ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १६२

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १६२ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- अश्वः । छंद - त्रिष्टुप, ३, ६ जगती मा नो मित्रो वरुणो अर्यमायुरिन्द्र ऋभुक्षा मरुतः परि ख्यन् । यद्वाजिनो देवजातस्य सप्तेः प्रवक्ष्यामो विदथे वीर्याणि ॥१॥ हम याजकगण यज्ञशाला में दिव्यगुण सम्पन्न, गतिमान्, पराक्रमी, वाजी (बलशाली) देवताओं के ही ऐश्वर्य का गान करते हैं। अतः मित्र, वरुण, अर्यमा, आयु, ऋभुक्ष, मरुद्गण, इन्द्र आदि देवता हमारी उपेक्षा करते हुए हमसे विमुख न हों (वरन् अनुकूल रहें) ॥१॥ यन्निर्णिजा रेक्णसा प्रावृतस्य रातिं गृभीतां मुखतो नयन्ति । सुप्राङजो मेम्यद्विश्वरूप इन्द्रापूष्णोः प्रियमप्येति पाथः ॥२॥ जब सुसंस्कारित, ऐश्वर्ययुक्त, सबको आवृत करने वाले (देवों) के मुख के पास (देवों का मुख यज्ञाग्नि को कहा जाता है ।) हविष्यान्न (पुरोड़ाश आदि) लाया जाता है, तो भली प्रकार आगे लाया हुआ विश्वरूप अज (अनेक रूपों में जन्म लेने वाली जीव चेतना) भी मैं- मैं करता (मुझे भी चाहिए- इस भाव से) आता है, (तब वह भी) इन्द्र और पूषादेव आदि के प्रिय आहार (हव्य) को प्राप्त करता है॥२॥ एष च्छागः पुरो अश्वेन वाजिना पूष्णो भागो नीयते विश्वदेव्यः । अभिप्रियं यत्पुरोळाशमर्वता त्वष्टेदेनं सौश्रवसाय जिन्वति ॥३॥ यह अज जब बलशाली अश्व के आगे लाया जाता है, तो श्रेष्ठ पुरुष (याजक या प्रजापति) इस चंचल (अश्व के साथ अज को भी, सबको प्रिय लगने वाले पुरोड़ाश आदि (हव्य) का भाग देकर उत्तम यश प्राप्त करते हैं॥३॥ यद्धविष्यमृतुशो देवयानं त्रिर्मानुषाः पर्यश्वं नयन्ति । अत्रा पूष्णः प्रथमो भाग एति यज्ञं देवेभ्यः प्रतिवेदयन्नजः ॥४॥ जब मनुष्य (याजक गण) हविष्य को (यज्ञ के माध्यम) तीनों देवयान मार्गों (पृथ्वी, अंतरिक्ष एवं द्युलोक) में अश्व की तरह संचारित करते हैं, तब यहाँ (पृथ्वी पर) यह अज पोषण के प्रथम भाग को पाकर देवताओं के हित के लिए यज्ञ को विज्ञापित करता चलता है॥४॥ होताध्वर्युरावया अग्निमिन्धो ग्रावग्राभ उत शंस्ता सुविप्रः । तेन यज्ञेन स्वरंकृतेन स्विष्टेन वक्षणा आ पृणध्वम् ॥५॥ होता, अध्वर्यु, प्रतिप्रस्थाता, आग्नीध्र, ग्रावस्तोता, प्रशास्ता, प्रज्ञावान् ब्रह्मा आदि हे ऋत्विजों ! आप सब प्रकार सज्जित (अङ्ग- उपाङ्गों सहित सम्पन्न) इस यज्ञ द्वारा इष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए (प्रकृतिगत) प्रवाहों को समृद्ध बनाएँ ॥५॥ यूपव्रस्का उत ये यूपवाहाश्चषालं ये अश्वयूपाय तक्षति । ये चार्वते पचनं सम्भरन्त्युतो तेषामभिगूर्तिर्न इन्वतु ॥६॥ हे ऋत्विजों ! यज्ञ की व्यवस्था में सहयोग देने वाले, लकड़ी काटकर यूप का निर्माण करने वाले, युप को यज्ञशाला तक पहुँचाने वाले, चषाल (लोहे या लकड़ी की फिरकी) बनाने वाले, अश्व बाँधने के बँटे को बनाने वाले - इन सबका किया गया प्रयास हमारे लिए हितकारी हो॥६॥ उप प्रागात्सुमन्मेऽधायि मन्म देवानामाशा उप वीतपृष्ठः । अन्वेनं विप्रा ऋषयो मदन्ति देवानां पुष्टे चकृमा सुबन्धुम् ॥७॥ अश्वमेध यज्ञ की फलश्रुति के रूप में श्रेष्ठ मानवीय फल हमें स्वयं ही प्राप्त हो । देवताओं के मनोरथ को पूर्ण करने में समर्थ इस अश्व (शक्ति) की कामना सभी करते हैं। इस अश्व को देवत्व की पुष्टि के लिए मित्र के रूप में मानते हैं। सभी बुद्धिमान् ऋषि इसका अनुमोदन करें ॥