Tripadvibhutipaha Narayana Upanishad Chapter 1 (त्रिपाद्विभूतिपहानारायणोपनिषत) (प्रथम अध्याय)

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत्‌॥ ॥ हरिः ॐ ॥ यत्रापहवतां याति स्वाविद्यापदवि भ्रम: । तल्लिपान्नारायणाख्य॑ स्वमात्रमवशिष्यते ॥ ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा: | स्थिरै ज्रैस्तुष्तुवाशसस्तनूभिव््यशेम देवहितं यदायुः ॥ हे देवगण। हम भगवान का आराधन करते हुए कानों से कल्याणमय वचन सुनें। नेत्रं से कल्याण ही देखं। सुदृढः अंगों एवं शरीर से भगवान की स्तुति करते हुए हमलोग; जो आयु आराध्य देव परमात्मा के काम आ सके, उसका उपभोग करें। ॐ शान्तिः शान्ति: शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदेविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ श्री हरि ॥ ॥ त्रिपाद्विभूतिपहानारायणोपनिषत्‌ ॥ ॥ प्रथमोऽध्यायः॥ ॥ प्रथम अध्याय॥ अथ परमतत्त्वरहस्यं जिज्ञासुः परमेष्ठी देवमानेन सहस्रसंवत्सरं तपश्चचार | सहस्रवर्षेऽ तीतेऽत्युग्रतीव्रतपसा प्रसन्नं भगवन्तं महाविष्णु ब्रह्मा परिपृच्छति भगवन् परमतत्त्वरहस्यं मे ब्रूहीति । परमतत््वरहस्यवक्तात्वमेव नान्यः कश्चिदस्ति तत्कथमिति। तदेवोच्यते। त्वमेव सर्वज्ञः। त्वमेव सर्वशक्तिः । त्वमेव सर्वाधारः । त्वमेव सर्वस्वरूपः । त्वमेव सर्वेश्वरः । त्वमेव सर्वप्रवर्तकः | त्वमेव सर्वपालकः ।त्वमेव सर्वनिवर्तकः । त्वमेव सदसदात्मकः । त्वमेव सदसद्विलक्षणः । त्वमेवान्तर्बहिर्व्यापिकः । त्वमेवातिसूक्ष्मतरः । त्वमेवातिमहतो महीयान् । त्वमेव सर्वमूलाविद्यानिवर्तकः । त्वमेवाविद्याविहारः । त्वमेवाविद्याधारकः । त्वमेव विद्यावेद्यः । त्वमेव विद्यास्वरूपः । त्वमेव विद्यातीतः । त्वमेव सर्वकारणहेतुः । त्वमेव सर्वकारणसमष्टिः। त्वमेव सर्वकारणव्यष्टिः | त्वमेवाखण्डानन्दः । त्वमेव परिपूर्णानन्दः । त्वमेव निरतिशयानन्दः । त्वमेव तुरीयतुरीयः । त्वमेव तुरीयातीतः । त्वमेव अनन्तोपनिषद्विमृग्यः । त्वमेवाखिलशास्त्रैर्विमृग्यः । त्वमेव ब्रह्मेशानपुरन्दरपुरोगमैरखिलामरैरखिलागमैर्विमृग्यः । त्वमेव सर्वमुमुक्षुभिर्विमृग्यः । त्वमेवामृतमयैर्विमृग्यः | त्वमेवामृतमयस्त्वमेवामृतमयस्त्वमेवामृतमयः । त्वमेव सर्व त्वमेव सर्वं त्वमेव सर्वम् । त्वमेव मोक्षस्त्वमेव मोर्षदस्त्वमेवाखिलमोक्षसाधनम् । न किच्चिदस्ति त्वव्यतिरिक्तम् | त्वद्यतिरिक्तं यकि चित्प्रतीयते तत्सर्व बाधितमिति निश्चयम् । तस्मात््वमेव वक्ता त्वमेवगुरुस्त्वमेव पिता त्वमेव सर्वनियन्ता त्वमेव सर्व त्वमेव सदा ध्येय इति सुनिश्चितः | परमतत्त्व के रहस्य को जानने की इच्छा से श्रीब्रह्माजी ने देवताओं के वर्षो से सहस वर्षों तक तपस्या की। सहस्र देववर्ष व्यतीत होनेपर ब्रह्माजी की अत्यन्त उग्र एवं तीव्र तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्प्र प्रहाविष्णु प्रकट