ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ५९

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ५९ ऋषिः श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः । छंद - जगती, ८ त्रिष्टुप प्र वः स्पळक्रन्त्सुविताय दावनेऽर्चा दिवे प्र पृथिव्या ऋतं भरे । उक्षन्ते अश्वान्तरुषन्त आ रजोऽनु स्वं भानुं श्रथयन्ते अर्णवैः ॥१॥ हे मरुतो ! अपने कल्याण के लिए विदाता यजमान यजन कर्म प्रारम्भ कर रहा है। हे याजक! आप प्रकाशक द्युलोक की पूजा करें। हम पृथ्वी माता के लिए स्तोत्रों का गान करते हैं। ये मरुद्गण अपने अश्वों को प्रेरित करते हैं और अन्तरिक्ष में दूर तक गमन करते हैं। वे अपने तेज से मेघों को विद्युत् को विस्तारित करते हैं ॥१॥ अमादेषां भियसा भूमिरेजति नौर्न पूर्णा क्षरति व्यथिर्यती । दूरेदृशो ये चितयन्त एमभिरन्तर्महे विदथे येतिरे नरः ॥२॥ जैसे मनुष्यों से पूर्ण नौका नदी के मध्य कम्पित होकर गमन करती है, वैसे इन मरुद्गणों के बल से भयभीत पृथ्वी प्रकम्पित हो उठती है । वे मरुद्गण दूर से दृश्यमान होने पर भी अपनी गतियों से जाने जाते हैं। ये नेतृत्वकर्ता मरुद्गण अन्तरिक्ष के मध्य अधिक हव्यादि ग्रहण करने के लिए यत्न करते हैं ॥२॥ गवामिव श्रियसे शृङ्गमुत्तमं सूर्यो न चक्षू रजसो विसर्जने । अत्या इव सुभ्वश्चारवः स्थन मर्या इव श्रियसे चेतथा नरः ॥३॥ हे मरुतो ! आप गौओं के श्रृंग के सदृश शोभायमान शिरोभूषण धारण करते हैं। तमिस्रा दूर करने वाले सूर्य की रश्मियों के समान आप निज़ किरणें विकीर्ण करते हैं। आप द्रुतगामी अश्वों के सदृश वेगवान् और उत्तम आभा से युक्त होकर दर्शनीय हैं। आप भी मनुष्यों की भाँति यज्ञादि कर्मों के ज्ञाता हैं ॥३॥ को वो महान्ति महतामुदश्नवत्कस्काव्या मरुतः को ह पौंस्या । यूयं ह भूमिं किरणं न रेजथ प्र यद्भरध्वे सुविताय दावने ॥४॥ हे मरुतो ! आपकी महत्ता की समानता कौन कर सकता है? कौन आपके निमित्त स्तोत्र रचना कर सकता है ? कौन आपके समान पोषण सामर्थ्य से परिपूर्ण हुआ हैं? हे मरुतो! जब आप श्रेष्ठ हविदाता यजमान के हविष्यान्न से पूर्ण होते हैं, तब आप वृष्टिपात करके किरण के समान भूमि को प्रकम्पित करते हैं ॥४॥ अश्वा इवेदरुषासः सबन्धवः शूरा इव प्रयुधः प्रोत युयुधुः । मर्या इव सुवृधो वावृधुर्नरः सूर्यस्य चक्षुः प्र मिनन्ति वृष्टिभिः ॥५॥ ये मरुद्गण अश्वों के समान तेजस्वी हैं। ये बन्धु-बान्धवों से प्रीतिपूर्वक संयुक्त हैं। ये विशिष्ट योद्धा वीरों के समान वृष्टि आदि कार्य में प्रकृष्ट युद्ध करने वाले हैं। मनुष्यों के समान ही ये मरुद्गण भली प्रकार प्रवर्द्धमान हैं। वे वृष्टि आदि से सूर्य के तेज़ को भी क्षीण कर देते हैं ॥५॥ ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उद्भिदोऽमध्यमासो महसा वि वावृधुः । सुजातासो जनुषा पृश्निमातरो दिवो मर्या आ नो अच्छा जिगातन ॥६॥ उन मरुद्गणों में कोई ज्येष्ठ नहीं है, कोई कनिष्ठ नहीं है और न कोई मध्यम श्रेणी का है। वे सभी समान तेज से युक्त हैं। वे मेघों का भेदन करने वाले हैं। वे सुजन्मा, मातृरूप पृथ्वी के पुत्र और मानवों के हितैषी हैं। वे दीप्तिमान् मरुद्गण हमारे अभिमुख आगमन करें ॥६॥ वयो न ये श्रेणीः पप्तुरोजसान्तान्दिवो बृहतः सानुनस्परि । अश्वास एषामुभये यथा विदुः प्र पर्वतस्य नभनूँरचुच्यवुः ॥७॥ हे मरुद्गणो ! आप पंक्तिबद्ध होकर उड़ने वाले पक्षियों के समान सम्मिलित होकर बलपूर्वक आकाश की सीमाओं तक और विस्तृत पर्वत शिखरों पर परिगमन करते हैं। आपके अश्च मेघों को खण्ड- खण्ड़ करके वृष्टि पात करते हैं। आपके ये कर्म सभी देवगण और मनुष्यगण जानते हैं ॥७॥ मिमातु द्यौरदितिर्वीतये नः सं दानुचित्रा उषसो यतन्ताम् । आचुच्यवुर्दिव्यं कोशमेत ऋषे रुद्रस्य मरुतो गृणानाः ॥८॥ द्युलोक और पृथ्वी हमारे पोषण के लिए संलग्न हों। विविध दान देने वाली देवी उषा हमारे कल्याण के निमित्त यत्न करें। हे ऋषगण ! ये रुद्रपुत्र मरुद्गण आपकी स्तुतियों से प्रसन्न होकर जल की वर्षा करते हैं ॥८॥

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