Shandilyopanishad Chapter 1 Part 3 (शाण्डिल्योपानिषद प्रथम अध्याय–तृतीय खण्ड)

प्रथमाध्याये-तृतीयः खण्डः प्रथम अध्याय–तृतीय खण्ड स्वस्तिकगोमुखपद्मवीरसिंहभद्रमुक्तमयूराख्यान्यासनान्यष्टौ । स्वस्तिकं नाम जानूर्वोरन्तरे सम्यकृत्वा पादतले उभे । ऋजुकायः समासीनः स्वस्तिकं तत्प्रचक्षते ॥१॥ स्वस्तिक, गोमुख, पद्म, वीर, सिंह, भद्र, मुक्त तथा मयूर नाम वाले यह आठ प्रकार के आसन कहे गये हैं-स्वस्तिक आसन में पैर के दोनों तलवों को दोनों जानुओं अर्थात घुटनों के बीच में बराबर रखकर सीधा तनकर बैठने कि इस क्रिया को ही स्वस्तिकासन कहा जाता है ॥१॥ सव्ये दक्षिणगुल्फ तु पृष्ठपार्श्वे नियोजयेत् । दक्षिणेऽपि तथा सव्यं गोमुखं गोमुखं यथा ॥२॥ पीठ के बायीं ओर दाहिना गुल्फ अर्थात टखना एवं दायीं तरफ बायाँ गुल्फ जोड़कर गोमुख के सदृश बैठना ही गोमुखासन है ॥२॥ अङ्‌गुष्ठेन निबनीयाद्धस्ताभ्यां व्युत्क्रमेण च। ऊवारुपरि शाण्डिल्य कृत्वा पादतले उभे। पद्मासनं भवेदेतत्सर्वेषामपि पूजितम् ॥३॥ हे शाण्डिल्य! दोनों जंघाओं के ऊपर दोनों पैरों के तलवों को रखकर दोनों हाथों से दोनों पैरों के अंगूठों को उल्टी रीति से पकड़कर रखना ही सर्वमान्य पद्मासन कहलाता है॥३॥ एकं पादमथैकस्मिन्विन्यस्योरुणि संस्थितः । इतरस्मिंस्तथा चोरुं वीरासनमुदीरितम् ॥४॥ एक जाँघ को एक पैर से तथा दूसरी जाँघ को दूसरे पैर से जोड़कर बैठने को वीरासन कहते हैं ॥४॥ दक्षिणं सव्यगुल्फेन दक्षिणेन तथेतरम्। हस्तौ च जान्वोः संस्थाप्य स्वाङ्गलीश्च प्रसार्य च ॥५॥ व्यात्तवक्त्रो निरीक्षेत नासाग्रं सुसमाहितः। सिंहासनं भवेदेतत्पूजितं योगिभिः सदा ॥६॥ दाहिने टखने के साथ बायाँ टखना तथा बायें टखने के साथ दायें टखने को लगाकर बैठ जाना और दोनों हाथों को दोनों जानुओं (घुटनों) पर रखकर अंगुलियों को फैलाकर रखना चाहिए। तत्पश्चात् ठीक तरह से एकाग्र होकर मुँह फैलाकर घ्राणेन्द्रिय के अग्रभाग पर दृष्टि स्थिर करनी चाहिए। इसको ही सिंहासन कहते हैं और योगीजन सदैव इस आसन की प्रशंसा करते हैं ॥५-६॥ योनि वामेन संपीड्य मेदादुपरि दक्षिणम्। भ्रूमध्ये च मनोलक्ष्यं सिद्धासनमिदं भवेत् ॥७॥ गुदा क्षेत्र को बायें पैर से दबाकर दायें पैर को लिंग के ऊपर स्थिर करना; तत्पश्चात् भौंहों के बीच में लक्ष्य स्थिर करना ही सिद्धासन कहा जाता है॥७॥ गुल्फौ तु वृषणस्याधः सीवन्याः पार्श्वयोः क्षिपेत् । पादपार्श्वे तु पाणिभ्यां दृढं बद्धा सुनिश्चलम्। भद्रासनं भवेदेतत्सर्वव्याधिविषापहम् ॥८॥ लिंग के नीचे की ओर सीवनी प्रदेश में दोनों टखनों को स्थिर करने तथा हाथों से पैरों के दोनों पार्थों को मजबूती से पकड़कर निश्चलतापूर्वक बैठना ही भद्रासन कहलाता है, जो सभी तरह के रोग एवं विष आदि को विनष्ट करने वाला है॥८॥ संपीड्य सीविनी सूक्ष्मां गुल्फेनैव तु सव्यतः। सव्यं दक्षिणगुल्फेन मुक्तासनमुदीरितम् ॥९॥ सूक्ष्म सीवनी प्रदेश को बायें टखने के द्वारा दबा करके दाहिने गुल्फ से बायें टखने को दबा करके बैठना ही मुक्तासन कहलाता है ॥९॥ अवष्टभ्य धरां सम्यक्तलाभ्यां तुकरद्वयोः । हस्तयोः कूर्परौ चापि स्थापयेन्नाभिपार्श्वयोः ॥१०॥ समुन्नतशिरः पादो दण्डवढ्योनि संस्थितः । मयूरासनमेतत्तु सर्वपापप्रणाशनम् ॥११॥ दोनों हाथ की हथेलियों को भूमि से सटाकर स्थिर करना और हाथ की कोहनियों से नाभि के दोनों ओर दबा करके बैठना चाहिए। तदनन्तर मस्तक और पैरों को ऊर्ध्व की ओर उठाकर लकड़ी की तरह से आकाश में अधर स्थिर रखना ही मयूरासन कहलाता है। यह आसन सभी तरह के पापों का विनाश करने वाला है। शरीरान्तर्गताः सर्वे रोगा विनश्यन्ति। विषाणि जीर्यन्ते ॥१२॥ इन आसनों के करने से शरीर के अन्दर विद्यमान रहने वाले सभी तरह के रोग विनष्ट हो जाते हैं तथा सभी प्रकार के विष स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं ॥१२॥ येन केनासनेन सुखधारणं भवत्यशक्तस्तत्समाचरेत् ॥१३॥ जो मनुष्य अशक्त हो, उसे जिस किसी आसन से सुख मिले, वही आसन करना चाहिए ॥१३॥ येनासनं विजितं जगत्त्रयं तेन विजितं भवति ॥१४॥ जिसने इन सभी आसनों को जीत लिया है, उसने तीनों लोक जीत लिये हैं, ऐसा समझना चाहिए ॥१४॥ यमनियमासनाभ्यासयुक्तः पुरुषः प्राणायाम चरेत्। तेन नाड्यः शुद्धा भवन्ति ॥१५॥ यम, नियम एवं आसन से पूर्णरूपेण सम्पन्न होने के पश्चात् मनुष्य को प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। इसके अभ्यास से नाड़ियों की शुद्धि हो जाती है ॥ १५॥॥।

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