ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १४१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १४१ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- अग्नि । छंद जगती, १२-१३ त्रिष्टुप बळित्था तद्वपुषे धायि दर्शतं देवस्य भर्गः सहसो यतो जनि । यदीमुप ह्ररते साधते मतिर्ऋतस्य धेना अनयन्त सस्रुतः ॥१॥ दिव्य अग्नि की उस रमणीय तेजस्विता को मनुष्य देह की सुदृढ़ता हेतु धारण करते हैं। क्योंकि वह तेजस्विता बल से उत्पादित हैं। इस विख्यात लोकोपयोगी अग्निदेव की तेजस्विता को हमारी विवेक बुद्धि प्राप्त करे। वह हमारे अभीष्ट उद्देश्यों को पूर्ण करे। सभी प्राणियों द्वारा अग्निदेव की ही प्रार्थनाएँ की जाती हैं॥१॥ पृक्षो वपुः पितुमान्नित्य आ शये द्वितीयमा सप्तशिवासु मातृषु । तृतीयमस्य वृषभस्य दोहसे दशप्रमतिं जनयन्त योषणः ॥२॥ (अग्निदेव के तीन रूप वर्णित हैं) प्रथम भौतिक अग्नि के रूप में अन्न को पकाने वाले और शरीर को पोषित करने वाले हैं। दूसरे सप्त लोकों के हितकारक मेघों में विद्युत् रूप में हैं। तीसरे बलशाली अग्निदेव सभी रसों का दोहन करने वाले सूर्य रूप में विद्यमान हैं। ऐसे दशों दिशाओं में श्रेष्ठ इन अग्निदेव को अँगुलियाँ मन्थन द्वारा उत्पन्न करती हैं॥२॥ निर्यदीं बुना महिषस्य वर्पस ईशानासः शवसा क्रन्त सूरयः । यदीमनु प्रदिवो मध्व आधवे गुहा सन्तं मातरिश्वा मथायति ॥३॥ जब ऋत्विज विशाल अरणियों के मूलस्थान के मन्थन द्वारा उसी प्रकार अग्नि प्रकट करते हैं, जिस प्रकार पहले भी सोमयज्ञ में आहुति देने के लिए अप्रकट इस अग्नि को विद्वान् मातरिश्वा ने मन्थन द्वारा प्रकट किया था। तब सभी के द्वारा उनकी स्तुति की जाती है॥३॥ प्र यत्पितुः परमान्नीयते पर्या पृक्षुधो वीरुधो दंसु रोहति । उभा यदस्य जनुषं यदिन्वत आदिद्यविष्ठो अभवघृणा शुचिः ॥४॥ सबके श्रेष्ठ पालक होने से अग्निदेव जब सभी ओर से प्रज्वलित होते हैं, तब समिधाओं के इच्छुक अग्निदेव के ज्वालारूपी दाँतों पर वृक्षादि अर्पित किये जाते हैं। जब दोनों अरणियाँ इस अग्नि को उत्पादित करने के लिए प्रयत्नशील होती हैं, तब पावन अग्निदेव प्रकट होकर तेजस्वी और बलशाली होते हैं॥४॥ आदिन्मातृराविशद्यास्वा शुचिरहिंस्यमान उर्विया वि वावृधे । अनु यत्पूर्वी अरुहत्सनाजुवो नि नव्यसीष्ववरासु धावते ॥५॥ अग्निदेव की सामर्थ्य प्रकट होकर मातृरूपा दसों दिशाओं में सर्वत्र संव्याप्त हो गई। वे उन सभी दिशाओं में विघ्नरहित होकर अति वृद्धि को प्राप्त हुए । चिरकाल से स्थायी ओषधियों तथा नई-नई प्रकट हो रही ओषधीय – गुणों से रहित वनस्पतियों में भी अग्नि के गुण संव्याप्त हो रहे हैं॥५॥ आदिद्धोतारं वृणते दिविष्टिषु भगमिव पपृचानास ऋज्ञ्जते । देवान्यत्क्रत्वा मज्मना पुरुष्टुतो मर्तं शंसं विश्वधा वेति धायसे ॥६॥ इसके बाद सभी याजकगणों ने यज्ञों में आहुतियाँ ग्रहण करने वाले अग्निदेव का वरण किया तथा वैभव सम्पन्न नरेश के समान ही उन्हें प्रसन्न किया। इससे आनन्दित होकर ये अग्निदेव शक्ति ऊर्जा से सम्पन्न हैं। श्रेष्ठ यज्ञों में ये अग्निदेव हवि सेवन करने के लिए देवों का आवाहन करते हैं॥६॥ वि यदस्थाद्यजतो वातचोदितो ह्वारो न वक्ता जरणा अनाकृतः । तस्य पत्मन्दक्षुषः कृष्णजंहसः शुचिजन्मनो रज आ व्यध्वनः ॥७॥ जैसे अवरोध रहित, बहुभाषी, प्रशंसनीय उपहास युक्त वचनों से विदूषक सारे स्थान को हास्य से भर देता है, उसी प्रकार वायु द्वारा गतिमान् अग्निदेव सर्वत्र संव्याप्त हो जाते हैं। ऐसे अपनी ज्वलनशीलता से सब कुछ जलाने वाले, पावनस्वरूप में उत्पन्न, बहुमार्गगामी तथा जाने के बाद मार्ग में कालिमा छोड़ने वाले अग्निदेव के मार्ग का सभी लोक अनुगमन करते हैं॥७॥ रथो न यातः शिक्वभिः कृतो द्यामङ्गेभिररुषेभिरीयते । आदस्य ते कृष्णासो दक्षि सूरयः शूरस्येव त्वेषथादीषते वयः ॥८॥ कुशल कारीगरों द्वारा रचित और चालित रथ के समान ही ये अग्निदेव वेगशील ज्वालाओं से दिव्यलोक की ओर प्रस्थान करते हैं। जाने के साथ ही इनके वे गमन मार्ग कालिमायुक्त हो जाते हैं, क्योंकि वे काष्ठों को जलाने वाले हैं। वीरों से डर कर शत्रुओं के भागने के समान हीं, अग्नि की ज्वालाओं को देखकर पक्षीगण भाग जाते हैं ॥८॥ त्वया ह्यग्ने वरुणो धृतव्रतो मित्रः शाशद्रे अर्यमा सुदानवः । यत्सीमनु क्रतुना विश्वथा विभुररान्न नेमिः परिभूरजायथाः ॥९॥ हे अग्निदेव ! आपकी सामर्थ्य से ही वरुणदेव व्रतों का निर्वाह करते, सूर्यदेव अन्धेरे को दूर करते तथा अर्यमादेव श्रेष्ठ दान के व्रतों का पालन करते हैं। इसलिए हे अग्निदेव ! आप सभी ओर कर्तव्य परायणता द्वारा विश्वात्मारूप, सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान् रूप में प्रकट होते हैं। जैसे रथ का चक्र अरों को व्याप्त करके रखना है, उसी प्रकार आप भी सर्वत्र संव्याप्त होकर सबके नियमों का निर्धारण करते हैं॥९॥ त्वमग्ने शशमानाय सुन्वते रत्नं यविष्ठ देवतातिमिन्वसि । तं त्वा नु नव्यं सहसो युवन्वयं भगं न कारे महिरत्न धीमहि ॥१०॥ हे अत्यन्त तरुण अग्निदेव ! आप स्तोता और सोम निष्पादनकर्ता यजमान के लिए ऐश्वर्यप्रद उत्तम धनों को प्राप्त करने की प्रेरणा देते हैं। शक्तिपुत्र, तरुण महिमामय और रत्नरूप हे अग्निदेव ! पूजा उपासना के समय हम आपकी भूपति के समान ही अर्चना करते हैं॥१०॥ अस्मे रयिं न स्वर्थं दमूनसं भगं दक्षं न पपृचासि धर्णसिम् । रश्मीरिव यो यमति जन्मनी उभे देवानां शंसमृत आ च सुक्रतुः ॥११॥ हे अग्निदेव ! हमारे लिये गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित एवं उपयोगी सम्पत्ति देने के साथ-साथ वैभवपूर्ण, अतिकुशल सहयोगी परिजनों (सन्तानादि) को भी प्रदान करें। आप अपने जन्म के कारण आकाश और भूलोक दोनों को रासों (घोड़ों की लगाम) की तरह ही अपने नियन्त्रण में रखते हैं। ऐसे श्रेष्ठ कर्मशील आप यज्ञ में उपस्थित ज्ञानियों द्वारा प्रशंसित हों ॥११॥ उत नः सुद्योत्मा जीराश्वो होता मन्द्रः शृणवच्चन्द्ररथः । स नो नेषन्नेषतमैरमूरोऽग्निर्वामं सुवितं वस्यो अच्छ ॥१२॥ तेजवान् वेगशील अश्वों से युक्त, देवावाहक, सुखदायी स्वर्णिम रथ से युक्त, अपराजेय शक्ति सम्पन्न तथा प्रसन्नता जैसे दैवीगुणों से विभूषित अग्निदेव क्या हमारी प्रार्थना पर ध्यान देंगे? वे सत्कर्मों की प्रेरणा द्वारा क्या हमें परम सौभाग्य प्रदान करेंगे ? अर्थात् अवश्य प्रदान करेंगे ॥ १२ ॥ अस्ताव्यग्निः शिमीवद्भिरकैः साम्राज्याय प्रतरं दधानः । अमी च ये मघवानो वयं च मिहं न सूरो अति निष्टतन्युः ॥१३॥ साम्राज्य के लिए श्रेष्ठ तेजस्विता के धारणकर्ता अग्निदेव प्रभावकारी स्तोत्रवाणियों से सभी के द्वारा प्रशंसित होते हैं। जैसे सूर्यदेव मेघों में शब्द ध्वनि पैदा करते हैं, वैसे ही इन प्रत्विजों, हम यजमानों तथा अन्य वैभवशालियों द्वारा उच्चस्वरों से अग्निदेव की प्रार्थनाएँ की जाती हैं॥१३॥

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