ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त २२

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त २२ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र । छंद - त्रिष्टुप, यन्न इन्द्रो जुजुषे यच्च वष्टि तन्नो महान्करति शुष्या चित् । ब्रह्म स्तोमं मघवा सोममुक्था यो अश्मानं शवसा बिभ्रदेति ॥१॥ महाबलशाली इन्द्रदेव हम मनुष्यों के हविष्यान्न का सेवन करते हैं। वे अपने वज्र को धारण करते हुए शक्ति के साथ पधारते हैं। वे आहुति, स्तुति, सोमरस तथा स्तोत्रों को स्वीकार करते हैं ॥१॥ वृषा वृषन्धिं चतुरश्रिमस्यन्नुग्रो बाहुभ्यां नृतमः शचीवान् । श्रिये परुष्णीमुषमाण ऊर्णां यस्याः पर्वाणि सख्याय विव्ये ॥२॥ कामनाओं की वर्षा करने वाले इन्द्रदेव अपनी भुजाओं द्वारा वर्षणकारी चार धाराओं वाले वज्र को रिपुओं के ऊपर फेंकते हैं। वे अत्यन्त पराक्रमी, श्रेष्ठ नायक तथा कर्मवान् होकर परुष्णी नदी को परिपूर्ण करते हैं। उन्होंने 'परुष्णी' नदी के विभिन्न प्रदेशों को मित्रता के लिए आवृत किया था ॥२॥ यो देवो देवतमो जायमानो महो वाजेभिर्महद्भिश्च शुष्मैः । दधानो वज्रं बाह्वोरुशन्तं द्याममेन रेजयत्प्र भूम ॥३॥ जो ओजस्वी, महान् इन्द्रदेव पैदा होते ही विशाल अन्न तथा बृहत् बल से सम्पन्न हुए थे; वे अपनी दोनों भुजाओं में सुन्दर वज्र धारण करके अपनी शक्ति द्वारा द्युलोक तथा भूलोक को प्रकम्पित करते थे ॥३॥ विश्वा रोधांसि प्रवतश्च पूर्वीर्यौऋष्वाज्जनिमत्रेजत क्षाः । आ मातरा भरति शुष्या गोर्नृवत्परिज्मन्नोनुवन्त वाताः ॥४॥ उन महान् इन्द्रदेव के पैदा होते हीं समस्त पर्वत, जल से पूर्ण नदियाँ, धुलोक तथा पृथ्वी लोक कम्पित होने लगे। वे बलशाली इन्द्रदेव सूर्य की माताओं द्यावा-पृथिवी को धारण करते हैं। उनके द्वारा प्रेरणा पाकर वायुदेव मनुष्य के सदृश ध्वनि करते हैं ॥४॥ ता तू त इन्द्र महतो महानि विश्वेष्वित्सवनेषु प्रवाच्या । यच्छूर धृष्णो धृषता दधृष्वानहिं वज्रेण शवसाविवेषीः ॥५॥ हे शूरवीर तथा रिपुओं को दबाने वाले इन्द्रदेव! आपने समस्त भुवनों को धारण करके रिपुओं को परास्त करने वाले वज्र द्वारा शक्तिपूर्वक 'अहि' का विनाश किया था। है इन्द्रदेव! आप महिमावान् हैं और आपके कर्म भी महिमावान् हैं। आप सम्पूर्ण सवनों में प्रार्थना करने योग्य हैं ॥५॥ ता तू ते सत्या तुविनृम्ण विश्वा प्र धेनवः सिस्रते वृष्ण ऊनः । अधा ह त्वदृषमणो भियानाः प्र सिन्धवो जवसा चक्रमन्त ॥६॥ हे बलवान् इन्द्रदेव ! आपके वे समस्त कर्म निश्चित रूप से सत्य हैं। हे इन्द्रदेव! आप अभिलाषाओं की वर्षा करने वाले हैं। आपके डर से गौएँ अपने थनों से दूध टपकाती हैं। हे श्रेष्ठ मनोबल वाले इन्द्रदेव ! आपके भय से सरिताएँ वेग के साथ प्रवाहित होती हैं ॥६॥ अत्राह ते हरिवस्ता उ देवीरवोभिरिन्द्र स्तवन्त स्वसारः । यत्सीमनु प्र मुचो बद्बधाना दीर्घामनु प्रसितिं स्यन्दयध्यै ॥७॥ जब आपने वृत्र द्वारा अवरुद्ध की हुई विशाल सरिताओं को प्रवाहित होने के निमित्त मुक्त किया, तब हे अश्ववान् इन्द्रदेव ! अवरुद्ध की हुई सरिताओं ने आपके द्वारा संरक्षित होने के लिए आपकी प्रार्थना की ॥७॥ पिपीळे अंशुर्मद्यो न सिन्धुरा त्वा शमी शशमानस्य शक्तिः । अस्मद्यक्छुशुचानस्य यम्या आशुर्न रश्मिं तुव्योजसं गोः ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! आपके निमित्त, हर्षप्रदायक सोमरस पीसकर, उसमें जल मिलाकर तैयार कर दिया गया है। जिस प्रकार सारथी द्रुतगामी अश्वों की लगाम को सँभालते हैं, उसी प्रकार बलशाली सोमरस, तेजस् सम्पन्न तथा प्रार्थना के योग्य इन्द्रदेव को हमारी ओर ले आएँ ॥८॥ अस्मे वर्षिष्ठा कृणुहि ज्येष्ठा नृम्णानि सत्रा सहुरे सहांसि । अस्मभ्यं वृत्रा सुहनानि रन्धि जहि वधर्वनुषो मर्त्यस्य ॥९॥ हे सहिष्णु इन्द्रदेव ! आप हमारे निमित्त रिपुओं को पराजित करने वाला, महान् तथा प्रशंसनीय पुरुषार्थ करें। विनाश करने योग्य रिपुओं को हमारे अधीन करें तथा हिंसा करने वाले व्यक्तियों के आयुधों को विनष्ट करें ॥९॥ अस्माकमित्सु शृणुहि त्वमिन्द्रास्मभ्यं चित्राँ उप माहि वाजान् । अस्मभ्यं विश्वा इषणः पुरंधीरस्माकं सु मघवन्बोधि गोदाः ॥१०॥ हे इन्द्रदेव ! आप हम मनुष्यों की प्रार्थनाओं को सुने तथा अनेक प्रकार के अन्न प्रदान करें। आप हमारे निमित्त सम्पूर्ण ज्ञान को प्रेरित करें तथा हमें ज्ञान सम्पन्न करें। हे धनवान् इन्द्रदेव ! आप हमारे लिए गौओं को प्रदान करने वाले हों ॥१०॥ नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः । अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः ॥११॥ हे इन्द्रदेव ! आप प्राचीन ऋषियों द्वारा स्तुत होकर तथा हमारे द्वारा प्रशंसित होकर हमें नदियों के सदृश अन्न से परिपूर्ण करें। हे अश्ववान् इन्द्रदेव ! हम अपनी बुद्धि द्वारा आपके लिए अभिनव स्तोत्रों का गान करते हैं, जिससे हम रथों तथा दासों से सम्पन्न हों ॥११॥

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