ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १८

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १८ ऋषि - मेधातिथिः काण्व देवता- १-३ ब्राह्मणस्पतिः ४ इन्द्रो ब्राह्मणस्पतिः सोम ५ - ब्राह्मणस्पति सोम, ६-७ सदसस्पतिर्नराशंसों । छंद- गायत्री सोमानं स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते । कक्षीवन्तं य औशिजः ॥१॥ हे सम्पूर्ण ज्ञान के अधिपति ब्रह्मणस्पति देव ! सोम का सेवन करने वाले यजमान को आप उशि के पुत्र कक्षीवान् की तरह श्रेष्ठ प्रकाश से युक्त करें ॥१॥ यो रेवान्यो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः । स नः सिषक्तु यस्तुरः ॥२॥ ऐश्वर्यवान्, रोगों का नाश करने वाले, धन प्रदाता और पुष्टिवर्धक तथा जो शीघ्र फलदायक हैं, वे ब्रह्मणस्पतिदेव, हम पर कृपा करें ॥२॥ मा नः शंसो अररुषो धूर्तिः प्रणङ्गर्त्यस्य । रक्षा णो ब्रह्मणस्पते ॥३॥ हे ब्रह्मणस्पतिदेव ! यज्ञ न करने वाले तथा अनिष्ट चिन्तन करने वाले दुष्ट शत्रु का हिंसक, दुष्ट प्रभाव हम पर न पड़े। आप हमारी रक्षा करें ॥३॥ स घा वीरो न रिष्यति यमिन्द्रो ब्रह्मणस्पतिः । सोमो हिनोति मर्त्यम् ॥४॥ जिस मनुष्य को इन्द्रदेव, ब्रह्मणस्पतिदेव और सोमदेव प्रेरित करते हैं, वह वीर कभी नष्ट नहीं होता ॥४॥ त्वं तं ब्रह्मणस्पते सोम इन्द्रश्च मर्त्यम् । दक्षिणा पात्वंहसः ॥५॥ हे ब्रह्मणस्पते ! आप सोमदेव, इन्द्रदेव और दक्षिणादेवी के साथ मिलकर यज्ञादि अनुष्ठान करने वाले मनुष्य की पापों से रक्षा करें ॥५॥ सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् । सनिं मेधामयासिषम् ॥६॥ इन्द्रदेव के प्रिय मित्र, अभीष्ट पदार्थों को देने में समर्थ, लोकों का मर्म समझने में सक्षम सदसस्पतिदेव (सत्प्रवृत्तियों के स्वामी) से हम अद्भुत मेधा प्राप्त करना चाहते हैं॥६॥ यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन । स धीनां योगमिन्वति ॥७॥ जिनकी कृपा के बिना ज्ञानी का भी यज्ञ पूर्ण नहीं होता, वे सदसस्पतिदेव हमारी बुद्धि को उत्तम प्रेरणाओं से युक्त करते हैं॥७॥ आदृनोति हविष्कृतिं प्राञ्चं कृणोत्यध्वरम् । होत्रा देवेषु गच्छति ॥८॥ वे सदसस्पतिदेव हविष्यान्न तैयार करने वाले साधकों तथा यज्ञ को प्रवृद्ध करते हैं और वे ही हमारी स्तुतियों को देवों तक पहुँचाते हैं॥८॥ नराशंसं सुधृष्टममपश्यं सप्रथस्तमम् । दिवो न सद्ममखसम् ॥९॥ द्युलोक के सदृश अतिदीप्तिमान्, तेजवान्, यशस्वी और मुनष्यों द्वारा प्रशंसित सदसस्पतिदेव को हमने देखा है॥९॥

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