Maha Upanishad Chapter 5 (महा उपनिषद) पांचवां अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ महोपनिषत् ॥ ॥ महा उपनिषद ॥ पंचमोऽध्यायः पांचवां अध्याय ऋभुः ॥ अथापरं प्रवक्ष्यामि शृणु तात यथायथम् । अज्ञानभूः सप्तपदा ज्ञभूः सप्तपदैव हि ॥ १॥ पदान्तराण्यसंख्यानि प्रभवन्त्यन्यथैतयोः । स्वरूपावस्थितिर्मुक्तिस्तद्भ्रंशोऽहंत्ववेदनम् ॥ २॥ शुद्धसन्मात्रसंवित्तेः स्वरूपान्न चलन्ति ये । रागद्वेषादयो भावास्तेषां नाज्ञत्वसंभवः ॥ ३॥ यः स्वरूपपरिभ्रंशश्चत्वार्थे चिति मज्जनम् । एतस्मादपरो मोहो न भूतो न भविष्यति ॥ ४॥ अर्थादर्थान्तरं चित्ते याति मध्ये तु या स्थितिः । सा ध्वस्तमननाकारा स्वरूपस्थितिरुच्यते ॥ ५॥ संशान्तसर्वसंकल्पा या शिलावदवस्थितिः । जाग्रन्निद्राविनिर्मुक्ता सा स्वरूपस्थितिः परा ॥ ६॥ अहन्तांशे क्षते शान्ते भेदनिष्पन्दचित्तता । अजडा या प्रचलति तत्स्वरूपमितीरितम् ॥ ७॥ पुनः महर्षि ऋभु ने कहा- हे पुत्र! मेरे द्वारा कहे वचनों को भली प्रकार सुनो । अज्ञान और ज्ञान इन दोनों की सात-सात भूमिकायें हैं। इनके बीच में अनेक दूसरी भूमिकायें उत्पन्न होती हैं। अहंभाव ही मूल स्वरूप से पृथक् करने वाला है। स्वरूप में अवस्थित होना ही मुक्ति है। शुद्ध सत्तारूप बोध ही आत्मा का रूप है, जो उस बोध की अवस्था से हटते नहीं, ऐसे साधकों को अज्ञान से पैदा हुए राग-द्वेषादि दूषित विकार प्रभावित नहीं कर पाते। आत्मस्वरूप से हटकर वासनात्मक स्वरूप में जो चित् का डूबना है, इससे अधिक मोहग्रस्त होना दूसरा नहीं कहा जाएगा और न हो सकता है। एक विषय से दूसरे विषय में प्रवेश करते हुए जो मध्य में मन की अवस्था होती है, उसे ध्वस्तमनन' के स्वरूप वाली स्थिति समझा जाता है, लेकिन सभी संकल्पों के पत्थर की शिला के समान भली प्रकार शान्त हो जाने पर निश्चेष्ट अवस्था जिसमें जाग्रत् और स्वप्नावस्था भी प्रायः चेष्टारहित होती है, वही परास्वरूप स्थिति कहलाती है। अहंभाव के क्षीण हो जाने पर शान्त, चेतन तथा भेदभाव से रहित चित्त की स्थिति ही स्वरूप अवस्था कहलाती है॥१-७॥ बीजं जाग्रत्तथा जाग्रन्महाजाग्रत्तथैव च । जाग्रत्स्वप्नस्तथा स्वप्नः स्वप्नजाग्रत्सुषुप्तिकम् ॥ ८॥ इति सप्तविधो मोहः पुनरेष परस्परम् । श्लिष्टो भवत्यनेकाग्र्यं श्रुणु लक्षणमस्य तु ॥ ९॥ मोह के सात प्रकार कहे गये हैं, जो इस प्रकार हैं-१. बीज जाग्रत् अवस्था, २. जाग्रत् अवस्था, ३. महाजाग्रत् अवस्था ४. जाग्रत्स्वप्नावस्था ५. स्वप्नावस्था ६. स्वप्न जाग्रत् अवस्था, ७. सुषुप्तावस्था । तत्पश्चात् यही परस्पर मिलकर असंख्य रूप धारण कर लेते हैं। अब इन सबके अलग-अलग लक्षण सुनें ॥८-९॥ प्रथमं चेतनं यत्स्यादनाख्यं निर्मलं चितः । भविष्यच्चित्तजीवादिनामशब्दार्थभाजनम् ॥ १०॥ बीजरूपस्थितं जाग्रगीजजाग्रत्तदुच्यते । एषा ज्ञप्तेर्नवावस्था त्वजाग्रत्संस्थितिं श्रुणु ॥ ११॥ प्रथम 'बीज जाग्रत् अवस्था' वह है, जो नामरहित शुद्धचेतन की भविष्यत् में घटित होने वाली, चित्तजीव आदि नाम के शब्दार्थरूप सम्बोधन से युक्त अवस्था है। वह बीजरूप में स्थित जाग्रत्-अवस्था बीज जाग्रत् नाम से प्रसिद्ध है। यह ज्ञाता की नूतन अवस्था है। अब आप जाग्रत् अवस्था की यथार्थ स्थिति सुनें ॥१०-११॥ नवप्रसूतस्य परादयं चाहमिदं मम । इति यः प्रत्ययः स्वस्थस्तज्जाग्रत्प्रागभावनात् ॥ १२॥ अयं सोऽहमिदं तन्म इति जन्मान्तरोदितः । पीवरः प्रत्ययः प्रोक्तो महाजाग्रदिति स्फुटम् ॥ १३॥ अरूढमथवा रूढं सर्वथा तन्मयात्मकम् । यज्जाग्रतो मनोराज्यं यज्जाग्रत्स्वप्न उच्यते ॥ १४॥ द्विचन्द्रशुक्तिकारूप्यमृगतृष्णादिभेदतः । अभ्यासं प्राप्य जाग्रत्तत्स्वप्नो नानाविधो भवेत् ॥ १५॥ नवजात जीव के अन्तरंग में 'यह मैं हूँ, यह मेरा है' अर्थात् मैं और मेरेपन के भावों की स्थिति ही मोह की दूसरी 'जाग्रत् अवस्था' कही जाती है; क्योंकि उससे पूर्व यह भावना नहीं थी। महाजाग्रत्' अवस्था वह है, जिसमें यह वह व्यक्ति है, यह मैं हूँ, वह मेरी चीज है' आदि भावनाएँ पूर्वजन्मों के संस्कार सहित विदित होती हैं। अप्रचलित (अरूढ़) अथवा प्रचलित (रूढ़) एवं तन्मय होकर जो मन की काल्पनिक रचना जाग्रत् । अवस्था में होती है, वह 'जाग्रत्-स्वप्न' कही गयी है। एक चन्द्रमा की जगह दो चन्द्रमाओं का, सीप में चाँदी का तथा मृग-मरीचिका में (बालू में) जल का आभास होना इत्यादि (जाग्रत् अवस्था में) अभ्यास को प्राप्त हुए जाग्रत्-स्वप्न के विभिन्न प्रकार हैं॥१२-१५॥ अल्पकालं मया दृष्टमेतन्नोदेति यत्र हि । परामर्षः प्रबुद्धस्य स स्वप्न इति कथ्यते ॥ १६॥ चिरं संदर्शनाभावादप्रफुल्लं बृहद्वचः । चिरकालानुवृत्तिस्तु स्वप्नो जाग्रदिवोदितः ॥ १७॥ स्वप्नजाग्रदिति प्रोक्तं जाग्रत्यपि परिस्फुरत् । षडवस्था परित्यागो जडा जीवस्य या स्थितिः ॥ १८ ॥ भविष्यदुःखबोधाढ्या सौषुप्तिः सोच्यते गतिः । जगत्तस्यामवस्थायामन्तस्तमसि लीयते ॥ १९॥ 'स्वप्नावस्था' वह कहलाती है, जिसमें कुछ समय पूर्व देखा गया दृश्य पुनः दृष्टिगोचर न हो और जागने पर उस दृश्य की मनुष्य को स्मृति मात्र शेष रहे। इसके पश्चात् 'स्वप्न जाग्रत् अवस्था वह है, जिसमें पूरे विकास को न प्राप्त हुआ स्वप्न जो अनेक क्रिया-कलापों द्वारा देर तक टिके तथा जो जाग्रत् की तरह ही उत्पन्न हो अथवा जागते हुए भी स्वप्न दिखाई दे। इन छः अवस्थाओं को पारकर जब जीव की जड़ात्मक स्थिति में प्रतिष्ठापना होती है, उस बीते हुए दुःखबोध से युक्त अवस्था को ही 'सुषुप्ति' कहा गया है। उस स्थिति में यह संसार आन्तरिक अंधकार में विलीन हो जाता है॥१६-१९॥ सप्तावस्था इमाः प्रोक्ता मया ज्ञानस्य वै द्विज । एकैका शतसंख्यात्र नानाविभवरूपिणी ॥ २०॥ इमां सप्तपदां ज्ञानभूमिमाकर्णयानघ । नानया ज्ञातया भूयो मोहपङ्के निमज्जति ॥ २१॥ हे ब्रह्मन् ! मैंने तुम्हारे प्रति अज्ञानजनित मोह की सात भूमिकाओं को बतलाया। इसमें से प्रत्येक भूमिका विभिन्न ऐश्वर्ययुक्त, विभिन्न अवस्थाओं के रूप में विविध रूप धारण करने वाली है। हे निष्पाप पुत्र! अब मैं तुम्हें ज्ञान की जो सात भूमिकायें हैं, उन्हें सुनाता हूँ, जिन्हें जान लेने पर मनुष्य मोहपङ्क में नहीं फँसता ॥ २०-२१॥ वदन्ति बहुभेदेन वादिनो योगभूमिकाः । मम त्वभिमता नूनमिमा एव शुभप्रदाः ॥ २२॥ अवबोधं विदुर्ज्ञानं तदिदं साप्तभूमिकम् । मुक्तिस्तु ज्ञेयमित्युक्ता भूमिकासप्तकात्परम् ॥ २३॥ ज्ञानीजनों ने योग भूमिकाओं के बहुविध भेद बतलाये हैं, परन्तु मैं तो इन सात भूमिकाओं को ही विशेष लाभप्रद मानता हूँ। इस प्रकार इन सात भूमिकाओं द्वारा उत्पन्न होने वाला अवबोध ही 'ज्ञान' कहलाता है। इन सात भूमिकाओं के अन्तर्गत होने वाली मुक्ति 'ज्ञेय' कही जाती है॥