ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ३१

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ३१ ऋषि - कुशिक ऐषीरथिः गाथिनों विश्वामित्रः । देवता - इन्द्रः । छंद - त्रिष्टुप शासद्वह्निर्दुहितुर्नप्त्यं गाद्विद्वाँ ऋतस्य दीधितिं सपर्यन् । पिता यत्र दुहितुः सेकमृञ्जन्त्सं शग्म्येन मनसा दधन्वे ॥१॥ विद्वान् पुत्रहीन पिता (वह्नि), सामर्थ्यवान् जामाता का सत्कार करते हुए अपनी पुत्री के पुत्र को, पुत्र रूप में अपना लेता है जब पिता अपनी पुत्री को विवाह योग्य बना देता है, तब मन अत्यन्त सुख को अनुभव करता है॥१॥ न जामये तान्वो रिक्थमारैक्वकार गर्भ सनितुर्निधानम् । यदी मातरो जनयन्त वह्निमन्यः कर्ता सुकृतोरन्य ऋन्धन् ॥२॥ भाई अपनी बहिन को पैतृक धन का भाग नहीं देता, अपितु उसको पति के लिए नव निर्माण करने में सक्षम बनाता है। माता-पिता पुत्र और पुत्री को उत्पन्न करते हैं, तो उनमें से एक (पुत्र) सर्वोत्कृष्ट पैतृक कर्म सम्पन्न करता है और अन्य (पुत्री) सम्मान युक्त शोभा को धारण करती है॥२॥ अग्निर्जज्ञे जुह्वा रेजमानो महस्पुत्राँ अरुषस्य प्रयक्षे । महान्नगर्भो मह्या जातमेषां मही प्रवृद्धर्यश्वस्य यज्ञैः ॥३॥ महान् तेजस्वी हे इन्द्रदेव! आपके यज्ञ के लिए ज्वालाओं से कम्पायमान अग्निदेव ने अनेकों पुत्रों (रश्मियों) को उत्पन्न किया है। इन रश्मियों का महान् गर्भ जलरूप है। ओषधि रूपी उत्पत्ति भी महान् है। हे इन्द्रदेव (हरि-अश्व वाहक) ! आपके यज्ञ के कारण ये रश्मियाँ महानता की ओर प्रवृत्त हुई हैं॥३॥ अभि जैत्रीरसचन्त स्पृधानं महि ज्योतिस्तमसो निरजानन् । तं जानतीः प्रत्युदायन्नुषासः पतिर्गवामभवदेक इन्द्रः ॥४॥ शत्रुओं पर हमेशा विजय प्राप्त करने वाले मरुद्गण युद्धरत इन्द्रदेव के साथ जुड़ गये। उन्होंने महान् ज्योति (सूर्य) को गहन तमिस्रा से मुक्त किया, उसे जानकर उषायें भी उदित हुई। इन सभी क्रियाओं के एक मात्र अधिपति इन्द्रदेव ही हैं॥४॥ वीळौ सतीरभि धीरा अतृन्दन्प्राचाहिन्वन्मनसा सप्त विप्राः । विश्वामविन्दन्यथ्यामृतस्य प्रजानन्नित्ता नमसा विवेश ॥५॥ बुद्धिमान् और मेधावी सात ऋषियों ने सुदृढ़ पर्वत (विशाल आकार) द्वारा रोकी गई गौओं (रश्मि पुञ्ज) को देखा । ऊर्ध्वगामी श्रेष्ठ चिन्तनरत निर्मल मन से उन्होंने यज्ञ के मार्ग का अनुगमन करते हुए, उस रश्मि पुञ्ज को प्राप्त किया। अषियों के इन समस्त कर्मों के द्रष्टा इन्द्रदेव स्तोत्रों के साथ यज्ञ में प्रविष्ट हुए ॥५॥ विदद्यदी सरमा रुग्णमद्रेर्महि पाथः पूर्वं सध्यक्कः । अग्रं नयत्सुपद्यक्षराणामच्छा रवं प्रथमा जानती गात् ॥