Tejobindu Upanishad Chapter 6 (तेजोबिन्दु उपनिषद षष्ठ अध्यायः छठा अध्याय)

॥ श्री हरि ॥ ॥ तेजोबिन्दु उपनिषद ॥ षष्ठ अध्यायः छठा अध्याय ऋभुः ॥ सर्वं सच्चिन्मयं विद्धि सर्वं सच्चिन्मयं ततम् । सच्चिदानन्दमद्वैतं सच्चिदानन्दमद्वयम् ॥ १॥ हे निदाघ ! सर्व सत् चित् मय जानो, सब सत् चित् मय व्यापक है, सत् चित् आनन्द अद्वैत है, सत चित् आनन्द अद्वय है ॥१॥ सच्चिदानन्दमात्रं हि सच्चिदानन्दमन्यकम् । सच्चिदानन्दरूपोऽहं सच्चिदानन्दमेव खम् ॥ २॥ सत् चित् आनन्द मात्र है, सत् चित् आनन्द अन्य रूप है, सत् चित् आनन्द रूप मैं हूँ, सत् चित् आनन्द आकाश है ॥२॥ सच्चिदानन्दमेव त्वं सच्चिदानन्दकोऽस्म्यहम् । मनोबुद्धिरहङ्कारचित्तसङ्घातका अमी ॥ ३॥ सत् चित् आनन्द ही तुम है, सत् चित् आनन्द रूप मैं हूँ, यह मन यह बुद्धि, अहंकार चित्त समूह ॥३॥ न त्वं नाहं न चान्यद्वा सर्वं ब्रह्मैव केवलम् । न वाक्यं न पदं वेदं नाक्षरं न जडं क्वचित् ॥ ४॥ हे राजन् ! यह न तुम है, न मैं हूँ, न अन्य ही कोई है। सब केवल ब्रह्म ही है, न वाक्य, न पद, न वेद, न अक्षर, न जड़ कहीं है ॥४॥ न मध्यं नादि नान्तं वा न सत्यं न निबन्धजम् । न दुःखं न सुखं भावं न माया प्रकृतिस्तथा ॥ ५॥ हे राजन् ! न मध्य, न आदि, न अन्त, न सत्य, न बन्ध, न दुःख, न सुख, न भाव, न माया, न प्रकृति ॥५॥ न देहं न मुखं घ्राणं न जिह्वा न च तालुनी । न दन्तोष्ठौ ललाटं च निश्वासोच्छ्वास एव च ॥ ६॥ हे राजन् ! न देह है, न मुख है, न घ्राण है, न जिह्वा है, न तालु है, न दांत हैं, न होठ हैं, न मस्तक है, न श्वास है, न उच्छवास है ॥६॥ न स्वेदमस्थि मांसं च न रक्तं न च मूत्रकम् । न दूरं नान्तिकं नाङ्गं नोदरं न किरीटकम् ॥ ७॥ न पसीना है, न हड्डी है, न मांस है, न रक्त है, न मूत्र है, न दूर है, न पास है, न अंग है, न उदर है, न मुकुट है ॥७॥ न हस्तपादचलनं न शास्त्रं न च शासनम् । न वेत्ता वेदनं वेद्यं न जाग्रत्स्वप्नसुप्तयः ॥ ८॥ न हाथ-पैर का चलना है, न शास्त्र है, न उप देश है, न जानने वाला है, न ज्ञान है, न ज्ञेय है, न जाग्रत है, स्वप्न है, न सुषुप्ति है ॥८॥ तुर्यातीतं न मे किञ्चित्सर्वं सच्चिन्मयं ततम् । नाध्यात्मिकं नाधिभूतं नाधिदैवं न मायिकम् ॥ ९॥ हे निदाघ ! मुझमें तुर्यातीत किंचित नहीं है, सर्व सचित् मय व्यापक है। न आध्यात्मिक है, न अधिभूत है, न अधिदैव है, न मायिक है ॥९॥ न विश्वतैजसः प्राज्ञो विराट्सूत्रात्मकेश्वरः । न गमागमचेष्टा च न नष्टं न प्रयोजनम् ॥ १०॥ न विश्च तैजस प्राज्ञ विराट् सूत्रात्मा ईश्वर है। हे राजन् ! न आगे जाने की चेष्टा है, न नष्ट है, न प्रयोजन है ॥१०॥ त्याज्यं ग्राह्यं न दूष्यं वा ह्यमेध्यामेध्यकं तथा । न पीनं न कृशं क्लेदं न कालं देशभाषणम् ॥ ११॥ त्यागने योग्य, ग्रहण करने योग्य अथवा दूषित नहीं है, न पवित्र है, न अपवित्र है, न मोटा है, न पतला है, न भीगा हुआ है, न काल है, न देश का कथन है ॥११॥ न सर्वं न भयं द्वैतं न वृक्षतृणपर्वताः । न ध्यानं योगसंसिद्धिर्न ब्रह्मवैश्यक्षत्रकम् ॥ १२॥ न सर्व है, न भय है, न द्वैत है, न वृक्ष, तृण, पर्वत है, न ध्यान है, न योग है, न संसिद्धि है, न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है, न वैश्य है ॥१२॥ न पक्षी न मृगो नाङ्गी न लोभो मोह एव च । न मदो न च मात्सर्यं कामक्रोधादयस्तथा ॥ १३॥ न पक्षी है, न मृग है, न अंगी है, न लोभ है, न मोह ही है। न मद है, न मत्सरता है, न काम है, न क्रोध आदि है ॥१३॥ न स्त्रीशूद्रबिडालादि भक्ष्यभोज्यादिकं च यत् । न प्रौढहीनो नास्तिक्यं न वार्तावसरोऽति हि ॥ १४॥ स्त्री, शूद्र, बिल्ली आदि और भक्ष्य, भोज्य आदि नहीं हैं। न प्रौढ़ है, न आस्तिक्य है, न वार्ता ही का अवसर है ॥१४॥ न लौकिको न लोको वा न व्यापारो न मूढता । न भोक्ता भोजनं भोज्यं न पात्रं पानपेयकम् ॥ १५॥ न लौकिक है, न लोक है, न व्यापार है, न मूढ़ता है, न भोक्ता है, न भोजन है, न भोज्य है, न पात्र है, न पान है, न पीने योग्य है ॥१५॥ न शत्रुमित्रपुत्रादिर्न माता न पिता स्वसा । न जन्म न मृतिवृद्धिर्न देहोऽहमिति भ्रमः ॥ १६॥ न शत्र, मित्र, पुत्र आदि हैं, न माता, पिता, बहिन आदि हैं। न जन्म है, न मृत्यु. है, न वृद्धि है, 'मैं देह हूँ' यह भ्रान्ति है ॥१६॥ न शून्यं नापि चाशून्यं नान्तःकरणसंसृतिः । न रात्रिर्न दिवा नक्तं न ब्रह्मा न हरिः शिवः ॥ १७॥ न शून्य है, न अशून्य है, न अन्तःकरण है, न संसार है, न रात्रि है, न दिन है, न ब्रह्मा है, न हरि है, न शिव है ॥१७॥ न वारपक्षमासादि वत्सरं न च चञ्चलम् । न ब्रह्मलोको वैकुण्ठो न कैलासो न चान्यकः ॥ १८॥ न वार, पक्ष, मास आदि है, न वर्ष है, न स्थूल है, न ब्रह्मलोक है, न वैकुण्ठ लोक है, न कैलाश है, न अन्य लोक है ॥१८॥ न स्वर्गो न च देवेन्द्रो नाग्निलोको न चाग्निकः । न यमो यमलोको वा न लोका लोकपालकाः ॥ १९॥ न स्वर्ग है, न देवराज इन्द्र है, न अग्नि है, न श्लोक है, न अग्निहोत्री है, न यम है, न यमलोक है, न लोक है, न लोकपाल है ॥१९॥ न भूर्भुवः स्वस्त्रैलोक्यं न पातालं न भूतलम् । नाविद्या न च विद्या च न माया प्रकृतिर्जडा ॥ २०॥ न भूः भुवः और स्वः ये तीनों लोक हैं, न पाताल है, न भूतल है, न अविद्या है, न विद्या है, न माया है, न जड़ प्रकृति है ॥२०॥ न स्थिरं क्षणिकं नाशं न गतिर्न च धावनम् । न ध्यातव्यं न मे ध्यानं न मन्त्रो न जपः क्वचित् ॥ २१॥ हे राजन् ! न स्थिर है, न क्षणिक है, न नाश है, न गति है और न दौड़ना है। न मुक्त है, न ध्येय है, न ध्यान है, न मन्त्र है, न कहीं जप है ॥२१॥ न पदार्था न पूजाईं नाभिषेको न चार्चनम् । न पुष्पं न फलं पत्रं गन्धपुष्पादिधूपकम् ॥ २२॥ न पदार्थ है, न पूजने योग्य है, न अभिषेक है, न पूजा है, न पुष्प है, न फल है, न पत्र, गन्ध, पुष्प आदि धूप है ॥२२॥ न स्तोत्रं न नमस्कारो न प्रदक्षिणमण्वपि । न प्रार्थना पृथग्भावो न हविर्नाग्निवन्दनम् ॥ २३॥ न स्तोत्र है, न नमस्कार है, न थोड़ी सी भी प्रदक्षिणा है, न प्रार्थना है, न पृथक भाव है, न हवि है, न अग्नि की वन्दना है ॥२३॥ न होमो न च कर्माणि न दुर्वाक्यं सुभाषणम् । न गायत्री न वा सन्धिर्न मनस्यं न दुःस्थितिः ॥ २४॥ न होम है, न कर्म है, न दुर्वचन है, न सुन्दर भाषण है, न गायत्री है, न संधि है, न ध्यान है, न मन की दुष्ट स्थिति है ॥२४॥ न दुराशा न दुष्टात्मा न चाण्डालो न पौल्कसः । न दुःसहं दुरालापं न किरातो न कैतवम् ॥ २५॥ न दुराशा है, न दुष्टात्मा है, न चाण्डाल है, न पौलकस अर्थात नीच जाति विशेष है, न दुःसह है, न निन्दा है, न किरात है, न कैतव अर्थात भीजा की जाति है ॥२५॥ न पक्षपातं न पक्षं वा न विभूषणतस्करौ । न च दम्भो दाम्भिको वा न हीनो नाधिको नरः ॥ २६॥ न पक्षपात है, न पक्ष है, न आभूषण है, न चोर है, न दम्भ है, न दम्भ करने वाला है, न नीच है, न श्रेष्ठ है ॥२६॥ नैकं द्वयं त्रयं तुर्यं न महत्वं न चाल्पता । न पूर्ण न परिच्छिन्नं न काशी न व्रतं तपः ॥ २७॥ एक, दो, तीन, चार नहीं है, न महानता है, न अल्लपना है, न पूर्ण है, न परिच्छिन्न है, न काशी है, न वा है, न तप है ॥२७॥ न गोत्रं न कुलं सूत्रं न विभुत्वं न शून्यता । न स्त्री न योषिन्नो वृद्धा न कन्या न वितन्तुता ॥ २८॥ न गोत्र है, न कुल है, न सूत्र है, ने व्यापकता है न शून्यात्मा है, न स्त्री है, न युवती है, न वृद्धा है, न कन्या है, न सूक्ष्मतन्वीपना है ॥२८॥ न सूतकं न जातं वा नान्तर्मुखसुविभ्रमः । न महावाक्यमैक्यं वा नाणिमादिविभूतयः ॥ २९॥ न सूतक अर्थात उत्पत्ति का दोष है, न जन्म है, न अन्तर्मुख है, न भ्रम है, न महावाक्य है, न एकता है, न अणिमा आदि आठ सिद्धियां हैं ॥२९॥ सर्वचैतन्यमात्रत्वात्सर्वदोषः सदा न हि । सर्वं सन्मात्ररूपत्वात्सच्चिदानन्दमात्रकम् ॥ ३०॥ सर्व चैतन्य मात्र होने से सदा सर्व दोष नहीं है, सर्व सत्य मात्र रूप होने से सच्चिदानंद मात्र है ॥३०॥ ब्रह्मैव सर्वं नान्योऽस्ति तदहं तदहं तथा । तदेवाहं तदेवाहं ब्रह्मैवाहं सनातनम् ॥ ३१॥ हे राजन् ! इस ब्रह्माभ्यास को बारम्बार कर, विचार कर, सब ब्रह्म ही है, अन्य नहीं है। इसी प्रकार वह मैं हूँ, वह मैं हूँ, वह ही में हूँ, वह ही मैं हूँ,, मैं सनातन ब्रह्म ही हूँ ॥३१॥ ब्रह्मैवाहं न संसारी ब्रह्मैवाहं न मे मनः । ब्रह्मैवाहं न मे बुद्धिर्ब्रह्मैवाहं न चेन्द्रियः ॥ ३२॥ 'मैं ब्रह्म ही हूँ' संसारी जीव नहीं हूँ। मैं ब्रह्म ही हूँ, मुझ से मन नहीं है । 'मैं ब्रह्म ही हूँ' मुझ से बुद्धि नहीं है। 'मैं ब्रह्म ही हूँ' इन्द्रियां नहीं हूँ ॥३२॥ ब्रह्मैवाहं न देहोऽहं ब्रह्मैवाहं न गोचरः । ब्रह्मैवाहं न जीवोऽहं ब्रह्मैवाहं न भेदभूः ॥ ३३॥ मैं ब्रह्म ही हूँ देह नहीं हूँ। 'मैं ब्रह्म ही हूँ, विषय नहीं हूँ। 'मैं ब्रह्म ही हूँ, जीव अर्थात कर्ता भोक्ता नहीं हूँ। 'मैं ब्रह्म ही हूँ' भेद वाला नहीं हूँ ॥३३॥ ब्रह्मैवाहं जडो नाहमहं ब्रह्म न मे मृतिः । ब्रह्मैवाहं न च प्राणो ब्रह्मैवाहं परात्परः ॥ ३४॥ 'मैं ब्रह्म ही हूँ' जड़ नहीं हूँ। मैं ब्रह्म ही हूँ, मुझ में मरण नहीं है। मैं ब्रह्म ही हूँ' प्राण नहीं हूँ। 'मैं पर से पर ब्रह्म ही हूँ ॥३४॥ इदं ब्रह्म परं ब्रह्म सत्यं ब्रह्म प्रभुर्हि सः । कालो ब्रह्म कला ब्रह्म सुखं ब्रह्म स्वयम्प्रभम् ॥ ३५॥ यह ब्रह्म है, परब्रह्म है, सत्य ब्रह्म है, वह प्रभु है, काल ब्रह्म है, कला ब्रह्म है, सुख ब्रह्म है, स्वयं प्रकाश है ॥३५॥ एकं ब्रह्म द्वयं ब्रह्म मोहो ब्रह्म शमादिकम् । दोषो ब्रह्म गुणो ब्रह्म दमः शान्तं विभुः प्रभुः ॥ ३६॥ एक ब्रह्म है, द्वय ब्रह्म है, मोह ब्रह्म है, शमादिक ब्रह्म है, दोष ब्रह्म है, गुण ब्रह्म है, दम ब्रह्म है, शान्ति विभु प्रभु ब्रह्म है ॥३६॥ लोको ब्रह्म गुरुर्ब्रह्म शिष्यो ब्रह्म सदाशिवः । पूर्वं ब्रह्म परं ब्रह्म शुद्धं ब्रह्म शुभाशुभम् ॥ ३७॥ लोक ब्रह्म है, गुण ब्रह्म है, शिष्य ब्रह्म है, सदा शिव ब्रह्म है, पूर्व ब्रह्म है, पर ब्रह्म है, शुद्ध ब्रह्म है, शुभाशुभ ब्रह्म है ॥ ३७॥ जीव एव सदा ब्रह्म सच्चिदानन्दमस्म्यहम् । सर्वं ब्रह्ममयं प्रोक्तं सर्वं ब्रह्ममयं जगत् ॥ ३८॥ जीव ही सदा ब्रह्म है, मैं सच्चिदानन्द हूँ, सर्व ब्रह्ममय कहा है, सर्व जगत् ब्रह्ममय है ॥३८॥ स्वयं ब्रह्म न सन्देहः स्वस्मादन्यन्न किञ्चन । सर्वमात्मैव शुद्धात्मा सर्वं चिन्मात्रमद्वयम् ॥ ३९॥ सन्देहरहित आप ही ब्रह्म है, अपने से अन्य कुछ नहीं है, सब आत्मा ही है, शुद्ध आत्मा है, सब चिन्मात्र आदि अद्वितीय है ॥३९॥ नित्यनिर्मलरूपात्मा ह्यात्मनोऽन्यन्न किञ्चन। अणुमात्रलसद्रूपमणुमात्रमिदं जगत् ॥ ४०॥ आत्मा नित्य निर्मल रूप है, आत्मा से अन्य कुछ नहीं है, अणुमात्र शुद्ध रूप है, अणुमात्र यह जगत् है ॥४०॥ अणुमात्रं शरीरं वा ह्यणुमात्रमसत्यकम् । अणुमात्रमचिन्त्यं वा चिन्त्यं वा ह्यणुमात्रकम् ॥ ४१॥ हे राजन् ! पुनः अभ्यास कर जिससे मनोवास हो। अणुमात्र शरीर है, अणुमात्र सत्य है, अणुमात्र अचिन्त्य है अथवा अणुमात्र चिन्त्य है ॥४१॥ ब्रह्मैव सर्वं चिन्मात्रं ब्रह्ममात्रं जगत्त्रयम् । आनन्दं परमानन्दमन्यत्किञ्चिन्न किञ्चन ॥ ४२॥ ब्रह्म ही सब चिन्मात्र है, ब्रह्ममात्र तीनों जगत हैं, आनन्द परमानन्द है, अन्य कुछ नहीं है ॥४२॥ चैतन्यमात्रमोङ्कारं ब्रह्मैव सकलं स्वयम् । अहमेव जगत्सर्वमहमेव परं पदम् ॥ ४३॥ चैतन्यमात्र ओंकार है, ब्रह्म ही सर्व आप है, मैं ही सब जगत् हूँ, मैं ही परम पद हूँ ॥४३॥ अहमेव गुणातीत अहमेव परात्परः । अहमेव परं ब्रह्म अहमेव गुरोर्गुरुः ॥ ४४॥ मैं ही गुणातीत हूँ, मैं ही पर से पर हूँ, मैं ही पर ब्रह्म हूँ, मैं ही गुरुओं का गुरु हूँ ॥४४॥ अहमेवाखिलाधार अहमेव सुखात्सुखम् । आत्मनोऽन्यज्जगन्नास्ति आत्मनोऽन्यत्सुखं न च ॥ ४५॥ मैं ही सब का आधार हूँ, मैं ही सुख का सुख हूँ, आत्मा से भिन्न जगत् नहीं है, आत्मा से भिन्न सुख भी नहीं है ॥४५॥ आत्मनोऽन्या गतिर्नास्ति सर्वमात्ममयं जगत् । आत्मनोऽन्यन्नहि क्वापि आत्मनोऽन्यत्तृणं नहि ॥ ४६॥ आत्मा से भिन्न कोई गति नहीं है, सब जगत् आत्ममय है, आत्मा से भिन्न कहीं नहीं है, आत्मा से भिन्न तृण भी नहीं है ॥४६॥ आत्मनोऽन्यत्तुषं नास्ति सर्वमात्ममयं जगत् । ब्रह्ममात्रमिदं सर्वं ब्रह्ममात्रमसन्न हि ॥ ४७ ॥ आत्मा से भिन्न तुष अर्थात भूसा भी नहीं है, सब जगत् आत्ममय है, ब्रह्ममात्र यह सब है, ब्रह्ममात्र असत् नहीं ॥४७॥ ब्रह्ममात्रं श्रुतं सर्वं स्वयं ब्रह्मैव केवलम् । ब्रह्ममात्रं वृतं सर्वं ब्रह्ममात्रं रसं सुखम् ॥ ४८॥ सब सुना हुआ ब्रह्ममात्र है, ब्रह्म ही केवल आप है, ब्रह्ममात्र से सब वृत है, ब्रह्ममात्र रस और सुख है ॥४८॥ ब्रह्ममात्रं चिदाकाशं सच्चिदानन्दमव्ययम् । ब्रह्मणोऽन्यतरन्नास्ति ब्रह्मणोऽन्यज्जगन्न च ॥ ४९ ॥ ब्रह्ममात्र चिदाकाश, सच्चिदानन्द, अद्वितीय है। ब्रह्म के सिवाय अन्य नहीं है, ब्रह्म से भिन्न जगत नहीं है ॥४९॥ ब्रह्मणोऽन्यदह नास्ति ब्रह्मणोऽन्यत्फलं नहि । ब्रह्मणोऽन्यत्तृणं नास्ति ब्रह्मणोऽन्यत्पदं नहि ॥ ५०॥ मैं ब्रह्म से भिन्न नहीं हूँ, ब्रह्म के सिवाय फल नहीं है, ब्रह्म से भिन्न तृण नहीं है, ब्रह्म से भिन्न पद नहीं है ॥५०॥ ब्रह्मणोऽन्यद्गुरुर्नास्ति ब्रह्मणोऽन्यमसद्वपुः । ब्रह्मणोऽन्यन्न चाहन्ता त्वत्तेदन्ते नहि क्वचित् ॥ ५१॥ हे निदाघ ! ब्रह्म से भिन्न गुरु नहीं है, ब्रह्म बिना शरीर असत्य है, ब्रह्म से अन्य अहंता, तुझ पना, यह, वह कहीं नहीं है ॥५१॥ स्वयं ब्रह्मात्मकं विद्धि स्वस्मादन्यन्न किञ्चन। यत्किञ्चिदृश्यते लोके यत्किञ्चिद्भाष्यते जनैः ॥ ५२॥ हे राजन् ! अपने को ब्रह्म-स्वरूप जान, अपने से अन्य कुछ नहीं है, जो कुछ जगत् में देखा जाता है, जो कुछ लोगों से कहा जाता है ॥५२॥ यत्किञ्चिद्भुज्यते क्वापि तत्सर्वमसदेव हि । कर्तृभेदं क्रियाभेदं गुणभेदं रसादिकम् ॥ ५३॥ जो कुछ कहीं भी भोगा जाता है वह सब असत्य है। कर्ता-भेद, क्रिया-भेद, गुण-भेद रसादिक ॥५३॥ लिङ्गभेदमिदं सर्वमसदेव सदा सुखम् । कालभेदं देशभेदं वस्तुभेदं जयाजयम् ॥ ५४॥ यह सब लिंग -भेद असत्य ही है, सदा सुख, काल-भेद, देश-भेद, वस्तु-भेद, जीत-हार ॥