२२-२३॥ ज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा समुदाहृता । विचारणा द्वितीया तु तृतीया तनुमानसी ॥ २४॥ सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततोऽ संसक्तिनामिका । पदार्थभावना षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता ॥ २५॥ आसामन्तस्थिता मुक्तिर्यस्यां भूयो न शोचति । एतासां भूमिकानां त्वमिदं निर्वचनं श्रुणु ॥ २६॥ पहली ज्ञान भूमिका को 'शुभेच्छा' नाम दिया गया है। दूसरी 'विचारणा', तीसरी 'तनुमानसी', चौथी 'सत्त्वापत्ति', पाँचवीं 'असंसक्ति', छठवीं 'पदार्थभावना' तथा सातवीं 'तुर्यगा' है। इन भूमिकाओं में पुनः शोकाकुल न होने देने वाली मुक्ति निहित है। अब तुम इन भूमिकाओं का विस्तार सुनो ॥२४-२६॥ स्थितः किं मूढ एवास्मि प्रेक्षेऽहं शास्त्रसज्जनैः । वैराग्यपूर्वमिच्छेति शुभेच्छेत्युच्यते बुधैः ॥ २७॥ शास्त्रसज्जनसम्पर्कवैराग्याभ्यासपूर्वकम् । सदाचारप्रवृत्तिर्या प्रोच्यते सा विचारणा ॥ २८॥ मैं भ्रमितमति क्यों हैं? शास्त्र तथा श्रेष्ठ जनों से मैं इस सम्बन्ध में चर्चा करूंगा-इस प्रकार से वैराग्य धारण करने से पूर्व जो अभिलाषा जागती है, उसे ज्ञानियों ने 'शुभेच्छा' नाम दिया है। इसके बाद शास्त्र तथा श्रेष्ठ जनों के सान्निध्य लाभ से अध्ययन आदि के द्वारा अभ्यास एवं वैराग्य भावना से सदाचार की प्रवृत्तियों का प्राकट्य होता है, उसे ही विचारणा' नाम दिया है॥ २७-२८॥ विचारणाशुभेच्छाभ्यामिन्द्रियार्थेषु रक्तता । यत्र सा तनुतामेति प्रोच्यते तनुमानसी ॥ २९॥ भूमिकात्रितयाभ्यासाच्चित्ते तु विरतेर्वशात् । सत्त्वात्मनि स्थिते शुद्धे सत्त्वापत्तिरुदाहृता ॥ ३०॥ शुभेच्छा और विचारणा द्वारा इन्द्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति जब क्षीण हो जाती है, ऐसी अवस्था को 'तनुमानसी' कहा गया है। इन तीन भूमिकाओं के अभ्यास द्वारा वैराग्य भाव के प्राबल्य से जब चित्त निर्मल सत्त्वरूप में स्थित होता है, इसी अवस्था को 'सत्त्वापत्ति' कहते हैं॥२९-३०॥ दशाचतुष्टयाभ्यासादसंसर्गकला तु या । रूढसत्त्वचमत्कारा प्रोक्ता संसक्तिनामिका ॥ ३१॥ भूमिकापञ्चकाभ्यासात्स्वात्मारामतया दृढम् । आभ्यन्तराणां बाह्यानां पदार्थानामभावनात् ॥ ३२॥ परप्रयुक्तेन चिरं प्रयत्नेनावबोधनम् । पदार्थभावना नाम षष्ठी भवति भूमिका ॥ ३३॥ इन सभी भूमिकाओं का अभ्यास हो जाने पर चमकने वाली संसर्गहीन कला सत्त्वारूढ़ होती है, वही 'असंसक्ति कहलाती है। इन पाँचों भूमिकाओं के अभ्यास के फलस्वरूप अपनी चेतना में ही रमते रहने तथा बाह्याभ्यन्तर पदार्थों की भावना के नष्ट होने पर पदार्थ भावना' नामक छठी भूमिका में पदार्पण होता है॥३१-३३॥ भूमिषट्कचिराभ्यासाद्भेदस्यानुपलम्बनात् । यत्स्वभावैकनिष्ठत्वं सा ज्ञेया तुर्यगा गतिः ॥ ३४॥ एषा हि जीवन्मुक्तेषु तुर्यावस्थेति विद्यते । विदेहमुक्तिविषयं तुर्यातीतमतः परम् ॥ ३५॥ इन छः भूमियों के परिपक्व हो जाने पर भेद-बुद्धि का क्षय हो जाता है और आत्म-भाव में ही साधक की दृढ़निष्ठा हो जाती है, यही 'तुर्यगा' अवस्था कही गयी है। इस तुर्यावस्था को जीवन्मुक्त पुरुष ही उपलब्ध कर पाते हैं। इसके बाद तुर्यातीत अवस्था है, जो विदेह मुक्ति का विषय है॥३४-३५॥ ये निदाघ महाभागाः साप्तमीं भूमिमाश्रिताः । आत्मारामा महात्मानस्ते महत्पदमागताः ॥ ३६॥ जीवन्मुक्ता न मज्जन्ति सुखदुःखरसस्थिते । प्रकृतेनाथ कार्येण किंचित्कुर्वन्ति वा न वा ॥ ३७॥ हे निष्पाप ! जो अति भाग्यवान् पुरुष सप्तमी तुर्यगावस्था को प्राप्त कर लेते हैं, वे आत्मा में रमणशील महात्मा महत्पद (परमपद) को ग्रहण कर चुके हैं। ऐसी जीवन्मुक्त आत्मायें सुख-दुःख के अनुभवों से सर्वथा निर्लिप्त रहती हैं। वे कर्तव्य कर्मों में संलग्न रहकर भी उनसे लिप्त नहीं होर्ती ॥३६-३७॥ पार्श्वस्थबोधिताः सन्तः पूर्वाचरक्रमागतम् । आचारमाचरत्येव सुप्तबुद्धवदुत्थिताः ॥ ३८॥ भूमिकासप्तकं चैतद्धीमतामेव गोचरम् । प्राप्य ज्ञानदशामेतां पशुम्लेच्छादयोऽपि ये ॥ ३९॥ सदेहा वाप्यदेहा वा ते मुक्ता नात्र संशयः । ज्ञ ञप्तिर्हि ग्रन्थिविच्छेदस्तस्मिन्सति विमुक्तता ॥ ४०॥ अपने निकटस्थ परिजनों के सचेत किये जाने पर जैसे मनुष्य सोते से जाग पड़ता है, वैसे ही वे ज्ञानीजन सत्कर्मों में संलग्न रहकर सनातन आचरण की परम्परा निभाते हैं। इन सात भूमिकाओं को यदि पशु और म्लेच्छ आदि भी जान लें, तो वे भी देह रहते या देहत्याग के पश्चात् मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं, इसमें सन्देह की गुंजायश नहीं । हृदय-ग्रन्थियों का खुल जाना ही ज्ञान है और ज्ञान प्राप्ति हो जाने पर मुक्ति सुनिश्चित है॥३८-४०॥ मृगतृष्णाम्बुबुद्ध्य्यादिशान्तिमात्रात्मकस्त्वसौ । ये तु मोहार्णवात्तीर्णास्तैः प्राप्तं परमं पदम् ॥ ४१॥ ते स्थिता भूमिकास्वासु स्वात्मलाभपरायणाः । मनःप्रशमनोपायो योग इत्यभिधीयते ॥ ४२॥ जैसे मृर्ग-तृष्णा में जल की भ्रान्ति होती है, इसे ही अविद्या कहा गया है, अविद्या का नाश ही मुक्ति है। परमपद के अधिकारी वही हैं, जो मोहरूपी सागर से पार हो चुके हैं। आत्मसाक्षात्कार के प्रयत्नों में संलग्न पुरुष ही इन भूमिकाओं में प्रतिष्ठित होते हैं। मन की पूर्णतया शान्ति के साधन को योग कहा गया है॥४१-४२॥ सप्तभूमिः स विज्ञेयः कथितास्ताश्च भूमिकाः । एतासां भूमिकानां तु गमं ब्रह्माभिधं पदम् ॥ ४३॥ त्वत्ताहन्तात्मता यत्र परता नास्ति काचन । न क्वचिद्भावकलना न भावाभाव गोचरा ॥ ४४॥ सर्वं शान्तं निरालम्बं व्योमस्थं शाश्वतं शिवम् । अनामयमनाभासमनामकमकारणम् ॥ ४५॥ न सन्नसन्न मध्यान्तं न सर्वं सर्वमेव च । मनोवचोभिरग्राह्यं पूर्णात्पूर्ण सुखात्सुखम् ॥ ४६॥ असंवेदनमाशान्तमात्मवेदनमाततम् । सत्ता सर्वपदार्थानां नान्या संवेदनादृते ॥ ४७ ॥ योग की इन सात भूमिकाओं को ज्ञानभूमि के अन्तर्गत ऊपर बतलाया जा चुका है। इन भूमिकाओं का लक्ष्य है-ब्रह्मपद की प्राप्ति । जहाँ तेरा-मेरा और अपने-परायेपन का संकीर्ण भाव मिट जाता है, उस समय न तो भावात्मक बुद्धि अवशेष रहती है और न ही भाव- अभाव का चिन्तन हो पाता है; क्योंकि जागतिक वस्तुओं की सत्ता आत्मसंवेदन मात्र है, इससे अतिरिक्त कुछ नहीं। सर्वथा शान्त, आलम्बन रहित, आकाशस्वरूप, शाश्वत, शिव, दोषरहित, भासमान रहित, अनिर्वचनीय, कारणरहित, न सत्, न असत्, न मध्य, सम्पूर्णतारहित और सम्पूर्ण भी, मन-वाणी से अग्रीह्य, पूर्ण से पूर्ण, सुख से सुखतरस्वरूप, संवेदन की पहुँच से परे, पूर्ण शान्त, आत्मानुभूतिरूप तथा व्यापकता यह ब्रह्म का स्वरूप है। सभी पदार्थों की सत्ता के अतिरिक्त यह चैतन्य भिन्न नहीं है और इसकी प्राप्ति का आधार एक मात्र सम्यक् अनुभूति है॥