ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ५३

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ५३ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - इन्द्रः । छंद - त्रिष्टुप, १०, १६ जगती, १३ गायत्री, १२, २०, २२ अनुष्टुप, १८ वृहती इन्द्रापर्वता बृहता रथेन वामीरिष आ वहतं सुवीराः । वीतं हव्यान्यध्वरेषु देवा वर्धेथां गीर्भिरिळ्या मदन्ता ॥१॥ हे इन्द्र और पर्वतदेव ! स्तुत्य, श्रेष्ठ सन्तान युक्त यजमान द्वारा समर्पित हविष्यान से हर्ष का अनुभव करने वाले, यज्ञ में हयि का भक्षण करने वाले आप हमें अन्न प्रदान करें एवं हमारे स्तोत्रों से यशस्वी हो ॥१॥ तिष्ठा सु कं मघवन्मा परा गाः सोमस्य नु त्वा सुषुतस्य यक्षि । पितुर्न पुत्रः सिचमा रभे त इन्द्र स्वादिष्ठया गिरा शचीवः ॥२॥ हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! आप हमारे पास कुछ समय तक ठहरें । हमारे यज्ञ से दूर न जाएँ। हम आपके निमित्त शीघ्र हीं अभिषुत सोम द्वारा यजन करते हैं। हे शक्तिशाली इन्द्रदेव! जैसे पुत्र पिता का आश्रय ग्रहण करता है, वैसे हम मधुर स्तुतियों द्वारा आपका आश्रय ग्रहण करते हैं॥२॥ शंसावाध्वर्यो प्रति मे गृणीहीन्द्राय वाहः कृणवाव जुष्टम् । एदं बर्हिर्यजमानस्य सीदाथा च भूदुक्थमिन्द्राय शस्तम् ॥३॥ हे अध्वर्युगण ! हम इन्द्रदेव की स्तुति करेगें। आप हमें प्रोत्साहित करें। हम उनके लिए प्रीतिकर स्तो का गान करें। आप यजमान के इस कुश के आसन पर बैठें, जिससे इन्द्रदेव के लिए अक्थ वचन प्रशस्त हों ॥३॥ जायेदस्तं मघवन्त्सेदु योनिस्तदित्त्वा युक्ता हरयो वहन्तु । यदा कदा च सुनवाम सोममग्निष्ट्वा दूतो धन्वात्यच्छ ॥४॥ हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! स्त्री ही गृह होती है, वहीं पुरुष का आश्रय स्थान होती है। रथ से योजित अश्व आपको उसी (विश्रान्तिदायक) गृह में ले जाएँ । हम जब कभी सोम अभिषव करते हैं, तब हमारे द्वारा निवेदित सोम को दूतस्वरूप अग्निदेव सीधे आपके पास पहुँचायें ॥४॥ परा याहि मघवन्ना च याहीन्द्र भ्रातरुभयत्रा ते अर्थम् । यत्रा रथस्य बृहतो निधानं विमोचनं वाजिनो रासभस्य ॥५॥ सबको पोषण प्रदान करने वाले, ऐश्वर्यवान् हे इन्द्रदेव ! आप यहाँ से दूर अपने गृह के समीप रहें अथवा हमारे इस यज्ञ में आएँ। दोनों ही जगह आपका प्रयोजन हैं। वहीं घर में आपकी स्त्री हैं और यहाँ सोम हैं। जहाँ आप अपने महान् रथ को रोकते हैं, वहीं हर्षध्वनि करने वाले अश्वों को विमुक्त करने हैं॥५॥ अपाः सोममस्तमिन्द्र प्र याहि कल्याणीर्जाया सुरणं गृहे ते । यत्रा रथस्य बृहतो निधानं विमोचनं वाजिनो दक्षिणावत् ॥६॥ हे इन्द्रदेव! यहाँ सोमपान करें, अनन्तर घर जाये, क्योंकि आपके घर में कल्याणकर्जा स्त्री हैं और वहां मनोरम सुख है। आप जहाँ अपने रथ को रोकने हैं, वहीं अओं में विचरने के लिए विमुक्त करते है॥६॥ इमे भोजा अङ्गिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः । विश्वामित्राय ददतो मघानि सहस्रसावे प्र तिरन्त आयुः ॥७॥ यज्ञ में भोज्य पदार्थ समर्पित करने वाले अंगिरा बंशज विभिन्न रूपों में देखें जाते हैं। ये देबों में श्रेष्ठ वीर मरुद्गण हम विश्वामित्रों के लिए हजारों प्रकार के ऐश्वर्य प्रदान करें। हमारे धन-धान्य एवं आयु में वृद्धि करें ॥७॥ रूपंरूपं मघवा बोभवीति मायाः कृण्वानस्तन्वं परि स्वाम् । त्रिर्यद्दिवः परि मुहूर्तमागात्स्वैर्मन्त्रैरनृतुपा ऋतावा ॥८॥ हम इन्द्रदेव के जिस स्वरूप का आवाहन करते हैं, वे उसी रूप के हो जाते हैं। अपनी माया से विविध रूप धारण करते हैं। वे ऋतु के अनुकूल सर्वदा सोम का पान करने वाले हैं। वे मंत्रों द्वारा बुलाये जाने पर तीनो सबनो में स्वर्गलोक से एक क्षण में हों आ जाते हैं॥८॥ महाँ ऋषिर्देवजा देवजूतोऽ स्तभ्नात्सिन्धुमर्णवं नृचक्षाः । विश्वामित्रो यदवहत्सुदासमप्रियायत कुशिकेभिरिन्द्रः ॥९॥ अतिशय महान्, देवों में उत्पन्न एवं प्रेरित, सर्व द्रष्टा विश्वामित्र ऋषि ने जल से परिपूर्ण सिन्धु (नदी अथवा समुद्र) के वेग को अवरुद्ध किया। वहीं से वे सुदास राजा के यज्ञ में गये। तब कुशक वंशज्ञों ने इन्द्रदेव को प्रिय स्थान (यज्ञस्थलों में सम्मानित किया ॥९॥ हंसा इव कृणुथ श्लोकमद्रिभिर्मदन्तो गीर्भिरध्वरे सुते सचा । देवेभिर्विप्रा ऋषयो नृचक्षसो वि पिबध्वं कुशिकाः सोम्यं मधु ॥१०॥ अतीन्द्रिय क्षमतासम्पन्न, मेधावान् मनुष्यों के संरक्षक हे कुशिको ! आप सब हंसों के सदृश पक्ति में बैठकर स्तुति मंत्रों का उच्चारण करें, यज्ञ में पाषाण से सोमाभिषवण करें तथा सभी देवों के साथ सोमरस का पान करें ॥१०॥ उप प्रेत कुशिकाश्चेतयध्वमश्वं राये प्र मुञ्चता सुदासः । राजा वृत्रं जङ्घनत्प्रागपागुदगथा यजाते वर आ पृथिव्याः ॥११॥ हे कुशिक वंशजों ! आप सब अश्व के समीप जाएं. अश्य को उत्साहित करे । राजा सुदास के अश्व कों ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए विमुक्त कर दें। देवराज इन्द्र ने पूर्व, पश्चिम और उत्तर प्रदेशों में शत्रुओं का हनन किया हैं। अब सुदास राजा पृथ्वी के उत्तम स्थान में यज्ञ कार्य सम्पादित करे ॥११॥ य इमे रोदसी उभे अहमिन्द्रमतुष्टवम् । ैं विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनम् ॥१२॥ हे कुशिक वंशजो ! हम (विश्वामित्र) ने द्यावा-पृथिवी द्वारा इन्द्रदेव की स्तुति की। विश्वामित्र के वंशजों का यह स्तोत्र भरत-वंशजों की रक्षा करे ॥१२॥ विश्वामित्रा अरासत ब्रह्मेन्द्राय वज्रिणे । करदिन्नः सुराधसः ॥१३॥ विश्वामित्र के वंशजों ने वज्रधारी इन्द्रदेव के लिए स्तोत्र विनिर्मित किये इन्द्रदेव हमें उत्तम धनों से युक्त करें ॥१३॥ किं ते कृण्वन्ति कीकटेषु गावो नाशिरं दुहे न तपन्ति घर्मम् । े आ नो भर प्रमगन्दस्य वेदो नैचाशाखं मघवत्रन्धया नः ॥१४॥ हे इन्द्रदेव ! अनार्य देश के कीटवासियों को गौएँ आपके लिए क्या करती हैं? आपके लिए न दुग्ध देती हैं और न यज्ञाग्नि को प्रदीप्त करती हैं। इन गौओं को यहाँ ले आएँ। धन शोषकों के धन को हमारे लिए ले आएँ। है ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव! नीच वंश वालों को आप नियमित करें ॥१४॥ ससर्परीरमतिं बाधमाना बृहन्मिमाय जमदग्निदत्ता । आ सूर्यस्य दुहिता ततान श्रवो देवेष्वमृतमजुर्यम् ॥१५॥ जमदग्नि के द्वारा प्रेरित, अज्ञान विनाशक, द्युलोक तक प्रवाहित वाणी द्युलोक में विपुल शब्दकारक होती है। सूर्य पुत्री (वह वाणी) सम्पूर्ण देवों को अमृतोषम पदार्थ और अक्षय अन्नादि प्रदान करती हैं॥१५॥ ससर्परीरभरत्तूयमेभ्योऽधि श्रवः पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु । सा पक्ष्या नव्यमायुर्दधाना यां मे पलस्तिजमदग्नयो ददुः ॥१६॥ पलस्त, जमदग्नि आदि क्षयों ने जो उत्तम वचन कहे, वे नवीन अन्नों को प्रदान कराने वाले थे। पंच जनों मैं जो अन्नादि विद्यमान हैं, उनसे अधिक अन्नादि हमारे निमित्त शीघ्र प्रदान करें ॥१६॥ स्थिरौ गावौ भवतां वीळुरक्षो मेषा वि वर्हि मा युगं वि शारि । इन्द्रः पातल्ये ददतां शरीतोररिष्टनेमे अभि नः सचस्व ॥१७॥ सुदास के यज्ञ में विश्वामित्र रथांगों की स्तुति करते हैं-योजित बैल स्थिर हों, रथ का अथवा सदृढ़ हो। रथ के दण्टु न टूटें। शकट न इटें । धुरी की गिरने वाली कोल को इन्द्रदेव ठीक कर दें। हे अबाधित रथे ! आप सदैव हमारे अनुकूल रहते हुए आगे बढ़े ॥१७॥ बलं धेहि तनूषु नो बलमिन्द्रानळुत्सु नः । बलं तोकाय तनयाय जीवसे त्वं हि बलदा असि ॥१८॥ हे इन्द्रदेव ! हमारे शरीरों में बल स्थापित करें। हमारे बैल आदि पशुओं में बल स्थापित करें। हमारे पुत्र और पौत्रों में दीर्घ जीवन के लिए बल स्थापित करें, क्योंकि आप बालों को प्रदान करने वाले हैं॥१८॥ अभि व्ययस्व खदिरस्य सारमोजो धेहि स्पन्दने शिंशपायाम् । अक्ष वीळो वीळित वीळयस्व मा यामादस्मादव जीहिपो नः ॥१९॥ हे इन्द्रदेव ! खदिर काष्ट से विनिर्मित रथ के दण्ड को दृढ़ करें। रथ के स्पन्दनों में शीशम के कप्त से विनिर्मित रथ की धुरी और शकटादि में बल भरे । हे सुदृढ़ अक्ष! हमारे द्वारा दृढ़ किये हुए आप और अधिक सुदृढ़ हों । वेग से गमन करते हुए आप हमें गिरा न दें ॥१९॥ अयमस्मान्वनस्पतिर्मा च हा मा च रीरिषत् । स्वस्त्या गृहेभ्य आवसा आ विमोचनात् ॥२०॥ वनस्पति से विनिर्मित यह रथ में न गिराये, संताप न दें। हमारे घर पहुंचने तक यह हमारा मंगल करे और अश्त्रों के विमुक्त होने तक यह इमारौं रक्षा करे ॥२०॥ इन्द्रोतिभिर्बहुलाभिर्नो अद्य याच्छ्रेष्ठाभिर्मघवञ्छूर जिन्व । यो नो द्वेष्ट्यधरः सस्पदीष्ट यमु द्विष्मस्तमु प्राणो जहातु ॥२१॥ हे शूरवीर और ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव! आप विविध, श्रेप्नु, संरक्षणकारी साधनों से हमारी रक्षा करें। हमारे शत्रुओं का विनाश कर हमें प्रसन्न करें । जो हमसे द्वेष करता है, उसका पतन करें। हम जिससे द्वेष करते हैं, उसके प्राणों का हरण करें ॥२१॥ परशुं चिद्वि तपति शिम्बलं चिद्वि वृश्चति । उखा चिदिन्द्र येषन्ती प्रयस्ता फेनमस्यति ॥२२॥ हे इन्द्रदेव! फरसे से वृक्ष के संतप्त होने के समान हमारे शत्रु संतप्त हों। शाल्मलि गुष्य के शाखा से गिरने के समान हमारे शत्रु के अंग विच्छिन्न हों। पकाने के समय हांड़ी के फेन निकलने के समान हमारे हिंसक शत्रुओं के मुख से फेन निकालें ॥२२॥ न सायकस्य चिकिते जनासो लोधं नयन्ति पशु मन्यमानाः । नावाजिनं वाजिना हासयन्ति न गर्दभं पुरो अश्वान्नयन्ति ॥२३॥ विश्वामित्र कहते हैं, वीर पुरुष बाणों के कष्ट को कुछ नहीं समझते । वे लोभी शत्रु को पशु मानकर ले जाने हैं। वे बलवानों से निर्बलों का उपहास नहीं कराते । गधों की तुलना अवों से नहीं करते ॥२३॥ इम इन्द्र भरतस्य पुत्रा अपपित्वं चिकितुर्न प्रपित्वम् । हिन्वन्त्यश्वमरणं न नित्यं ज्यावाजं परि णयन्त्याजौ ॥२४॥ हे इन्द्रदेव ! ये भरत वंशज्ञ शत्रु को पृथक् करना जानते हैं, उनके साथ एक होकर रहना नहीं जानते। वे संग्राम में प्रेरित अव की भाँति धनुष को प्रत्यंचा को शक्ति प्रकट करते हैं॥२४॥

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