५४॥ यद्यद्भेदं च तत्सर्वमसदेव हि केवलम् । असदन्तःकरणकमसदेवेन्द्रियादिकम् ॥ ५५॥ जो जो भेद हैं वे केवल असत्य ही हैं, अन्तः करण असत्य है, इन्द्रियादिक असत्य हैं ॥५५॥ असत्प्राणादिकं सर्वं सङ्घातमसदात्मकम् । असत्यं पञ्चकोशाख्यमसत्यं पञ्च देवताः ॥ ५६॥ प्राणादिक सब असत्य हैं, शरीर सब असत्य है, पांच कोश असत्य हैं, देवता असत्य हैं ॥५६॥ असत्यं षड्विकारादि असत्यमरिवर्गकम् । असत्यं षड्तुश्चैव असत्यं षड्रसस्तथा ॥ ५७॥ छह विकारादि असत्य हैं, शत्रुवर्ग असत्य है, छह ऋतुएं असत्य हैं और छह रस असत्य हैं ॥५७॥ सच्चिदानन्दमात्रोऽहमनुत्पन्नमिदं जगत् । आत्मैवाहं परं सत्यं नान्याः संसारदृष्टयः ॥ ५८॥ मैं सच्चिदानन्द मात्र हूँ, यह जगत् कभी उत्पन्न नहीं हुआ है, मैं परम सत्य आत्मा ही हूँ, अन्य संसार दृष्टि नहीं हैं ॥५८॥ सत्यमानन्दरूपोऽहं चिद्घनानन्दविग्रहः । अहमेव परानन्द अहमेव परात्परः ॥ ५९॥ मैं सत्य आनन्द रूप हूँ, चैतन्यधन आनन्द स्वरूप हूँ, मैं ही परमानन्द हूँ, मैं ही पर से परात्पर हूँ ॥५९॥ ज्ञानाकारमिदं सर्वं ज्ञानानन्दोऽहमद्वयः । सर्वप्रकाशरूपोऽहं सर्वाभावस्वरूपकम् ॥ ६०॥ यह ज्ञानाकार है, मैं अद्वितीय ज्ञान आनन्द रूप हूँ, मैं सबका प्रकाशरूप हूँ, मैं सर्व अभावरूप हूँ ॥६०॥ अहमेव सदा भामीत्येवं रूपं कुतोऽप्यसत् । त्वमित्येवं परं ब्रह्म चिन्मयानन्दरूपवान् ॥ ६१॥ मैं ही सदा आभासित होता हूँ, कहां असत्य है, तुम ही चिन्मात्र आनन्दरूप वाला परब्रह्म हो ॥६१॥ चिदाकारं चिदाकाशं चिदेव परमं सुखम् । आत्मैवाहमसन्नाहं कूटस्थोऽहं गुरुः परः ॥ ६२॥ चैतन्य आकार है, चैतन्य आकाश है, चैतन्य ही परम सुख है, मैं आत्मा ही हूँ, असत् नहीं हूँ, मैं कूटस्थ हूँ, श्रेष्ठगुरु हूँ ॥६२॥ सच्चिदानन्दमात्रोऽहमनुत्पन्नमिदं जगत् । कालो नास्ति जगन्नास्ति मायाप्रकृतिरेव न ॥ ६३॥ मैं सच्चिदानन्द मात्र हूँ, यह जगत् उत्पन्न ही नहीं हुआ है, काल नहीं है, जगत् नहीं है, माया प्रकृति भी नहीं है ॥६३॥ अहमेव हरिः साक्षादहमेव सदाशिवः । शुद्धचैतन्यभावोऽहं शुद्धसत्त्वानुभावनः ॥ ६४॥ मैं ही साक्षात् हरि हूँ, मैं ही सदा शिव हूँ, मैं ही शुद्ध सत्य को प्रकाश करने वाला हूँ, मैं शुद्ध, चैतन्य भाव रूप हूँ ॥६४॥ अद्वयानन्दमात्रोऽहं चिद्घनैकरसोऽस्म्यहम् । सर्वं ब्रह्मैव सततं सर्वं ब्रह्मैव केवलम् ॥ ६५॥ मैं अद्वितीय आनन्द मात्र हूँ, मैं चैतन्यधन एक रस हूँ, सब सदा ब्रह्म ही है, सब केवल ब्रह्म ही है ॥६५॥ सर्वं ब्रह्मैव सततं सर्वं ब्रह्मैव चेतनम् । सर्वान्तर्यामिरूपोऽहं सर्वसाक्षित्वलक्षणः ॥ ६६॥ सब सदा ब्रह्म ही है, सब चैतन्य ब्रह्म ही है, मैं सबका अन्तर्यामी रूप हूँ, सर्व साक्षीपने के लक्षण वाला मैं हूँ ॥६६॥ परमात्मा परं ज्योतिः परं धाम परा गतिः । सर्ववेदान्तसारोऽहं सर्वशास्त्रसुनिश्चितः ॥ ६७॥ परमात्मा परम ज्योति, परम धाम, परम गति, सब वेदान्त का सार हूँ. सब शास्त्रों से निश्चित किया गया है । ॥६७॥ योगानन्दस्वरूपोऽहं मुख्यानन्दमहोदयः । सर्वज्ञानप्रकाशोऽस्मि मुख्यविज्ञानविग्रहः ॥ ६८॥ मैं योगानन्द स्वरूप हूँ, मैं मुख्य आनंद महोदय हूँ, मैं सब ज्ञान का प्रकाश हूँ, मैं मुख्य विज्ञान स्वरूप हूँ ॥६८॥ तुर्यातुर्यप्रकाशोऽस्मि तुर्यातुर्यादिवर्जितः । चिदक्षोऽन् सत्योऽहं वासुदवोऽजररोऽमरः ॥ ६९॥ मैं तुर्य-अतुर्य का प्रकाश हूँ, मैं तुर्य-अतुय आदि से रहित हूँ, मैं चैतन्य अक्षर हूँ, मैं सत्य हूँ, मैं वासुदेव अजर-अमर हूँ ॥६९॥ अहं ब्रह्म चिदाकाशं नित्यं ब्रह्म निरञ्जनम् । शुद्धं बुद्धं सदामुक्तमनामकमरूपकम् ॥ ७० ॥ मैं ब्रह्म चिदाकाश हूँ, नित्य ब्रह्म निरञ्जन हूँ, मैं शुद्ध, बुद्ध, सदामुक्त, अनात्म अथवा अरूप हूँ ॥७०॥ सच्चिदानन्दरूपोऽहमनुन्त्पन्नमिदं जगत् । सत्यासत्यं जगन्नास्ति सङ्कल्पकलनादिकम् ॥ ७१॥ हे राजन् ! मैं सच्चिदानन्द-स्वरूप हूँ, यह जगत् उत्पन्न नहीं हुआ है, सत्य-असत्य जगत् नहीं है, संकल्प कल्पना आदि नहीं है ॥७१॥ नित्यानन्दमयं ब्रह्म केवलं सर्वदा स्वयम् । अनन्तमव्ययं शान्तमेकरूपमनामयम् ॥ ७२॥ नित्य आनन्दमय केवल हमेशा आप है, अनन्त अविकारी शान्त एकरूप और अनामय है ॥७२॥ मत्तोऽन्यदस्ति चेन्मिथ्या यथा मरुमरीचिका । वन्ध्याकुमारवचने भीतिश्चदस्ति किञ्चन ॥ ७३॥ हे निदाघ! यदि मुझ से कुछ अन्य है तो वह मृगजाल के समान मिथ्या है, यदि बन्ध्यापुत्र के वचन में भय है तो यह जगत कुछ है ॥७३॥ शशशृङ्गेण नागेन्द्रो मृतश्चज्जगदस्ति तत् । मृगतृष्णाजलं पीत्वा तृप्तश्चेदस्त्विदं जगत् ॥ ७४॥ शशे के सींगों से हाथी मर जाए तो जगत् है, मृगतृष्णा जल से दृप्ति हो जाए तो यह जगत् है ॥७४॥ नरशृङ्गेण नष्टश्चेत्कश्चिदस्त्विदमेव हि । गन्धर्वनगरे सत्ये जगद्भवति सर्वदा ॥ ७५॥ मनुष्य के सींगों से नष्ट हो जाए तो यह जगत् भी है, गन्धर्वनगर के समय होने से जगत् हमेशा है ॥७५॥ गगने नीलिमासत्ये जगत्सत्यं भविष्यति । शुक्तिकारजतं सत्यं भूषणं चेज्जगद्भवेत् ॥ ७६॥ आकाश में नीलता सत्य है तो यह भी सत्य होगा। सीपी में रूपा सत्य हो तो यह जगत् भूषण होगा ॥७६॥ रज्जुसर्पेण दष्टश्वेन्नरो भवतु संसृतिः । जातरूपेण बाणेन ज्वालाग्नौ नाशिते जगत् ॥ ७७॥ रस्सी के सर्प से मनुष्य मर जाए तो यह संसार सत्य हो । सोने के बाण से ज्वाला अग्नि नाश हो जाए तो जगत् सत्य है ॥७७॥ विन्ध्याटव्यां पायसान्नमस्ति चेज्जगदुद्भवः । रम्भास्तम्भेन काष्ठेन पाकसिद्धौ जगद्भवेत् ॥ ७८॥ विन्ध्याचल के वन में वीर अर्थात दूध हो जाए तो जगत् उत्पन्न हुआ है। केले के स्तम्भ के काठ से रसोई बन जाए तो जगत् सत्य है ॥७८॥ सद्यः कुमारिकरूपैः पाके सिद्धे जगद्भवेत् । चित्रस्थदीपैस्तमसो नाशश्चेदस्त्विदं जगत् ॥ ७९॥ गवारपाठे के रूप से कुवारबूटी पाक सिद्ध हो जाए तो यह जगत् सत्य हो । चित्र के दीपक से अन्धकार दूर हो जाए तो यह जगत् सत्य है ॥७९॥ मासात्पूर्वं मृतो मर्यो ह्यागतश्चज्जगद्भवेत् । तक्रं क्षीरस्वरूपं चेत्क्वचिन्नित्यं जगद्भवेत् ॥ ८०॥ महीने से पहले मरा हुआ मनुष्य आ जाए तो जगत् सत्य है। यदि छाछ का दूध बन जाय तो जगत् नित्य है ॥८०॥ गोस्तनादुद्भवं क्षीरं पुनरारोपणे जगत् । भूरजोऽब्धौ समुत्पन्ने जगद्भवतु सर्वदा ॥ ८१॥ हे राजन! गौ के थन से निकला हुआ दूध फिर उसी में भर दिया जाए तो जगत् सत्य है। मिट्टी के रेत में समुद्र उत्पन्न हो जाए तो जगत् हमेशा वस्तुतः है ॥८१॥ कूर्मरोम्णा गजे बद्धे जगदस्तु मदोत्कटे । नालस्थतन्तुना मेरुश्चालितश्चज्जगद्भवेत् ॥ ८२॥ कछुए के रोम से मस्त हाथी बांध दिया जाए तो जगत् भी सत्य है। कमल डण्डी की तन्तु से मेरु चलने लगे तो जगत् सत्य है ॥८२॥ तरङ्ग‌मालया सिन्धुर्बद्धश्चेदस्त्विदं जगत् । अग्नेरधश्वेज्ज्वलनं जगद्भवतु सर्वदा ॥ ८३॥ तरङ्गों की माला से समुद्र बांध दिया जाए तो जगत् है। अग्नि की ज्वाला नीचे को जाए तो जगत् सर्वदा है ॥८३॥ ज्वालावह्निः शीतलश्चेदस्तिरूपमिदं जगत् । ज्वालाग्निमण्डले पद्मवृद्धिश्वेज्जगदस्त्विदम् ॥ ८४॥ अग्नि की ज्वाला ठण्डी हो तो जगत् भी सत्य हो, जलती हुई अग्नि के मण्डल में कमलों की वृद्धि हो तो यह जगत सत्य है ॥