४३-४७॥ संबन्धे द्रष्टृदृश्यानां मध्ये दृष्टिर्हि यद्वपुः । द्रष्टृदर्शनदृश्यादिवर्जितं तदिदं पदम् ॥ ४८ ॥ देशाद्देशं गते चित्ते मध्ये यच्चेतसो वओउः । अजाड्यसंविन्मननं तन्मयो भव सर्वदा ॥ ४९॥ अजाग्रत्स्वप्ननिद्रस्य यत्ते रूपं सनातनम् । अचेतनं चाजडं च तन्मयो भव सर्वदा ॥ ५०॥ जडतां वर्जयित्वैकां शिलाया हृदयं हि तत् । अमनस्कस्वरूपं यत्तन्मयो भव सर्वदा । चित्तं दूरे परित्यज्य योऽसि सोऽसि स्थिरो भव ॥ ५१॥ पूर्वं मनः समुदितं परमात्मतत्त्वात्तेनाततं जगदिदं सविकल्पजालम् । शून्येन शून्यमपि विप्र यथाम्बरेण नीलत्वमुल्लसति चारुतराभिधानम् ॥ ५२॥ द्रष्टा और दृश्य का सम्बन्ध हो जाने पर मध्य में दृष्टि का जो स्वरूप परिलक्षित होता है, वह द्रष्टा, दृश्य और दर्शन से भिन्न साक्षात्काररूप स्थिति ही है। चित्त के एक देश से दूसरे में प्रवेश करने के मध्य जो अवस्था होती है, उसे जड़तारहित चेतनरूप चिन्तन में निरन्तर तन्मय रहना चाहिए। जाग्रत्-स्वप्न और सुषुप्ति से परे जड़चेतन विहीन जो सनातनरूप है, उसी में हमेशा स्थित रहो। जड़ता ही हृदय की पाषाणवत् स्थिति है, उसका परित्याग करने पर जो अमनस्क अवस्था है, उसी में सदैव लीन रहो। चित्त को दूर से ही त्यागकर जिस अवस्था में हो, उसी में स्थिर रहो। परमात्म तत्त्व से सर्वप्रथम मन की उत्पत्ति हुई, पश्चात् उसी मन से विकल्पजालरूप यह संसार उत्पन्न हुआ। हे विप्र! शून्य से भी शून्य की उत्पत्ति होती है, जैसे- आकाश शून्य है, परन्तु इसी से मनोहर दिखलाई पड़ने वाली नीलिमा प्रकट होती है॥४८-५२॥ संकल्पसंक्षयद्गलिते तु चित्ते संसारमोहमिहिका गलिता भवन्ति । स्वच्छं विभाति शरदीव खमागतायां चिन्मात्रमेकमजमाद्यमनन्तमन्तः ॥ ५३॥ संकल्प के विनष्ट हो जाने पर चित्तवृत्तियाँ गल जाती हैं और इसी के साथ संसार का मोहरूपी कुहरा भी छैट जाता है। ऐसे में शरऋतु के आगमन पर स्वच्छ आसमान की तरह वह अजन्मा, आद्य, अनन्त, एक, चिन्मात्ररूप ब्रह्म ही अन्तिम रूप से सुशोभित होता है॥५३॥ अकर्तृकमरङ्गं च गगने चित्रमुत्थितम् । अद्रष्टकं स्वानुभवमनिद्रस्वप्नदर्शनम् ॥ ५४॥ साक्षिभूते समे स्वच्छे निर्विकल्पे चिदात्मनि । निरिच्छं प्रतिबिम्बन्ति जगन्ति मुकुरे यथा ॥ ५५॥ बिना कर्ता और रङ्ग के आकाश चित्रित सा प्रतीत होता है। बिना द्रष्टा के स्वयं अनुभूत निद्राहीन स्वप्न दिखलाई देता है। यह चिदात्मा साक्षिरूप, सम (सबके प्रति समान रहने वाला), स्वच्छ, निर्विकल्प तथा दर्पणवत् है, उसमें बिना किसी आकांक्षा के तीनों लोक प्रतिबिम्बित हो रहे हैं॥५४-५५॥ एकं ब्रह्म चिदाकाशं सर्वात्मकमखण्डितम् । इति भावय यत्नेन चेतश्चाञ्चल्यशान्तये ॥ ५६॥ रेखोपरेखावलिता यथैका पीवरी शिला । तथा त्रैलोक्यवलितं ब्रह्मकमिह दृश्यताम् ॥ ५७॥ सर्वस्वरूप, चिदाकाशरूप और अखण्डित ब्रह्म एक है, चित्त की चपलता शान्त करने के लिए प्रयत्नपूर्वक ऐसी भावना करनी चाहिए। तीनों लोकों से युक्त ब्रह्म के दर्शन उसी प्रकार करने चाहिए, जैसे एक मोटी पत्थरशिला पर रेखायें-उपरेखाएँ खिंची होती हैं॥५६-५७॥ द्वितीयकारणाभावादनुत्पन्नमिदं जगत् । ज्ञातं ज्ञातव्यमधुना दृष्टं द्रष्टव्यमद्भुतम् ॥ ५८॥ विश्रान्तोऽस्मि चिरं श्रान्तश्चिन्मात्रान्नास्ति किंचन । पश्य विश्रान्तसन्देहं विगताशेषकौतुकम् ॥ ५९॥ ब्रह्म से भिन्न किसी अन्य कारण के न होने पर इस जगत् की उत्पत्ति नहीं हुई (खरगोश के सींग की तरह यह त्रिकालबाधित है)। इस प्रकार मैंने (ऋभु का आत्मकथन) जो ज्ञातव्य था, उसे जान लिया, जो विलक्षणता देखनी थी, उसे देख लिया और चिरकाल से थका मैं अब विश्रान्ति को प्राप्त हो चुका हूँ। (हे निदाघ!) इस सम्पूर्ण जागतिक माया से विमुक्त होकर तथा संशयविहीन होकर तुम चिन्मात्र के दर्शन करो। चिन्मात्र के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, ऐसा समझो ॥५८- ५९॥ निरस्तकल्पनाजालमचित्तत्वं परं पदम् । त एव भूमतां प्राप्ताः संशान्ताशेषकिल्बिषाः ॥ ६०॥ महाधियः शान्तधियो ये याता विमनस्कताम् । जन्तोः कृतविचारस्य विगलद्वृत्तिचेतसः ॥ ६१॥ मननं त्यजतो नित्यं किंचित्परिणतं मनः । दृश्यं सन्त्यजतो हेयमुपादेयमुपेयुषः ॥ ६२॥ द्रष्टारं पश्यतो नित्यमद्रष्टारमपश्यतः । विज्ञातव्ये परे तत्त्वे जागरूकस्य जीवतः ॥ ६३॥ सुप्तस्य धनसंमोहमये संसारवत्र्त्मनि । अत्यन्तपक्ववैराग्यादरसेषु रसेष्वपि ॥ ६४॥ संसारवासनाजाले खगजाल इवाधुना । त्रो रोटिते हृदयग्रन्थौ श्लथे वैराग्यरंहसा ॥ ६५॥ कातकं फलमासाद्य यथा वारि प्रसीदति । तथा विज्ञानवशतः स्वभावः सम्प्रसीदति ॥ ६६ ॥ जिन्होंने संकल्प-बन्धन को काट दिया है, जो चित्तत्वरहित महान् पद पा चुके हैं, ऐसे ही साधक निष्पाप होकर ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। मन को वश में करके जो विमनस्क हो गये हैं, शान्तचित्तता उनकी प्रखर मेधा की परिचायिका है। वेदान्त के विषय में चिन्तनशील मनुष्य, जिनकी चित्तवृत्तियों का क्षय हो चुका है और मानसिक संकल्पों के त्याग में अभ्यस्त होने से जिनका मन सुस्थिर हो चुका है। जो मुमुक्षु पुरुष हेय और उपादेय दोनों तरह के दृश्यों का परित्याग कर रहे हैं, जो नित्य द्रष्टा अर्थात् आत्मज्ञान के साक्षात्कार में संलग्न तथा अद्रष्टा अर्थात् प्रपञ्च को न देखने वाले हैं, जो ज्ञातव्य परमतत्त्व में विशेषरूप से जागरूक रहकर जीवनयापन करते हैं, जो रसयुक्त तथा रसहीन इन सभी पदार्थों के प्रति अति सुस्थिर वैराग्य भाव से सघन मोहात्मक संसार पथ में सोये हुए हैं। वैराग्य की प्रबल भावना से चूहे द्वारा काटे गये पक्षी के पाश की तरह जिनकी सांसारिक वासना-तृष्णा का पाश कर चुका है और हृदय की ग्रन्थियाँ ढीली पड़ गई हैं, ऐसे साधकों का स्वभाव विशिष्ट ज्ञान से उसी प्रकार परिष्कृत-निर्मल हो जाता है, जिस प्रकार कातक (निर्मली) फल से जल निर्मल हो जाता है॥ ६०- ६६॥ नीरागं निरुपासङ्गं निर्द्वन्द्वं निरुपाश्रयम् । विनिर्याति मनो मोहाद्विहङ्गः पञ्जरादिव ॥ ६७॥ शान्तसन्देहदौरात्म्यं गतकौतुकविभ्रमम् । परिपूर्णान्तरं चेतः पूर्णेन्दुरिव राजते ॥ ६८ ॥ मन के रागरहित, अनासक्त, द्वन्द्व से रहित तथा निरालम्ब हो जाने पर पिंजड़े से मुक्त हुए पक्षी की तरह ही मोह-बन्धन से मन की मुक्ति हो जाती है। संशयरूप दुरात्मभावना जिनकी शान्त हो चुकी है, जो प्रपञ्च कौतुक से विमुक्त हैं, उनका चित्त पूर्णमासी के चन्द्र के समान विशेष शोभा पाता है॥