हुए। ब्रह्माजी नेउ नसे कहा-' भगवन् ! मुझे परमतत्त्व का रहस्य बतलाइये; क्योकि परमतत्त्व के रहस्य को बतलाने वाले एकमात्र आप ही हे, दूसरा कोई नहीं है। यह किस प्रकार? (यदि आप यह पूछे तो) वही बतलाता हूँ। आप ही सर्वज्ञ हं। आप ही सर्वशक्तिमान् हैं। आप ही सबके आधार हैं। आप ही सब कुछ बने हुए हैं। आप ही सबके स्वामी हैं। आप ही समस्त कार्योके प्रवर्तक हैं। आप ही सबके पालनकर्ता हैं। आप ही सबके निवर्तक (विनाशक) हैं। आप ही सत् एवं असस्स्व रूप हैं। आप ही सत् एवं असत् से विलक्षण हैं। आप ही भीतर और बाहर-सर्वत्र व्यापक हैं आप ही अत्यन्त सूक्ष्मतर हं। आप ही महान से भी अत्यन्त महान हैं। आप ही सबकी मूल-अविद्या के विनाशक हैं। आप ही अविद्या में विहार करने वाले भी हैं। आप ही अविद्या को धारण करने वाले अधिष्ठान हैं। आप ही विद्या ज्ञान) -द्रारा जाने जाते हैं। आप ही विद्या स्वरूप हैं। आप ही विद्या से परे भी हं। आप ही समस्त कारणों केकारण हैं। आप ही समस्त कारणों की समष्टि (समुदाय) हैं। आप हीी समस्त कारणों की व्यष्टि (पृथक् -पृथक् कारण) हैं। आप ही अखण्ड आनन्दरूप हैं। आप ही पूर्णनन्द हैं। आप ही निरतिशय आनन्दस्वरूप हैं। आप ही तुरीय-तुरीय (तुरीयावस्था के भी तुरीय) हैं। आप ही तुरीयातीत हैं। अनन्त उपनिषदों द्वारा आप ही अन्वेषणीय हैं। निखिल शास्त्रों के द्वारा आप ही हँढ़नेयोग्य हैं। आप ही ब्रह्मा (मैं) शंकरजी, इन्द्र आदि सब देवताओं तथा समस्त तन्त्रशास्त्रों द्वारा अन्वेषण करनेयोग्य हैं। सभी मुमुक्षुओं द्वारा आप ही हँढे ज़ानेयोग्य हैं। सभी अमृतमय (मुक्त) पुरुषोंद्वारा आप ही खोजने योग्य हैं। आप ही अमृतमय हैं, आप ही अमृतमय हैं, आप ही अमृतमय हैं। आप ही सर्वरूप हैं, आप ही सर्वरूप हैं, आप ही सर्वरूप हैं। आप ही मोक्षस्वरूप हैं, आप ही मोक्षदाता हैं तथा मोक्ष के सम्पूर्ण साधनस्वरूप भी आप ही हैं। आपके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। आपके अतिरिक्त जो कुछ भी प्रतीत होता है, वह सब(बुद्धिद्रारा) बाधित (अतत्त्व-मिथ्या) है-यह निश्चित है। इसलिये आप ही वक्ता हैं, आप ही गुरु हैं, आप ही पिता हैं, आप ही सबके नियन्ता हैं, आप ही सर्वस्वरूप हैं और आप ही सदा ध्यान करनेयोग्य हैं-यह सुनिश्चित है'॥१॥ परमतत्त्वज्ञस्तमुवाच महाविष्णुरतिप्रसन्नो भूत्वा साधुसाध्विति साधुप्रशंसापूर्व सर्व परमतत्त्वरहस्यं ते कथयामि । सावधानेन श्रुणु । ब्रह्मन् देवदर्शीत्याख्याथर्वणशाखायां परमतत्त्वरहस्याख्याथर्वणमहानारायणोपनिषदि गुरुशिष्यसंवादः पुरातनः प्रसिद्धतया जागर्ति । पुरा तत्स्वरूपज्ञानेन महान्तः सर्व ब्रह्मभावं गताः । यस्य श्रवणेन सर्वबन्धः प्रविनश्यन्ति । यस्य ज्ञानेन सर्वरहस्यं विदितं भवति । तत्स्वरूपं कथमिति । परमतत्त्वज्ञ भगवान् महाविष्णु "साधु-साधु" कहकर प्रशंसा करते हुए (साधुवाद देते हुए) अत्यन्त प्रसन्न