ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त २७

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त २७ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - श्येन, ५ इन्द्रो। छंद त्रिष्टुप, ५ शक्करी गर्भ नु सन्नन्वेषामवेदमहं देवानां जनिमानि विश्वा । शतं मा पुर आयसीररक्षन्नध श्येनो जवसा निरदीयम् ॥१॥ (तत्वज्ञानी ऋषि वामदेव का कथन) गर्भ (समाधि अवस्था में रहकर ही मैंने इन्द्रादि सम्पूर्ण देवताओं के जन्मों को भली-भाँति जान लिया था। सैकड़ों लोहे की पुरियों ने गर्भावस्था में मेरी सुरक्षा की थी। उसके बाद मैं श्येन पक्षी के समान वेग के साथ बाहर निकल आया था ॥१॥ न घा स मामप जोषं जभाराभीमास त्वक्षसा वीर्येण । ईर्मा पुरंधिरजहादरातीरुत वाताँ अतरच्छूशुवानः ॥२॥ उस अवस्था में मुझे मोह आदि दोष प्रभावित नहीं कर पाये। मैंने ही अपने तीक्ष्ण बल (ज्ञान) से उन दुःखों को आवृत कर लिया। सबको प्रेरणा देने वाले परमात्मा ने गर्भस्थ रिपुओं का संहार किया था तथा बढ़कर गर्भ में विद्यमान वायु के सदृश वेग वाले रिपुओं का विनाश किया था ॥२॥ अव यच्छ्येनो अस्वनीदध द्योर्वि यद्यदि वात ऊहुः पुरंधिम् । सृजद्यदस्मा अव ह क्षिपज्ज्यां कृशानुरस्ता मनसा भुरण्यन् ॥३॥ सोम हरण करते समय जब श्येन पक्षी ने द्युलोक से गर्जना की, तब सोमपालों ने बुद्धिवर्धक सोमरस को छीनने का प्रयत्न किया। उसके बाद मन के वेग से गमन करने वाले सोमरक्षक कृशानु ने प्रत्यञ्चा चढ़ाई तथा श्येन पक्षी पर बाण छोड़ा ॥३॥ ऋजिप्य ईमिन्द्रावतो न भुज्युं श्येनो जभार बृहतो अधि ष्णोः । अन्तः पतत्पतत्र्यस्य पर्णमध यामनि प्रसितस्य तद्वेः ॥४॥ जिस प्रकार अश्विनीकुमारों ने बलवान् इन्द्रदेव के द्वारा संरक्षित स्थान से 'भुज्यु' को अपहृत किया था, उसी प्रकार सरल मार्ग से गमन करने वाले श्येन पक्षी ने इन्द्रदेव द्वारा संरक्षित द्युलोक से सोम का अपहरण किया था। उस समय संग्राम में 'कृशानु' के आयुधों से घायल होकर उस पक्षी का एक पतनशील पंख गिर गया था ॥४॥ अध श्वेतं कलशं गोभिरक्तमापिप्यानं मघवा शुक्रमन्धः । अध्वर्युभिः प्रयतं मध्वो अग्रमिन्द्रो मदाय प्रति धत्पिबध्यै शूरो मदाय प्रति धत्पिबध्यै ॥५॥ पवित्र कलश में रखे हुए, गो-दुग्ध मिश्रित, तेजोयुक्त, तुष्टिदायक, मीठे रसों में सर्वश्रेष्ठ, अन्नरूप सोमरस को अध्वर्युओं के द्वारा प्रदान किये जाने पर, आनन्द प्राप्त करने के लिए धनवान् इन्द्रदेव पान करें तथा उसकी सुरक्षा करें ॥५॥

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