Maitreya Upanishad Second Chapter (मैत्रायणी उपनिषद) द्वितीय प्रपाठक

॥ श्री हरि ॥ ॥ मैत्रायण्युपनिषत् ॥ ॥ मैत्रायणी उपनिषद ॥ द्वितीयः प्रपाठकः द्वितीय प्रपाठक अथ भगवाञ्छाकायन्यः सुप्रीतोऽब्रवीद्राजानं महाराज बृहद्रथेक्ष्वाकुवंशध्वजशीर्षात्मजः कृतकृत्यस्त्वं मरुन्नाम्नो विश्रुतोऽसीत्ययं वा व खल्वात्मा ते कतमो भगवान्वर्ण्य इति तं होवाच इति ॥ १॥ तत्पश्चात् यह सुनकर श्रेष्ठ मुनि शाकायन्य ने अति प्रसन्न होकर कहा- हे महाराज बृहद्रथ! तुम इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न नरेश ध्वजशीर्ष के पुत्र हो। तुम सभी तरह से कृतकृत्य होते हुए 'मरुत्' के नाम से प्रख्यात हो। यह आत्मा क्या एवं कैसा है? मैं अब तुम्हें इसके सारतत्त्व को बताने का प्रयास करता हूँ। राजा बृहद्रथ ने कहा- हे श्रेष्ठ मुने! आप मुझे तत्सम्बन्धित विषय के सन्दर्भ में अवश्य ही बताने की कृपा करें ॥ १ ॥ य एषो बाह्यावष्टम्भनेनोर्ध्वमुत्क्रान्तो व्यथमानोऽव्यथमानस्तमः प्रणुदत्येष आत्मेत्याह भगवानथ य एष सम्प्रसादोऽस्माञ्छरीरात्समुत्थाय परं ज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यत एष आत्मेति होवाचैतदमृतमभयमेतद्ब्रह्मेति ॥ २॥ तदनन्तर महर्षि कहने लगे हे राजन् ! बाह्य इन्द्रियों का निरोध करने से (उन्हें अन्तर्मुखी बनाने से) प्राणतत्त्व रूपी यह आत्मा योग के माध्यम से ऊर्ध्व की ओर गमन करता है। वह दुःख रूप प्रतिभासित होते हुए भी वास्तव में दुःखरहित है तथा अज्ञानरूप अन्धकार को विनष्ट करने में समर्थ है। यही आत्मा इस। नश्वर शरीर से बहिर्गमन करने पर परम ज्योतिस्वरूप परमात्मतत्त्व को वरण करके स्वयमेव अपने स्वरूप में विलीन हो जाता है। यह आत्मतत्त्व अमृतयुक्त, भयरहित तथा स्वयं ही ब्रह्मरूप है॥ २ ॥ अथ खल्वियं ब्रह्मविद्या सर्वोपनिषद्विद्या वा राजन्नस्माकं भगवता मैत्रेयेण व्याख्याताहं ते कथयिष्यामीत्यथापहतपाप्मानस्तिग्मतेजस ऊर्ध्वरेतसो वालखिल्या इति श्रुयन्तेऽथैते प्रजापतिमब्रुवन्भगवशकटमिवाचेतनमिदं शरीरं कस्यैष खल्वीदृशो महिमातीन्द्रियभूतस्य येनैतद्विधमिदं चेतनवत्प्रतिष्ठापितं प्रचोदयितास्य को भगवन्नेतदस्माकं ब्रूहीति तान्होवाच ॥ ३॥ हे राजन् ! जिस (अविनाशी ब्रह्मविद्या) का सभी उपनिषदें एक स्वर से उपदेश करती हैं, उस ब्रह्मविद्या के ज्ञान को भगवान् मैत्रेय ने मुझे बताया है, वही श्रेष्ठ ज्ञान मैं तुम्हें बतलाता हूँ। साधना द्वारा जिसके समस्त पाप नष्ट हो गये हैं, ऐसे तेजस्वी एवं ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करने वाले मुनि वालखिल्य के नाम से जाने जाते हैं। ऐसा ही एक बार उन श्रेष्ठ मुनि ने ब्रह्मा जी से प्रश्न किया हे ब्रह्मन् ! यह शरीर गाड़ी की भाँति अचेतन है, तो फिर ऐसा कौन सा अतीन्द्रिय तत्त्व है, किस श्रेष्ठ तत्त्व की ऐसी महिमा है? जिससे कि यह शरीर चैतन्य की भाँति प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। इस शरीर को जो प्रेरित करता है, उसे वाणी से भी । परे (श्रेष्ठ) बताया गया है। हे भगवन् ! उसी (श्रेष्ठ तत्त्व) को हमारे समक्ष बताने की कृपा करें ॥ ३ ॥ यो ह खलु वाचोपरिस्थः श्रूयते स एव वा एष शुद्धः पूतः शून्यः शान्तो प्राणोऽनीशत्माऽनन्तोऽक्षय्यः स्थिरः शाश्वतोऽजः स्वतन्त्रः स्वे महिम्नि तिष्ठत्यनेनेदं शरीरं चेतनवत्प्रतिष्ठापितं प्रचोदयिता चैषोऽस्येति ते होचुर्भगवन्कथमनेनेदृशेनानिच्छेनैतद्विधमिदं चेतनवत्प्रतिष्ठापितं प्रचोदयिता चैषोऽस्येति कथमिति तान्होवाच ॥ ४॥ (ब्रह्मा जी ने मुनि से कहा) उस श्रेष्ठ तत्त्व को शुद्ध, पवित्र, शून्य, शान्त, जीवन प्रदान करने वाला, अनन्त, अविनाशी, शाश्वत, सनातन, स्थिर, अजन्मा एवं स्वतन्त्र रूप से निवास करने वाला आत्मा कहा जाता है। उसी की ही यह महान् महिमा है। उस आत्मा से ही इस अचेतन शरीर को चेतन की भाँति प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। वही चेतन आत्म तत्त्व प्रेरणा प्रदान करने वाला है। यह सुनने के बाद महामुनि वालखिल्य जी ने पुनः प्रश्न किया हे भगवन्! यह आत्मा अनिच्छित होते हुए भी चैतन्यरूप से इस शरीर में कैसे स्थिर है? इस शरीर को यह प्रेरित क्यों करता है? तथा इस आत्मा की यह महिमा किस प्रकार की है? ॥ ४ ॥ स वा एष सूक्ष्मोऽग्राह्योऽदृश्यः पुरुषसंज्ञको बुद्धिपूर्वमिहैवावर्ततेंऽशेन सुषुप्तस्यैव बुद्धिपूर्वं निबोधयत्यथ योह खलु वावाइतस्यांशोऽयं े यश्चेतनमात्रः प्रतिपूरुषं क्षेत्रज्ञः सङ्कल्पाध्यवसायाभिमानलिङ्गः प्रजापतिर्विश्वक्षस्तेन चेतनेनेदं शरीरं चेतनवत्प्रतिष्ठापितं प्रचोदयिता चैषोऽस्येति ते होचुर्भगवन्नीदृशस्य कथमंशेन वर्तनमिति तान्होवाच ॥ ५॥ ब्रह्मा जी ने कहा – (हे मुने!) यह आत्मा सूक्ष्म, अग्राह्य और अदृश्य रूप है, इस कारण इसे 'पुरुष' नाम की संज्ञा द्वारा जाना जाता है। यह आत्मा अपने एक अंश से इस शरीर में अपने प्रयोजन के अभाव में भी बुद्धिपूर्वक सतत आता रहता है। सोते हुए को वह युक्तिपूर्वक बोध कराते हुए चैतन्य रूप से सभी प्राणियों में प्रतिष्ठित करता है। वही प्रत्येक शरीर में क्षेत्रज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित है; वही प्रकाश, संकल्प, प्रयास, अहंकार, लिंग (पुरुष-स्त्री आदि) और प्रजापति के रूप में समस्त विश्व को देखने वाला है। उसी की चेतना से शरीर चैतन्ययुक्त है। वही इस शरीर को क्रियान्वयन हेतु प्रेरित करता है। वालखिल्य ने पुनः प्रश्न किया हे भगवन्! यह आत्मा अखण्ड होने पर भी किस तरह अंश रूप में यहाँ स्थिर है? ॥ ५॥ प्रजापतिर्वा एषोऽग्रेऽतिष्ठत्स नारमतैकः स आत्मनमभिध्यायद्वव्हीः प्रजा असृजत्त अस्यैवात्मप्रबुद्धा अप्राणा स्थाणुरिव तिष्ठमाना अपश्यत्स नारमत सोऽमन्यतैतासं प्रतिबोधनायाभ्यन्तरं प्राविशानीत्यथ स वायुमिवात्मानं कृत्वाभ्यन्तरं प्राविशत्स एको नाविशत्स पञ्चधात्मानं प्रविभज्योच्यते यः प्राणोऽपानः समान उदानो व्यान इति ॥ ६ ॥ ब्रह्माजी ने कहा- हे महर्षे! सर्वप्रथम एकमात्र प्रजापति ही एकाकी रूप में थे। वे अकेले रमण (अपने को सन्तुष्ट) नहीं कर सके, तब उन्होंने अपनी आत्मा का ध्यान किया। इसके फलस्वरूप उन्होंने विभिन्न रूपों में प्रजा का सृजन किया। अपने द्वारा उत्पन्न किये वे प्राणी उन्हें (स्वयं को) निष्प्राण एवं खम्भे की भाँति (निश्चेष्ट) मालूम पड़े। तदनन्तर उन्होंने विचार किया कि इस प्रजा को सचेतन करने के लिए मैं (प्रजापति) इनके अन्तःकरण में प्रविष्ट करूं। ऐसा सोचकर उन्होंने स्वयं को वायु रूप में परिणत करके, उन सभी में प्रविष्ट हो गये । वे एक होते हुए भी पाँच रूपों में विभक्त हो गये। जो प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान के रूप में जाने गये ॥ ६ ॥ अथ योऽयमूर्ध्वमुत्क्रामतीत्येष वाव स प्राणोऽथ योयमावञ्चं संक्रामत्वेष वाव सोऽपानोऽथ योयं स्थ थविष्ठमन्नधातुमपाने स्थापयत्यणिष्ठं चाङ्गेऽङ्गे समं नयत्येष वाव स समानोऽथ योऽयं पीताशितमुद्भिरति निगिरतीति चैष वाव स उदानोऽथ येनैताः शिरा अनुव्याप्ता एष वाव स व्यानः ॥ ७॥ जो ऊर्ध्व की ओर गमन करता है, वह प्राण कहलाता है। जो नीचे की ओर जाता है, वह अपान के नाम से जाना जाता है। जो अत्यन्त स्थूल अन्न एवं धातु को पाचन तन्त्र (ऊर्जा को) के माध्यम से अपाने में प्रतिष्ठित करता है तथा सूक्ष्म रूप से अंग-प्रत्यंग में समान रूप से पहुँच जाए, उसे समान कहते हैं। जो खाये-पिये पदार्थ को उगलता और निगलता है, उसे उदान कहते हैं और जिस वायु से समस्त नाड़ियाँ परिपूर्ण हैं, वही व्यान कहलाता है॥ ७॥ अथोपांशुरन्तर्याम्यमिभवत्यन्तर्याममुपांशुमेतयोरन्तराले चौष्ण्यं मासवदौष्ण्यं स पुरुषोऽथ यः पुरुषः सोऽग्निर्वैश्वानरोऽप्यन्यत्राप्युक्तमयमग्निर्वैश्वानरो योऽयमनन्तः पुरुषो येनेदमन्नं पच्यते यदिदमद्यते तस्यैष घोषो भवति यदेतत्कर्णावपिधाय शृणोति स यदोत्क्रमिष्यन्भवति नैनं घोषं शृणोति ॥ ८॥ जो समीप रहते हुए भी अन्तर्यामी (अन्तरिक्ष को जानने वाला) है तथा जो एक प्रहर के अन्तराल में पराभव कर देता है, ऐसे उन दोनों के मध्य में जो उष्णता बरसती है, वह उष्णता ही पुरुष है। जो पुरुष है, वही वैश्वानर नामक अग्नि है। अन्यत्र भी यह कहा गया है कि अन्तःकरण में विद्यमान 'पुरुष' ही वैश्वानर रूप 'अग्निपुरुष' के नाम से जाना जाता है। इस (वैश्वानर रूप अग्नि) से खाया हुआ भोजन पचता है। जो ग्रहण किया गया है, उसी का शब्द अन्तःकरण में सुनाई पड़ता है। कानों को बन्द करने पर यही ध्वनि अन्दर से आती हुई सुनाई पड़ती है। जब शरीर से प्राणों के निकलने का समय होता है, तब यह ध्वनि स्पष्ट रूप से सुनायी नहीं पड़ती ॥ ८ स वा एष पञ्चधात्मानं प्रविभज्य निहितो गुहायां मनोमयः प्राणशरीरो बहुरूपः सत्यसं कल्प आत्मेति स वा एषोऽस्य हृदन्तरे तिष्ठन्नकृतार्थोऽ मन्यतार्थानसानि तत्स्वानीमानि भित्त्वोदितः पञ्चभी रश्मिभिर्विषयानत्तीति बुद्धीन्द्रियाणि यानीमान्येतान्यस्य रश्मयः कर्मेन्द्रियाण्यस्य हया रथः शरीरं मनो नियन्ता प्रकृतिमयोस्य प्रतोदनेन खल्वीरितं परिभ्रमतीदं शरीरं चक्रमिव मृते च नेदं शरीरं चेतनवत्प्रतिष्ठापितं प्रचोदयिता चैषोऽस्येति ॥ ९॥ वह यह प्रजापति रूपी आत्मा स्वयं ही अपने को पाँच भागों में विभक्त करके हृदयरूपी गुहा में प्रतिष्ठित है। यही आत्मा मनोमय रूप में, प्राणमय रूप में एवं तेजोमय रूप में, संकल्प रूप में तथा आकाशात्म रूप में अवस्थित है। इस प्रकार यह आत्मा हृदय प्रदेश में स्थित रहते हुए इन्द्रियों का अनुभव न करता हुआ स्वयं को अकृतार्थ अनुभव करने लगा। तदनन्तर अपने आप को कृतकृत्य करने हेतु पाँच द्वारों (इन्द्रियों) का बेधन करके प्रादुर्भूत हुआ। ये पाँच द्वार ही (श्रोत्रादि) पाँच इन्द्रियों के रूप में परिणत हो गये, जिनसे वह विषयों का उपभोग करता है। ये पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ लगाम हैं तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ घोड़े हैं। शरीर को रथ एवं मन को सारथि की संज्ञा प्रदान की गई है और स्वभाव (प्रकृति) को चाबुक कहा गया है। इस चाबुक से प्रेरणा प्राप्त करके यह शरीर चक्र की भाँति गमन करता है। इस प्रकार यह आत्मा ही इस शरीर को सचेतन बनाए हुए है तथा इसे प्रेरित करता रहता है ॥९॥ स वा एष आत्मेत्यदो वशं नीत इव सितासितैः कर्मफलैरभिभूयमान इव प्रतिशरीरेषु चरत्यव्यक्तत्वात्सूक्ष्मत्वाददृश्यत्वादग्राह्यत्वान्निर्ममत्वा च्चानवस्थोऽकर्ता कर्तेवावस्थितः ॥ १०॥ ऐसा प्रतीत होता है कि यह आत्मा ही शरीर के वशीभूत होकर शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप बन्धन में फँस गया है। इसी कारण वह (आत्मा) विविध शरीरों में संचरित होता रहता है, परन्तु चिन्तन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तव में वह अव्यक्त, सूक्ष्म, अदृश्य, अग्राह्य, ममता से रहित एवं अवस्था (जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति) रहित है। अतः वह (आत्मा) अकर्ता होते हुए भी कर्तारूप में प्रतीत होता है॥ १० ॥ स वा एष शुद्धः स्थिरोऽचलश्चालेपोऽव्यग्रो निःस्पृहः प्रेक्षकवदवस्थितः स्वस्य चरितभुग्गुणमयेन पटेनात्मानमन्तर्धीयावस्थित इत्यवस्थित इति ॥११॥ यह (आत्मा) शुद्ध, स्थिर, अचल, निर्लिप्त, उद्विग्नता रहित, निःस्पृह द्रष्टा की भाँति रहते हुए अपने द्वारा किये गये कर्मों के फल का उपभोग करता हुआ-सा प्रतीत होता है। साथ ही यह भी प्रतीत होता है। कि उस आत्मा ने अपने रूप को तीन गुणों (सत्, रज, तम,) रूपी वस्त्र द्वारा आच्छादित कर रखा है ॥ ११ ॥ ॥ इति द्वितीयः प्रपाठकः ॥२॥ ॥ द्वितीय प्रपाठक समात ॥

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