Brihadaranyaka Upanishad Chapter 5 (बृहदारण्यक उपनिषद) पांचवां अध्याय

श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः - प्रथमं ब्राह्मणम् पांचवां अध्याय प्रथम ब्राह्मण ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते । ॐ३ खं ब्रह्म खं पुराणं वायुरं खमिति ह स्माऽऽह कौरव्यायणीपुत्रो । वेदोऽयम् ब्राह्मणा विदुर्वेदैनेन यद्वेदितव्यम् ॥ १॥ वह परब्रह्म पूर्ण है और वह जगत ब्रह्म भी पूर्ण है, पूर्णता से ही पूर्ण उत्पन्न होता है। यह कार्यात्मक पूर्ण कारणात्मक पूर्ण से ही उत्पन्न होता है। उस पूर्ण की पूर्णता को लेकर यह पूर्ण ही शेष रहता है। ॐ आकाश ब्रह्म है। आकाश सनातन है। जिसमें वायु रहता है, वह आकाश ही है - ऐसा कौरव्यायणी के पुत्र ने कहा है। यह ओंकार वेद है-ऐसा ब्राह्मण जानते हैं, क्योंकि जो ज्ञातव्य है, उसका इससे ज्ञान होता है। ॥१॥ ॥ इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ प्रथम ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः - द्वितीयं ब्राह्मणम् द्वितीय ब्राह्मण त्रयाः प्राजापत्याः प्रजापतौ पितरि ब्रह्मचर्यमूषुर्देवा मनुष्या असुरा उषित्वा ब्रह्मचर्यं देवा ऊचुर्ब्रवीतु नो भवानिति । तेभ्यो हैतदक्षरमुवाच द इति व्यज्ञासिष्टा३ इति । व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दाम्यतेति न आत्थेत्योमिति होवाच व्यज्ञासिष्टेति ॥ १॥ देव, मनुष्य और असुर-इन प्रजापति के तीन पुत्रोंने पिता प्रजापति के यहाँ ब्रह्मचर्यवास किया। ब्रह्मचर्यवास कर चुकने पर देवों ने कहा, 'आप हमें उपदेश कीजिये।' उनसे प्रजापतिने 'द' यह अक्षर कहा और पूछा 'समझ गये क्या?' इसपर उन्होंने कहा, 'समझ गये, आपने हमसे दमन करो ऐसा कहा है। तब प्रजापति ने कहा, 'ठीक है, तुम समझ गये ॥१॥ अथ हैनं मनुष्या ऊचुर्ब्रवीतु नो भवानिति । तेभ्यो हैतदेवाक्षरमुवाच द इति व्यज्ञासिष्टा३ इति । व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दत्तेति न आत्थेत्योमिति होवाच व्यज्ञासिष्टेति ॥ २॥ फिर प्रजापति से मनुष्यों ने कहा, 'आप हमें उपदेश कीजिये ।' प्रजापति ने उनसे भी 'द' अक्षर कहा और पूछा 'समझ गए क्या ?' इस पर उन्होंने कहा, 'समझ गये, आपने हमसे दान करो ऐसा कहा है ।' तब प्रजापति ने कहा, 'ठीक है, तुम समझ गये' ॥२॥ अथ हैनमसुरा ऊचुर्ब्रवीतु नो भवानिति । तेभ्यो हैतदेवाक्षरमुवाच द इति व्यज्ञासिष्टा३ इति । व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दयध्वमिति न आत्थेत्योमिति होवाच व्यज्ञासिष्टेति । तदेतदेवैषा दैवी वागनुवदति स्तनयितुर्द द द इति दाम्यत दत्त दयध्वमिति । तदेतत्त्रय शिक्षेद् दमं दानं दयामिति ॥ ३॥ फिर प्रजापति से असुरोंने कहा, 'आप हमें उपदेश कीजिये।' उनसे भी प्रजापतिने 'द' यह अक्षर ही कहा और पूछा, 'समझ गये हो क्या?' असुरोंने कहा, 'समझ गये, आपने हमसे 'दया करो' ऐसा कहा है।' तब प्रजापति ने 'हाँ, समझ गये' ऐसा कहा। उस इस प्रजापतिके अनुशासन का मेघगर्जनारूपी दैवी वाक् आज भी द द द इस प्रकार अनुवाद करती है, अर्थात् दमन करो, दान दो, दया करो। अतः दम, दान और दया-इन तीनों को सीखना चाहिए। ॥३॥ ॥ इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥ ॥ द्वितीय ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः - तृतीयं ब्राह्मणम् तृतीय ब्राह्मण एष प्रजापतिर्यद्धृदयमेतद्ब्रह्मतत्सर्वम् । तदेतत्यक्षर हृदयमिति । हृ इत्येकमक्षरमभिहरन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद । द इत्येकमक्षरं ददत्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद । यमित्येकमक्षरमेति स्वर्ग लोकं य एवं वेद ॥ १॥ जो हृदय है, वह प्रजापति है। यह ब्रह्म है, यह सर्व है, यह हृदय तीन अक्षरवाला नाम है। 'ह' यह एक अक्षर है। जो ऐसा जानता है, उसके प्रति स्वजन और अन्य जन भेंट समर्पित करते हैं। 'द' यह एक अक्षर है। जो ऐसा जानता है, उसे स्वजन और अन्य जन देते हैं। 'यम्' यह एक अक्षर है। जो ऐसा जानता है, वह स्वर्गलोक को जाता है।॥१॥ ॥ इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥ ॥ तृतीय ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः - चतुर्थं ब्राह्मणम् चौथा ब्राह्मण तद्वै तदेतदेव तदास सत्यमेव । स यो हैतं महद्यक्षं प्रथमजं वेद सत्यं ब्रह्मेति जयतीमा ल्लोकाञ् जित इन्वसावसद् य एवमेतन्महद्यक्षं प्रथमजं वेद सत्यं ब्रह्मेति सत्य ह्येव ब्रह्म ॥ १॥ यह हृदय निसंदेह वही है को सत्य रुपी ब्रह्म। जो भी इस महत्, पूजनीय, सर्व प्रथम उत्पन्न हुए को 'यह सत्य ब्रह्म है' ऐसा जानता है, वह इन लोकों को जीत लेता है। उसका शत्रु उसके अधीन हो जाता है -असत् (अभावभूत) हो जाता है। जो इस प्रकार इस महत्, पूजनीय, सर्व प्रथम उत्पन्न हुए को 'सत्य ब्रह्म' इस प्रकार जानता है उसे उपर्युक्त फल मिलता है, क्योंकि ब्रह्म सत्य ही है ॥१॥ ॥ इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥ ॥ चौथा ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः – पंचमं ब्राह्मणम् पांचवां ब्राह्मण अप एवेदमग्र आसुस्ता आपः सत्यमसृजन्त सत्यं ब्रह्म ब्रह्म प्रजापतिं प्रजापतिर्देवास्ते देवाः सत्यमेवोपासते तदेतत्यक्षर सत्यमिति । स इत्येकमक्षरं तीत्येकमक्षरं यमित्येकमक्षरम् । प्रथमोत्तमे अक्षरे सत्यं मध्यतोऽनृतं तदेतदनृतमुभयतः सत्येन परिगृहीतः सत्यभूयमेव भवति । नैनंविद्वा समनृतः हिनस्ति ॥ १॥ प्रारंभ में यह व्यक्त जगत् पहले जल ही था। उस जल ने सत्य को प्रकट किया, अतः सत्य ब्रह्म है। ब्रह्म ने प्रजापति (विराट) को और प्रजापति ने देवताओं को उत्पन्न किया। वे देवगण सत्य की ही उपासना करते हैं। वह यह 'सत्य' तीन अक्षरवाला नाम है। 'स' यह एक अक्षर है, 'ती' यह एक अक्षर है और 'यम्' यह एक अक्षर है। इनमें प्रथम और अन्तिम अक्षर सत्य है और मध्य का अनृत अर्थात झूठ है। यह झूठ दोनों ओर से सत्य से परिगृहीत है। इसलिये यह सत्य जैसा ही है। इस प्रकार जाननेवाले की झूठ हिंसा नहीं करता अर्थात उसे नहीं मारता । ॥१॥ तद्यत्तत्सत्यमसौ स आदित्यो । य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषो यश्चायं दक्षिणेऽक्षन् पुरुषस्तावेतावन्योऽन्यस्मिन्प्रतिष्ठितौ रश्मिभिरेषोऽस्मिन्प्रतिष्ठितः प्राणैरयममुष्मिन् स यदोत्क्रमिष्यन्भवति शुद्धमेवैतन्मण्डलं पश्यति नैनमेते रश्मयः प्रत्यायन्ति ॥ २॥ वह जो सत्य है. वही सूर्य है है। जो इस ऊरी मंडल में पुरुष है और जो भी यह दक्षिण नेत्र में पुरुष है, वह दोनों पुरुष एक-दूसरे में प्रतिष्ठित हैं। यह सूर्य अपनी किरणों के द्वारा इस चाक्षुष पुरुष में रहता है और चाक्षुष पुरुष प्राणों के द्वारा उसमें रहता है। जिस समय यह चाक्षुष पुरुष इस शरीर से बाहर निकलने लगता है तब केवल शुद्ध किरणों से खाली मंडल को ही देखता है। फिर ये रश्मियाँ इसके पास वापस नहीं आतीं। ॥