ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ५५

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ५५ ऋषिः श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः । छंद - जगती, १० त्रिष्टुप प्रयज्यवो मरुतो भ्राजदृष्टयो बृहद्वयो दधिरे रुक्मवक्षसः । ईयन्ते अश्वः सुयमेभिराशुभिः शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥१॥ प्रकृष्ट यजनीय, दीप्तिमान् आयुध वाले, वक्षस्थल पर रमणीक हार धारण करने वाले मरुद्गण महान् बलों को धारण करते हैं। ये उत्तम नियामक मरुद्गण वेगवान् अश्वों द्वारा गमन करते हैं। जल वृष्टि आदि कल्याण युक्त कार्यों में इन रने वाले मरुतों के रथादि भी उके अनुगामी होते हैं ॥१॥ स्वयं दधिध्वे तविषीं यथा विद बृहन्महान्त उर्विया वि राजथ । उतान्तरिक्षं ममिरे व्योजसा शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥२॥ हे मरुतो ! जैसा आप का ज्ञान है, उसी के अनुरूप आप स्वतः बल भी धारण करते हैं। भूमि को उर्वर बनाने को आपकी सामर्थ्य अति महान् है और अतिशय प्रकाशमान हैं। आप अपने बल से अन्तरिक्ष को परिपूर्ण करते हैं। जल वृष्टि आदि कल्याणकारी कार्यों में गतिशील मरुतों के रथ साधन भी उनके अनुगामी होते हैं ॥२॥ साकं जाताः सुभ्वः साकमुक्षिताः श्रिये चिदा प्रतरं वावृधुर्नरः । विरोकिणः सूर्यस्येव रश्मयः शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥३॥ ये मरुद्गण एक साथ उत्पन्न हुए और एक साथ जलवर्धक हैं, एक साथ बल-उत्पादक और नेतृत्वकर्ता हैं। अतिशय शोभा के लिए ये अत्यन्त प्रवर्धित होते हैं। सूर्य रश्मियों की भाँति विशिष्ट आभा से संयुक्त हैं। जल वृष्टि आदि कल्याणकारी कार्यों के निमित्त गमनशील मरुतों के रथादि भी इनके अनुगामी होते हैं ॥३॥ आभूषेण्यं वो मरुतो महित्वनं दिदृक्षेण्यं सूर्यस्येव चक्षणम् । उतो अस्माँ अमृतत्वे दधातन शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥४॥ हे मरुतो ! आपकी विशिष्ट महत्ता स्तोत्रों आदि द्वारा विभूषित होती हैं। वह सूर्य के रूप सदृश दर्शनीय है। आप हमें अमरता प्रदान करें। जल वृष्टि आदि कल्याणकारी कार्यों के निमित्त गमनशील आपके रथादि साधन भी आपके अनुगामी होते हैं ॥४॥ उदीरयथा मरुतः समुद्रतो यूयं वृष्टिं वर्षयथा पुरीषिणः । न वो दस्रा उप दस्यन्ति धेनवः शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥५॥ हे जल सम्पन्न मरुतो! आप अन्तरिक्ष से समुद्र के जल को प्रेरित करते हैं और जल वर्षण प्रारम्भ करते हैं। हे शत्रु संहारक मरुतो ! आपके निमित्त स्तुतियाँ कभी नष्ट नहीं होतीं । जल वृष्टि आदि कल्याणकारी कार्यों के निमित्त गमनशील, आपके रथादि भी आपके अनुगामी होते हैं ॥५॥ यदश्वान्धूर्ष पृषतीरयुग्ध्वं हिरण्ययान्प्रत्यत्काँ अमुग्ध्वम् । विश्वा इत्स्पृधो मरुतो व्यस्यथ शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥६॥ हे मरुद्गणो ! जब आप बिन्दुदार (चिह्नित) अश्वों को अपने रथ से योजित करते हैं और स्वर्णमय कवच को धारण करते हैं, तब स्पर्धा रखने वाले सभी शत्रुओं को क्षत-विक्षत कर देते हैं। जल वृष्टि आदि कल्याणकारी कार्यों के निमित्त गमनशील आपके रथादि भी आपके अनुगामी होते हैं ॥६॥ न पर्वता न नद्यो वरन्त वो यत्राचिध्वं मरुतो गच्छथेदु तत् । उत द्यावापृथिवी याथना परि शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥७॥ हे मरुतो ! पर्वत और नदियाँ आपके मार्ग को अवरुद्ध न करें। आप जहाँ जाने की इच्छा करें, वहाँ जाएँ। द्यावा-पृथिवी में सर्वत्र गमन करें । जल वृष्टि आदि कल्याणकारी कार्यों के निमित्त गमनशील आपके रथादि साधन आपके अनुगामी होते हैं ॥७॥ यत्पूर्व्य मरुतो यच्च नूतनं यदुद्यते वसवो यच्च शस्यते । विश्वस्य तस्य भवथा नवेदसः शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥८॥ हे सर्व निवासक मरुतो! जो यज्ञादि अनुष्ठान पहले सम्पादित किये गये हैं, जो नूतन यज्ञ हो रहे हैं, उनके जो मन्त्रगान और स्तोत्रपाठ होते हैं, उन्हें आप जानने वाले हों। जल वृष्टि आदि कल्याणकारी कार्यों के निमित्त गमनशील रथादि आपके अनुगामी होते हैं ॥८॥ मृळत नो मरुतो मा वधिष्टनास्मभ्यं शर्म बहुलं वि यन्तन । अधि स्तोत्रस्य सख्यस्य गातन शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥९॥ हे मरुतो ! हमें सुखी बनायें, अपने क्रोध से नष्ट न करें, सुख प्रदान करें। हमारे मित्र भाव से युक्त स्तोत्रों से अवगत हों। जल-वृष्टि आदि कल्याणकारी कार्यों के निमित्त गमनशील रथादि साधन आपके अनुगामी होते हैं ॥९॥ यूयमस्मान्नयत वस्यो अच्छा निरंहतिभ्यो मरुतो गृणानाः । जुषध्वं नो हव्यदातिं यजत्रा वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥१०॥ हे स्तुत्य मरुद्गणो ! आप हमें पापों से विमुक्त करें और ऐश्वर्ययुक्त स्थान की ओर ले चले। हे यजनीय, मरुतो! हमारे द्वारा प्रदत्त हव्यादि पदार्थ को ग्रहण करें, जिससे हम विविध ऐश्वर्यों के स्वामी हों ॥१०॥

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