होकर ब्रह्माजीसे बोले- सम्पूर्ण परमतत्त्वका रहस्य तुम्हें बतलाता हूँ। सावधान होकर सुनो। ब्रह्माजी! अथर्ववेद की देवदर्शी नामक शाखा में परमतत्त्वरहस्य नामक अथर्ववेदीय महानारायणोपनिषद् प्राचीन काल से गुरु-शिष्य-संवाद अत्यन्त सुप्रसिद्ध होनेसे सर्वज्ञात है। पहले (अतीत कल्प मे) उसके स्वरूप को जानने से सभी महत्तम पुरुष ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए हैं। जिसके सुनने से सभी बन्धन समूल नष्ट हो जाते हैं, जिसके ज्ञान से सभी रहस्य ज्ञात हो जाते हैं, उसका स्वरूप कैसा है, यह बतलाते हैं-॥ २-३॥ शान्तो दान्तोऽतिविरक्तः सुशुद्धो गुरुभक्तस्तपोनिष्ठः शिष्यो ब्रह्मनिष्ठं गुरुमासाद्य प्रदक्षिणपूर्वकं दण्डवत्प्रणम्य प्राञ्जलिर्भूत्वा विनयेनोपसंगम्य भगवन् गुरो मे परमतत्त्वरहस्यं विविच्य वक्तव्यमिति । अत्यादरपूर्वकमिति हर्षेण शिष्यं बहूकृत्य गुरुर्वदति । परमतत्त्वरहस्योपनिषत्क्रम: कथ्यते सवाधानेन श्रूयताम् । कथ ब्रह्म । कालत्रयाबाधितं ब्रह्म | सर्वकालाबाधितं ब्रह्म | सगुणनिर्गुणस्वरूपं ब्रह्म आदिमध्यान्तशुन्यं ब्रह्म । सर्व खल्विदं ब्रह्म । मायातीतं गुणातीतं ब्रह्म | अनन्तमप्रमेयाखण्डपरिपूर्ण ब्रह्म । उद्वितीयपरमानन्दशुद्धबुद्धमुक्तसत्यस्वरूपव्यापकामित्रापरिच्छिनं ब्रह्म | सच्विदानन्दस्वप्रकाशं ब्रह्म मनोवाचामगोचरं ब्रह्म । अमितवेदान्तवेद्यं ब्रह्म देशतः कालतो वस्तुतः परिच्छेदरहितं ब्रह्म । सर्वपरिपूर्णं ब्रह्म तुरीयं निराकारमेकं ब्रह्म । अद्वितमनिर्वाच्यं ब्रह्म । प्रणवात्मकं ब्रह्म | प्रणवात्मकत्वेनोक्तं ब्रह्म । प्रणवाद्यखिलमन्त्ात्मकं ब्रह्म | पादचतुष्टयात्मकं ब्रह्म । “शान्त, अप्रमत्त, अत्यन्त विरक्त, अत्यन्त पवित्र, गुरुभक्त, तपस्वी शिष्य ने ब्रह्मनिष्ठ गुरु को प्राप्त कर, उनकी प्रदक्षिणा की, भूमि पर लेटकर उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया और दोनों हाथों की अज्जलि बोधकर, विनय पूर्वक समीप जाकर कहा-'भगवन् ! गुरुदेव ! मुझे परमतत्त्व के रहस्य को खोलकर बतलाइये।' अत्यन्त आदरपूर्वक हर्ष से शिष्य की बहुत प्रशंसा करके गुरु बोले-'परमतत्त्व- रहस्योपनिषद् का क्रम बतला रहा हूँ, सावधानीसे सुनो" (ब्रह्म कैसा है? ( भूत, भविष्य, वर्तमान) तीनों कालों से जो अबाधित है-किसी भी काल में जिसका अभाव नहीं होता, वह ब्रह्म है। समस्त कालों से अबाधित (अनवच्छिन्न) तत्वं ब्रह्म हे। ब्रह्म सगुण एवं निर्गुण दोनों है। ब्रह्म आदि, मध्य एवं अन्त से रहित है। यह सब (दश्यादश्य जगत् ) ब्रह्म हे। ब्रह्म मायातीत है ओर गुणातीत है। ब्रह्म अनन्त, प्रमाणों से अज्ञेय, खण्ड ओर परिपूर्ण है। उद्वितीयरूप, परमानन्द, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्यस्वरूप, व्यापक, भेदहीन एवं अपरिच्छिन्न है। ब्रह्म सच्विदानन्दस्वरूप एवं स्वतःप्रकाश है। ब्रह्म मन-वाणी