ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ३९

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ३९ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - दधिक्रा, । छंद - त्रिष्टुप, ६ अनुष्टुप आशुं दधिक्रां तमु नु ष्टवाम दिवस्पृथिव्या उत चर्किराम । उच्छन्तीर्मामुषसः सूदयन्त्वति विश्वानि दुरितानि पर्षन् ॥१॥ उन द्रुतगामी दधिक्रादेव की हम लोग प्रार्थना करेंगे और द्यावा- पृथिवी की भी प्रार्थना करेंगे। तम का निवारण करने वाली उषाएँ हमें उत्साहित करें तथा समस्त विपत्तियों से हमें पार करें ॥१॥ महश्वर्कर्म्यर्वतः क्रतुप्रा दधिक्राव्णः पुरुवारस्य वृष्णः । यं पूरुभ्यो दीदिवांसं नाग्निं ददथुर्मित्रावरुणा ततुरिम् ॥२॥ हम यज्ञ सम्पन्न करने वाले हैं। अनेकों के द्वारा वरण करने योग्य, महान् तथा अभीष्ट की वर्षा करने वाले दधिक्रादेव की हम प्रार्थना करते हैं। हे मित्रावरुण! आप दोनों तेजस्वी अग्नि के सदृश स्थित तथा विपत्तियों से पार लगाने वाले दधिक्रादेव को याजकों के कल्याण के लिए धारण करते हैं ॥२॥ यो अश्वस्य दधिक्राव्णो अकारीत्समिद्धे अग्ना उषसो व्युष्टौ । अनागसं तमदितिः कृणोतु स मित्रेण वरुणेना सजोषाः ॥३॥ जो मनुष्य उषा के प्रकट होने पर तथा अग्नि के प्रदीप्त होने पर अश्वरूप दधिक्रादेव की प्रार्थना करते हैं। ऐसे मनुष्य को मित्र, वरुण तथा अदिति के साथ दधिक्रादेव पाप रहित करें ॥३॥ दधिक्राव्ण इष ऊर्जा महो यदमन्महि मरुतां नाम भद्रम् । स्वस्तये वरुणं मित्रमग्निं हवामह इन्द्रं वज्रबाहुम् ॥४॥ हम अन्न-प्रदाता, बल-प्रदाता, श्रेष्ठ तथा याजकों का हित करने वाले दधिक्रादेव तथा मरुतों के नाम की प्रार्थना करते हैं। मित्र, वरुण, अग्नि तथा हाथ में वज्र धारण करने वाले इन्द्रदेव को हम आहूत करते हैं ॥४॥ इन्द्रमिवेदुभये वि हृयन्त उदीराणा यज्ञमुपप्रयन्तः । दधिक्रामु सूदनं मर्त्याय ददथुर्मित्रावरुणा नो अश्वम् ॥५॥ जो मनुष्य युद्ध करने के लिए पराक्रम करते हैं तथा जो यज्ञ करने के लिए प्रयत्न करते हैं। वे दोनों ही दधिक्रादेव को इन्द्रदेव के समान आवाहित करते हैं। हे मित्रावरुण! आपने मनुष्यों को प्रेरित करने वाले द्रुतगामी अश्वरूप दधिक्रादेव को हमारे लिए धारण किया ॥५॥ दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः । सुरभि नो मुखा करत्प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥६॥ हम विजय से सम्पन्न, व्यापक तथा वेगवान् दधिक्रादेव की प्रार्थना करते हैं। वे हमारी मुख आदि इन्द्रियों को सुरभित (श्रेष्ठ) बनायें तथा हमारी आयु की वृद्धि करें ॥६॥

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