८४॥ महच्छैलेन्द्रनीलं वा सम्भवच्चेदिदं जगत् । मेरुरागत्य पद्माक्षे स्थितश्चेदस्त्विदं जगत् ॥ ८५॥ महान् हिमाचल में नील हो तो जगत् सत्य हो, मेरु आकार नेत्र की पुतली में स्थित हो तो यह जगत् भी सत्य है ॥८५॥ निगिरेच्चेद्भृङ्गसूनुर्मेरुं चलवदस्त्विदम् । मशकेन हते सिंहे जगत्सत्यं तदास्तु ते ॥ ८६॥ भृङ्ग का शब्द वाणी रहित हो, मेरु चलायमान हो, मच्छर सिंह को मार डाले तो यह जगत् भी सत्य हो ॥८६॥ अणुकोटरविस्तीर्णे त्रैलोक्यं चेज्जगद्भवेत् । तृणानलश्च नित्यश्चेत्क्षणिकं तज्जगद्भवेत् ॥ ८७॥ अणु रूप कोटि के विस्तार होने से तीन लोक हों तो यह जगत् है। चणे के भूसा की अग्नि नित्य स्थित हो तो जगत सत्य है। ॥८७॥ स्वप्नदृष्टं च यद्वस्तु जागरे चेज्जगद्भवः । नदीवेगो निश्चलश्चेत्केनापीदं भवेज्जगत् ॥ ८८॥ स्वप्न की देखी कोई वस्तु जामत में रहे तो जगत् सत्य हो। नदी का वेग किसी प्रकार निश्चल हो जाए तो जगत सत्य हो ॥८८॥ क्षुधितस्याग्निर्भोज्यश्चेन्निमिषं कल्पितं भवेत् । जात्यन्धै रत्नविषयः सुज्ञातश्चेज्जगत्सदा ॥ ८९॥ भूखे का भोजन अग्नि हो तो जगत् की कुछ कल्पना हो सकती है। जन्म का अन्धा रत्न-परीक्षक हो तो यह जगत् सर्वदा हो ॥८९॥ नपुंसककुमारस्य स्त्रीसुखं चेद्भवज्जगत् । निर्मितः शशशृङ्गेण रथश्चज्जगदस्ति तत् ॥ ९०॥ नपुंसक के पुत्र को स्त्री का सुख हो तो जगत् सत्य हो । शशे के सींगों से रथ बन जाय तो जगत् सत्य हो ॥९०॥ सद्योजाता तु या कन्या भोगयोग्या भवेज्जगत् । वन्ध्या गर्भाप्ततत्सौख्यं ज्ञाता चेदस्त्विदं जगत् ॥ ९१॥ तत्काल की जन्मी कन्या भोग के योग्य हो तो जगत सत्य है। बन्ध्या गर्भ के दुःख व सुख जानने वाली हो तो जगत् सत्य हो ॥९१॥ काको वा हंसवद्गच्छेज्जगद्भवतु निश्चलम् । महाखरो वा सिंहेन युध्यते चेज्जगत्स्थितिः ॥ ९२॥ काक हंस के समान चले तो जगत निश्चल हो। गधा सिंह के साथ युद्ध करे तो जगत् की स्थिति सत्य हो ॥९२॥ महाखरो गजगतिं गतश्चेज्जगदस्तु तत् । सम्पूर्णचन्द्रसूर्यश्चज्जगद्भातु स्वयं जडम् ॥ ९३॥ गधा हाथी की चाल चले तो जगत् सत्य हो। चन्द्र सूर्य से प्रकाश किया हुआ सम्पूर्ण जगत् जड़ है ॥९३॥ ॥६३ चन्द्रसूर्यादिकौ त्यक्त्वा राहुश्चेदृश्यते जगत् । भृष्टबीजसमुत्पन्नवृ‌द्धिश्चज्जगदस्तु सत् ॥ ९४॥ चन्द्र सूर्यादि को छोड़ कर राहु दिखाई देता हो। भुना बीज उत्पन्न होकर बढ़े तो जगत् सत्य हो ॥९४॥ दरिद्रो धनिकानां च सुखं भुङ्क्ते तदा जगत् । शुना वीर्येण सिंहस्तु जितो यदि जगत्तदा ॥ ९५॥ दरिद्री धनवानों का सुख भोगे तो जगत् सत्य हो। कुत्ते के वीर्य से शेर उत्पन्न हो सके तो जगत् सत्य हो ॥९५॥ ज्ञानिनो हृदयं मूढैर्शातं चेत्कल्पनं तदा । श्वानेन सागरे पीते निःशेषेण मनो भवेत् ॥ ९६॥ मूढ़ पुरुष ज्ञानी के हृदय को जान ले तो जगत की कल्पना हो । कुत्ता सारे समुद्र को पान कर ले तो मन-जगत् हो ॥९६॥ शुद्धाकाशो मनुष्येषु पतितश्चेत्तदा जगत् । भूमौ वा पतितं व्योम व्योमपुष्पं सुगन्धकम् ॥ ९७॥ शुद्ध आकाश मनुष्यों पर गिर पड़े तो जगत् हो। अथवा भूमि पर आकाश गिरे या सुगन्धित आकाश-पुष्पों की सत्ता हो तो जगत् सत्य हो ॥९७॥ शुद्धाकाशे वने जाते चलिते तु तदा जगत् । केवले दर्पणे नास्ति प्रतिबिम्बं तदा जगत् ॥ ९८॥ शुद्ध आकाश में वन उत्पन्न हो और चले तो जगत् सत्य है। शुद्ध दर्पण में प्रतिबिम्ब नहीं पड़े तो जगत सत्य हो ॥९८॥ अजकुक्षौ जगन्नास्ति ह्यात्मकुक्षौ जगन्नहि । सर्वथा भेदकलनं द्वैताद्वैतं न विद्यते ॥ ९९ ॥ अज की कुक्षि में जगत् नहीं है। आत्मा की कुक्षि में जगत् नहीं है। भेद कलना द्वैत-अद्वैत किसी प्रकार से विद्यमान नहीं है ॥९९॥ मायाकार्यमिदं भेदमस्ति चेद्ब्रह्मभावनम् । देहोऽहमिति दुःखं चेद्ब्रह्माहमिति निश्चयः ॥ १००॥ यदि यह माया कार्य है, ऐसा भेद है तो वह ब्रह्म की भावना है। 'मैं देह हूँ' यह दुःख है तो 'मैं ब्रह्म हूँ' यह निश्चय है ॥१००॥ हृदयग्रन्थिरस्तित्वे छिद्यते ब्रह्मचक्रकम् । संशये समनुप्राप्ते ब्रह्मनिश्चयमाश्रयेत् ॥ १०१ ॥ हे राजन् ! हृदय-प्रन्थि के होने से ब्रह्मचक्र छेदा जाता है। संशय प्राप्त होने पर ब्रह्म के निश्चय का आश्रय करे ॥१०१॥ अनात्मरूपचोरश्वेदात्मरत्नस्य रक्षणम् । नित्यानन्दमयं ब्रह्म केवलं सर्वदा स्वयम् ॥ १०२॥ अनात्मरूप चोर है तो आत्मरूप रत्न को चोर से रक्षण करे। ब्रह्म नित्य आनन्दमय केवल सर्वदा आप है ॥१०२॥ एवमादिसुदृष्टान्तैः साधितं ब्रह्ममात्रकम् । ब्रह्मैव सर्वभवनं भुवनं नाम सन्त्यज ॥ १०३॥ इस प्रकार के दृष्टांतों से ब्रह्ममात्र साधा जाता है। ब्रह्म सब भवन है, भुवनों का नाम छोड़ दो ॥१०३॥ अहं ब्रह्मेति निश्चित्य अहम्भावं परित्यज । सर्वमेव लयं याति सुप्तहस्तस्थपुष्पवत् ॥ १०४॥ मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकार निश्चय करके 'मैं भाव' को त्याग दे। सोये हुये के हाथ में रहे हुए पुष्प के समान समस्त ही लय हो जाता है ॥१०४ ॥ न देहो न च कर्माणि सर्वं ब्रह्मैव केवलम् । न भूतं न च कार्यं च न चावस्थाचतुष्टयम् ॥ १०५॥ नदेह है, न कर्म है, सब केवल ब्रह्म ही है। न भूत है, न कार्य है, न चार अवस्थाएं हैं ॥१०५॥ लक्षणात्रयविज्ञानं सर्वं ब्रह्मैव केवलम् । सर्वव्यापारमुत्सृज्य ह्यहं ब्रह्मेति भावय ॥ १०६॥ तीन लक्षणों का विज्ञान सब केवल ब्रह्म ही है। सब व्यापार छोड़कर 'मैं ब्रह्म हूँ इस प्रकार भावना करनी चाहिए ॥१०६ ॥ अहं ब्रह्म न सन्देहो ह्यहं ब्रह्म चिदात्मकम् । सच्चिदानन्दमात्रोऽहमिति निश्चित्य तत्त्यज ॥ १०७॥ सन्देह रहित मैं ब्रह्म हूँ, मैं चैतन्य-स्वरूप ब्रह्म हूँ। मैं सच्चिदानन्द मात्र हूँ, ऐसा निश्चय करके उसको भी छोड़ दो ॥१०७॥ शाङ्करीयं महाशास्त्रं न देयं यस्य कस्यचित् । नास्तिकाय कृतघ्नाय दुर्वृत्ताय दुरात्मने ॥ १०८ ॥ हे निदाघ! यह शंकर जी का विरचित महा शास्त्र नास्तिक, कृतघ्न, दुराचारी, दुष्टात्मा हर किसी को नहीं देना चाहिये ॥१०८॥ गुरुभक्तिविशुद्धान्तःकरणाय महात्मने । सम्यक्परीक्ष्य दातव्यं मासं षाण्मासवत्सरम् ॥ १०९ ॥ गुरुभक्ति से शुद्ध किये हुए अन्तःकरण वाले महात्मा को अच्छी तरह से मास, छह मास, एक वर्ष परीक्षा करके इसे देना चाहिये ॥१०९ ॥ सर्वोपनिषदभ्यासं दूरतस्त्यज्य सादरम् । तेजोबिन्दूपनिषदमभ्यसेत्सर्वदा मुदा ॥ ११०॥ सब उपनिषदों के अभ्यास को दूर से त्यागकर आदर सहित तेजोविन्दु उपनिषद् का सर्वदा प्रसन्न होकर अभ्यास करे ॥११०॥ सकृदभ्यासमात्रेण ब्रह्मैव भवति स्वयम् । ब्रह्मैव भवति स्वयमित्युपनिषत् ॥ हे निदाघ ! एक बार अभ्यास मात्र से आप ब्रह्म ही होता है। यह उपनिषद् है ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ शान्तिपाठ ॐ सह नाववतु ॥ सह नौ भुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥ तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ ॥ इति तेजोबिन्दूपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ तेजोबिन्दू उपनिषद समाप्त ॥

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