से अतीत हे। ब्रह्म सम्पूर्ण प्रमाणो से परे है। अगणित वेदान्तो (उपनिषदों) द्वारा ब्रह्म ही जानने योग्य है। देश से, काल से तथा वस्तु से ब्रह्म परिच्छेदहीन (असीमित) है। ब्रह्म सभी प्रकार परिपूर्ण है। ब्रह्म तुरीयस्वरूप, निराकार एवं अद्वितीय है। ब्रह्म द्वैत के साथ अवर्णनीय है। ब्रह्म प्रणवस्वरूप है। ब्रह्म प्रणवात्मा रूप से कहा गया है। प्रणवप्रभृति समस्त मन्त्रों का स्वरूपभूत ब्रह्म है। ब्रह्म के चार पाद हैं! ॥४-५॥ कि तत्पादचतुष्टयं ब्रह्म भवति । अविद्यापादः सुविद्यापादश्वानन्दपादस्तुरीयपादस्तुरीय इति । तुरीयपादस्तुरीयतुरीयं तुरीयातीतं च । कथं पादचतुष्टयस्य भेदः । अविद्यापदः प्रथमः पादो विद्यापादो द्वितीयः आनन्दपादस्तृतीयस्तुरीयपादस्तुरीय इति । मूलाविद्या प्रथमपादे नान्यत्र । विद्यानन्दतुरीयांशाः सर्वेषु पादेषु व्याप्य तिष्ठन्ति । एवं तहिं विद्यादीनां भेदः कथमिति । तत्तत्प्राधान्येन तत्तद्यपदेशः । वस्तुतस्त्वभेद एव । तत्राधस्तनमेकं पादमविद्याशबलं भवति | उपरितनपादत्रयं शुद्धबोधानन्दलक्षणममूतं भवति । तच्वानिर्वाच्यमनिर्देश्यमखण्डानन्देकरसात्मकं भवति । तत्र मध्यमपादमध्यप्रदेशोऽमिततेजःप्रवाहाकारतया नित्यवेकुण्ठं विभाति | तच्च निरतिशयानन्दाखण्डब्रह्मानन्दनिजमूर््याकारेण ज्वलति | अपरिच्छिन्रमण्डलानि यथा दृश्यन्ते तद्रदखण्डानन्दामितवेष्णवदिव्यतेजोराश्यन्तर्गतविलसन्महाविष्णोः परमं पदं विराजते । दुग्धीदधिमध्यस्थितामृतामृतकलशवद्रेष्णवं धाम परमं संदृश्यते | सुदर्शनदिव्यतेजोऽन्तर्गतः सुदर्शनपुरुषो यथा सूर्यमण्डलान्तर्गतः सूर्यनारायणोऽमितापरिच्छिम्नाद्रेतपरमानन्दलक्षणतेजोराश्यन्तर्गत आदिनारायणस्तथा संदृश्यते । स एव तुरीयं ब्रह्म स एव तुरीयातीतः स एव विष्णुः स एव समस्तब्रह्मवावाचच्कय ः स एव परंज्योतिः स एव मायातीतः स एव गुणातीतः स एव कालातीतः स एव अखिलकर्मातीतः स एव सत्योपाधिरहितः स एव परमेश्वरः स एव चिरन्तनः पुरुषः प्रणवाद्यखिलमन्तरवाचकवाच्य आद्यन्तशून्य आदिदेशकालवस्तुतुरीयसंज्ञानित्यपरिपूर्णः पूर्णः सत्यसंकल्प आत्मारामः कालत्रयाबाधितनिजस्वरूपः स्वयंज्योतिः स्वयम्प्रकाशमयः स्वसमानाधिकरणशून्यः स्वसमानाधिकशून्यो न दिवारात्रिविभागो न संवत्सरादिकालविभागः स्वानन्दमयानन्ताचिन्त्यविभव आत्मान्तरात्मा परमात्मा ज्ञानात्मा तुरीयात्मेत्यादिवाचकवाच्योऽद्रैतपरमानन्दो विभूर्नित्यो निष्कलङ्को निर्विकल्पो निरञ्जनो निराख्यातः शुद्धो देव एको नारायणो न द्वितीयोऽस्ति कश्चिदिति य एवं वेद स पुरुषस्तदीयोपासनया तस्य सायुज्यमेतीत्यसंशयपित्युपनिषत् ॥ ब्रह्म के वे चार पाद कौन-कौन हैं?--अविद्यापाद, सुविद्यापाद, आनन्दपाद और तुरीयंपाद-ये ही वे चार पाद हैं। तुरीयपाद तुरीयावस्था को भी तुरीय तथा तुरीयातीत है। इन चारों पादों में भेद क्या है? अविद्यापाद पहला पाद है, विद्यापाद दूसरा है, आनन्दपाद तीसरा है ओर तुरीयपाद चौथा हे। मूल-अविद्या प्रथम पाद में ही है, दूसरोंमें नहीं। विद्या, आनन्द एवं तुरीय के अंश सभी पादां में व्याप्त होकर रहते हैं। यदि ऐसी बात हे, तो विद्यादि पादों मेँ भेद किस प्रकार है?