ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त २३

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त २३ ऋषि - देवश्रवा देववातश्च भारतौ देवता - अग्निः । छंद - त्रिष्टुप, ३ सतोवृहती निर्मथितः सुधित आ सधस्थे युवा कविरध्वरस्य प्रणेता । जूर्यत्स्वग्निरजरो वनेष्वत्रा दधे अमृतं जातवेदाः ॥१॥ मंथन द्वारा प्रकट यजमान के घर स्थापित वे अग्निदेव सर्वदा युवा, यज्ञ के प्रणेता, मेधावान् और सर्वज्ञ हैं। वे महान् वन-क्षेत्र को जलाने पर भी स्वयं अजर हैं। वे अग्निदेव ही यज्ञ में अमृत को धारण करने वाले हैं ॥१॥ अमन्थिष्टां भारता रेवदग्निं देवश्रवा देववातः सुदक्षम् । अग्ने वि पश्य बृहताभि रायेषां नो नेता भवतादनु यून् ॥२॥ भरत के पुत्र देवश्रवा और देववात, इन दोनों ने उत्तम सामर्थ्यशाली और विपुल धन-संयुक्त अग्नि को मन्थन द्वारा उत्पन्न किया है। हे अग्निदेव ! आप हमारी ओर कृपा दृष्टि कर, हमें प्रभूत धन एवं प्रतिदिन विपुल अन्नादि प्राप्त कराने वाले हों ॥२॥ दश क्षिपः पूर्व्य सीमजीजनन्त्सुजातं मातृषु प्रियम् । अग्निं स्तुहि दैववातं देवश्रवो यो जनानामसद्वशी ॥३॥ दस अँगुलियों ने (मन्थन द्वारा चिर पुरातन उस अग्नि को उत्पन्न किया । हे देवश्रवा ! अरणि रूप माताओं द्वारा उत्तम प्रकार से प्रकट होने वाले, देववात द्वारा मथित, सबके प्रिय इन अग्निदेव की स्तुति करें । वे स्तोताजनों के वशीभूत होते हैं॥३॥ नि त्वा दधे वर आ पृथिव्या इळायास्पदे सुदिनत्वे अह्नाम् । दृषद्वत्यां मानुष आपयायां सरस्वत्यां रेवदग्ने दिदीहि ॥४॥ हे अग्निदेव ! हम इळा रूपिणी (अन्नवती) पृथ्वी के उत्कृष्ट स्थान में, उत्तम दिन के श्रेष्ठतम समय में, आपको विशेष रूप से स्थापित करते हैं। आप दृषद्वती (राजपूताना क्षेत्र में प्रवाहित घग्घर नदी), आपया (कुरुक्षेत्र में स्थित नदी) और सरस्वती के तटों पर रहने वाले मनुष्यों के गृह में धन से युक्त होकर दीप्तिमान् हों॥४॥ इळामग्ने पुरुदंसं सनिं गोः शश्वत्तमं हवमानाय साध । स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुमतिर्भूत्वस्मे ॥५॥ हे अग्निदेव ! हमें स्तोताओं के निमित्त शाश्वत, श्रेष्ठ, अनेक कार्यों के लिए उपयोगी और गौओं को पुष्टि प्रदान करने वाली भूमि प्रदान करें । हे अग्निदेव ! हमारे पुत्र-पौत्र वंश विस्तार में सक्षम हों। हमें आपकी उत्तम बुद्धि की अनुकूलता का अनुग्रह प्राप्त हो ॥५॥

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