२॥ य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषस्तस्य भूरिति शिर एक शिर एकमेतदक्षरं भुव इति बाहू द्वौ बाहू द्वे एते अक्षरे स्वरिति प्रतिष्ठा द्वे प्रतिष्ठे द्वे एते अक्षरे । तस्योपनिषदहरिति । हन्ति पाप्मानं जहाति च य एवं वेद ॥ ३॥ इस मण्डल में जो यह पुरुष है, उसका 'भूः' यह सिर है, सिर एक है और यह अक्षर भी एक है। 'भुवः' यह भुजा है, भुजाएँ दो हैं और ये अक्षर भी दो हैं। 'स्वः' यह प्रतिष्ठा चरण) है, चरण दो हैं और ये अक्षर भी दो हैं। 'अहम्' यह उसका उपनिषद् अर्थात गूढ़ नाम है। जो ऐसा जानता है, वह पाप को नष्ट करता है और त्याग देता है।॥ ३ ॥ योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्तस्य भूरिति शिरः एकः शिर एकमेतदक्षरं भुव इति बाहू द्वौ बाहू द्वे एते अक्षरे स्वरिति प्रतिष्ठा द्वे प्रतिष्ठे द्वे एते अक्षरे । तस्योपनिषदहमिति । हन्ति पाप्मानं जहाति च य एवं वेद ॥ ४॥ जो दक्षिण नेत्र में पुरुष है, उसका 'भूः' यह सिर हैं; सिर एक है और यह अक्षर भी एक है। 'भुवः' यह भुजा है, भुजाएँ दो हैं और ये अक्षर भी दो हैं। स्वः यह चरण है, चरण दो हैं और ये अक्षर भी दो हैं। ॥४॥ ॥ इति पंचमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ पांचवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः – षष्ठं ब्राह्मणम् - छठा ब्राह्मण मनोमयोऽयं पुरुषो भाः सत्यस्तस्मिन्नन्तहृदये यथा व्रीहिर्वा यवो वा स एष सर्वस्य सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति यदिदं किञ्च ॥ १॥ मनोमय मन का अधिष्ठाता यह पुरुष प्रकाश प्रकाशस्वरूप है जो हृदय के अन्दर धान अथवा जों की भांति सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं। वह यह सबका स्वामी और सबका अधिपति है, तथा यह जो कुछ भी है उन सब पर शासन करता है॥१॥ ॥ इति षष्ठं ब्राह्मणम् ॥ ॥ छठा ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः – सप्तमं ब्राह्मणम् सातवाँ ब्राह्मण विद्युद् ब्रह्मेत्याहुर्विदानाद्विद्युद् विद्यत्येनं पाप्मनो य एवं वेद विद्युद्ब्रह्मेति । विद्युद्धयेव ब्रह्म ॥ १॥ कहते हैं विद्युत् ब्रह्म है। विदान-खण्डन या विनाश करने के कारण विद्युत् है। जो 'विद्युत् ब्रह्म है' ऐसा जानता है, वह इस आत्मा के प्रति पापों का नाश कर देता है, क्योंकि विद्युत् ही ब्रह्म है ॥१॥ ॥ इति सप्तमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ सातवाँ ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः - अष्टमं ब्राह्मणम् आठवां ब्राह्मण वाचं धेनुमुपासीत । तस्याश्चत्वारः स्तनाः स्वाहाकारो वषट्‌कारो हन्तकारः स्वधाकारस्तस्यै द्वौ स्तनौ देवा उपजीवन्ति स्वाहाकारं च वषट्कारं च हन्तकारं मनुष्याः स्वधाकारं पितरः । तस्याः प्राण ऋषभो मनो वत्सः ॥ १॥ वाणी की धेनु (गौ) समझ कर उपासना करनी चाहिए। उसके चार स्तन हैं-स्वाहाकार, वषट्‌कार, हन्तकार और स्वधाकार। देवता उसके दो स्तन स्वाहाकार और वषट्‌कार इन दोनों स्तनों पर जीविका करते हैं, के मनुष्य हन्तकार पर और पितर स्वधा पर जीविका करते हैं। उस धेनु का प्राण वृषभ है और मन बछड़ा है। ॥१॥ ॥ इत्यष्टमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ आठवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः - नवमं ब्राह्मणम् नवां ब्राह्मण अयमाग्निर्वैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते यदिदमद्यते । तस्यैष घोषो भवति यमेतत्कर्णावपिधाय शृणोति । स यदोत्क्रमिष्यन्भवति नैनं घोषः शृणोति ॥ १॥ जो यह पुरुष के भीतर है, यह अग्नि वैश्वानर है, जिससे कि यह अन्न, जो कि भक्षण किया जाता है, पकाया जाता है। उसी की यह आवाज होता है, जिसे पुरुष कानों को बंदकर सुनता है। जिस समय पुरुष इस शरीर से बाहर निकलने वाला होता है, उस समय वह इस ध्वनि को नहीं सुनता। ॥१॥ ॥ इति नवमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ नवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः - दशमं ब्राह्मणम् दसवां ब्राह्मण यदा वै पुरुषोऽस्माल्लोकात्प्रैति स वायुमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहीते यथा रथचक्रस्य खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते । स आदित्यमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहीते यथालम्बरस्य खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते । स चन्द्रमसमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहीते यथा दुन्दुभेः खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते । स लोकमागच्छत्यशोकमहिमं तस्मिन्वसति शाश्वतीः समाः ॥१॥ जिस समय यह पुरुष इस लोक से मरकर जाता है, उस समय वह वायु में पहुँच जाता है। वहाँ वह वायु उसके लिये मार्ग दे देता है, जैसा कि रथ के पहिये का छिद्र होता है। उसके द्वारा वह ऊपर होकर चढ़ता है। वह सूर्यलोक में पहुँच जाता है। वहाँ सूर्य उसके लिये वैसा ही मार्ग देता है, जैसा कि लम्बर नाम के बाजे का छिद्र होता है। उसमें होकर वह ऊपर की ओर चढ़कर वह चन्द्रलोक में पहुँच जाता है। वहाँ चन्द्रमा भी उसके लिये छिद्रयुक्त मार्ग ही देता है, जैसा कि दुन्दुभि का छिद्र होता है। उसके द्वारा वह ऊपर की ओर चढ़ता है। वह अशोक-मानसिक दुःख से रहित और अहिम-शारीरिक दुःख शून्य लोकमें पहुँच जाता है और उसमें सदा-अनन्त वर्षों तक अर्थात् ब्रह्मा के अनेक कल्पों तक निवास करता है। ॥१॥ ॥ इति दशमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ दसवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः – एकादशं ब्राह्मणम् ग्यारहवां ब्राह्मण एतद्वै परमं तपो यद्याहितस्तप्यते परम हैव लोकं जयति य एवं वेदैतद्वै परमं तपो यं प्रेतमरण्य हरन्ति परम हैव लोकं जयति य एवं वेदैतद्वै परमं तपो यं प्रेतमग्नावभ्यादधति परम हैव लोकं जयति य एवं वेद ॥ ११॥ व्याधियुक्त पुरुष को जो ताप होता है-यह निश्चय ही परम तप है, जो ऐसा जानता है, वह परम लोक को ही जीत लेता है। मृत पुरुष को जो वन को ले जाते हैं, यह निश्चय ही परम तप है।, जो ऐसा जानता है, वह परमलोक को ही जीत लेता है। मरे हुए मनुष्य को सब प्रकार जो अग्नि में रखते हैं, यह निश्चय ही परम तप है, जो ऐसा जानता है, वह परमलोक को ही जीत लेता है ॥१॥ ॥ इति एकादशं ब्राह्मणम् ॥ ॥ ग्यारहवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः - द्वादशं ब्राह्मणम् बारहवां ब्राह्मण अन्नं ब्रह्मेत्येक आहुस्तन्न तथा पूयति वा अन्नमृते प्राणात् प्राणो ब्रह्मेत्येक आहुस्तन्न तथाशुष्यति वै प्राण ऋतेऽन्नाद् एते ह त्वेव देवतेएकधाभूयं भूत्वा परमतां गच्छतस्तद्ध स्माऽऽह प्रातृदः पितरं कि स्विदेवैवं विदुषे साधु कुर्यां किमेवास्मा असाधु कुर्यामिति । स ह स्माह पाणिना मा प्रातृद कस्त्वेनयोरेकधाभूयं भूत्वा परमतां गच्छतीति । तस्मा उ हैतदुवाच वीत्यन्नं वै वि अन्ने हीमानि सर्वाणि भूतानि विष्टानि। रमिति प्राणो वै रं प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि रमन्ते । सर्वाणि ह वा अस्मिन् भूतानि विशन्ति सर्वाणि भूतानि रमन्ते य एवं वेद ॥ १२॥ कोई हैं कि अन्न ब्रह्म है, कितु ऐसी बात नहीं है, क्योंकि प्राण के बिना अन्न गल जाता है। कोई कहते हैं कि प्राण ब्रह्म है, कितु ऐसी बात नहीं है, क्योंकि अन्न के बिना प्राण सूख जाता है। परन्तु रह दोनों देव एक रूपता को प्राप्त होकर परम भाव को प्राप्त होते हैं। ऐसा निश्चय कर प्रात्रद ऋषि ने अपने पिता से कहा था- इस प्रकार जानने वाला मैं क्या शुभ करूँ अथवा क्या अशुभ करूँ? क्योंकि प्रसन्न कतार्थ हो जाने के कारण उसका न तो शुभ किया जा सकता है और न अशुभ ही। पिता ने हाथ से निवारण करते हुए कहा- प्रात्रद! ऐसा मत कहो। इन दोनों की एकरूपता को प्राप्त कर कौन परमता को प्राप्त होता है। अतः उन्होंने उससे 'वि' ऐसा कहा। 'वि' यही अन्न है। वि रूप अन्न में ही यह सब भूत प्रविष्ट हैं। रम यह प्राण है, क्योंकि रम अर्थात प्राण में ही यह सब भूत रमण करते हैं। जो ऐसा जानता है, उसमे यह सब भूत प्रविष्ट होते हैं और सभी भूत रमण करते हैं। ॥ इति द्वादशं ब्राह्मणम् ॥ ॥ बारहवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः - त्रयोदशं ब्राह्मणम् तेहरावां ब्राह्मण उक्थं प्राणो वा उक्थं प्राणो हीद सर्वमुत्थापयत्युद्धास्मा धस्मादुक्थविद्वीरस्तिष्ठत्युक्थस्य सायुज्य सलोकतां जयति य एवं वेद ॥ १॥ 'उक्थ' इस प्रकार प्राण की उपासना करे। प्राण ही उक्थ है, क्योंकि प्राण ही इन सब को उठाता है। जो ऐसा जानता है, उस से उक्थ का जानने वाला वीरपुत्र उत्पन्न होता है। जो ऐसी उपासना करता है, उसे प्राण के सायुज्य और सलोकता को जीतता है। ॥१॥ यजुः प्राणो वै यजुः प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि युज्यन्ते । युज्यन्ते हास्मै सर्वाणि भूतानि श्रेष्ठ्याय यजुषः सायुज्य सलोकतां जयति य एवं वेद ॥ २॥ 'यजुः' इस प्रकार प्राण की उपासना करे। प्राण ही यजु है, क्योंकि प्राण में ही इन सब प्राणियों का योग होता है। सम्पूर्ण भूत इसकी श्रेष्ठता के कारण इससे संयुक्त होते हैं। जो ऐसी उपासना करता है, वह यजु के सायुज्य और सलोकता को प्राप्त होता है। ॥२॥ साम प्राणो वै साम प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि सम्यञ्चि । सम्यञ्चि हास्मै सर्वाणि भूतानि श्रेष्ठ्याय कल्पन्ते साम्नः सायुज्य सलोकतां जयति य एवं वेद ॥ ३॥ 'साम' इस प्रकार प्राण की उपासना करे। प्राण ही साम है, क्योंकि प्राण में ही यह सभी प्राणी सुसंगत होते हैं। समस्त भूत उसके लिये सुसंगत होते हैं तथा उसकी श्रेष्ठता के लिये समर्थ होते हैं। जो इस प्रकार उपासना करता है, वह साम के सायुज्य और सलोकता को प्राप्त होता है ॥३॥ क्षत्रं प्राणो वै क्षत्रं प्राणो हि वै क्षत्रं त्रायते हैनं प्राणः क्षणितोः । प्र क्षत्रमत्रमप्नोति क्षत्रस्य सायुज्य सलोकतां जयति य एवं वेद ॥ ४॥ प्राण क्षत्र है-इस प्रकार प्राण की उपासना करे। प्राण ही क्षत्र अर्थात प्राण इसको क्षति से बचाता है। प्राण ही क्षत्र है-यह प्रसिद्ध है। प्राण इस देह की शस्त्रादि जनित क्षत से रक्षा करता है। अन्य किसी से त्राण न पाने वाले क्षत्र (प्राण) को प्राप्त होता है। जो इस प्रकार उपासना करता है, वह क्षत्र के सायुज्य और सलोकता को जीत लेता है ॥४॥ ॥ इति त्रयोदशं ब्राह्मणम् ॥ ॥ तेहरवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः – चतुर्दशं ब्राह्मणम् चौदहवां ब्राह्मण भूमिरन्तरिक्षं द्यौरित्यष्टावक्षराण्यष्टाक्षर ह वा एकं गायत्र्यै पदमेतदु हैवास्या एतत् स यावदेषु त्रिषु लोकेषु तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद ॥ १॥ भूमि, अंतरिक्ष और द्यौ, यह आठ अक्षर हैं। आठ अक्षर वाला ही गायत्री का एक (प्रथम) पाद है। यह त्रिलोकी आदि ही इस गायत्रीका प्रथम पाद है। इस प्रकार इसके इस पद को जो जानता है, वह इस त्रिलोकी में जितना कुछ है, उस सबको जीत लेता है ॥१॥ ऋचो यजूंषि सामानीत्यष्टावक्षराण्यष्टाक्षर ह वा एकं गायत्र्यै पदम् । एतदु हैवास्या एतत् स यावतीयं त्रयी विद्या तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद ॥ २॥ 'ऋचः, यजूंषि सामानि' ये आठ अक्षर हैं। आठ अक्षरवाला ही गायत्री का एक (द्वितीय) पाद है। यह (ऋक् आदि) ही इस गायत्री का द्वितीय पाद है। जो इस प्रकार इसके इस पाद को जानता है, वह जितनी यह त्रयीविद्या है अर्थात् त्रयीविद्या का जितना फल है उस सभी को जीत लेता है। ॥२॥ प्राणोऽपानो व्यान इत्यष्टावक्षराणि अष्टाक्षर ह वा एकं गायत्र्यै पदमेतदु हैवास्या एतत् स यावदिदं प्राणि तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद अथास्या एतदेव तुरीयं दर्शतं पदं परोरजा य एष तपति यद्वै चतुर्थं तत्तुरीयं दर्शतं पदमिति ददृश इव ह्येष परोरजा इति सर्वमु ह्येवैष रज उपर्युपरि तपत्येव हैव श्रिया यशसा तपति योऽस्या एतदेवं पदं वेद ॥ ३॥ प्राण, अपान, व्यान-ये आठ अक्षर हैं। आठ अक्षरवाला ही गायत्रीका एक (तृतीय) पाद है। यह प्राणादि ही इस गायत्री का 'तृतीय' पाद है। जो गायत्री के इस पद को इस प्रकार जानता है, वह जितना यह प्राणी समुदाय है, सबको जीत लेता है। और यह जो तपता (प्रकाशित होता) है वही इसका तुरीय, दर्शत एवं परोरजा पद है। जो चतुर्थ होता है, वही 'तुरीय' कहलाता है। 'दर्शतं पदम्' इसका अर्थ है-मानो यह सूर्य मण्डलस्थ पुरुष दीखता है, 'परोरजा' इसका अर्थ है-यह सभी रज यानी लोकों के ऊपर-ऊपर रहकर प्रकाशित होता है। जो गायत्री के इस चतुर्थ पदको इस प्रकार जानता है, वह इसी प्रकार शोभा और कीर्ति से प्रकाशित होता है। ॥३॥ सैषा गायत्र्येतस्मिन्स्तुरीये दर्शते पदे परोरजसि प्रतिष्ठिता तद्वै तत्सत्ये प्रतिष्ठितं चक्षुर्वै सत्यं चक्षुर्हि वै सत्यं तस्माद्यदिदानीं द्वौ विवदमानावेयातामहम् अदर्श अहमश्रौषमिति य एव एवं ब्रूयादहम् अदर्शमिति तस्मा एव श्रद्दद्ध्याम । तद्वै तत्सत्यं बले प्रतिष्ठितं प्राणो वै बलं तत्प्राणे प्रतिष्ठितं तस्मादाहुर्बल सत्यादोगीय इत्येवं वेषा गायत्र्यध्यात्मं प्रतिष्ठिता। सा हैषा गया स्तत्रे प्राणा वै गयास्तत्प्राणास्तत्रे तद्यद्गया स्तत्रे तस्माद् गायत्री नाम । स यामेवामू सावित्रीमन्वाहैषैव सा । स यस्मा अन्वाह तस्य प्राणास्त्रायते ॥ ४॥ वह गायत्री इस चतुर्थ दर्शत परोरजा पद में प्रतिष्ठित है। वह पद सत्य में प्रतिष्ठित है। नेत्र ही सत्य है, नेत्र ही सत्य है-यह प्रसिद्ध है। इसी से यदि दो पुरुष 'मैंने देखा है' मैंने सुना है' इस प्रकार विवाद करते हुए आयें तो उनमें से जो यह कहता होगा कि 'मैंने देखा है, उसी का हम विश्वास करेंगे। वह तुरीय पादका आश्रयभूत सत्य बल में प्रतिष्ठित है। प्राण ही बल है, वह सत्य प्राण में प्रतिष्ठित है। इसी से कहते हैं कि सत्य की अपेक्षा बल ओजस्वी है। इस प्रकार यह गायत्री अध्यात्म प्राण में प्रतिष्ठित है। उस इस गायत्री ने गयों का त्राण किया था। प्राण ही गय हैं, उन प्राणों का इसने त्राण किया। इसने गयों का त्राण किया था, इसी से इसका 'गायत्री' नाम हुआ। आचार्य ने आठ वर्ष के वटु के प्रति उपनयन के समय जिस सावित्री का उपदेश किया था, वह यही है। वह जिस-जिस वटु को इसका उपदेश करता है, यह उसके उसके प्राणों की रक्षा करती है ॥४॥ ता हैतामेके सावित्रीमनुष्टुभमन्वाहुर्वागनुष्टुब् एतद्वाचमनुब्रूम इति । न तथा कुर्याद् गायत्रीमेवानुब्रूयाद् । यदि ह वा अप्येवंविद्वह्निव प्रतिगृह्णाति न हैव तद्गायत्र्या एकं चन पदं प्रति ॥ ५॥ कोई शाखा वाले इस अनुष्टुप छंद वाली सावित्री का उपदेश करते हैं अर्थात गायत्री छन्दवाली सावित्री का उपदेश न करके अनुष्टुप छंद की सावित्री का उपदेश करते हैं। वे कहते हैं कि वाणी अनुष्टुप् है, इसलिये हम वाणी का ही उपदेश करते हैं। किंतु ऐसा नहीं करना चाहिये। गायत्री छन्दवाली सावित्री का ही उपदेश करना चाहिए। ऐसा जाननेवाला जो अधिक प्रतिग्रह भी करे तो भी वह गायत्री के एक पद के बराबर भी नहीं हो सकता ॥५॥ स य इमास्त्रींल्लोकान्पूर्णान्प्रतिगृह्णीयात् सोऽस्या एतत्प्रथमं पदमाप्नुयाद् । अथ यावतीयं त्रयी विद्या यस्तावत्प्रतिगृह्णीयात् सोऽऽस्या एतद्द‌वितीयं पदमाप्नुयादथ यावदिदं प्राणि यस्तावत्प्रतिगृह्णीयात् सोऽस्या एतत्तृतीयं पदमाप्नुयादथास्या एतदेव तुरीयं दर्शतं पदं परोरजा य एष तपति नैव केन चनाप्यं कुत उ एतावत्प्रतिगृह्णीयात् ॥ ६॥ जो इन तीन पूर्ण लोकों का प्रतिग्रह करता है, उसका वह (प्रतिग्रह) इस गायत्री के इस प्रथम पाद को व्याप्त करता है और जितनी यह त्रयीविद्या है, उसका जो प्रतिग्रह करता है, वह (प्रतिग्रह) इसके इस द्वितीय पाद को व्यास करता है और जितने ये प्राणी हैं, उनका जो प्रतिग्रह करता है, वह (प्रतिग्रह) इसके इस तृतीय पदको व्याप्त करता है और यही इसका तुरीय दर्शत परोरजा पद है, जो कि यह तपता है, यह किसी के द्वारा प्राप्य नहीं है; क्योंकि इतना प्रतिग्रह कोई कहाँ से कर सकता है? ॥६॥ तस्या उपस्थानं गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि न हि पद्यसे । नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापदिति यं द्विष्यादसावस्मै कामो मा समृद्धीति वा न हैवास्मै स कामः समृद्ध्यते यस्मा एवमुपतिष्ठतेऽहमदः प्रापमिति वा ॥ ७॥ उस गायत्री का उपस्थान-हे गायत्रि! तू त्रैलोक्य रूप प्रथम पाद से एक पाद वाली है, तीनों वेदरूप द्वितीय पाद से द्विपदी है, प्राण, अपान और व्यानरूप तीसरे पाद से त्रिपदी है और तुरीय पाद से चतुष्पदी है, इन सबसे परे निरुपाधिक स्वरूप से तू अपद है; क्योंकि तू जानी नहीं जाती। अतः व्यवहार के अविषय भूत एवं समस्त लोकों से ऊपर विराजमान तेरे दर्शनीय तुरीय पदको नमस्कार है। यह पापरूपी शत्रु इस विघ्नाचरण रूप कार्य में सफलता नहीं प्राप्त करे। इस प्रकार यह विद्वान् जिससे द्वेष करता हो 'उसकी कामना पूर्ण न हो' ऐसा कहकर उपस्थान करे। जिसके लिये इस प्रकार उपस्थान किया जाता है, उसकी कामना पूर्ण नहीं होती। अथवा 'मैं इस वस्तुको प्राप्त करूँ' ऐसी कामना से उपस्थान करे। ॥