे रयिमेरयध्वम् ॥२॥ हे अन्न से सुशोभित ऋभुओ आप समस्त जीवों के जन्मों को जान करके सम्पूर्ण ऋतुओं में हर्ष प्राप्त करें। हर्ष प्रदायक सोमरस तथा श्रेष्ठ बुद्धि आपको हमेशा प्राप्त होती रहे। आप हमारी ओर श्रेष्ठ सन्तति से सम्पन्न ऐश्वर्य प्रेरित करें ॥२॥ अयं वो यज्ञ ऋभवोऽकारि यमा मनुष्वत्प्रदिवो दधिध्वे । प्र वोऽच्छा जुजुषाणासो अस्थुरभूत विश्वे अग्रियोत वाजाः ॥३॥ हे ऋभुगण ! यह यज्ञ आप सब के लिए किया गया है। आप ओजस्वी व्यक्ति के समान इस यज्ञ को ग्रहण करें। हर्षित करने वाला सोमरस आपकी ओर प्रेरित होता है। हे बलशाली ऋभुओ ! आप सब सर्वश्रेष्ठ ॥३॥ अभूदु वो विधते रत्नधेयमिदा नरो दाशुषे मर्त्याय । पिबत वाजा ऋभवो ददे वो महि तृतीयं सवनं मदाय ॥४॥ श्रेष्ठ नायक हे ऋभुगण ! आपका रत्न आदि धन, परिचर्या करने वाले तथा आहुति प्रदान करने वाले यजमान के निमित्त हो । हे बलवान् ऋभुगण ! हम आपको तृतीय सवन में, हर्षित होने के लिए प्रचुर सोमरस प्रदान करते हैं। इसलिए आप सब उसे पान करें ॥४॥ आ वाजा यातोप न ऋभुक्षा महो नरो द्रविणसो गृणानाः । आ वः पीतयोऽभिपित्वे अह्नामिमा अस्तं नवस्व इव ग्मन् ॥५॥ हे बलवान् नायक ऋभुओ ! आप अत्यधिक ऐश्वर्यवान् के रूप में विख्यात हैं। आप हमारे समीप पधारें। जिस प्रकार नव प्रसूता गौएँ घर की तरफ गमन करती हैं, उसी प्रकार ये सोमरस आपकी तरफ आगमन करते हैं ॥५॥ आ नपातः शवसो यातनोपेमं यज्ञं नमसा हूयमानाः । सजोषसः सूरयो यस्य च स्थ मध्वः पात रत्नधा इन्द्रवन्तः ॥६॥ हे बलशाली ऋभुओ ! आप स्तुतियों द्वारा आवाहित होकर इस यज्ञ मण्डप में पधारें। आप इन्द्रदेव के मित्ररूप तथा मेधावान् हैं, क्योंकि आप सब उनके सम्बन्धी हैं। आप सब इन्द्रदेव के साथ संयुक्त होकर रल प्रदान करते हुए मधुर सोमरस का पान करें ॥६॥ सजोषा इन्द्र वरुणेन सोमं सजोषाः पाहि गिर्वणो मरुद्भिः । अग्रेपाभिऋतुपाभिः सजोषा ग्नास्पत्नीभी रत्नधाभिः सजोषाः ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! आप वरुणदेव के साथ तथा मरुद्गणों के साथ प्रेमपूर्वक सोमरस पान करें । सर्वप्रथम सोमरस पान करने वाले और ऋतुओं के अनुसार सोमरस पान करने वाले देवताओं के साथ तथा श्रेष्ठ धन को धारण करने वाली उनकी पत्नियों के साथ आप सोमरस पान करें ॥७॥ सजोषस आदित्यैर्मादयध्वं सजोषस ऋभवः पर्वतेभिः । सजोषसो दैव्येना सवित्रा सजोषसः सिन्धुभी रत्नधेभिः ॥८॥ हे ऋभुओ ! आप आदित्यों तथा पर्वतों के साथ प्रेमपूर्वक हर्षित हों। आप देवताओं के हितैषी सविता देवता तथा रत्न-प्रदाता सागरों के साथ संगत होकर हर्षित हों ॥८॥ ये अश्विना ये पितरा य ऊती धेनुं ततक्षुक्रभवो ये अश्वा । ये अंसत्रा य ऋधग्रोदसी ये विभ्वो नरः स्वपत्यानि चक्रुः ॥९॥ जिन ऋभुओं ने अपने रक्षण साधनों से अश्विनीकुमारों को सक्षम बनाया, अपने माता-पिता को तरुण बनाया, गौओं को दुधारू तथा अश्वों को बलशाली बनाया, जिन्होंने कवचों को विनिर्मित किया, द्यावा-पृथिवी को पृथक् किया तथा जिन बलशाली नायकों ने उत्तम कर्मों को सम्पन्न किया, वे सर्वप्रथम सोम पान करने वाले हैं ॥९॥ ये गोमन्तं वाजवन्तं सुवीरं रयिं धत्थ वसुमन्तं पुरुक्षुम् । ते अग्रेपा ऋभवो मन्दसाना अस्मे धत्त ये च रातिं गृणन्ति ॥१०॥ हे ऋभुओ ! आप गौओं, अश्वों तथा श्रेष्ठ पराक्रमी सन्तानों से सम्पन्न द्रव्य तथा प्रचुर अन्न वाले ऐश्वर्य को धारण करते हैं। आपके ऐश्वर्य की सब जगह प्रशंसा होती है। आप सर्वप्रथम सोम पान करके हर्षित होकर हमें ऐश्वर्य प्रदान करें ॥१०॥ नापाभूत न वोऽतीतृषामानिःशस्ता ऋभवो यज्ञे अस्मिन् । समिन्द्रेण मदथ सं मरुद्भिः सं राजभी रत्नधेयाय देवाः ॥११॥ हे ऋभुओ ! आप सब हमसे दूर न जायें। हम भी आपको तृषित नहीं रखेंगे। हे ऋभुओ ! आप देवत्व से सम्पन्न होकर तथा आनन्दित होकर इन्द्रदेव के साथ इस यज्ञ में हर्षित हों। हे देवो ! रत्न दान के निमित्त आलोकमान मरुतों के साथ आप र्षित हों ॥११॥

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