६७-६८॥ नाहं न चान्यदस्तीह ब्रह्मवास्मि निरामयम् । इत्थं सदस्तोर्मध्याद्यः पश्यति स पश्यति ॥ ६९॥ अयत्नोपतेष्वक्षिदृग्दृश्येषु यथा मनः । नीरागमेव पतति तद्वत्कार्येषु धीरधीः ॥ ७० ॥ परिज्ञायोपभुक्तो हि भोगो भवति तुष्टये । विज्ञाय सेवितश्चोरो मैत्रीमेति न चोरताम् ॥ ७१॥ न मैं स्वयं और न अन्य कुछ ही यहाँ है, मैं तो सभी दोषों से रहित मात्र ब्रह्म हैं, जिसकी दृष्टि सत्-असत् के मध्य इस प्रकार की है, वही वास्तव में ब्रह्म साक्षात्कार करने वाला है। जिस प्रकार दर्शनीय दृश्यों की तरफ मन स्वाभाविक रूप से बिना आसक्ति के ही खिंच जाता है, उसी प्रकार धीरमति पुरुष कर्त्तव्य कर्मों के निर्वाह में संलग्न रहते हैं। भली प्रकार सोच-समझकर भोगा गया भोग उसी तरह संतुष्टि का निमित्त बनता है, जिस तरह जान-बूझकर सेवा में संलग्न चोर चौर्यकार्य को छोड़कर मित्रता ही निभाता है॥६९-७१॥ अशङ्कितापि सम्प्राप्ता ग्रामयात्रा यथाध्वगैः । प्रेक्ष्यते तद्वदेव ज्ञैर्भोगश्रीरवलोक्यते ॥ ७२॥ मनसो निगृहीतस्य लीलाभोगोऽल्पकोऽपि यः । तमेवालब्धविस्तारं क्लिष्टत्वाद्बहु मन्यते ॥ ७३॥ बद्धमुक्तो महीपालो ग्रासमात्रेण तुष्यति । परैरबद्धो नाक्रान्तो न राष्ट्र बहु मन्यते ॥ ७४॥ जिस ग्राम में जाने का मन में कभी विचार भी नहीं था, ऐसे ग्राम में अचानक आ जाने पर यात्री जिस आश्चर्य भरी दृष्टि से उसे देखता है, उसी दृष्टि से ज्ञानीपुरुष भोग-ऐश्वर्यों पर दृष्टिपात करता है। बिना श्रम से उपलब्ध हुई स्वल्पमात्र भोग सामग्री को नियन्त्रित मन वाला साधक बहुत अधिक समझते हुए कष्टदायी मानकर त्याग देता है। शत्रु के बन्धन से मुक्त होने पर जो राजा भोजन के एक ग्रास से सन्तुष्ट हो जाता है, वही राजा शत्रु द्वारा आक्रान्त और आबद्ध न किये जाने पर राज्य के विशाल वैभव को भी तुच्छ ही मानता है॥७२-७४॥ हस्तं हतेन सम्पीड्य दन्तैर्दन्तान्विचूर्ण्य च । अङ्गान्यङ्गैरिवाक्रम्य जयेदादौ स्वकं मनः ॥ ७५॥ मनसो विजयान्नान्या गतिरस्ति भवार्णवे । महानरकसाम्राज्ये मत्तदुष्कृतवारणाः ॥ ७६॥ हाथ से हाथ को मलकर, दाँत से दाँत को पीसकर तथा अङ्गों से अङ्गों को दबाकर अर्थात् स्वकीय सम्पूर्ण पराक्रम और साहस द्वारा मन को जीतने का प्रयास करे। इस संसार सागर में मन पर विजय पाने से बढ़कर अन्य उपाय नहीं है। इस भयंकर नरक रूपी साम्राज्य में दुष्कृत रूपी मतवाले हाथी भ्रमण करते हैं। आशारूपी बाणों और कटारों से सुसज्जित इन्द्रियरूपी वैरियों को जीतना अत्यन्त मुश्किल है॥७५-७६॥ आशाशरशलाकाढ्या दुर्जया हीन्द्रियारयः । प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः ॥ ७७ ॥ पद्मिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः । तावन्निशीव वेताला वसन्ति हृदि वासनाः । एकतत्त्वदृढाभ्यासाद्यावन्न विजितं मनः ॥ ७८॥ भृत्योऽभिमतकर्तृत्वान्मन्त्री सर्वार्थकारणात् । सामन्तश्चेन्द्रियाक्रान्तेर्मनो मन्ये विवेकिनः ॥ ७९॥ जो इन्द्रियरूपी वैरियों को अपने वशीभूत कर चुके हैं तथा जिन्होंने चित्त के अहंभाव को विनष्ट कर दिया है, उनकी भोग लिप्साएँ उसी प्रकार समाप्त हो जाती हैं, जैसे हेमन्त ऋतु में कमल का पौधा सूख जाता है। एकत्व के दृढ़ अभ्यास द्वारा जब तक मन को नियन्त्रित नहीं कर लिया जाता, तब तक ही रात्रि में बेताल की तरह हृदय में वासना टिकी हुई रहती है। विवेकशील व्यक्ति अपने मन को अभीष्ट सिद्धि के लिए सेवक के समान सभी प्रयोजनों की पूर्ति के लिए मन्त्रीरूप तथा सम्पूर्ण इन्द्रियों को स्वनियन्त्रित करने के लिए सामन्तरूप बना लेते हैं, ऐसा मेरा विचार है॥७७-७९॥ लालनात्स्निग्धललना पालानात्पालकः पिता । सुहृदुत्तमविन्यासान्मनो मन्ये मनीषिणः ॥ ८०॥ स्वालोकतः शास्त्रदृशा स्वबुद्ध्या स्वानुभावतः । प्रयच्छति परां सिद्धिं त्यक्त्वात्मानं मनःपिता ॥ ८१॥ सुहृष्टः सुदृढः स्वच्छः सुक्रान्तः सुप्रबोधितः । स्वगुणेनोर्जितो भाति हृदि हृद्यो मनोमणिः ॥ ८२॥ एनं मनोमणिं ब्रह्मन्बहुपङ्ककलङ्कितम् । विवेकवारिणा सिद्धयै प्रक्षाल्यालोकवान्भव ॥ ८३॥ मेरे विचार से मनीषी का मन लालन करने के फलस्वरूप स्नेहमयी ललना-स्वरूप और पालन करने से पितृतुल्य है। शास्त्रानुकूल आचरण से, स्वयं के एकत्रित अनुभवजन्य ज्ञान प्रकाश से तथा विवेक बुद्धि से मनरूपी पिता परमसिद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है। अति हृष्ट-पुष्ट, सुदृढ़, निर्मल, स्ववशीभूत, भली प्रकार चैतन्य तथा आत्मिक सद्‌गुणों से प्रखर तेजस्विता युक्त सुन्दर मनरूपी मणि हृदय में विराजमान है। हे ब्रह्मन्! बहुविध वासना-तृष्णा के कीचड़ से सने इस मनरूपी मणि को विवेक रूपी जल से निर्मल करके साधन-सिद्धि के लिए चमकदार (परिष्कृत) बनायें ॥८०-८३॥ विवेकं परमाश्रित्य बुद्धया सत्यमवेक्ष्य च । इन्द्रियारीनलं छित्त्वा तीर्णो भव भवार्णवात् ॥ ८४॥ सद्विवेक का अवलम्बन लेकर, बुद्धि से यथार्थ सत्य का अनुसन्धान करके इन्द्रियरूपी वैरियों को तुम छिन्न-भिन्न कर पाओगे, इसी से संसार रूपी भवसागर से तुम पार उतरने में सक्षम हो सकोगे ॥८४॥ आस्थामात्रमनन्तानां दुःखानामाकरं विदुः । अनास्थामात्रमभितः सुखानामालयं विदुः ॥ ८५॥ वासनातन्तुबद्धोऽयं लोको विपरिवर्तते । सा प्रसिद्धातिदुःखाय सुखायोच्छेदमागता ॥ ८६॥ धीरोऽप्यतिबहुज्ञोऽपि कुलजोऽपि महानपि । तृष्णया बध्यते जन्तुः सिंहः शृ‌ङ्खलया यथा ॥ ८७॥ परमं पौरुषं यत्नमास्थादाय सृद्यमम् । यथाशास्त्रमनुद्वेगमाचरन्को न सिद्धिभाक् ॥ ८८॥ संसार में मात्र आस्था (आशा) ही अनेक कष्टों की उत्पत्ति का कारण है और अनास्था (आशाअपेक्षारहित जीवन) ही सुख का घर समझना चाहिए। वासनाओं के सूत्र से बँधा हुआ यह संसार पुनः पुनः उत्पन्न होता है। वह प्रख्यात वासना अति कष्टदायिनी बनकर समस्त सुखों का पूरी तरह से उच्छेदन करने के लिए आती है। जंजीर से सिंह के बाँधने के समान वासना के मोहपाश में धीर, कुलीन, अति बहुश्रुत तथा महान् व्यक्ति भी बँध जाते हैं। शास्त्रानुकूल आचरण करता हुआ, परम पुरुषार्थ का अवलम्बन लेकर और श्रेष्ठ उद्यम करते हुए कौन सिद्धि को प्राप्त नहीं करता? ॥८५-८८॥ अहं सर्वमिदं विश्वं परमात्माहमच्युतः । नान्यदस्तीति संवित्त्या परमा सा ह्यहङ्‌कृतिः ॥ ८९॥ सर्वस्माद्यतिरिक्तोऽहं वालाग्रादप्यहं तनुः । इति या संविदो ब्रह्मन्द्वितीयाहङ्‌कृतिः शुभा ॥ ९०॥ मोक्षायैषा न बन्धाय जीवन्मुक्तस्य विद्यते ॥ ९१॥ मैं समस्त विश्वरूप हूँ, मैं अच्युत परमात्मस्वरूप हूँ, मेरे अतिरिक्त शेष कुछ भी नहीं-इस तरह के बोधात्मक अहंभाव को उत्तम माना गया है। मैं सभी प्रपञ्च से भिन्न हूँ, मैं बाल के अग्रभाग से कहीं अधिक सूक्ष्म हूँ-इस प्रकार का दूसरा अहं भाव मोक्ष को देने वाला है, बन्धन में फँसाने वाला नहीं। जीवन्मुक्त आत्मायें ही ऐसे अहंभाव से युक्त होती हैं। ८९-९१॥ पाणिपादादिमात्रोऽयमहमित्येष निश्चयः । अहंकारस्तृतीयोऽसौ लैकिकस्तुच्छ एव सः ॥ ९२॥ जीव एव दुरात्मासौ कन्दः संसारदुस्तरोः । अनेनाभिहतो जन्तुरधोऽधः परिधावति ॥ ९३॥ अनया दुरहंकृत्या भावात्संत्यक्तया चिरम् । शिष्टाहंकारवाञ्जन्तुः शमवान्याति मुक्तताम् ॥ ९४॥ मैं हाथ-पैर वाला मात्र स्थूल शरीरधारी हूँ- इस प्रकार की मान्यता जो तीसरे लौकिक अहंकार में होती है, उसे अत्यन्त निकृष्ट कहा गया है। अहंकार से युक्त दुरात्मा प्राणी ही कष्टमय संसार रूपी वृक्ष का मूल कारण है। इससे प्रताड़ित प्राणी निरन्तर पतन की ओर बढ़ता है। इस तृतीय दुःखमय अहंभाव का परित्याग करके लम्बे समय से शुभ अहंभाव में संलग्न प्राणी शान्तचित्त होकर मुक्ति प्राप्त करते हैं॥९२-९४॥ प्रथमौ द्वावहंकारावङ्गीकृत्य त्वलौकिकौ । तृतीयाहंकृतिस्त्याज्या लौकिकी दुःखदायिनी ॥ ९५॥ अथ ते अपि संत्यज्य सर्वाहंकृतिवर्जितः । स तिष्ठति तथात्युच्चैः परमेवाधिरोहति ॥ ९६॥ प्रारम्भिक दो अलौकिक अहंकारों को स्वीकार करके तीसरे दुःखप्रद लौकिक अहंकार को त्याग दे। साधन शक्ति की वृद्धि पर इन सब प्रकार के अहंकारों को त्यागकर निरहंकारिता ग्रहण करे, उसी से उत्तमपद की प्राप्ति सम्भव है ॥९५-९६॥ भोगेच्छामात्रको बन्धस्तत्त्यागो मोक्ष उच्यते । मनसोऽभ्युदयो नाशो मनोनाशो महोदयः ॥ ९७॥ ज्ञमनो नाशमभ्येति मनोऽज्ञस्य हि शृङ्खला । नानन्दं न निरानन्दं न चलं नाचलं स्थिरम् । न सन्नासन्न चैतेषां मध्यं ज्ञानिमनो विदुः ॥ ९८॥ यथा सौक्ष्म्याच्चिदाभास्य आकाशो नोपलक्ष्यते । तथा निरंशश्चिद्भावः सर्वगोऽपि न लक्ष्यते ॥ ९९॥ भोगेच्छा ही बन्धन कही गयी है और उसका परित्याग ही मोक्ष कहलाता है। मन की प्रगति का कारण उसका नष्ट होना है। मन का नाश सौभाग्यवान् पुरुषों की पहचान है। ज्ञानी पुरुषों के मन का नाश हो जाता है। अज्ञानी के लिए मन बन्धन का कारण है। ज्ञानी पुरुषों के लिए मन न तो आनन्द रूप है और न ही आनन्दरहित है। उनके लिए वह चल, अचल, स्थिर, सत्, असत् भी नहीं है अथवा इसके मध्य की स्थिति वाला भी नहीं है। अखण्ड चेतनसत्ता सर्वव्यापक होते हुए भी उसी प्रकार दृष्टिगोचर नहीं होती, जिस प्रकार चित्त में आलोकित होने वाला आकाश सूक्ष्मता के कारण दिखाई नहीं देता ॥९७-९९॥ सर्वसंकल्परहिता सर्वसंज्ञाविवर्जिता । सैषा चिदविनाशात्मा स्वात्मेत्यादिकृताभिधा ॥ १००॥ आकाशशतभागाण्छा ज्ञेषु निष्कलरूपिणी । सकलामलसंसारस्वरूपैकात्मदर्शिनी ॥ १०१ ॥ नास्तमेति न चोदेति नोत्तिष्ठति न तिष्ठति । न च याति न चायाति न च नेह न चेह चित् ॥ १०२॥ सभी संज्ञाओं से रहित और संकल्पों से रहित यह चिदात्मा अविनाशी तथा स्वात्मा आदि नामों से जाना जाता है। वह समस्त निर्मल संसार के रूप में एकमात्र स्वयं को ही दर्शाता है। ज्ञानियों की दृष्टि में वह आकाश से भी सौ गुना स्वच्छ, निर्मल तथा निष्कलरूप है। वह चेतनसत्ता न तो कभी उदय होती है और न ही अस्त होती है, वह गमन-आगमन से रहित, न उठती और न स्थिर बैठी ही रहती है। वह न तो यहाँ और न ही वहाँ ही है॥ १००-१०२॥ सैषा चियमलाकारा निर्विकल्पा निरास्पदा ॥ १०३॥ आदौ शमदमप्रायैर्गुणैः शिष्यं विशोधयेत् । पश्चात्सर्वमिदं ब्रह्म शुद्धस्त्वमिति बोधयेत् ॥ १०४॥ अज्ञस्यार्धप्रबुद्धस्य सर्वं ब्रह्मेति यो वदेत् । महानरकजालेषु स तेन विनियोजितः ॥ १०५॥ वह चिदात्मा आश्रयहीन, विकल्परहित और शुद्धस्वरूप है। प्रारम्भ में शम-दम आदि गुणों द्वारा शिष्य के अन्तः का परिष्कार करना गुरु के लिए आवश्यक है, तत्पश्चात् उसे बोधस्वरूप यह ब्रह्मज्ञान प्रदान करे-यह सभी कुछ ब्रह्मरूप है और तुम निर्मल ब्रह्मरूप हो। अपरिपक्व बुद्धिवाले और अज्ञानी के समक्ष सब कुछ ब्रह्ममय है, ऐसा कहना उसे मानो घोर नरक में धकेलने की तरह है॥१०३-१०५॥ प्रबुद्धबुद्धेः प्रक्षीणभोगेच्छस्य निराशिषः । नास्त्यविद्यामलमिति प्राज्ञस्तूपदिशेद्‌गुरुः ॥ १०६॥ सति दीप इवालोकः सत्यर्क इव वासरः । सति पुष्प इवामोदश्चिति सत्यं जगत्तथा ॥ १०७ ॥ जिसकी भोग कामनाएँ क्षीण हो चुकी हैं, आकांक्षाएँ समाप्तप्राय हैं तथा बुद्धि जागरूक है, उसी को वेदान्त का उपदेश प्राज्ञ गुरु प्रदान करे। अविद्यारूपी विकार का कोई अस्तित्व नहीं। जैसे सूर्योदय होने पर दिवस, दीपक से प्रकाश तथा पुष्प से सुगन्धि की स्थिति का होना निश्चित है, वैसे ही चैतन्य पर संसार विद्यमान है॥१०६-१०७॥ प्रतिभासत एवेदं न जगत्परमार्थतः । ज्ञानदृष्टौ प्रसन्नायां प्रबोधविततोदये ॥ १०८ ॥ यथावज्ज्ञास्यसि स्वस्थो मद्वाग्वृष्टिबलाबलम् । अविद्ययैवोत्तमया स्वार्थनाशोद्यमार्थया ॥ १०९ ॥ विद्या सम्प्राप्यते ब्रह्मन्सर्वदोषापहारिणी । शाम्यति ह्यस्त्रमस्त्रेण मलेन क्षाल्यते मलम् ॥ ११०॥ शमं विषं विषेणैति रिपुणा हन्यते रिपुः । ईदृशी भूतमायेयं या स्वनाशेन हर्षदा ॥ १११॥ वास्तव में यह संसार अस्तित्व रहित है, यह तो मात्र आभासित होता है। जब तुम्हारी ज्ञान-दृष्टि आवरण शून्य हो जायेगी और ज्ञान के प्रकाश से ओत-प्रोत होगी, ऐसे में तुम स्वयमेव अपने स्वरूप में स्थित हो जाओगे। तभी तुम्हें मेरे उपदेश की सत्यता का भली प्रकार बोध होगा । हे ब्रह्मन् ! सब दोषों को दूर करने वाली विद्या की प्राप्ति स्वार्थभावना को विनष्ट करने के लिए प्रयत्नशील अविद्या द्वारा ही सम्भव होती है। अस्त्र द्वारा अस्त्र को निस्तेज किया जाता है और मल द्वारा मल धुलता है। विष द्वारा विष का शमन तथा शत्रु द्वारा शत्रु का हनन होता है। यह भूतमाया भी इसी प्रकार की है, जो अपने क्षय पर स्वयं हर्षित होती है ॥१०८-१११॥ न लक्ष्यते स्वभावोऽस्या वीक्ष्यमाणैव नश्यति । नास्त्येषा परमार्थेनेत्येवं भावनयेद्धया ॥ ११२॥ सर्वं ब्रह्मेति यस्यान्तर्भावना सा हि मुक्तिदा । भेददृष्टिरविद्येयं सर्वथा तां विसर्जयेत् ॥ ११३॥ आसानी से इसका स्वरूप देखने में नहीं आता, परन्तु दिखाई देते ही यह नाश को प्राप्त होती है। भेद दृष्टि का होना ही अविद्या है, इसका सर्वथा त्याग करना ही कल्याणप्रद है। वस्तुतः माया का अस्तित्व है ही नहींसब कुछ ब्रह्ममय है, ऐसी दृढ़ निश्चय से की गई आन्तरिक भावना ही मोक्षप्राप्ति का उपाय है॥ ११२-११३॥ मुने नासाद्यते तद्धि पदमक्षयमुच्यते । कुतो जातेयमिति ते द्विज मास्तु विचारणा ॥