७॥ एतद्ध वै तज्जनको वैदेहो बुडिलमाश्वतराश्विमुवाच यन्नु हो तद्गायत्रीविदब्रूथा अथ कथ हस्ती भूतो वहसीति । मुख ह्यस्याः सम्राण् न विदां चकारेति होवाच । तस्या अग्निरेव मुखं यदि ह वा अपि बह्निवाग्नावभ्यादधति सर्वमेव तत्सन्दहत्येवर हैवैवंविद् यद्यपि बह्निव पापं कुरुते सर्वमेव तत्सम्प्साय शुद्धः पूतोऽजरोऽमृतः सम्भवति ॥ ८॥ उस विदेह जनकने बुडिल आश्वतराश्विसे यही बात कही थी कि 'तूने जो अपने को गायत्रीविद् अर्थात गायत्री-तत्त्व का ज्ञाता कहा था, तो फिर प्रतिग्रह के दोष से हाथी के समान भार क्यों ढोता है?' इस पर उसने 'हे सम्राट् ! मैं इसका मुख ही नहीं जानता था' कहा। तब जनकने कहा 'इसका अग्नि ही मुख है। यदि अग्निमें लोग बहुत-सा ईंधन रख दें तो वह उन सभी को जला डालता है। इसी प्रकार ऐसा जानने वाला बहुत-सा पाप करता रहा हो तो भी वह उस सबको भक्षण करके शुद्ध, पवित्र, अजर, अमर हो जाता है। ॥८॥ ॥ इति चतुर्दशं ब्राह्मणम् ॥ ॥ चौदहवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः – पञ्चदशं ब्राह्मणम् - पंद्रहवां ब्राह्मण हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । तत्त्वं पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये । पूषन् एकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् । समूह तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि । योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि । वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तः शरीरम् । ॐ३ क्रतो स्मर कृतः स्मर क्रतो स्मर कृत स्मर । अग्ने नय सुपथा रायेऽस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् । युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥ १॥ सत्य संज्ञक ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से आच्छादित है। हे संसार का पोषण करनेवाले सूर्यदेव! तू उसे, मुझ, सत्यधर्म के प्रति उसके दर्शनके लिये उघाड़ दे। हे पूषन् ! हे एकर्षे! हे यम! हे सूर्य ! हे प्राजापत्य ! अपनी किरणों को हटा ले और तेज को समेट ले। तेरा जो अत्यन्त कल्याण मय रूप है, उसे मैं देखता हूँ। यह जो सूर्य मण्डल में स्थित पुरुष है, वही मैं अमृतस्वरूप हूँ। मुझ अमृत एवं सत्य स्वरूप आत्मा का शरीरपात हो जानेपर इस शरीरके भीतर का प्राणवायु इस बाह्यवायुको प्राप्त हो तथा यह शरीर भस्म शेष होकर पृथ्वी को प्राप्त हो। हे प्रणवरूप एवं मनोमय क्रतुरूप अग्निदेव ! जो स्मरण करने योग्य है, उसका स्मरण कर। मैंने जो किया है, उसका स्मरण कर। हे क्रतुरूप अग्निदेव । जो स्मरण करने योग्य है, उसका स्मरण कर; किये हुए का स्मरण कर। हे अग्ने ! हमें तू कर्मफल की प्राप्ति के लिये शुभ मार्ग अर्थात देवयान मार्ग से ले चल। हे देव ! तू सम्पूर्ण प्राणियों के समस्त प्रज्ञानों को जाननेवाला है। हमारे कुटिल पापों को हमसे दूर कर। हम तुझे अनेकों बार नमस्कार करते हैं। ॥१॥ ॥ इति पञ्चदशं ब्राह्मणम् ॥ ॥ पंद्रहवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ इति बृहदारण्यकोपनिषदि पञ्चमोऽध्यायः ॥ ॥ बृहदारण्य उपनिषद का पांचवां अध्याय समाप्त ॥

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