ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ५४

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ५४ ऋषिः श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः । छंद - जगती, १४ त्रिष्टुप प्र शर्धाय मारुताय स्वभानव इमां वाचमनजा पर्वतच्युते । घर्मस्तुभे दिव आ पृष्ठयज्वने द्युम्नश्रवसे महि नृम्णमर्चत ॥१॥ हे यजमानो ! इन स्वयंप्रकाशित, पर्वतों को कैंपा देने वाले मरुतों के बल की प्रशंसा के लिए प्रयुक्त अपनी वाणी (स्तोत्र) को सुशोभित करे । इन अतिशय तेजसम्पन्न, सूर्यरूप, दीप्तिमान् यश वाले मरुतों की, याजक प्रभूत हविष्यान्न प्रदान कर अर्चना करें ॥१॥ प्र वो मरुतस्तविषा उदन्यवो वयोवृधो अश्वयुजः परिज्रयः । सं विद्युता दधति वाशति त्रितः स्वरन्त्यापोऽवना परिज्रयः ॥२॥ हे मरुतो ! आपके गण बलशाली, संसार के पोषणरूप जल देने वाले, अन्न बढ़ाने वाले, अश्वों को रथ में जोड़ने वाले और चतुर्दिक् गमनशील हैं। जब आप विद्युत् के साथ सम्मिलित होते हैं, तो तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं और गर्जना करते हुए पृथ्वी पर चतुर्दिक् गमनशील जलराशि बरसाते हैं ॥२॥ विद्युन्महसो नरो अश्मदिद्यवो वातत्विषो मरुतः पर्वतच्युतः । अब्दया चिन्मुहुरा ह्रादुनीवृतः स्तनयदमा रभसा उदोजसः ॥३॥ विद्युत् के सदृश तेजसम्पन्न, नेतृत्वकर्ता, आयुधयुक्त, द्युतिमान्, वेगवान् पर्वतों के प्रकंपक, वज्र-प्रक्षेपक, गर्जनशक्ति से युक्त तथा उग्र बल वाले मरुद्गण बारम्बार जल प्रदान करने के लिए आविर्भूत होते हैं ॥३॥ व्यक्तूत्रुद्रा व्यहानि शिक्वसो व्यन्तरिक्षं वि रजांसि धूतयः । वि यदज्राँ अजथ नाव ईं यथा वि दुर्गाणि मरुतो नाह रिष्यथ ॥४॥ हे समर्थ, रुद्र पुत्र मरुतो! आप रात्रि और दिन सतत परिभ्रमण करें । अन्तरिक्ष के सब लोकों में गमन करें। नौकाएँ जैसे नदियों में गमन करती हैं, वैसे आप विभिन्न प्रदेशों में गमन करें। हे शत्रुओं को कैंपाने वाले मरुतो ! हमारी हिंसा न करें ॥४॥ तद्वीर्यं वो मरुतो महित्वनं दीर्घ ततान सूर्यो न योजनम् । एता न यामे अगृभीतशोचिषोऽनश्वदां यन्त्र्ययातना गिरिम् ॥५॥ हे मरुतो ! सूर्यदेव जिस प्रकार अपनी दीप्ति को बहुत दूर तक विस्तारित करते हैं । अश्व जिस प्रकार पर्वतों पर भी दूर तक विस्तारित होते हैं, उसी प्रकार आपकी महत्ता और शक्ति को स्तोतागण दूर तक विस्तारित करते हैं ॥५॥ अभ्राजि शर्धो मरुतो यदर्णसं मोषथा वृक्षं कपनेव वेधसः । अध स्मा नो अरमतिं सजोषसश्चक्षुरिव यन्तमनु नेषथा सुगम् ॥६॥ हे विधातारूप मरुतो ! आपका बल प्रखरता को प्राप्त हुआ है। भयंकर आँधी के समान आप वृक्षों को मरोड़ कर गिरा देते हैं। हे प्रसन्नचेता मरुतो ! आँख जैसे राहीं का पथ-प्रदर्शन करती है, वैसे आप हमारे मार्ग प्रदर्शक रूप में अनुकूल पथ से हमें चलाएँ ॥६॥ न स जीयते मरुतो न हन्यते न सेधति न व्यथते न रिष्यति । नास्य राय उप दस्यन्ति नोतय ऋषिं वा यं राजानं वा सुषूदथ ॥७॥ हे मरुद्गणो ! आप जिसे ऋषि या राजा को सत्कार्य में प्रेरित करते हैं, वह किसी से पराजित नहीं होता, वह न हिसित होता है, न क्षीण होता है, न व्यथित होता है और न बाधित होता है। उसके ऐश्वर्य और संरक्षण सामर्थ्य कभी नष्ट नहीं होते ॥७॥ नियुत्वन्तो ग्रामजितो यथा नरोऽर्यमणो न मरुतः कबन्धिनः । पिन्वन्त्युत्सं यदिनासो अस्वरन्व्युन्दन्ति पृथिवीं मध्वो अन्धसा ॥८॥ नियुक्त संज्ञक अश्वों से युक्त, ग्राम विजेता, नेतृत्वकर्ता, जल धारक, मरुद्गण जब अर्यमा के समान वेग से गमन करते हैं, तो शब्दवान होते हैं। वे वृष्टि आदि से जल प्रवाहों को परिपूर्ण करते हैं और भूमि पर मधुर अन्नों को प्रवृद्ध करते हैं ॥८॥ प्रवत्वतीयं पृथिवी मरुद्भयः प्रवत्वती द्यौर्भवति प्रयद्भयः । प्रवत्वतीः पथ्या अन्तरिक्ष्याः प्रवत्वन्तः पर्वता जीरदानवः ॥९॥ यह भूमि मरुद्गणों के लिए विस्तीर्ण पथ वाली हैं। द्युलोक भी वेगपूर्वक गमनशील मरुतों के लिए विस्तीर्ण पथ बनाते हैं। अन्तरिक्ष के सम्पूर्ण पथ भी मरुद्गणों के लिए विस्तृत होते हैं। मेघ भी मरुतों के लिए विस्तृत होकर शीघ वर्षा करने वाले होते हैं ॥९॥ यन्मरुतः सभरसः स्वर्णरः सूर्य उदिते मदथा दिवो नरः । न वोऽश्वाः श्रथयन्ताह सिस्रतः सद्यो अस्याध्वनः पारमश्नुथ ॥१०॥ हे मरुद्गणो ! आप, समान भारवाहक और द्युलोक के नियामक हैं । हे तेजस्वी नेतृत्वकर्ता मरुतो! आप सूर्यदेव के उदित होने पर अत्यन्त हर्षित होते हैं। सतत गमनशील आपके ये अश्व शिथिल नहीं होते, आप तीनों लोकों के सभी मार्गों को पार कर जाते हैं ॥१०॥ अंसेषु व ऋष्टयः पत्सु खादयो वक्षःसु रुक्मा मरुतो रथे शुभः । अग्निभ्राजसो विद्युतो गभस्त्योः शिप्राः शीर्षसु वितता हिरण्ययीः ॥११॥ हे रथों में शोभायमान मरुतो! आप कन्धों पर आयुध, पैरों में कड़े (कटक), वक्षस्थल पर रमणीक हार, भुजाओं पर अग्नि सदृश प्रकाशमान वज्र और शीर्ष पर स्वर्णिम शिरस्त्राण धारण किये हुए हैं ॥११॥ तं नाकमर्यो अगृभीतशोचिषं रुशत्पिप्पलं मरुतो वि धूनुथ । समच्यन्त वृजनातित्विषन्त यत्स्वरन्ति घोषं विततमृतायवः ॥१२॥ हे पूजनीय मरुद्गणो ! गमन करते हुए आप उस दीप्तिमान् अबाधित आकाश को और तेजस्वी जल को प्रकम्पित करते हैं। आप अपने बलों को संगठित कर अति तेजस्विता से युक्त हों। आप जलवर्षण की इच्छा करने हुए भयंकर गर्जना द्वारा वृष्टि का उद्घोष करते हैं ॥१२॥ युष्मादत्तस्य मरुतो विचेतसो रायः स्याम रथ्यो वयस्वतः । न यो युच्छति तिष्यो यथा दिवोऽस्मे रारन्त मरुतः सहस्रिणम् ॥१३॥ हे विशिष्ट ज्ञानी मरुतो ! हम आपके द्वारा प्रदत्त अन्नों से युक्त हों, हम रथों एवं ऐश्वर्य के स्वामी हों। हे मरुतो! हमें आकाश में वर्तमान नक्षत्रों के सदृश नष्ट न होने वाले सहस्रों धनों से हर्षित करें ॥१३॥ यूयं रयिं मरुतः स्पार्हवीरं यूयमृषिमवथ सामविप्रम् । यूयमर्वन्तं भरताय वाजं यूयं धत्थ राजानं श्रुष्टिमन्तम् ॥१४॥ हे मरुद्गणो ! आप हमें स्पृहणीय धन और पुत्रादि प्रदान करें। आप सामगान करने वाले विप्र का रक्षण करते हैं। आप प्रजा का भरण- पोषण करने वाले राजा को अश्व, अन्न और ऐश्वर्य से उसे भली प्रकार पुष्ट करते हैं ॥१४॥ तद्वो यामि द्रविणं सद्यऊतयो येना स्वर्ण ततनाम नूँरभि । इदं सु मे मरुतो हर्यता वचो यस्य तरेम तरसा शर्त हिमाः ॥१५॥ हे शीघ्र रक्षणशील मरुतो ! हम आपके उस धन-ऐश्वर्य की याचना करते हैं, जिसे हम सूर्य-रश्मियों के समान वितरित करें। हे मरुतो ! हमारे इन उत्तम स्तोत्रों को ग्रहण करें, जिसके बल से हम सौ वर्ष के पूर्ण जीवन का उपयोग करें ॥१५॥

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