६॥ सरमा ने पर्वतकाय वृत्र (अन्धकार) के भग्न स्थल को जान लिया, तब इन्द्रदेव ने एक सीधा और विस्तृत पथ विनिर्मित किया । उत्तम पैरों वाली सरमा इन्द्रदेव को उस पथ पर आगे ले गई। पर्वत में असुर द्वारा छिपाई गई गौओं (प्रकाश किरणों) के शब्द को सर्वप्रथम सुनकर सरमा ने इन्द्रदेव के साथ उनको प्राप्त किया ॥६॥ अगच्छदु विप्रतमः सखीयन्नसूदयत्सुकृते गर्भमद्रिः । ससान मर्यो युवभिर्मखस्यन्नथाभवदङ्गिराः सद्यो अर्चन् ॥७॥ श्रेष्ठतम ज्ञानी और उत्तम कर्मा इन्द्रदेव अंगिराओं की मित्रता की इच्छा से पर्वत के समीप पहुँचे। पर्वताकार असुर ने अपने गर्भ में छिपी गौओं (किरणों) को प्रकट किया। इन्द्रदेव ने मरुतों की सहायता से युद्ध करके शत्रुओं को मारते हुए गौओं (किरणों) को प्राप्त किया । तदनन्तर अंगिराओं ने इन्द्रदेव की शीघ्र ही अर्चना प्रारम्भ की ॥७॥ सतःसतः प्रतिमानं पुरोभूर्विश्वा वेद जनिमा हन्ति शुष्णम् । प्र णो दिवः पदवीर्गव्युरर्चन्त्सखा सखर्खीरमुञ्चन्निरवद्यात् ॥८॥ शुष्णासुर का वध करने वाले, युद्धों में अग्रणी रहकर सेना का नेतृत्व करने वाले इन्द्रदेव, उत्पन्न होने वाले समस्त पदार्थों को जानते हुए उनका प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे सन्मार्गगामी और गो द्रव्य अभिलाषी इन्द्रदेव मित्ररूप पूजनीय होकर द्युलोक से हम मित्रों को पाप से छुड़ायें ॥८ ॥ नि गव्यता मनसा सेदुरर्कैः कृण्वानासो अमृतत्वाय गातुम् । इदं चिन्नु सदनं भूर्येषां येन मासाँ असिषासन्नृतेन ॥९॥ अंगिरावंशी ऋषिगण ज्ञान प्राप्ति की अभिलाषा करते हुए यज्ञ में प्रवृत्त हुए। उन्होंने यज्ञ में बैठकर स्तोत्रों से अमरता प्राप्त करने के लिए उपाय किया। यह यज्ञ उनको वह विस्तृत स्थान है, जिसके माध्यम से उन्होंने महीनों का विभाजन किया ॥९॥ सम्पश्यमाना अमदन्नभि स्वं पयः प्रत्नस्य रेतसो दुघानाः । वि रोदसी अतपद्घोष एषां जाते निष्ठामदधुर्गोषु वीरान् ॥१०॥ अंगिरा ऋषि अपनी गौओं को सम्मुख देखकर पूर्व की तरह उनसे वीर्यवर्द्धक दूध दुहते हुए हर्षित हुए थे। उनका हर्षयुक्त उद्घोष आकाश और पृथ्वी में व्याप्त हुआ। उन्होंने गौओं की उत्पत्ति को भी निष्ठापूर्वक धारण किया और गौओं की रक्षा के लिए वीर पुरुषों को नियुक्त किया ॥१०॥ स जातेभिर्वृत्रहा सेदु हव्यैरुदुस्रिया असृजदिन्द्रो अर्कैः । उरूच्यस्मै घृतवद्भरन्ती मधु स्वाद्म दुदुहे जेन्या गौः ॥११॥ इन्द्रदेव ने मरुतों की सहायता द्वारा वृत्र का वध किया। वे पूजनीय और हव्य योग्य हैं। उन्होंने जल-प्रवाह उत्पन्न किया । घृत-दुग्ध धारण-कत्रीं, अतिशय पूज्य और प्रशंसनीय गाय ने उन इन्द्रदेव के लिए मधुर और स्वादिष्ट दूध उपलब्ध कराया ॥११॥ पित्रे चिच्चकुः सदनं समस्मै महि त्विषीमत्सुकृतो वि हि ख्यन् । विष्कभ्नन्तः स्कम्भनेना जनित्री आसीना ऊर्ध्वं रभसं वि मिन्वन् ॥१२॥ अंगिराओं ने सर्वपालक इन्द्रदेव के लिए महान् दीप्तिमान् स्थान को संस्कारित किया, वहाँ वे स्तुति करने लगे। उत्तम कर्मशील अंगिराओं ने यज्ञ में आसीन होकर सबको उत्पन्न करने वाली द्यावा-पृथिवी के मध्य स्तम्भ रूप अन्तरिक्ष को थामकर वेगवान् इन्द्रदेव को द्युलोक में संस्थापित किया ॥१२॥ मही यदि धिषणा शिश्नथे धात्सद्योवृधं विभ्वं रोदस्योः । गिरो यस्मिन्ननवद्याः समीचीर्विश्वा इन्द्राय तविषीरनुत्ताः ॥१३॥ सबके हितों को धारण करने वाले, सतत वृद्धि करने वाले इन्द्रदेव के निमित्त श्रेष्ठ स्तोत्रों का गान किया गया। इससे द्यावा-पृथिवीं की समस्त शक्तियों पर उनका एकाधिकार हो गया ॥ १३॥ मह्या ते सख्यं वश्मि शक्तीरा वृत्रघ्ने नियुतो यन्ति पूर्वीः । महि स्तोत्रमव आगन्म सूरेरस्माकं सु मघवन्बोधि गोपाः ॥१४॥ वृत्र नामक असुर का विनाश करने वाले हे इन्द्रदेव ! हम आपकी मित्रता और महती शक्ति पाने के लिए आपसे प्रार्थना करते हैं। अनेक अश्व आपको वहन करने के लिए आते हैं। हम स्तोतागण आपके निमित्त स्तोत्र पहुँचाते हैं। हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! आष ज्ञान- रक्षक हैं। हमें दिव्य ज्ञान से प्रेरित करें ॥ १४॥ महि क्षेत्रं पुरु श्चन्द्रं विविद्वानादित्सखिभ्यश्वरथं समैरत् । इन्द्रो नृभिरजनद्दीद्यानः साकं सूर्यमुषसं गातुमग्निम् ॥१५॥ सर्वविद् इन्द्रदेव ने अपने मित्रों के लिए महान् क्षेत्र और विपुल तेजस्वी धनों का दान किया। तदनन्तर उत्तम गौओं का भी दान किया। उन दीप्तिमान् इन्द्र देव ने मरुतों के साथ सूर्य, उषा एवं अग्नि को और उनके मार्ग को बनाया ॥१५॥ अपश्चिदेष विभ्वो दमूनाः प्र सध्रीचीरसृजद्विश्वश्चन्द्राः । मध्वः पुनानाः कविभिः पवित्रैर्युभिर्हिन्वन्त्यक्तुभिर्धनुत्रीः ॥१६॥ शत्रुदमनशील इन्द्रदेव ने परस्पर संगठित होकर बहने वाले एवं सबको आनन्दित करने वाले जल को उत्पन्न किया। वे अन्न उत्पादक जल प्रवाह, अग्नि, सूर्य एवं वायु के द्वारा शोधित-पवित्र होकर मधुर सोमरसों को दिन-रात प्रेरित करते रहते हैं॥१६॥ अनु कृष्णे वसुधिती जिहाते उभे सूर्यस्य मंहना यजत्रे । परि यत्ते महिमानं वृजध्यै सखाय इन्द्र काम्या ऋजिप्याः ॥१७॥ हे इन्द्रदेव ! जिस प्रकार सूर्यशक्ति के द्वारा अपार वैभव से सम्पन्न महिमामण्डित दिन और रात्रि एक दूसरे का अनुगमन करते हुए निरन्तर गतिशील हैं, उसी प्रकार सुगम मार्गों से निरन्तर प्रवाहित होने वाले मित्र और मरुद्देव शत्रुओं का विनाश करने का सम्पूर्ण बल आपसे ही प्राप्त करते हैं॥१७॥ पतिर्भव वृत्रहन्त्सूनृतानां गिरां विश्वायुर्वृषभो वयोधाः । े आ नो गहि सख्येभिः शिवेभिर्महान्महीभिरूतिभिः सरण्यन् ॥१८॥ हे वृत्रहन्ता इन्द्रदेव ! आप अविनाशी, अभीष्टवर्धक और अन्न-प्रदाता हैं। हमारे द्वारा प्रेमपूर्वक की गई स्तुतियों को स्वीकार करें। आप यज्ञ में जाने के अभिलाषी और महान् हैं। अपनी महती और कल्याणकारी रक्षण-सामथ्र्यों से युक्त होकर मैत्री भाव सहित हम सब पर अनुग्रह करें ॥१८॥ तमङ्गिरस्वन्नमसा सपर्यन्नव्यं कृणोमि सन्यसे पुराजाम् । द्रुहो वि याहि बहुला अदेवीः स्वश्च नो मघवन्त्सातये धाः ॥१९॥ पुरातन दिव्यपुरुष हे इन्द्रदेव! हम नमन-अभिवादन सहित आपकी पूजा करते हैं। आपके निमित्त हम नवीन स्तोत्रों को सम्पादित करते हैं। हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव! दैवीय गुणरहित द्रोहियों को हमसे दूर करें और हमारे उपयोग के लिए धनादि प्रदान करें ॥१९॥ मिहः पावकाः प्रतता अभूवन्स्वस्ति नः पिपृहि पारमासाम् । इन्द्र त्वं रथिरः पाहि नो रिषो मधूमधू कृणुहि गोजितो नः ॥२०॥ हे इन्द्रदेव ! पवित्र वर्षणशील (सिंचनकारी) जल चारों ओर फैला है । हमारे कल्याण के लिए जलाशयों के किनारों को जल से पूर्ण करें । तीव्रगामी रथ से युक्त हे देव ! हमें शत्रुओं से संघर्ष करने की सामर्थ्य तथा गौओं के रूप में अपार वैभव प्रदान करें ॥२०॥ अदेदिष्ट वृत्रहा गोपतिर्गा अन्तः कृष्णाँ अरुषैर्धामभिर्गात् । प्र सूनृता दिशमान ऋतेन दुरश्च विश्वा अवृणोदप स्वाः ॥२१॥ वृत्रहन्ती और दिव्य शक्तियों के संगठक स्वामी इन्द्रदेव, हमें सर्वोत्तम ज्ञान से अभिपूरित करें। वे हमारे आन्तरिक शत्रुओं को अपने तेजस्वी पराक्रम द्वारा विनष्ट कर दें। यज्ञ में हमारी प्रीतिकर स्तुतियों को स्वीकार करते हुए वे हमारे सम्पूर्ण दुर्गुणों को दूर करें ॥२१॥ शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ । शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम् ॥२२॥ धन-धान्य से सम्पन्न ऐश्वर्यवान् हे इन्द्रदेव! आप हमारी प्रार्थनाओं से प्रसन्न होकर युद्धों में अपना पराक्रम दिखाते हैं और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं। हम अपनी रक्षा के लिए आपको आवाहन करते हैं॥२२॥

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