११४॥ इमां कथमहं हन्मीत्येषा तेऽस्तु विचारणा । अस्तं गतायां क्षीणायामस्यां ज्ञास्यसि तत्पदम् ॥ ११५॥ यत एषा यथा चैषा यथा नष्टेत्यखण्डितम् । तदस्या रोगशालाया यत्नं कुरु चिकित्सने ॥ ११६ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! माया द्वारा जो नहीं पाया जाता, वह अक्षय पद के नाम से जाना जाता है। हे द्विज! इस माया की उत्पत्ति किससे हुई, इसके बारे में तुम्हें विचार नहीं करना चाहिए; अपितु विचार यही रहे कि किस प्रकार इसे नष्ट करूं? इसके क्षीण होकर विनष्ट हो जाने पर तुम क्षयरहित पद को पा सकोगे। इसके प्रकट होने का लक्षण इसका स्वरूप और इसके नष्ट करने के उपाय पर विचार करते हुए इस रोग के मूलकारण के निदान का प्रयास करना चाहिए ॥११४-११६॥ यथैषा जन्मदुःखेषु न भूयस्त्वां नियोक्ष्यति । स्वात्मनि स्वपरिस्पन्दैः स्फुरत्यच्छैश्चिदर्णवः ॥ ११७॥ एकात्मकमखण्डं तदित्यन्तर्भाव्यतां दृढम् । किंचित्क्षुभितरूपा सा चिच्छक्तिश्चिन्मयार्णवे ॥ ११८ ॥ तन्मयैव स्फुरत्यच्छा तत्रैवोर्मिरिवार्णवे । आत्मन्येवात्मना व्योम्नि यथा सरसि मारुतः ॥ ११९ ॥ तथैवात्मात्मशक्त्यैव स्वात्मन्येवैति लोलताम् । क्ष षणं स्फुरति सा देवी सर्वशक्तितया तथा ॥ १२०॥ जिससे यह तुम्हें आवागमन के जन्मचक्र में बारम्बार न डाले और चित् रूपी समुद्र निर्मल आत्म स्पन्दन से विभासित हो सके। यह चिदात्मा अविभाजित रूप वाली है, अपने भीतर इस प्रकार का दृढ़निश्चय करना चाहिए। यह चिदात्मा चिन्मय सागर में कुछ क्षोभयुक्त हो रही है। सागर में लहरों की तरह निर्मल चिन्मय लहरें उठ रही हैं। आकाश सरोवर में जिस प्रकार वायु स्वयमेव लहराती है, उसी प्रकार अपनी आत्मा में आत्मबल से आत्मा तरंगित होती है। सर्वशक्तिमान् सत्ता द्वारा इस प्रकार की दैवी स्फुरणा क्षण मात्र के लिए होती है। ॥ ११७-१२०॥ देशकालक्रियाशक्तिर्न यस्याः सम्प्रकर्षणे । स्वस्वभावं विदित्वोच्चैरप्यनन्तपदे स्थिता ॥ १२१॥ जिस चेतनशक्ति को देश, काल और क्रियाशक्ति चलायमान करने में अक्षम है, वही चेतनशक्ति अपनी स्वाभाविक स्थिति को जानकर उच्च अनन्त पद पर प्रतिष्ठित है॥१२१॥ रूपं परिमितेनासौ भावयत्यविभाविता । यदैवं भावितं रूपं तया परमकान्तया ॥ १२२॥ तदैवैनामनुगता नामसंख्यादिका दृशः । विकल्पकलिताकारं देशकालक्रियास्पदम् ॥ १२३॥ यह चेतन शक्ति अज्ञान स्थिति में सीमित सी होकर रूप भावना वाली होती है। उस विलक्षण परमसत्ता में जब रूप की भावना समाविष्ट होती है। उस समय उसके साथ नाम और संख्या आदि उपाधियाँ जुड़ जाती हैं॥ १२२-१२३॥ चितो रूपमिदं ब्रह्मन्क्षेत्रज्ञ इति कथ्यते । वासनाः कल्पयन्सोऽपि यात्यहंकारतां पुनः ॥ १२४॥ अहङ्कारो विनिर्णेता कलङ्की बुद्धिरुच्यते । बुद्धिः संकल्पिताकारा प्रयाति मननास्पदम् ॥ १२५॥ हे ब्रह्मन् ! चेतनशक्ति का वह रूप जो देश, काल और क्रिया का आश्रयरूप है तथा विकल्परूप को ग्रहण करने वाला है, वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है। पुनः वही वासनात्मक चिन्तन से अहंकाररूप कहा जाता है। जब अहंकार भी निश्चयात्मक और दोषपूर्ण हो जाता है, तो बुद्धि कहलाता है। बुद्धि भी जब संकल्परूप में परिणत हो जाती है, तो मननशील मन का रूप धारण करती है॥१२४-१२५॥ मनो घनविकल्पं तु गच्छतीन्द्रियतां शनैः । पाणिपादमयं देहमिन्द्रियाणि विदुर्बुधाः ॥ १२६॥ मन के गहरे विकल्प में डूबने पर धीरे-धीरे इन्द्रियस्वरूप की झलक मिलती है। मेधावी पुरुष हस्तपाद युक्त स्थूल शरीर को ही इन्द्रिय मानते हैं॥ १२६॥ एवं जीवो हि संकल्पवासनारज्जुवेष्टितः । दुःखजालपरीतात्मा क्रमादायाति नीचताम् ॥ १२७॥ इति शक्तिमयं चेतो घनाहंकारतां गतम् । कोशकारक्रिमिरिव स्वेच्छया याति बन्धनम् ॥ १२८॥ संकल्प और वासना की रस्सी से बँधा हुआ जीव दुःख-जाल में फँसकर निरन्तर दुर्गति की ओर बढ़ता है। रेशम बनाने वाले कीड़े की तरह शक्तिमय चित् घनीभूत अहंभाव को प्राप्त करके स्वेच्छा से बन्धन में बँधता है॥ १२७-१२८॥ स्वयं कल्पित तन्मात्राजालभ्यन्तरवर्ति च । परां विवशतामेति शृङ्खलाबद्धसिंहवत् ॥ १२९॥ चित्रशक्ति अपने ही द्वारा संकल्पित तन्मात्रा रूपी पाश में जकड़कर जंजीर से बँधे हुए सिंह के समान अत्यन्त लाचार हो जाती है॥१२९॥ क्वचिन्मनः क्वचिद्द्बुद्धिः क्वचिज्ज्ञानं क्वचित्क्रिया। क्व वचिदेतदहंकारः क्वचिच्चित्तमिति स्मृतम् ॥ १३०॥ क्वचित्प्रकृतिरित्युक्तं क्वचिन्मायेति कल्पितम् । क्व वचिन्मलमिति प्रोक्तं क्वचित्कर्मेति संस्मृतम् ॥ १३१॥ क्वचिद्वन्ध इति ख्यातं क्वचित्पुर्यष्टकं स्मृतम् । प्को रोक्तं क्वचिदविद्येति क्वचिदिच्छेति संमतम् ॥ १३२ ॥ इसी आत्मा को कहीं मन, कहीं बुद्धि, कहीं ज्ञान, कहीं क्रिया, कहीं अहंकार और कहीं चित्तरूप में जाना जाता है। यही कहीं प्रकृति और कहीं माया कहलाती है। कहीं बन्धन तो कहीं पुर्यष्टक (सूक्ष्मशरीर) कहा जाता है। इसे कहीं अविद्या और कहीं इच्छा नाम से जाना जाता है॥१३०-१३२॥ इअमं संसारमखिलमाशापाशविधायकम् । दधदन्तः फलैर्हीनं वटधाना वटं यथा ॥ १३३॥ यह आशा रूपी जाल का रचयिता सम्पूर्ण विश्व को वैसे ही धारण करता है, जैसे फलरहित वट का बीज वटवृक्ष को धारण करता है॥१३३॥ चिन्तानलशिखादग्धं कोपाजगरचर्वितम् । कामाब्धिकल्लोलरतं विस्मृतात्मपितामहम् ॥ १३४॥ यह मन चिन्तारूपी अग्निज्वाला से दग्ध हुआ, क्रोधरूपी अजगर द्वारा काटा गया और कामरूपी सागर के भंवर में फँसा हुआ है, यह अपने पितामह आत्मा को विस्मृत कर चुका है ॥१३४॥ समुद्धर मनो ब्रह्मन्मातङ्गमिव कर्दमात् । एवं जीवाश्रिता भावा भवभावनयाहिताः ॥ १३५॥ ब्रह्मणा कल्पिताकारा लक्षशोऽप्यथ कोटिशः । संख्यातीताः पुरा जाता जायन्तेऽद्यापि चाभितः ॥ १३६॥ उत्पत्स्यन्तेऽपि चैवान्ये कणौघा इव निर्झरात् । केचित्प्रथमजन्मानः केचिज्जन्मशताधिकाः ॥ १३७॥ केचिच्चासंख्यजन्मानः केचिद्द्वित्रिभवान्तराः । केचित्किन्नरगन्धर्वविद्याधरमहोरगाः ॥ १३८ ॥ हे ब्रह्मन्! कीचड़ (दल-दल) में फँसे हाथी के समान ही इस मन का उद्धार करो। जीव के आश्रित भाव ब्रह्म द्वारा लाखों; करोड़ों तथा असंख्य रूपों में कल्पित होकर पहले भी पैदा हो चुके हैं और आज भी पैदा हो रहे हैं तथा निर्झर से जलबिन्दुओं की उत्पत्ति के समान और भी उत्पन्न होते रहेंगे। कुछ प्रथम बार, कुछ सौ से अधिक बार, कुछ असंख्य बार जन्म धारण कर चुके हैं और किन्हीं के तो दो-तीन ही जन्म हुए हैं। कोई किन्नर, गन्धर्व, विद्याधर एवं नागरूप में उत्पन्न हैं॥१३५-१३८॥ केचिदर्केन्दुवरुणास्त्र्यक्षाधोक्षजपद्मजाः । केचिद्ब्रह्मणभूपालवैश्यशूद्रगणाः स्थिताः ॥ १३९॥ केचित्तृणौषधीवृक्षफलमूलपतङ्गकाः । केचित्कदम्बजम्बीरसालतालतमालकाः ॥ १४०॥ केचिन्महेन्द्रमलयसह्यमन्दरमेरवः । केचित्क्षारोदधिक्षीरघृतेक्षुजलराशयः ॥ १४१॥ कोई सूर्य, चन्द्र, वरुण, हरि, शिव एवं ब्रह्मरूप धारण किये हुए हैं। कुछ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि रूप में स्थित हैं। कोई औषधि, तृण, वृक्ष, फल, मूल एवं पत्ते के रूप में हैं। तो कोई जम्बीर (नींबू), कदम्ब, आम, ताड़ तथा तमाल पेड़ के रूप में हैं। कुछ महेन्द्र, मलय, सह्य, मन्दर, मेरु आदि पर्वतों के रूप में विद्यमान हैं। कोई खारे सागर, कोई दूध, घृत, गन्ने के रस तथा जलराशि के रूप में स्थित हैं॥१३९-१४१॥ केचिद्विशालाः कुकुभः केचिन्नद्यो महारयाः । विहायस्युच्चकैः केचिन्निपतन्त्युत्पतन्ति च ॥ १४२॥ कन्तुका इव हस्तेन मृत्युनाऽविरतं हताः । भुक्त्वा जन्मसहस्राणि भूयः संसारसंकटे ॥ १४३॥ पतन्ति केचिदबुधाः सम्प्राप्यापि विवेकताम् । दिक्कालाद्यनवच्छिन्नमात्मतत्त्वं स्वशक्तितः ॥ १४४॥ लीलयैव यदादत्ते दिक्कालकलितं वपुः । तदेव जीवपर्यायवासनावेशतः परम् ॥ १४५॥ मनः सम्पद्यते लोलं कलनाकलनोन्मुखम् । कलयन्ती मनःशक्तिरादौ भावयति क्षणात् ॥ १४६॥ आकाशभावनामच्छां शब्दबीजरसोन्मुखीम् । ततस्तद्धनतां यातं घनस्पन्दक्रमान्मनः ॥ १४७॥ भावयत्यनिलस्पन्दं स्पर्शबीजरसोन्मुखम् । ताभ्यामाकाशवाताभ्यां दृढाभ्यासवशात्ततः ॥ १४८ ॥ कोई द्रुतवेग वाली नदियों के रूप में प्रवाहित हैं, तो कोई विस्तृत दिशाओं का रूप धारण किये हुए हैं। कुछ ऊपर उठते हैं, कुछ नीचे गिरते हैं तथा कुछ पुनः ऊर्ध्वगमन करते हैं। हाथ से गेंद को बार- बार गिरानेउछालने के समान कुछ मृत्यु द्वारा ताड़ित होकर आसमान में उठते और गिरते रहते हैं। अनेक ऐसे हैं जो विवेकवान् होकर भी शुभकर्म करते और हजारों जन्म ग्रहण कर लेने पर भी उनका संसार सागर से आवागमन नहीं मिटता। दिशा और काल से अनवच्छिन्न आत्मतत्त्व जब अपनी सामर्थ्य से शरीर धारण करता है, तब यही जीव वासना के वशीभूत होकर संकल्पों की ओर जाने वाले चञ्चल मन का रूप ग्रहण कर लेता है। वह संकल्प से युक्त मनः शक्ति क्षणमात्र में ही स्वच्छ आकाश की भावना करती है, उसमें शब्दबीज अंकुरित होने लगते हैं। तत्पश्चात् वही मन अधिक सघन होकर घने स्पन्दन के क्रम से वायुस्पन्दन की भावना में लीन होता है॥१४२-१४८॥ शब्दस्पर्शस्वरूपाभ्यां संघर्षाज्जन्यतेऽनलः । रूपतन्मात्रसहितं त्रिभिस्तैः सह संमितम् ॥ १४९॥ मनस्तादृग्गुणगतं रसतन्मात्रवेदनम् । क्षषणाच्चेतत्यपां शैत्यं जलसंवित्ततो भवेत् ॥ १५०॥ उसमें स्पर्शरूप बीज के अंकुर फूटते हैं। उसके बाद दृढ़ अभ्यास द्वारा शब्द-स्पर्श रूप आकाश एवं वायु के टकराने से अग्नि उत्पन्न होती है। तीनों गुणों से ओत-प्रोत मन रस तन्मात्रा की अनुभूति करता हुआ क्षण भर में जल की ठण्डक का विचार करता है, इससे उसे जल का अनुभव होता है॥१४९-१५०॥ ततस्तादृग्गुणगतं मनो भावयति क्षणात् । गन्धतन्मात्रमेतस्माद्भूमिसंवित्ततो भवेत् ॥ १५१॥ अथेत्थंभूततन्मात्रवेष्टितं तनुतां जहत् । वपुर्वह्निकणाकारं स्फुरितं व्योम्नि पश्यति ॥ १५२॥ फिर चार गुणों से संयुक्त होकर मन अगले ही क्षण गन्ध तन्मात्रा का भाव कर लेता है, इससे उसे पृथ्वी का अनुभव होने लगता है। इस प्रकार पाँच तन्मात्राओं से युक्त होकर वह मन अपनी सूक्ष्मता त्यागकर आसमान में अग्निकणों की शक्ल में स्फुरित होते हुए शरीर का दर्शन करता है॥१५१-१५२॥ अहंकारकलायुक्तं बुद्धिबीजसमन्वितम् । तत्पुर्यष्टकमित्युक्तं भूतहृत्पद्मषट्पदम् ॥ १५३॥ तस्मिंस्तु तीव्रसंवेगाद्भावयद्भासुरं वपुः । स्थूलतामेति पाकेन मनो बिल्वफलं यथा ॥ १५४॥ वह शरीर ही अहंकार कलाओं से युक्त और बुद्धि बीज से संयुक्त 'पुर्यष्टक' नाम से जाना जाता है, जो प्राणियों के हृदय कमल में मँडराने वाले भौरे के सदृश है। पाक (परिपूर्णावस्था) की स्थिति में बिल्वफल की। तरह ही तीव्र संवेगात्मक तेजस्वी शरीर की भावना किये जाने पर, मन स्थूल हो जाता है॥ १५३-१५४॥ मूषास्थद्रुतहेमाभं स्फुरितं विमलाम्बरे । संनिवेशमथादत्ते तत्तेजः स्वस्वभावतः ॥ १५५॥ ऊर्ध्वं शिरःपिण्डमयमधः पादमयं तथा । पार्श्वयोर्हस्तसंस्थानं मध्ये चोदरधर्मिणम् ॥ १५६॥ कालेन स्फुटतामेत्य भवत्यमलविग्रहम् । बुद्धिसत्त्वबलोत्साहविज्ञानैश्वर्यसंस्थितः ॥ १५७ ॥ निर्मल आकाश में वह तेज, मूषा (सोना गलाने के पात्र) में पिघले हुए स्वर्ण के समान स्फुरित होकर अपनी प्रकृति के अनुसार गठित होने लगता है। ऊपर से वह सिर की तरह, नीचे से पैरों की तरह, पार्थों में भुजाओं की तरह तथा मध्य में उदर की तरह समय आने पर अभिव्यक्ति को प्राप्त होकर पूर्ण शरीर के आकार को प्राप्त हो जाता है। बुद्धि, वीर्य, बल, उत्साह, विज्ञान और वैभव से सम्पन्न हो जाता है॥१५५-१५७॥ स एव भगवान्ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः । अवलोक्य वपुर्ब्रह्मा कान्तमात्मीयमुत्तमम् ॥ १५८॥ चिन्तामभ्येत्य भगवांस्त्रिकालामलदर्शनः । एतस्मिन्परमाकाशे चिन्मात्रैकात्मरूपिणी ॥ १५९॥ अदृष्टपारपर्यन्ते प्रथमं किं भवेदिति । इति चिन्तितवान्ब्रह्मा सद्यो जातामलात्मदृक् ॥ १६०॥ वही शरीर सब लोकों का पितामह भगवान् ब्रह्मा बन जाता है। भूत, भविष्यत् और वर्तमान के प्रत्यक्ष द्रष्टा भगवान् ब्रह्माजी ने अपनी उत्तम और मनोहर छबि को निहारकर विरार किया कि इस चिन्मात्र आत्मरूपी परमाकाश का कोई आदि-अन्त दृष्टिगोचर नहीं होता। सर्वप्रथम क्या होना चाहिए? इस प्रकार का विचार करते ही तत्काल उन्हें पवित्र आत्मदृष्टि प्राप्त हुई ॥१५८-१६०॥ अपश्यत्सर्गवृन्दानि समतीतान्यनेकशः । स्म मरत्यथो स सकलान्सर्वधर्मगुणक्रमात् ॥ १६१॥ लीलया कल्पयामास चित्राः संकल्पतः प्रजाः । नानाचारसमारम्भा गन्धर्वनगरं यथा ॥ १६२॥ तासां स्वर्गापवर्गार्थं धर्मकामार्थसिद्धये । अनन्तानि विचित्राणि शास्त्राणि समकल्पयत् ॥ १६३॥ उन्हें अतीतकाल में हुई सृष्टि के असंख्य सर्ग दिखाई दिये, इससे समस्त धर्मों एवं गुणों के क्रम उनके स्मृति पटल पर उभर आये। उन्होंने माया से ही विभिन्न प्रकार के आचारों से समन्वित अनेक रूप-रंग की प्रजा को अन्तरिक्ष में गन्धर्वलोक के समान ही संकल्प- शक्ति से प्रादुर्भूत कर दिया। उनके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए उन्होंने अनेक चित्र-विचित्र शास्त्रों और स्वर्ग-नरकादि की कल्पना (रचना) कर दी ॥१६१-१६३॥ विरञ्चिरूपान्मनसः कल्पितत्वाज्जगत्स्थितेः । तावत्स्थितिरियं प्रोक्ता तन्नाशे नाशमाप्नुयात् ॥ १६४॥ न जायते न म्रियते क्वचित्किंचित्कदाचन । परमार्थेन विप्रेन्द्र मिथ्या सर्वं तु दृश्यते ॥ १६५॥ कोशमाशाभुजङ्गानां संसाराडंबरं त्यज । असदेतदिति ज्ञात्वा मातृभावं निवेशय ॥ १६६॥ ब्रह्मारूपी मन की कल्पना द्वारा संसार की स्थिति होने से ब्रह्मा के जीवन के साथ इसका (मन का) जीवन है। ब्रह्माजी के आयुष्य समाप्ति के साथ इस मन की भी समाप्ति है। हे द्विजश्रेष्ठ ! वास्तव में न तो कोई कहीं जन्म ही ग्रहण करता है और न अवसान को ही प्राप्त होता है। यह सब मिथ्या है, जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है। यह प्रपंचात्मक संसार आशारूपी सर्पिणियों की पिटारी है, इसे त्यागना ही उचित है। इसे 'असत्' मानकर मातृभाव में स्थिर होना श्रेयस्कर है॥ १६४- १६६॥ गन्धर्वनगरस्यार्थे भूषितेऽभूषिते तथा । अविद्यांशे सुतादौ वा कः क्रमः सुखदुःखयोः ॥ १६७॥ धनदारेषु वृद्धेषु दुःखयुक्तं न तुष्टता । वृद्धायां मोहमायायां कः समाश्वासवानिह ॥ १६८॥ यैरेव जायते रागो मूर्खस्याधिकतां गतैः । तैरेव भागैः प्राज्ञस्य विराग उपजायते ॥ १६९॥ गन्धर्व नगर चाहे सुसज्जित हो या असुसज्जित, वह कैसा भी क्यों ने दिखाई दे, वह तुच्छ ही है। उसी तरह अविद्या के अंशरूप ये पुत्र आदि भी प्रपंचरूप हैं, इनके प्रति आसक्ति होना दुःख का कारण है। धन-स्त्री आदि की वृद्धि के प्रति सुख-दुःख का भाव रखना निरर्थक है। इसमें सन्तोष मानने की कहीं गुंजायश नहीं। मोह-माया की वृद्धि होने पर इस लोक में कौन सुख-शान्ति का अधिकारी बना है। जिन पदार्थों की बहुतायत से अज्ञानी जन सुख अनुभव करते हैं, उन्हीं से ज्ञानी पुरुष विरक्त रहते हैं॥१६७-१६९॥ अतो निदाघ तत्त्वज्ञ व्यवहारेषु संसृतेः । नष्टं नष्टमुपेक्षस्व प्राप्तं प्राप्तमुपाहर ॥ १७०॥ अनागतानां भोगानामवाञ्छनमकृत्रिमम् । आगतानां च संभोग इति पण्डितलक्षणम् ॥ १७१॥ शुद्धं सदसतोर्मध्यं पदं बुद्ध्वावलंब्य च । सबाह्याभ्यन्तरं दृश्यं मा गृहाण विमुञ्च मा ॥ १७२॥ हे तत्त्वज्ञानी निदाघ! सांसारिक व्यवहार में जिस-जिसका अभाव होता जाए, उसकी इच्छा न करे और जो-जो सहजता से उपलब्ध हो, उसे स्वीकार करे। अप्राप्त की इच्छा न करना और प्राप्त उपभोग्य सामग्री का उपयोग करना यही पाण्डित्य है। सत् और असत् के बीच शुद्ध पद को जानकर, उसका अवलम्बन ग्रहण कर के बाह्याभ्यन्तरिक दृश्यों को न तो ग्रहण करे और न ही त्यागे ॥ १७०- १७२॥ यस्य चेच्छा तथानिच्छा ज्ञस्य कर्मणि तिष्ठतः । न तस्य लिप्यते प्रज्ञा पद्मपत्रमिवाम्बुभिः ॥ १७३॥ यदि ते नेन्द्रियार्थश्रीः स्पन्दते हृदि वै द्विज । तदा विज्ञातविज्ञेया समुत्तीर्णो भवार्णवात् ॥ १७४॥ उच्चैःपदाय परया प्रज्ञया वासनागणात् । पुष्पाद्गन्धमपोह्यारं चेतोवृत्तिं पृथक्कुरु ॥ १७५॥ इच्छा और अनिच्छा को समान मानने वाले ज्ञानी पुरुष कर्म करते हुए भी उसमें उसी प्रकार लिप्त नहीं होते, जैसे कीचड़ में कमलपत्र पड़ा रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता। हे द्विज ! यदि आपके हृदय में इन्द्रियजन्य विषय हलचल पैदा नहीं करते, तो आप ज्ञातव्य पदार्थ का ज्ञान प्राप्त कर संसार रूपी समुद्र से पार हो गये। विशिष्ट ज्ञानयुक्त होकर वासनारूपी फूलों की सुगन्ध से अपनी चित्तवृत्ति को जल्दी ही दूर कर लिया जाए, तो महान् पद की प्राप्ति हो सकती है॥१७३-१७५॥ संसाराम्बुनिधावस्मिन्वासनाम्बुपरिप्लुते । ये प्रज्ञानावमारूढास्ते तीर्णाः पण्डिताः परे ॥ १७६॥ न त्यजन्ति न वाञ्छन्ति व्यवहारं जगद्गतम् । सर्वमेवानुवर्तन्ते पारावारविदो जनाः ॥ १७७॥ अनन्तस्यात्मतत्त्वस्य सत्तासामान्यरूपिणः । चितश्चेत्योन्मुखत्वं यत्तत्संकल्पाङ्‌कुरं विदुः ॥ १७८॥ लेशतः प्राप्तसत्ताकः स एव घनतां शनैः । याति चित्तत्वमापूर्य दृढं जाड्याय मेघवत् ॥ १७९॥ वासनारूपी जल से युक्त इस संसार-सागर में जो सज्ञान रूपी नौका पर आरूढ़ हैं, वे ज्ञानीजन इससे पार हो गये। सांसारिक प्रपञ्च के जानकार पुरुष सांसारिक व्यवहार का न तो परित्याग करते हैं और न ही उसकी कामना करते हैं; अपितु वे उनके प्रति अनासक्ति का ही व्यवहार करते हैं, ज्ञानियों ने संकल्प का अंकुरित होना ही अनन्त आत्मतत्त्वरूप चेतन का विषयासक्त होना माना है। वही संकल्प अल्पमात्र स्थान प्राप्त करके धीरे-धीरे सघन होते हैं; तत्पश्चात् वे मेघ की तरह सुदृढ़ होकर चित्ताकाश को ढककर जड़त्व भाव का संचार करते हैं॥१७६-१७९॥ भावयन्ति चितिश्चैत्यं व्यतिरिक्तमिवात्मनः । संकल्पतामिवायाति बीजमङ्‌कुरतामिव ॥ १८०॥ संकल्पनं हि संकल्पः स्वयमेव प्रजायते । वर्धते स्वयमेवाशु दुःखाय न सुखाय यत् ॥ १८१॥ मा संकल्पय संकल्पं मा भावं भावय स्थितौ । संकल्पनाशने यत्तो न भूयोऽननुगच्छति ॥ १८२॥ बीज के अंकुरावस्था को प्राप्त करने के समान ही चेतन विषयों को स्वयं से अलग-सा मानते हुए वह संकल्पावस्था को प्राप्त होता है। संकल्प से उसकी क्रिया अपने आप ही प्रकट होती है और स्वयं ही शीघ्रातिशीघ्र वृद्धि को प्राप्त होती है। लेकिन वह दुःख का ही कारण बनती है, सुख देने वाली नहीं होती। चित्त में उत्पन्न होने वाली संकल्प क्रिया को रोके। उसमें पदार्थ भावना न करे, जिसने संकल्प को विनष्ट करने का निश्चय किया है, उसे पुनः उसका अनुगमन करना उचित नहीं ॥ १८०-१८२॥ भावनाभावमात्रेण संकल्पः क्षीयते स्वयम् । संकल्पेनैव संकल्पं मनसैव मनो मुने ॥ १८३॥ छित्त्वा स्वात्मनि तिष्ठ त्वं किमेतावति दुष्करम् । यथैवेदं नभः शून्यं जगच्छून्यं तथैव हि ॥ १८४॥ तण्डुलस्य यथा चर्म यथा ताम्रस्य कालिमा । नश्यति क्रियया विप्र पुरुषस्य तथा मलम् ॥ १८५॥ जीवस्य तण्डुलस्येव मलं सहजमप्यलम् । नश्यत्येव न सन्देहस्तस्मादुद्योगवान्भवेत् ॥ १८६॥ भावना का अभाव होते ही संकल्प स्वयमेव समाप्त हो जाता है। हे मुनिश्रेष्ठ ! संकल्प द्वारा संकल्प को और मन द्वारा मन को नष्ट कर डाले। आकाश की तरह ही यह जगत् भी शून्य है। हे विप्र! जिस तरह ताँबे की कालिमा और धान का छिलका प्रयत्नपूर्वक क्रिया विशेष से नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार पुरुष का विकार रूपी दोष प्रयत्न से दूर हो जाता है, धान के छिलके के समान जीव पर मल- विकाररूपी दोष प्रकृतिगत हैं, तो भी उनका नष्ट होना निश्चित है- इसमें रत्तीभर सन्देह नहीं। अतएव आत्मस्वरूप में स्थित होकर उद्योगी पुरुष बनने का प्रयत्न करो, इसमें असम्भव जैसी स्थिति है ही नहीं ॥ १८३-१८६॥ ॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥ ॥ पांचवां अध्याय समाप्त ॥

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