७॥ यद्वाजिनो दाम संदानमर्वतो या शीर्षण्या रशना रज्जुरस्य । यद्वा घास्य प्रभृतमास्ये तृणं सर्वा ता ते अपि देवेष्वस्तु ॥८॥ इस वाजिन् (बलशाली) को नियंत्रित रखने के लिए गर्दन का बन्धन, इस (अर्वन्) चंचल के लिए पैरों का बन्धन, कमर एवं सिर के बन्धन तथा मुख के घास आदि तृण सभी देवों को अर्पित हों। (यज्ञीय ऊर्जा अथवा राष्ट्र की शक्तियों को सुनियंत्रित एवं समृद्ध रखने वाले सभी साधन देवों के ही नियंत्रण में रहें ।) ॥८ ॥ यदश्वस्य क्रविषो मक्षिकाश यद्वा स्वरौ स्वधितौ रिप्तमस्ति । यद्धस्तयोः शमितुर्यन्नखेषु सर्वा ता ते अपि देवेष्वस्तु ॥९॥ अश्व (संचरित होने वाले व्य) का जो विकृत (होमा न जा सकने वाला) भाग मक्खियों द्वारा खाया जाता है, जो उपकरणों में लगा रहता है, जो याजक के हाथों में तथा जो नाखूनों में लगा रहता है, वह सब भी देवत्व के प्रति ही समर्पित हो ॥९॥ यदूवध्यमुदरस्यापवाति य आमस्य क्रविषो गन्धो अस्ति । सुकृता तच्छमितारः कृण्वन्तूत मेधं भृतपाकं पचन्तु ॥१०॥ उदर में (यज्ञकुण्ड के गर्भ में) जो उच्छेदन योग्य गन्ध अधपचे ( हविष्यान्न) से निकल रही है, उसका शमन भलीप्रकार किये गये मेध (यज्ञीय) उपचार द्वारा हो और उसका पाचन भी देवों के अनुकूल हो ॥१०॥ यत्ते गात्रादग्निना पच्यमानादभि शूलं निहतस्यावधावति । मा तद्भूम्यामा श्रिषन्मा तृणेषु देवेभ्यस्तदुशद्भयो रातमस्तु ॥११॥ आपके जो अग्नि द्वारा पचाये जाते हुए अंग, शूल के आघात से इधर- उधर उछल कर गिर गये हैं, वे भूमि पर हीं न पड़े रहें, तृणों में न मिल जायें। वे भी यज्ञ भाग चाहने वाले देवों का आहार बनें ॥ ११॥ ये वाजिनं परिपश्यन्ति पक्कं य ईमाहुः सुरभिर्निहरति । ये चार्वतो मांसभिक्षामुपासत उतो तेषामभिगूर्तिर्न इन्वतु ॥१२॥ जो इस वाजिन् (अन्न युक्त पुरोडाश) को पकता हुआ देखते हैं और जो उसकी सुगंध को आकर्षक कहते हैं, जो इस भोग्य अन्न से बने आहार की याचना करते हैं, उनका पुरुषार्थ भी हमारे लिए फलित हो ॥१२॥ यन्नीक्षणं माँस्पचन्या उखाया या पात्राणि यूष्ण आसेचनानि । ऊष्मण्यापिधाना चरूणामङ्काः सूनाः परि भूषन्त्यश्वम् ॥१३॥ जो उखा पात्र में पकाये जाते (अन्न एवं फलों के गूदे से बने) पुरोडाश का निरीक्षण करते हैं, जो पात्रों को जल से पवित्र करने वाले हैं, (पकाने के क्रम में) ऊष्मा को रोकने वाले ढक्कन, चरु आदि को अंक (गोद) में रखने वाले तथा (पुरोड़ाश के टुकड़े काटने वाले जो उपकरण हैं, वे सब इस अश्वमेध को विभूषित करने वाले (यज्ञ की गरिमा के अनुरूप) हों ॥१३॥ निक्रमणं निषदनं विवर्तनं यच्च पड्बीशमर्वतः । यच्च पपौ यच्च घासिं जघास सर्वा ता ते अपि देवेष्वस्तु ॥१४॥ (पकाये जाते हुए पुरोड़ाश के प्रति कहते हैं-) धुएँ की गंधवालीं अग्नि तुम्हें पीड़ित न करे, (अग्नि के प्रभाव से) चमकता हुआ अग्नि पात्र (उखा) तुम्हें उद्विग्न न करे। ऐसे (धुएँ आदि से रहित, भली प्रकार सम्पन्न) अश्वमेध को देवगण स्वीकार करते हैं॥१४॥ मा त्वाग्निर्ध्वनयीधूमगन्धिर्मोखा भ्राजन्त्यभि विक्त जघ्रिः । इष्टं वीतमभिगूर्त वषट्कृतं तं देवासः प्रति गृभ्णन्त्यश्वम् ॥१५॥ (हे यज्ञ रूप अश्व !) आप का निकलना, आन्दोलित होना, पलटना, पीना, खाना आदि सारी क्रियाएँ देवताओं में (उनके ही बीच, उन्हीं के संरक्षण में) हों ॥