ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ५९

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ५९ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - मित्र । छंद - त्रिष्टुप, ६-९ गायत्री मित्रो जनान्यातयति ब्रुवाणो मित्रो दाधार पृथिवीमुत द्याम् । मित्रः कृष्टीरनिमिषाभि चष्टे मित्राय हव्यं घृतवज्जुहोत ॥१॥ मित्रदेव सभी मनुष्यों को कर्म में प्रवृत्त रहने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। रस आदि उपलब्ध कराने वाले अपने श्रेष्ठ कर्मों से पृथ्वी और द्युलोक को धारण करते हैं। वे सभी सफर्मरत मनुष्यों के ऊपर निरन्तर अपने अनुग्रह की वर्षा करते हैं। हे मनुष्यो ! ऐसे मित्रदेव के निमित्त घृत युक्त हविष्यात्र प्रदान करें ॥१॥ प्र स मित्र मर्तो अस्तु प्रयस्वान्यस्त आदित्य शिक्षति व्रतेन । न हन्यते न जीयते त्वोतो नैनमंहो अश्नोत्यन्तितो न दूरात् ॥२॥ हे आदित्य और मित्रदेव! जो मनुष्य यज्ञादि कर्म से युक्त होकर आपके लिए हविष्यात्र समर्पित करता है; वह अन्नवान् होता है। आपके संरक्षण में रहकर वह न तो विनष्ट होता है और न ही जीवन में दुःख पाता है। पाप उसके निकट नहीं पहुँचता हैं, न ही दूर से प्रभावित कर पाता है॥२॥ अनमीवास इळ्या मदन्तो मितज्ञवो वरिमन्ना पृथिव्याः । आदित्यस्य व्रतमुपक्षियन्तो वयं मित्रस्य सुमतौ स्याम ॥३॥ हे मित्रदेव ! हम रोगों से मुक्त होकर तथा पोषक अन्नों से परिपुष्ट होकर हर्षित हो । हम पृथ्वी के विस्तीर्ण क्षेत्र में नमन भाव में निवास करें। हम आदित्यदेव के व्रत (नियम) के अधीन रहकर जीवनयापन करें। हमें मित्रदेव का अनुमह सदैव मिलता रहे ॥३॥ अयं मित्रो नमस्यः सुशेवो राजा सुक्षत्रो अजनिष्ट वेधाः । तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम ॥४॥ नमन योग्य उत्तम, सुलकारी, स्वामी, उत्तम बल से युक्त, सबके मित्रस्वरूप ये सूर्यदेव उदित हुए हैं। हम यजमान न पूजनीय सूर्यदेव का कल्याणकारी अनुग्रह सदैव प्राप्त करते रहें ॥४॥ महाँ आदित्यो नमसोपसद्यो यातयज्जनो गृणते सुशेवः । तस्मा एतत्पन्यतमाय जुष्टमग्नौ मित्राय हविरा जुहोत ॥५॥ हे अत्विज्ञों ! आदित्यदेव अत्यन्त महानु हैं। वे समस्त मनुष्यों को कर्मों में प्रवृत्त करने वाले हैं। सभी लोग नमन करते हुए इनकी उपासना करें। ये स्तुति करने वालों को उत्तम सुखों से समृद्ध करते हैं। इन स्तुतियोग्य मित्रदेव के निमित्त अत्यन्त प्रीतियुक्त हवियाँ समर्पित करें ॥५॥ मित्रस्य चर्षणीधृतोऽवो देवस्य सानसि । द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम् ॥६॥ जल (दिव्य रस) की वर्षा के रूप में प्राप्त होने वाला सूर्यदेव का अनुग्रह सभी प्राणियों के जीवन की रक्षा करने वाला है। थे सभी के लिए उपयोगी धन-धान्य प्रदान करते हैं॥६॥ अभि यो महिना दिवं मित्रो बभूव सप्रथाः । अभि श्रवोभिः पृथिवीम् ॥७॥ जिन सूर्यदेव ने अपनी महिमा से द्युलोक को संव्याप्त किया हैं, उन्हीं कीर्तिमान् सूर्यदेव ने अपनी किरणों से जल बरसाकर अन्नादि से पृथ्वी से लाभान्वित किया ॥७॥ मित्राय पञ्च येमिरे जना अभिष्टिशवसे । स देवान्विश्वान्बिभर्ति ॥८॥ शत्रुओं को पराभूत करने में सक्षम, सामर्थ्यशालौ मित्रदेव के लिये पाँच वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद) आहुति प्रदान करते हैं। वे मिजदेव अपनी सामर्थ्य से सभी देवताओं को धारण करते हैं ॥८ ॥ मित्रो देवेष्वायुषु जनाय वृक्तबर्हिषे । इष इष्टव्रता अकः ॥९॥ देवो और मनुष्यों के बीच मकार भावना रखने वाले साधकों के लिए मित्रदेव कल्याणकारी अन्नादि प्रदान करते हैं। जो व्रतों एवं नियमादि का पालन करते हैं, उन्हें ही यह अनुदान प्राप्त होते हैं॥९॥

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