-उन विद्यादि की प्रधानताके कारण उनके द्वारा नामों का निर्देश होता है। वस्तुतः तो अभेद ही है। उन चार पादो में एक नीचे का पाद ही अविद्यामिश्रित होता है। ऊपर के तीनों पाद शुद्ध ज्ञान एवं आनन्दस्वरूप तथा अमृत (शाश्वत) रहते हं। वे तीनों पाद अलौकिक परमानन्दस्वरूप अखण्ड अमित तेजोराशिके रूपमे प्रकाशित रहते हैं और वे अनिर्वचनीय, अनिर्देश्य, अखण्ड आनन्दैकरसात्मक हैं। उनमें से मध्यम अर्थात् आनन्दपाद के मध्यप्रदेश में अमित तेज के प्रवाहरूप में नित्य वैकुण्ठ से विराजमान है और वह निरतिशय आनन्द एवं अखण्ड ब्रह्मानन्दस्वरूप अपनी मूर्ति से प्रकाशित हे। जैसे अनन्त मण्डल दिखायी पडते हैं, उसी प्रकार अखण्ड आनन्दमय भगवान् विष्णु को अमित दिव्य तेजो राशि के अन्तर्गत सुशोभित श्रीमहाविष्णु का श्रेष्ठ स्थान विराजमान हे। भगवान् विष्णुका यह परमधाम क्षीरसमुद्र के मध्यमं स्थित अविनाशी अमृत के कलश के समान दिखायी पडता हे। सुदर्शनचक्र के दिव्य तेज के मध्य में जेसे सुदर्शन के अभिमानी देवपुरुष रहते हैं, जैसे सूर्यमण्डल में सूर्यनारायण हैं, वैसे ही अमित, अपरिच्छिन्न, अद्वैत परमानन्दरूप तेजोराशि में आदिनारायण दिखलायी पड़ते हैं।' 'वे ही (आदिनारायण) तुरीय ब्रह्म हैं। वे ही तुरीयातीत हैं। वे ही विष्णु (व्यापक) हैं। वे ही समस्त ब्रह्मवाचक शब्दों के वाच्य हैं। वे ही परम ज्योति हैं। वे ही मायातीत हैं। वे ही गुणातीत हैं। वे ही कालातीत हैं। वे ही समस्त कर्मो से परे हैं। वे ही सत्य एवं उपाधिरहित हैं। वे ही परमेश्वर (सर्वसंचालक) हैं। वे ही पुराणपुरुष हैं। प्रणवादि समस्त मन्त्ररूप वाचकों के वाच्य, आदि-अन्तरहित, आदि देश-काल-वस्तु तथा तुरीय संज्ञावाले (इन सबके वाच्य) एवं नित्य परिपूर्ण, सब प्रकार से पूर्ण, सत्यसंकल्प, आत्माराम, तीनों कालों से अबाधित स्वरूपवाले, स्वयंज्योति, स्वयंप्रकाशमय, अपने समान वस्तु से रहित अर्थात् सर्वथा अद्वितीय, जिनके समान भी कोई नहीं है, फिर अधिक की तो बात ही क्या, जिनमें दिन-रात्रि के विभाग नहीं हैं, जिनमे संवत्सरादि काल-विभाग नहीं हैं, निजानन्दमय अनन्त-अचिन्त्य ऐश्वर्यववाले, आत्मा के भी अन्तरात्मा, परमात्मा, ज्ञानात्मा, तुरीयात्मा आदि शब्दों के वांच्य, अद्वैत परमानन्दरूप, विभु (सर्वव्यापक), नित्य, निष्कलङ्क, निर्विकल्प, निरञ्चन, संज्ञारहित, शुद्ध देवता एकमात्र नारायण ही हैं; दूसरा कोई नहीं है। जो इस प्रकार जानता है, वह पुरुष उन श्री नारायण भगवान की उपासना से उनके सायुज्य को प्राप्त करता है-यह संशयरहित बात है'॥६-११॥ ॥ इति प्रथमोध्याये ॥ ॥ प्रथम अध्याय समाप्त ॥

Recommendations