१५॥ यदश्वाय वास उपस्तृणन्त्यधीवासं या हिरण्यान्यस्मै । संदानमर्वन्तं पड्बीशं प्रिया देवेष्वा यामयन्ति ॥१६॥ यज्ञ को समर्पित (पूजन योग्य) अश्व को सजाने वाला ऊपर की वस्त्र, आभूषण, सिर तथा पैर बाँधने की मेखलाएँ आदि सभी देवताओं को प्रसन्नता प्रदान करने वाले हों ॥१६॥ यत्ते सादे महसा शूकृतस्य पार्ष्या वा कशया वा तुतोद । सुचेव ता हविषो अध्वरेषु सर्वा ता ते ब्रह्मणा सूदयामि ॥१७॥ (हे यज्ञाग्नि रूप अश्व !) अतिशीघ्रता (जल्दबाजी में तुम्हें सताने वालों, निचले भाग को (व्य को जल्दी पचाने के लिए अग्नि के निचले भाग को कुरेद कर) पीड़ित करने वालों द्वारा की गयी सभी त्रुटियों को (हम पुरोहित) सुवा की आहुतियों (घृताहुतियों) से ठीक करते हैं॥१७॥ चतुस्त्रिंशद्वाजिनो देवबन्धोर्व‌ङ्कीरश्वस्य स्वधितिः समेति । अच्छिद्रा गात्रा वयुना कृणोत परुष्परुरनुघुष्या वि शस्त ॥१८॥ हे ऋत्विजों ! धारण करने की सामर्थ्य से युक्त, गतिमान्, देवताओं के बन्धु इस अश्व (यज्ञ) के चौंतीस अंगों को अच्छी प्रकार प्राप्त करें (जान । हर अंग को अपने प्रयासों द्वारा स्वस्थ बनाएँ और उसकी कमियों को दूर करें ॥१८॥ एकस्त्वष्टुरश्वस्या विशस्ता द्वा यन्तारा भवतस्तथ ऋतुः । या ते गात्राणामृतुथा कृणोमि ताता पिण्डानां प्र जुहोम्यग्नौ ॥१९॥ (काल विभाजन के क्रम में) त्वष्टा (सूर्य) रूपी अश्व का विभाजन संवत्सर (वर्ष) करता है। उत्तरायण तथा दक्षिणायन नाम से दो विभाग उसके नियन्ता होते हैं। वह वसन्तादि दो-दो माह की ऋतुओं में विभक्त होता है। यज्ञ में शरीर के अलग-अलग अंगों की पुष्टि के निमित्त ऋतु संबंधी अनुकूल पदार्थों की आहुतियाँ देते हैं॥१९॥ मा त्वा तपत्प्रिय आत्मापियन्तं मा स्वधितिस्तन्व आ तिष्ठिपत्ते । मा ते गृध्नुरविशस्तातिहाय छिद्रा गात्राण्यसिना मिथू कः ॥२०॥ हे अश्व (राष्ट्र अथवा यज्ञ) ! आपका परम प्रिय आत्म तत्त्व अर्थात् अपना गौरव कभी भी पीड़ादायक स्थिति में छोड़कर न जाये (राष्ट्र का गौरव अक्षुण्ण रहे) । शस्त्र (विखण्डित करने वाली शक्तियाँ) आपके अंग-अवयवों पर अपना अधिकार न जमा सकें (राष्ट्र कभी खण्डित न हो) । अकुशल व्यक्ति भी आपके दोषों के अतिरिक्त किसी उपयोगी अंग पर असि (तलवार) का प्रयोग न करे ॥२०॥ न वा उ एतन्त्रियसे न रिष्यसि देवाँ इदेषि पथिभिः सुगेभिः । हरी ते युज्जा पृषती अभूतामुपास्थाद्वाजी धुरि रासभस्य ॥२१॥ हे अश्व ! (यज्ञ से उत्पन्न ऊर्जा) न तो आपका नाश होता है और न आप किसी को नष्ट करते हैं, (वरन् आप) सुगम - सहज मार्ग से देवताओं तक पहुँचते हैं। शब्द करने वालों (मंत्रोच्चार करने वालों के आधार पर वाजी (ऐश्वर्यवान) और हरि (अंतरिक्षीय गतिशील प्रवाह) उपस्थित होकर, आपके साथ संयुक्त होकर पुष्ट होते हैं॥ २१॥ सुगव्यं नो वाजी स्वव्यं पुंसः पुत्राँ उत विश्वापुषं रयिम् । अनागास्त्वं नो अदितिः कृणोतु क्षत्रं नो अश्वो वनतां हविष्मान् ॥२२॥ देवत्व को प्राप्त करने वाला यह बलशाली (यज्ञीय प्रयोग) हमें पुत्र- पौत्र, धन-धान्य तथा उत्तम अश्वों के रूप में अपार वैभव प्रदान करे । हम दीनता, पाप कृत्यों एवं अपराधों से सदैव दूर रहें। अश्व के समान शक्तिशाली हमारे नागरिक पराक्रमी हो ॥२२॥

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