Aitareya Upanishad Third Chapter (ऐतरेयोपनिषद) तृतीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ऐतरेयोपनिषद ॥ अथ तृतीयध्याये तृतीय अध्याय ॐ कोऽयमात्मेति वयमुपास्महे कतरः स आत्मा। येन वा पश्यति येन वा शृणोति येन वा गंधानाजिघ्रति येन वा वाचं व्याकरोति येन वा स्वादु चास्वादु च विजानाति ॥१॥ इस मन्त्रका तात्पर्य यह है कि उस उपास्य देव परमात्मा के तत्व को जानने की इच्छावाले कुछ मनुष्य आपस मे विचार करने लगे- जिसकी हम लोग उपासना करते है, वह यह परमात्मा कौन है? दूसरे शब्दों में जिसके सहयोग से मनुष्य नेत्रों के द्वारा देखता है, कानों के द्वारा सुनता है, नाक के द्वारा गन्ध सूंघता है, वाणी के द्वारा स्पष्ट बोलता है, और जीभ के द्वारा स्वादयुक्त और स्वादहीन वस्तु की अलग अलग पहचान कर लेता है, वह आत्मा पिछले दूसरे अध्यायों में वर्णित आत्माओं में से कौन है ? ॥१॥ यदेतद्धृदयं मनश्चैतत् । संज्ञानमाज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं मेधा दृष्टिधृतिमतिर्मनीषा जूतिः स्मृतिः संकल्पः क्रतुरसुः कामोवश इति । सर्वाण्येवैतानि प्रज्ञानस्य नामधेयानि भवंति ॥ २॥ जो यह हृदय है; वही मन भी है। सम्यक ज्ञान शक्ति, आज्ञा देने की शक्ति, विभिन्न रूप से जानने की शक्ति, धारण करने की शक्ति, देखने की शक्ति, धैर्य, बुद्धि, मनन शक्ति, वेग, स्मरण शक्ति, संकल्प शक्ति, मनोरथ शक्ति, प्राण-शक्ति, कामना शक्ति, कामनाओं की अभिलाषा, यह सभी शक्तियां, उस ज्ञान स्वरूप परमात्मा के ही नाम अर्थात उसकी सत्ता का बोध कराने वाले लक्षण हैं। इन सबको जानकार, इस सब के रचियता, संचालक और रक्षक की सर्वव्यापिनी सत्ता का ज्ञान होता है। ॥२॥ एष ब्रह्मष इन्द्र एष प्रजापतिरेते सर्वे देवा इमानि च पञ्चमहाभूतानि पृथिवी वायुराकाश आपो ज् योतींषीत्येतानीमानि च क्षुद्रमिश्राणीव । बीजानीतराणि चेतराणि चाण्डजानि च जारुजानि च स्वेदजानि चोद्भिज्जानि चाश्वा गावः पुरुषा हस्तिनो यत्किञ्चेदं प्राणि जङ्गमं च पतत्रि च यच्च स्थावरं सर्वं तत्प्रज्ञानेत्रं प्रज्ञाने प्रतिष्ठितं प्रज्ञानेत्रो लोकः प्रज्ञा प्रतिष्ठा प्रज्ञानं ब्रह्म ॥३॥ आत्मा का स्वरूप वर्णन करने के अनन्तर ऋषि परमात्मा का स्वरूप वर्णन करते हैं - यही ब्रह्म हैं, यही इंद्र हैं, यही प्रजापति हैं। यही समस्त देवता तथा यही पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और तेज- पञ्च महाभूत हैं। यही छोटे छोटे मिले हुए बीजरूप समस्त प्राणी और इनके अतिरिक्त अन्य सभी अंडे से उत्पन्न होने वाले, गर्भ से उत्पन्न होने वाले, पसीने से उत्पन्न होने वाले तथा भूमि से निकलने वाले तथा घोड़े, गाय, हाथी. मनुष्य जो कुछ भी यह जगत है तथा जो कुछ भी इस जगत मे पंखों वाला, चलने फिरने वाला और स्थावर प्राणी समुदाय है; वह सब प्रज्ञान स्वरुप परमात्मा में ही स्थित है। यह समस्त ब्रह्माण्ड प्रज्ञान स्वरुप परमात्मा से ही ज्ञान शक्तियुक्त है। वह प्रज्ञान स्वरुप परमात्मा ही इसकी स्थिति के आधार हैं। यह प्रज्ञान स्वरुप परमात्मा ही हमारे उपासक - ब्रह्म हैं। ॥३॥ स एतेन प्राज्ञेनाऽऽत्मनाऽस्माल्लोकादुत्क्रम्यामुष्मिन्स्वर्गे लोके सर्वान् कामानाप्त्वाऽमृतः समभवत् समभवत् ॥ ४॥ जिसने इस प्रज्ञान स्वरुप परब्रह्म को जान लिया वह इस लोक से ऊपर उठ कर उस स्वर्गलोक परमधाम मे इस प्रज्ञान स्वरुप ब्रह्म के साथ, सम्पूर्ण दिव्य भोगों को प्राप्त कर अमर हो गया, अमर हो गया। ॥४॥ ॥ इत्यैतरोपनिषदि तृतीयोध्यायः ॥ ॥ तृतीय अध्याय समाप्तः ॥ शान्ति पाठ ॐ वाङ्‌ मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि। वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीर । अनेनाधीतेनाहोरात्रान्संदधाम्यृतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि। तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु। अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥ हे सच्चिदानंद परमात्मन ! मेरी वाणी मन में प्रतिष्ठित हो जाए। मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाए। हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर! मेरे सामने आप प्रकट हो जाएँ। हे मन और वाणी ! तुम दोनों मेरे लिए वेद विषयक ज्ञान को लानेवाले बनो। मेरा सुना हुआ ज्ञान कभी मेरा त्याग न करे। मैं अपनी वाणी से सदा ऐसे शब्दों का उच्चारण करूंगा, जो सर्वथा उत्तम हों तथा सर्वदा सत्य ही बोलूँगा। वह ब्रह्म मेरी रक्षा करे, मेरे आचार्य की रक्षा करे। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ ॐ इति ऋग्वेदीय ऐतरेयोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ ऋग्वेद वर्णित ऐतरेयोपनिषद समाप्त ॥

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